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मत्त  : वि० [सं०√मद् (मतवाला होना)+क्त] १. नशे आदि में चूर। सुस्त। २. किसी बात की अधिकता के कारण जिसमें विवेक न रह गया हो। जैसे—धन-मत्त। ३. किसी प्रकार के मनोवेग के पूर्ण आवेश से युक्त। ४. किसी काम या बात के पीछे मतवाला। जैसे—रण-मत्त। ५. उन्मत्त। पागल। ६. बहुत अधिक प्रसन्न। पुं० १. मतवाला हाथी। २. धतूरा। ३. कोयल। स्त्री०=माया।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मत्त-गयंद  : पुं० [सं० मत्त+हिं गजेन्द्र] सवैया छंद का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में ७ भगण और २ गुरु होते हैं।
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मत्त-मयूर  : पुं० [सं० मध्य० स०] पंद्रह अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः यगण, मगण, सगण, और फिर मगण होता है।
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मत्त-वारण  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बरामदा। २. आँगन के पास या सामने की छत। ३. मस्त हाथी। ४. सुपारी का चूर्ण।
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मत्तक  : वि० [सं० मत्त+कन्] जो कुछ-कुछ मत्त हो।
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मत्तकाशी  : वि० [सं०] [स्त्री० मत्तकाशिनी] अत्यन्त रूपवान। परम सुन्दर।
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मत्तकोकिल  : पुं० [सं० कर्म० स०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मत्तता  : स्त्री० [सं० मत्त+तल्+टाप्] मत्त होने की अवस्था या भाव मस्ती।
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मत्तताई  : स्त्री०=मत्तता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मत्ता  : स्त्री० [सं० मत्त+टाप्] १. बारह अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में मगण, भगण, सगण और एक गुरु होता है और ४, ६ पर यदि होती है। २. मदिरा। शराब। स्त्री० [सं० मत् का भाव] सं० मत का वह रूप जो भाव वाचक शब्द बनाने के लिए प्रत्यय के रूप में अन्त में लगता है। जैसे—नीति मत्ता, बुद्धिमत्ता आदि। स्त्री०=मात्रा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मत्ता-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० ब० स०] तेईस अक्षरों का एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः दो मगण, एक तगण, चार नगण एक लघु और एक गुरु अक्षर होता है।
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