शब्द का अर्थ
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चिर :
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वि० [सं०√चि (चयन करना)+रक्] १.जो बहुत दिनों से चला आ रहा हो या बहुत दिनों तक चलता रहे। दीर्घ काल-व्यापी। जैसे–चिरायु=अधिक काल तक बनी रहने वाली आयु।, चिरस्थायी-बहुत दिनों तक बना रहने वाला। २. दीर्घ या बहुत (समय)। पुं० देर। विलंब। क्रि० वि० बहुत दिनों तक। पुं० तीन मात्राओं का वह गण जिसका पहला वर्ण लघु हो। |
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चिर-काल :
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पुं० [कर्म० स०] [वि० चिरकालिक] दीर्घकाल। बहुत समय। जैसे–चिरकाल से ऐसा ही होता चला आ रहा है। |
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चिर-कुमार :
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वि० [च० त०] [स्त्री० चिर कुमारी] सदा कुमार अर्थात् ब्रह्मचारी बना रहनेवाला। विवाह न करनेवाला। |
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चिर-क्रिय :
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वि० [ब० स०] काम में देर लगानेवाला। दीर्घसूत्री। |
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चिर-जीवन :
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पुं० [मध्य० स०] सदा बना रहनेवाला जीवन। अमर जीवन। |
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चिर-तिक्त :
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पुं० [ब० स०] चिरायता। |
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चिर-तुषार-रेखा :
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स्त्री० [मध्य० स०] पहाड़ों आदि की ऊँचाई का वह स्तर जिसके ऊपर सदा बरफ जमा रहता है। (स्नोलाइन)। |
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चिर-निद्रा :
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स्त्री० [च० त०] मृत्यु। |
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चिर-नूतन :
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वि० [च० त०] बहुत दिनों तक या सदा नया बना रहनेवाला। |
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चिर-परिचित :
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वि० [तृ० त०] जिससे बहुत दिनों से परिचय या जान पहचान हो। |
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चिर-प्रतीक्षित :
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वि० [तृ० त०] जिसकी बहुत दिनों से प्रतीक्षा की जा रही हो। |
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चिर-प्रसिद्ध :
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वि० [तृ० त०] जो बहुत दिनों से प्रसिद्ध या मशहूर हो। |
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चिर-बिल्ब :
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पुं० [सं० चिर√बिल् (ढकना)+वन्] करंज वृक्ष। कंजा। |
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चिर-मेही(हिन्) :
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पुं० [सं० चिर√मिह् (मूत्र करना)+णिनि] गधा, जो बहुत देर तक पेशाब करता रहता है। |
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चिर-रोगी(गिन्) :
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वि० [तृ० त०] १. जो बहुत दिनों से बीमार चला आ रहा हो। २. सदा रोगी बना रहनेवाला। |
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चिर-विस्मृत :
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वि० [तृ० त०] जिसे लोग बहुत दिनों से भूल चुके हों। |
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चिर-वीर्य्य :
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पुं० [ब० स०] लाल रेडं का वृक्ष। |
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चिर-शत्रु :
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वि० [कर्म० स०] [भाव० चिर शत्रुता] १. पुराना दुश्मन। २. सदा दुश्मन या शत्रु बना रहनेवाला। |
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चिर-शांति :
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सत्री० [च० त०] १. मृत्यु। २. मुक्ति। मोक्ष। |
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चिर-संगी(गिन्) :
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वि० [कर्म० स०] बहुत दिनों का या पुराना संगी (साथी)। |
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चिर-समाधि :
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स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी समाधि जिसका कभी अंत न हो अर्थात् मृत्यु। |
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चिर-स्मरणीय :
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वि० [सं० कर्म० स०] जिसे लोग बहुत दिनों तक याद या स्मरण करते रहें। जो जल्दी भुलाया या भूला न जा सके। (पूजनीयता, महत्व आदि का सूचक)। |
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चिरई :
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स्त्री०=चिड़िया। (पूरब)। |
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चिरक :
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स्त्री० [हिं० चिरकना] बहुत जोर लगाने पर होनेवाला जरा सा पाखाना। मल-कण। |
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चिरक-ढाँस :
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स्त्री० [हिं० चिरकना+ढाँसना] १ कुकरखाँसी। ढाँसी। २. वह अवस्था जिसमें मनुष्य प्रायः कुछ न कुछ रोगी बना रहता है। ३. नित्य होता रहनेवाला या प्रायः बना रहनेवाला झगड़ा। |
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चिरकना :
