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मनोग्रंथि  : स्त्री० [सं] आधुनिक मनोविश्लेषण के अनुसार इच्छाओं और स्मृतियों का एक तंत्र जिससे मन में पुंजीभूत धारणाओं की ऐसी गाँठ-सी बँध जाती है जो दमित होने पर भी अनजान में ही और प्रच्छन्न रूप से मनुष्य के वैयक्तिक आचरणों और व्यवहारों को प्रभावित करती रहती है (काम्पलेक्स)। विशेष—कहा गया है कि यह ऐसे विचारों और संवेगों का पुंज है जिन्हें मनुष्य को समय-समय पर आंशिक या पूर्ण रूप से दमन करना पड़ता है। ऐसे विचार अनजान में ही अचेतन मन में घर कर लेते हैं; और इन्हीं के वशवर्ती होकर वह धार्मिक नैतिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में अनेक प्रकार के असाधारण तथा विलक्षण कार्य करने लगता है। मनोग्रंथियाँ मनुष्य के मन की उन वृत्तियों के अंग बन जाती हैं, और मनुष्य अपने आप को औरों से छोटा या बड़ा समझने लगता है, भूत-प्रेत, स्वर्ग-नरक आदि पर विश्वास करने लगता है, नये ढंग और नई बातें निकालने का प्रयत्न करता है; अपने सामने अनोखे आदर्श रखने और विचित्र सिद्धांत बनाने लगता है; आदि आदि। यह भी कहा गया है कि इनका बहुत ही सूक्ष्मरूप मनुष्य में जन्मजात होता है; और आगे चलकर बढ़ता या विकसित होता रहता है। किसी मनोग्रंथि की तीव्रता या प्रबलता के फलस्वरूप मनुष्य को अनेक प्रकार के विकट मानसिक विकार तथा शारीरिक रोग भी हो जाते हैं।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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