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गोस  : पुं० [?] १. एक प्रकार का झाड़ जिसमें से गोंद निकलता है। २. तड़का। प्रभात। पुं० [फा० गोस] १. कान। २. जहाज के रुख इस प्रकार कुल टेढ़ा करना कि उसे ठीक प्रकार से हवा लगे। (लश०)
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गोसई  : स्त्री० [देश०] कपास के पौधों का एक रोग जिसके कारण उनमें फूल नहीं लगते।
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गोसठ  : स्त्री० =गोष्ठी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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गोसमावल  : पुं० =गोशमावल।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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गोसली  : स्त्री० दे० ‘गोधूलि’।
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गोसल्ल  : पुं० [अ० गुस्ल] स्नान। उदाहरण–करि गोसल्ल पवित्र होइ चिन्त्यौ रहमानम्।–चंदवरदाई।
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गोसव  : पुं० [सं० गोसू (हिंसा)+अप् (आधारे)] गोमेध-यज्ञ।
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गोसहस्री  : स्त्री० [गो-सहस्र, ष० त० +अच्-ङीष्] ज्येष्ठ और कार्तिक मासों की अमावास्याएँ।
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गोसा  : पुं० [सं० गो] उपला। कंड़ा पुं० =गोशा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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गोसाई  : पुं० [सं० गोस्वामी] १. उत्तर भारत की एक जाति जो गृहस्थ होने पर भी प्राय गेरुए वस्त्र पहनती हैं (कदाचित ऐसे त्यागियों के वंशज जो फिर गृहस्थ आश्रम में आ गये थे)। २. साधु-सन्यासियों और त्यागियों के लिए सम्बोधन। ३. जितेंद्रिय। ४. मालिक। स्वामी। ५. ईश्वर। वि० बड़ा। श्रेष्ठ।
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गोसाली  : स्त्री० [फा० गोशा] विपरीत दिशा में चलनेवाली हवा जो जहाज के मार्ग में बाधक होती हैं। (लश०)
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गोसी  : स्त्री० [देश०] समुद्र में चलनेवाली एक प्रकार की नाव जिसमें कई मस्तूल होते हैं।
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गोसी-परवान  : पुं० [देश०] जहाज के मस्तूल में पाल के ऊपरी छोर को हटाने-बढ़ाने के लिए लगाया जानेवाला धातु का लंबा छड़।
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गोसैयाँ  : पुं० [सं० गोस्वामी, हिं० गोसाई] १. गौओं का स्वामी। गोस्वामी। २. मालिक। स्वामी। ३. ईश्वर। प्रभु।
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गोस्तना  : स्त्री० [ब० स० टाप्] द्राक्षा। दाख। मुनक्का।
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