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अ० [अनु०] बहुत कष्ट से और थोड़ा-थोड़ा मल-त्याग करना, (कोष्ठ-बद्धता का लक्षण)। |
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चिरकार :
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वि० [सं० चिर√कृ (करना)+अण्] हर काम में बहुत देर लगाने वाला। दीर्घ-सूत्री। |
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चिरकारिक :
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वि० [सं० चिरकारिन+कन्] =चिरकार। |
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चिरकारी(रिन्) :
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वि० [सं० चिर√कृ (करना)+णिनि] [स्त्री० चिरकारिणी] चिरकार। (दे०)। |
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चिरकालिक :
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वि० [सं० चिर-काल+ठन्-इक] १. बहुत दिनों से चला आता हुआ। पुराना। २. बहुत दिनों तक बना रहनेवाला। |
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चिरकालीन :
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वि० [सं० चिरकाल+ख-ईन] चिरकालिक। |
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चिरकीन :
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वि० [फा०] १. कोष्ठबद्धता के कारण थोड़ा-थोड़ा मल-त्याग करनेवाला। २. बहुत अधिक कुत्सित, गंदा या मैला। |
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चिरकुट :
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पुं० [हिं० चिरना+कुटना] फटा-पुराना कपड़ा। चिथड़ा। |
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चिरक्रियता :
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स्त्री० [सं० चिरक्रिय+तल्-टाप्] चिर-क्रिय होने की अवस्था या भाव। दीर्घसूत्रता। |
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चिरचना :
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अ०=चिड़चिड़ाना। |
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चिरचिटा :
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पुं० [सं० चिंचिड़ा] १. चिचड़ा। अपामार्ग। २. एक प्रकार की बहुत ऊँची या बड़ी घास जो चौपाये खाते है। |
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चिरचिरा :
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वि० चिड़चिड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० दे० ‘चिंचड़ा’। |
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चिरंजीव :
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वि० [सं० चिरम्जीव् (जीना)+अच्] १. बहुत दिनों तक जीवित रहनेवाला। २. अमर। अव्य० छोटों के लिए आशीर्वादात्मक विशेषण या संबोधन जिसका अर्थ होता है–बहुत दिनों तक जीवित रहो। पुं० १. पुत्र। बेटा। जैसे–हमारे भाई साहब के चिरंजीव आज यहाँ आनेवाले हैं। २. पुराणों के अनुसार अश्वत्थामा, कृपाचार्य, परशुराम, बलि, विभीषण, व्यास और हनुमान जो सदा जीवित रहनेवाले माने जाते हैं। ३. विष्णु। ४. कौआ। |
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चिरजीवक :
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वि० [सं० चिर√जीव् (जीना)+ण्वुल-अक] बहुत दिनों तक जीवित रहनेवाला। चिरजीवी। पुं० जीवक नामक वृक्ष। |
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चिरंजीवी(विन्) :
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वि० [सं० चिरम्√जीव्+णिनि] =चिरजीवी। |
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चिरजीवी(विन्) :
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वि० [सं० चिर√जीव्+णिनि] १. अधिक या बहुत दिनों तक जीनेवाला। दीर्घजीवी। २. सदा जीवित रहनेवाला। अमर। ३. सदा बना रहनेवाला। शाश्वत। पुं० १. विष्णु। २. मार्कडेय ऋषि। ३. कौआ। ४. जीवक वृक्ष। ५. सेमर का वृक्ष। ६. अश्वत्थामा, बलि व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और परशुराम जो चिरजीवी माने गये हैं। |
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चिरंटी :
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स्त्री० [सं० चिरम्अट् (गति)+अच्, ङीष्, पृषो० मुम्०] १. वह सयानी लड़की जो पिता के घर रहती हो। २. युवती। |
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चिरंतन :
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वि० [सं० चिरम्+टयु-अन, तुट् आगम] जो बहुत दिनों से चला आ रहा हो। पुरातन। पुराना। |
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चिरता :
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पुं०=चिलता (कवच)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिरना :
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अ० [सं० चीर्ण, हिं० चीरना] १. किसी वस्तु का किसी दूसरी धारदार वस्तु द्वारा चीरा जाना। छोटे-छोटे टुकड़ों में आरे, चाकू आदि के द्वारा विभक्त होना। २. किसी सीध में फटना या फाड़ा जाना। जैसे–चाकू से उंगली चिरना। पुं० वह औजार जिससे कोई चीज चीरी जाती हो। जैसे–कसेरों, कुम्हारों या सुनारों का चिरना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिरपाकी(किन्) :
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वि० [सं० चिर√पच् (पकना)+णिनि] १. बहुत देर में पकनेवाला। २. बहुत देर में पचनेवाला। पुं० कपित्थ । कैथ। |
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चिरपुष्प :
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पु० [ब० स०] बकुल। मौलसिरी। |
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चिरम :
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स्त्री० [सं० चर्मरी] गुंजा। घुँघची। |
