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वाँ  : प्रत्य० [स्त्री० वीं] एक प्रत्यय जो १, २, 3, ४, और ६ को छोड़कर शेष संख्या वाचक शब्दों के अन्त में लगकर उनके क्रमिक स्थान का सूचक होता है। जैसे– पाँचवाँ, सातवाँ, आठवाँ आदि। अव्य०–वहाँ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वा  : अव्य० [सं०√वा+क्विप्] विकल्प या संदेहवाचक शब्द। अथवा या। जैसे–मनुष्य वा पशु। सर्व० [हिं० वह] १. वह। २. उस। (ब्रज)।
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वाइ  : सर्व०=वही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाइ  : स्त्री०=वायु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाइज़  : पुं० [अ०] १. वाज अर्थात् नसीहत करनेवाला। २. धर्म या नीति का उपदेश करनेवाला।
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वाइदा  : पुं०=वादा।
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वाइसराय  : पुं० [अं०] अंगरेजी शासन में भारत का वह सर्वप्रधान शासक अधिकारी जो सम्राट के प्रतिनिधि स्वरूप यहाँ रहता था। बड़ा लाट।
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वाउचर  : पुं० [सं०] आधार पत्र। (देखें)।
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वाउला  : वि०=बावला।
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वाउव  : वि०=वातुल।
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वांक  : पुं० [सं० वक=अण्] समुद्र।
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वाक  : पुं० [सं० वक+अण्] १. वकों अर्थात् बगलों का समूह। २. वेदों का एक विशिष्ट अंश या भाग। ३. खेत की वह कूत जो बिना खेत नापे की जाती है। ४. वाक्य। वि० वक या बगले से सम्बन्ध रखनेवाला।
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वाक़ई  : अव्य० [अ०] यथार्थ में। वास्तव में। वस्तुतः। जैसे–क्या आप वाकई वहाँ गये थे।
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वाँकड़  : वि०=बाँका।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाकपटु  : वि० [सं०] बात-चीत करने में चतुर।
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वाकपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति। २. विष्णु।
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वाकपारुष्य  : पुं० [सं० तृ० त० या मध्य० स०] १. बात-चीत में होनेवाली कठोरता या परुषता। कड़वी बात कहना। २. धर्मशास्त्रानुसार किसी की जाति, कुल इत्यादि के दोषों को इस प्रकार ऊँचे स्वर से कहना कि उससे उद्वेग या क्रोध उत्पन्न हो।
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वाकफ़ीयत  : स्त्री० [अ०] जान-पहचान परिचय।
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वाक़या  : पुं० [अ० वाकिअ] १. घटना, विशेषता दुर्घटना। २. वृत्तांत। हाल।
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वाकयाती  : वि० [अ०] विशिष्ट घटना से संबंध रखनेवाला। जो घटित हुआ हो।
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वाका  : वि० [अ० वाकया] १. जो घटना के रूप में घटित हुआ हो। २. किसी स्थान पर स्थित। पं० वाकया (घटना)।
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वाकारना  : स० [?] ललकारना। (राज०) उदाहरण–बिलकुलियौ वदन जेम वाकारयौ।–प्रिथीराज।
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वाकिनी  : स्त्री० [सं० वाक+इनि+ङीष्] तांत्रिकों की एक देवी।
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वाक़िफ़  : वि० [अ०] १. परिचित। २. जानकार।
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वाकिफकार  : वि० [अ० वाकिफ+फा० कार] [भाव० वाकिफदारी] किसी काम या बात की अच्छी ठीक या पूरी जानकारी रखनेवाला।
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वाकुची  : स्त्री० [सं० वा√कुच् (संकुचित करना)+क+ङीष्]=वकुची।
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वाकुल  : वि० [सं० वकुल+अण्] वकुल संबंधी। वकुल का। पुं० वकुल। मौलसिरी।
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वाकोपवाक  : पुं० [सं० द्व० स०] कथोपकथन। बात-चीत।
