| शब्द का अर्थ | 
					
				| तक्र					 : | पुं० [सं०√तंच् (संकुचित करना)+रक्] १. छाछ। मट्ठा। २. शहतूत के पेड़ का एक रोग। | 
			
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				| तक्र-पिंड					 : | पुं० [सं० मध्य० स०] छेना। | 
			
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				| तक्र-प्रमेह					 : | पुं० [मध्य० स०] एक रोग जिसमें मूत्र छाछ की तरह गाढ़ा और सफेद होता है। | 
			
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				| तक्र-मांस					 : | पुं० [मध्य० स०] मांस का रसा। यखनी। | 
			
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				| तक्र-संधान					 : | पुं० [सं० मध्य० स०] सौ टके भर छाछ में एक एक टके भर सांबर नमक, राई और हल्दी का चूर्ण डालकर बनाई जानेवाली काँजी (वैद्यक)। | 
			
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				| तक्र-सार					 : | पुं० [सं० ष० त०] मट्ठे में से निकलनेवाला सार तत्व। नवनीत। मक्खन। | 
			
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				| तक्रभिद्					 : | पुं० [सं० तक्र√भिद् (फाड़ना)+क्विप्] एक तरह का कँटीला पेड़। कैथ। | 
			
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				| तक्रवामन					 : | पुं० [सं० तक्र√वम् (वमन करना)+णिच्+ल्युट्-अन] नागरंग। | 
			
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				| तक्राट					 : | पुं० [सं० तक्र√अट् (चलना)+अच्] मथानी। | 
			
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				| तक्रार					 : | स्त्री०=तकरार। | 
			
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				| तक्रारिष्ट					 : | पुं० [सं० तक्र-अरिष्ट, मध्य० स०] एक प्रकार का अरिष्ट जो मट्ठे में हड़ और आँवले आदि का चूर्ण मिलाकर बनाया जाता है। (वैद्यक)। | 
			
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				| तक्राह्वा					 : | स्त्री० [सं० तक्र-आह्व, ब० स०] एक प्रकार का क्षुप। | 
			
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