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चिरमिटी :
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स्त्री० [हिं० चिरम] गुंजा। घुँघची। |
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चिरमी :
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स्त्री०=चिरमिटी। |
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चिरला :
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पुं० [देश०] एक प्रकार की छोटी झाड़ी। |
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चिरवल :
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पुं० [सं० चिरबिल्व या चिरबल्ली] एक प्रकार का पौधा जिसकी जड़ की छाल से कपड़े रंगने के लिए सुन्दर लाल रंग निकलता है। |
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चिरवाई :
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स्त्री० [स्त्री० चिरवाना] चिरवाने का काम, भाव या मजदूरी। स्त्री० [सं० चिर+वाही ?] पानी बरसने पर खेतों में होनेवाली पहली जोताई। |
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चिरवादार :
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पुं० [चिरवा?+फा० दार] [स्त्री० चिरवा दारिन] साईस। |
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चिरवाना :
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स० [हिं० चीरना का प्रे०] चीरने का काम दूसरे से कराना। |
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चिरस्थ :
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वि० [सं० चिर√स्था (ठहरना)+क] चिरस्थायी। |
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चिरस्थायी(यिन्) :
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वि० [सं० चिर√स्था+णिनि] बहुत दिनों तक बना रहनेवाला। जैसे–चिरस्थायी आदेश। |
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चिरहँटा :
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पुं०[हिं०चिड़ी+हंता] चिड़ीमार। बहेलिया। |
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चिरहुला :
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पुं० [?] [स्त्री० चिरहुली] १. चिड़ा। २. पक्षी। |
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चिराइता :
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पुं० =चिरायता। |
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चिराइन :
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स्त्री०=चिरायँध। |
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चिराई :
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स्त्री०=[हिं० चीरना] चीरने या चीरे जाने का काम, भाव या मजदूरी। |
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चिराक :
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पुं० =चिराग। |
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चिराग :
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पुं० [फा० चिराग] दीपक। दीआ। मुहावरा–चिराग का हँसना=दीये की बत्ती से फूल (अर्थात् चिनगारियाँ) झड़ना। चिराग को हाथ देना-चिराग बुझाना। चिराग गुल होना (क) दीये का बुझ जाना। (ख) रौनक या शोबा का नष्ट हो जाना। (ग) परिवार या वंश में कोई न बच रहना। चिराग ठंढा करना-दीया बुझाना। चिराग तले अँधेरा होना=ऐसा स्थान या स्थिति में खराबी या बुराई होना जहाँ साधारणयतः वह किसी प्रकार न होता या न हो सकता हो। जैसे–हाकिम के सामने रिश्वत लेना, उदार धनी के संबंधी का भूखों मरना आदि। चिराग बढ़ानाचिराग बुझाना। दीया ठंढ़ा करना। चिराग में बत्ती पड़नासंध्या हो जाने पर दीया जलाना। चिराग लेकर ढूँढ़ना-बहुत अधिक प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़ना। चिराग से चिराग जलना=एक से दूसरे का उपकार, लाभ या हित होना। चिराग से फूल झडऩा=चिराग की जली हुई बत्ती से चिनगारियाँ निकलना या गिरना। पद-चिराग जले=अँधेरा होने पर। संध्या समय। चिराग बत्ती का वक्त=संध्या का समय जब दीया जलाया जाता है। कहा०–चिराग गुल पगड़ी गायदमौका मिलते ही धन का उड़ा लिया जाना। |
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चिराग-गुल :
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पुं० [फा०] १.युद्ध आदि के समय वह संकट स्थिति जिसमें शत्रुओं के आक्रमण से लोग या तो रोशनी नहीं करते या अपने घर से रोशनी बाहर नहीं आने देते । २. युद्धाभ्यास के समय नगर में बत्तियाँ न जलाने से उत्पन्न होनेवाली स्थिति। (ब्लैक आउट)। |
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चिराग-दाग :
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पुं० [अं०] वह आधार जिस पर दीया रखा जाता, है। दीयट। शमादान। |
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चिरागी :
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स्त्री० [अं०] १. किसी स्थान पर दीया बत्ती करने अर्थात् नित्य और नियमित रूप से दीया जलाते रहने का व्यय। २. किसी पवित्र स्थान पर उक्त प्रकार के व्यय-निर्वाह के लिए चढ़ाई जानेवाली भेंट। ३. वह पुरस्कार जो जुए के अड्डे पर दीया जलाने और सफाई करनेवाले व्यक्ति को जीतनेवाले जुआरियों से मिलता है। |
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चिराटिका :
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स्त्री० [सं० चिर√अट्+ण्वुल्-अक, टाप्, इत्व] १. सफेद पुनर्नवा। २. चिरायता। |
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चिरातन :
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वि० [सं० चिर+तनप्, दीर्घ] १. पुरातन। पुराना। २. फटा हुआ। जीर्ण-शीर्ण। |
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चिरातिक्त :
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पुं०=चिरतिक्त। |