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वाकोवाक  : पुं० [सं० द्व० स०] कथोपकथन। बात-चीत।
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वाकोवाक्य  : पुं० [सं०] १. कथोपकथन। बात-चीत। २. तर्क-वितर्क।
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वाक्  : पुं० [सं०√वच् (बोलना)+घञ्] १. वाणी। वाक्य। २. शब्द। ३. कथन। ४. वाद। ५. बोलने की इन्द्रिय। ६. सरस्वती।
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वाक्-चपल  : वि० [सं० तृ० त०] १. जो बातें करने में चतुर हो। बकवादी।
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वाक्-छल  : पुं० [सं० तृ० त०] १. न्याय शास्त्र के अनुसार छल के तीन भेदों में से एक। ऐसी बात कहना जिसका और भी अर्थ निकल सके तथा इसीलिए दूसरा धोखे में रहे। २. टाल-मटोल की बात। बहाना (क्विब्लिंग)।
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वाक्-संयम  : पुं० [सं० ष० त०] वाणी का संयम। व्यर्थ की बातें न करना।
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वाक्-सिद्धि  : स्त्री० [सं० ष० त०] तंत्र-मंत्र योग आदि के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से प्राप्त होनेवाली ऐसी सिद्धि जिसमें कही हुई बात पूरी होकर रहती है। जो बात मुँह से निकल जाय, वह ठीक सिद्ध होना।
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वाक्कलह  : पुं० [सं० तृ० त०] कहा-सुनी।
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वाक्य  : पुं० [सं०√वच् (बोलना)+ण्यत्] शब्द या शब्दों का ऐसा समूह जो एक विचार से पूरी तरह से व्यक्त करे। जुमला। (सेन्टेन्स)।
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वाक्य-ग्रह  : पुं० [सं० ष० त०] मुँह का पक्षाघात से ग्रस्त होना।
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वाक्य-भेद  : पुं० [सं० स० त०] मीमांसा में एक ही वाक्य का एक ही काल में परस्पर विरुद्ध अर्थ करना।
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वाक्य-वक्रता  : स्त्री० [सं०] साहित्यिक रचनाओं का एक प्रकार का सौन्दर्य सूचक तत्त्व जो वाक्य रचना के अनोखे और उत्कृष्ट बांकपन के रूप में रहता है। यह तत्त्व कवि की बहुत ही उच्च कोटि की प्रतिभा से उदभूत होता है और सारे प्रसाद गुणों, सभी रसों की निष्पति तथा अलंकारों का उदगम या मूल स्रोत होता है। उदाहरण– (क) कहाँ लौं वरनौं सुन्दरताई खेलत कुँवर कनक आँगन में, नैन निरखि छवि छाई। कुलहि लसत सिर स्याम सुभग अति, बहुविधि सुरँग बनाई। मानो नव धन ऊपर राजत मधवा धनुष चढ़ाई। अति सुदेस मृदु चिकुर हरत मनमोहन मुख बगराई। मानो प्रकट कंज पर मंजुल अलि अवली घिरि आई।–सूर। (ख) रुधिर के है जगती के प्रात, चितनल के ये सांयकाल। शून्य निश्वासों के आकाश, आँसुओं के ये सिंधु विशाल। यहाँ सुख सरसों शोक, सुमेरु, अरे जग है जग का कंकाल।–पंत।
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वाक्य-विन्यास  : पुं० [सं० ष० त०] वाक्यों, शब्दों या पदों को यथास्थान रखना। वाक्य बनाना।
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वाक्य-विश्लेषण  : पुं० [सं०] व्याकरण का वह अंग या क्रिया जिसमें किसी वाक्य में आए हुए शब्दों के प्रकार, भेद० रूप पारस्परिक संबंध आदि का विचार होता है।
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वाक्यकर  : वि० [सं०] झूठी या तरह-तरह की बातें बनानेवाला। पुं० सन्देशवाहक।
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वाक्याडंबर  : पुं० [सं० ष० त०] केवल वाक्यों या बातों में दिखाया जानेवाला आडम्बर।
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वागना  : अ० [?] आचरण या व्यवहार करना। (पश्चिमी हिन्दी और मराठी) उदाहरण–कलपत कोटि जनम जुग बागै दर्शन कतहुँ न पाये।–कबीर।
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वागर  : पुं० [सं० वाक्√ऋ (प्राप्त होना आदि)+अच्] १. वारक। २. शाण। सान। ३. निर्णय। ४. भेड़िया। ५. पंडित। ६. मुमुक्षु। ७. नि़डर। निर्भय। पुं०=बाँगड़ा (प्रदेश)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वागा  : स्त्री० [सं० वल्गा] लगाम।
