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ग्रंथ  : पुं० [सं० Ö√ग्रंथ् (रचना, बाँधना)+घञ्] १. गाँठ। ग्रंथि। २. किताब या पुस्तक जिसके पन्नें या पृष्ठ पहले गाँठ बाँधकर रखे जाते थे। ३. धार्मिक या साहित्यिक दृष्टि से कोई महत्त्वपूर्ण बड़ी पुस्तक। जैसे–गुरु ग्रंथ साहब। ४. गाँठ में का अर्थात् अपने पास का धन। जमा, पूँजी।
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ग्रंथ-कर्त्ता(र्त्तृ)  : पुं० [ष० त०] ग्रंथ या पुस्तक का रचयिता। लेखक।
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ग्रंथ-कार  : पुं० [ग्रंथ√कृ (करना)+अण्, उप० स०] दे० ‘ग्रंथ-कर्त्ता’।
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ग्रंथ-चुंबक  : पुं० [ष० त०] वह जो ग्रंथो या पुस्तकों को यों ही सरसरी तौर पर देख जाता हो, उसमें प्रतिपादित विषयों का अध्ययन न करता हो।
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ग्रंथ-चुंबन  : पुं० [ष० त०] ग्रंथ या पुस्तक यों ही सरसरी तौर पर देख जाना, उसमें प्रतिपादित विषय का ठीक ज्ञान प्राप्त न करना।
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ग्रंथ-माला  : स्त्री० [ष० त०] एक ही स्थान से समय-समय पर प्रकाशित होनेवाली एक ही प्रकार अथवा वर्ग की अनेक पुस्तकों की अवली या श्रृंखला।
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ग्रंथ-संधि  : स्त्री० [ष० त०] ग्रंथ का कोई विभाग। जैसे–सर्ग, परिच्छेद, अध्याय, अंक, पर्ञ्व आदि।
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ग्रंथ-साहब  : पुं० [हिं० ग्रंथ+साहब] सिक्खों का धर्म-ग्रंथ जिसमें नानक कबीर आदि गुरुओं की वाणियाँ संगृहीत हैं।
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ग्रंथन  : पुं० [सं०√Öग्रंथ+ल्युट्-अन] १. गाँठ लगाकर जो़ड़ना, बाँधना या मिलाना। २. गूँथना। ३. ग्रंथ या पुस्तक की रचना करना। ग्रंथ बनाना।
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ग्रंथना  : स०==गूथना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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ग्रंथालय  : पुं० [ग्रंथ-आलय,ष० त०] १. वह स्थान जहाँ पुस्तकें रखी जाती हों। २. वह कमरा या घर जिसमें लोगो के पढ़ने के लिए पुस्तकें रखी गई हों। पुस्तकालय।
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ग्रंथावलि (ली)  : स्त्री० [ग्रंथ-आवलि (ली) ष० त०] ग्रंथमाला।
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ग्रंथि  : स्त्री० [सं० Öग्रंथ+इन्] १. धागें, रस्सी आदि में पड़ने या डाली जानेवाली गाँठ। २. गाँठ के आकार की कोई कड़ी गोलाकार रचना या वस्तु। ३.वायु आदि के विकार कारण शरीर के किसी अंग में बननेवाली गाँठ। ४. शरीर के अंदर कोषाणुओं के योग से बनी हुई कई प्रकार की गाँठों में से हर एक। विशेष–ये ग्रंथियाँ शरीर के भिन्न-भिन्न भागों में अनेक आकार-प्रकार की होती हैं और इनमें से ऐसे तरल तत्त्व या रस निकलते हैं जो शरीर की रक्षा और वृद्धि के लिए उपयोगी होते या अनुपयोगी तत्त्वों को शरीर के बाहर निकालते हैं। जैसे–बीज ग्रंथि, लस ग्रंथि आदि (दे०) ५. कोई बाँधने वाली चीज। बंधन। ६. आध्यात्मिक या धार्मिक क्षेत्र में वे बातें जो मनुष्य को इस संसार के साथ बाँधे रहती हैं और उसे आध्यात्मिक दिशा में जाने से रोकती है। ७. कुटिलता। टेढ़ापन। ८. आलू। ९. पिपरामूल। १॰. भद्रमुस्तक। ११. ग्रंथिपर्णी। गठिवन।
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ग्रंथि-दूर्व्वा  : स्त्री० [मध्य० स०] गाडर दूब।
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ग्रंथि-पत्र  : पुं० [ब० स०] चोरक नामक गंध-द्रव्य।
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ग्रंथि-पर्ण  : पुं० [ब० स०] गठिवन का पेड़।
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ग्रंथि-फल  : पुं० [ब० स०] १. कैथ का पेड़ या फल। २. मैनफल।
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ग्रंथि-बंधन  : पुं० [ष० त०] १. गाँठ बाँधकर अथवा ऐसी ही और किसी क्रिया से दो या अधिक चीजें एक साथ करना या लगाना। २. विवाह के समय वर और कन्या के कपड़ों के पल्लों को गाँठ देकर आपस में बाँधने की क्रिया जो पारस्परिक घनिष्ठ, संबंध स्थापित करने की सूचक होती हैं। गँठ-बंधन।
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ग्रंथि-मूल  : पुं० [ब० स०] ऐसी वनस्पतियाँ जो गाँठों के रूप में होती हैं। कंद। जैसे–गाजर, मूली, शलजम आदि।
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ग्रंथि-मोचक  : पुं० [ष० त०] गिरहकट। जेब-कतरा।
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ग्रंथिक  : पुं० [सं० ग्रंथ+ठक्-इक] १. पिपरामूल। २. ग्रंथिपर्णी। गठिवन। ३. गुग्गुल। ४. करील। ५. ज्योतिषी। ६. सहदेव पाण्डव। का वह नाम जो उन्होंने अज्ञातवास के समय धारण किया था।
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ग्रंथित  : भू० कृ० [सं० ग्रंथ+इतच्] १. जिसमें गाँठ लगी हो। २. गाँठ लगाकर बाँधा हुआ। ३. गूथा हुआ।
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ग्रंथिपर्णी  : स्त्री० [सं० ग्रंथिपर्ण+ङीष्] गाडर दूब।
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ग्रंथिल  : वि० [सं० ग्रंथि+लच्] जिसमें गाँठ या गाँठे हों। गाँठदार। पुं० १. करील का वृक्ष। २. पिपरामूल। ३. अदरक। आदी। ४. विकंकत वृक्ष। ५. चौलाई का साग। ६. आलू या ऐसा ही और कोई गोल कंद। ७.चोरक नामक गंध-द्रव्य।
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ग्रंथिला  : स्त्री० [सं० ग्रन्थिल+टाप्] १. गाडर दूब। २. माला दूब। ३. भद्रमुस्तक। भद्रमोथा।
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ग्रंथीक  : पुं० [सं०=ग्रन्थिक, पृषो० सिद्धि] पिपरामूल।
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