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चिराद :
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पुं० [सं० चिराद्] बत्तक की जाति की एक बड़ी चिड़िया जिसका माँस खाने में स्वादिष्ट होता है। |
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चिराँदा :
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वि० [अनु० चिर चिरलकड़ी आदि जलने का शब्द] थोड़ी थोड़ी बात पर बिगड़ बैठने वाला। चिड़चिड़ा। |
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चिराद् :
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पुं० [सं० चिर√अत् (गति)+क्विप्] गरुड़। |
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चिरान :
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वि०=चिराना। (पुराना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिराना :
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स० [हिं० चीरना] चीरने का काम किसी से कराना। फड़वाना। जैसे–लकड़ी चिराना। वि० [सं० चिरतन] १. पुराना। प्राचीन। २. जीर्ण-शीर्ण। जैसे–पुराने-चिराने कपड़े। |
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चिरायता :
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पुं० [सं० चिरतिक्त] एक प्रसिद्ध पौधा जिसकी पत्तियाँ और छाल बहुत कड़वी होती और वैद्यक में ज्वर-नाशक तथा रक्तशोधक मानी जाती है। इसकी छोटी-बड़ी अनेक जातियाँ होती हैं। जैसे–कलपनाथ, गीमा, शिलारस, आदि। किरातक। चिरतिक्त। भूनिंब। |
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चिरायँध :
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स्त्री० [सं० चर्म+गंध] १. वह दुर्गध जो चरबी, चमड़े, बाल, माँस आदि के जलने से फैलती है। २. किसी के संबंध में बहुत बुरी तरह से फैलनेवाली बदनामी। |
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चिरायु(स्) :
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वि० [सं० चिर-आयुस्, ब० स०] जिसकी आयु लंबी हो । दीर्घायु। |
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चिरारी :
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स्त्री० [सं० चार] चिरौंजी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिराव :
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पुं० [हिं० चीरना] १. चीरने या चीरे जाने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. चीरने या चीरे जाने के कारण होनेवाला क्षत या घाव। |
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चिरि :
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पुं० [सं०√चि (चयन करना)+रिक्] तोता। स्त्री०=चिड़ियाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिरिका :
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स्त्री०[सं०चिरि+कन्-टाप्] एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। |
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चिरिंटिका, चिरिंटी :
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स्त्री०=चिरंटी। |
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चिरिया :
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स्त्री०=चिड़िया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिरिहार :
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पुं० [हिं० चिड़िया+हार(प्रत्यय)] चिड़ीमार। उदाहरण–कत चिरिहार ढुकत लै लासा।–जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिरी :
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स्त्री० चिड़ी (चिड़िया)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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चिरु :
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पुं० [सं० चि+रुक्] कंधे और बाँह का जोड़। मोढ़ा। |
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चिरैता :
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पुं०=चिरायता। |
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चिरैया :
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स्त्री० [हिं० चिड़िया] १. पक्षी। २. पुष्प नक्षत्र। |
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चिरोंटा :
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पुं० चिड़ा (गौरैया पक्षी)। |
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चिरौंजी :
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स्त्री० [सं० चार+बीज] पयार या पयाल नामक वृक्ष के फलों के बीच की गिरी जो खाने में बहुत स्वादिष्ट होती है और मेवों में गिनी जाती तथा पकवानों और मिठाइयों में पड़ती है। |
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चिरौरी :
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स्त्री० [अनु०] दीनतापूर्वक की जानेवाली प्रार्थना या विनती। |
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चिर्क :
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पुं० [फा०] १. गंदगी। २. गृह। मल। ३. पीब। मवाद। |
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चिर्म :
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पुं० [फा० मि० सं० चर्म] चमड़ा। |
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चिर्मटी :
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स्त्री० [सं० चिर√भट् (पालना)+अच्, पृषो० सिद्धि] ककड़ी। |
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चिर्री :
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स्त्री० [सं० चिरिका=एक अस्त्र] बिजली। वज्र। क्रि. प्र. ० –गिरना।–पड़ना। |
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