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वागारु  : वि० [सं० स० त०] विश्वासघाती झूठी आशा देने या दिलानेवाला।
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वागीश  : पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति। २. ब्रह्मा। ३. वाग्मी। ४. कवि। वि० अच्छा बोलनेवाला। वक्ता।
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वागीशा  : स्त्री० [सं० वागीश+टाप्] सरस्वती
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वागीश्वर  : पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति। २. ब्रह्मा। ३. कवि। ४. मंजुकोष। ५. बोधि सत्व। वि० बहुत अच्छा वक्ता।
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वागीश्वरी  : स्त्री० [सं० वागीश्वर+ङीष्] १. सरस्वती। २. नवदुर्गाओं में से एक।
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वागुज़ाश्त  : स्त्री० [फा०] १. छोड़ देना। २. दे० देना। ३. मुक्त करना।
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वागुजी  : स्त्री० [सं० वा√गुज् (संकोच करना)+क+ङीष्] बकुची।
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वागुण  : पुं० [सं० ष० त०] १. कमरख। २. बैगन। भंटा।
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वागुरा  : स्त्री० [सं० वा√गृ+उरव्+टाप्] वह जाल जिसमें हिरन आदि फँसाये जाते हैं।
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वागुरि  : स्त्री० [सं० वागुरा] जाल। पाश। उदाहरण–बागुरि जणे विसतरण।।–प्रिथीराज।
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वागुरिक  : पुं० [सं० जा वगुरा+ठक्-इक] हिरन फँसानेवाला शिकारी। मृग व्याध।
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वागुलि  : पुं० [सं० वा√गुड् (सुरक्षित रखना)+इनि, ड-ल] १. डिब्बा। २. पानदान।
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वागुलिक  : पुं० [सं० वागुलि+कन्] राजाओं का वह सेवक जिसका काम उनको पान खिलाना होता था। प्राचीनकाल में वह भृत्य जो राजाओं को पान लगाकर खिलाता था।
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वागेसरी  : स्त्री० [सं० वागीश्वरी]=वागीश्वरी।
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वाग्गुलि  : पुं० [सं०] वागुलिक।
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वाग्जाल  : पुं० [सं० वाक्+जाल] ऐसी घुमाव-फिराव की बातें जिन का मूल उद्देश्य दूसरों को धोखा देने या फँसाना होता है।
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वाग्दंड  : पुं० [सं० कर्म० स०] दंड के रूप में कही जानेवाली कठोर बातें झिड़की। भर्त्सना।
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वाग्दत्त  : भू० कृ० [तृ० त०] [स्त्री० वाग्दत्ता] (पदार्थ) जिसे किसी को देने का वचन दिया गया हो।
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वाग्दत्ता  : स्त्री० [सं०] ऐसी कन्या जिसके विवाह की बात पक्की हो चुकी हो।
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वाग्दल  : पुं० [सं० ष० त०] ओष्ठाधर। ओठ।
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वाग्दान  : पुं० [सं० ष० त०] १. किसी को कोई वचन देना। किसी से वादा करना। २. कन्या के विवाह की बात किसी से पक्की करना और उसे कन्यादान का वचन देना।
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वाग्दुष्ट  : वि० [सं० तृ० त] १. कटुभाषी। २. जिसे किसी ने कोसा या शाप दिया हो।
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वाग्देवता  : पुं० [सं० ष० त०] (सं० में स्त्री) वाणी। सरस्वती।
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वाग्देवी  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती।
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वाग्दोष  : पुं० [सं० ष० त०] १. बोलने की त्रुटि। जैसे–वर्णों का ठीक उच्चारण न करना। २. व्याकरण संबंधी दोष या भूल। ३. निन्दा। ४. गाली।
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वाग्बद्ध  : वि० [सं० तृ० त०] १. मौन। २. वचन-बद्ध।
