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फेरा  : पुं० [हिं० फेरना] [स्त्री० फेरी] १. किसी चीज के चारों ओर फिरने अर्थात् घूमने की क्रिया या भाव। चक्कर। परिक्रमण। जैसे—यह पहिया एक मिनट में सौ पेरे लगाता है। २. किसी लम्बी तथा लचीली चीज को दूसरी चीज के चारों ओर घुमाने, आवृत्त करने लपेटने आदि की क्रिया या भाव। ३. उक्त प्रकार से किया हुआ आवर्तन, घुमाव या लपेट। जैसे—इस लकड़ी पर रस्सी के चार फेरे अभी और लगाने चाहिए। संयो० क्रि०—देना। ४. बार-बार कही आने-जाने की क्रिया या भाव। जैसे—यह भिखमंगा दिन भर में इस बाजार के चार फेरे लगाता है। संयो० क्रि०—डालना।—लगाना। ५. कहीं जाकर वहाँ से लौटना या वापस आना, विशेषतः निरीक्षण करने, मिलने हाल-चाल पूछने आदि के उद्देश्य से किसी के यहाँ थोड़ी देर या कुछ समय के लिए जाना और फिर वहाँ से वापस लौट आना। जैसे—दिन भर में तकाजे के उद्देश्य से दस फेरे लगाता हूँ। संयो० क्रि०—लगाना।—लगवाना। ६. आवर्त। घेरा। मंडल। ७. विवाह के समय वर-वधू द्वारा की जानेवाली अग्नि की परिक्रमा। भाँवर। ८. (विवाह के उपरात) लड़की का ससुराल जाने का भाव। जैसे—उसे दूसरे फेरे घड़ी और तीसरे फेरे बाइसिकिल मिली थी। (पश्चिम) ९. दे० ‘फेर’।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
फेरा-फेरी  : स्त्री० [हिं० फेरना] १. बार-बार इधर-उधर फेरने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘हेरा-फेर’। क्रि० वि०—१. बारी-बारी से। २. रह-रहकर।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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