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वाग्भट  : पुं० [सं०] १. अष्टांग हृदय संहिता नामक वैद्यक ग्रन्थ के रचयिता जिनके पिता का नाम सिंहगुप्त था। २. पदार्थ चंद्रिका, भाव, प्रकाश, रसरत्न, समुच्चय शास्त्र-दर्पण आदि के रचयिता। ३. एक जैन पंडित जिनके पिता का नाम नेमिकुमार था। इनके रचे हुए अलंकार तिलक, वाग्भटालंकार और छंदानुशासन प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं।
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वाग्मिता  : स्त्री० [सं०] वाग्मी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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वाग्मित्त्व  : पुं०=वाग्मिता।
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वाग्मी  : पुं० [सं० वाच्+ग्मिनि] १. वह जो बहुत अच्छी तरह बोलना जानता हो। अच्छा वक्ता। २. पंडित। विद्वान। ३. बृहस्पति का एक नाम।
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वाग्य  : वि० [सं० वाक्√या (प्राप्त होना)+क०] १. बहुत कम बोलनेवाला। २. तौल या सोच-समझकर बोलनेवाला। ३. सत्य बोलनेवाला। पुं०१. नम्रता। २. निर्वेद।
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वाग्यमन  : पुं० [सं०] वाणी का संयम। बोलने में संयम।
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वाग्युद्ध  : पुं० [सं० ष० त०] बात-चीत के रूप में होनेवाला झगड़ा या लड़ाई। बहुत अधिक कहा-सुनी।
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वाग्रोघ  : पुं० [सं०] एक प्रकार का मनोवैज्ञानिक रोग जिसमें स्मृति नष्ट हो जाने के कारण आदमी कुछ पढ़ या सुनकर भी उसका अर्थ नहीं समझ सकता (एफेशिया)।
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वाग्लोप  : पुं० [सं०] दे० ‘वाग्रोध’।
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वाग्वज्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. बहुत अधिक कठोर वचन। २. शाप।
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वाग्वादिनी  : स्त्री० [सं० वाक्√वद् (बोलना)+णिनि+ङीष्] सरस्वती।
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वाग्विदग्ध  : वि० [सं० तृ० त०] वाकचतुर।
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वाग्विलास  : पुं० [सं० ष० त०] २. प्रसन्नतापूर्वक होनेवाला पारस्परिक सम्भाषण। आनन्दपूर्वक बातचीत करना। २. प्रेम और सुख से की जानेवाली बातें।
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वाग्वीर  : वि० [सं० तृ० त०] १. बहुत अधिक तथा बड़ी-बड़ी बातें करनेवाला। २. खाली बातें बनानेवाला।
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वाग्वैदग्ध  : पुं० [सं० ष० त०] १. वाग्विदग्ध होने की अवस्था या भाव। २. कथन, लेख, वक्तव्य आदि में होनेवाला चमत्कारपूर्ण तत्त्व।
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वाङनिष्ठा  : स्त्री० [सं० ष० त०] अपनी कही हुई बात पर दृढ़ रहना।
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वाङमती  : स्त्री० [सं० वाक्+मतुप+ङीष्] नेपाल की एक नदी जो आजकल ‘वागमती’ कहलाती है।
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वाङमय  : वि० [सं० वाक्+मयट्] १. वाक्यात्मक। २. वचन संबंधी। ३. जो वाक् या वचन के रुप में हो। ४. वचन द्वारा किया हुआ। जैसे–वाङमय पाप। ५. जिसका पठन-पाठन हो सके। पुं० गद्य-पद्यात्मक वाक्य आदि जो पठन-पाठन का विषय हो। लिपिबद्ध विचारों का समस्त संग्रह या समूह। साहित्य। विशेष—वाङमय और साहित्य का मुख्य अन्तर जानने के लिए दे० ‘साहित्य’ का विशेष।
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वाङमुख  : पुं० [सं० ष० त०] ग्रंथ की भूमिका या प्रस्तावना।
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वाङमूर्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] सरस्वती।
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वाच  : स्त्री० [सं०√वच् (बोलना)+र्णिच्+अच्] एक प्रकार की मछली। स्त्री० [अ० वाँच] कलाई पर पहनने या जेब में रखने की छोटी घड़ी।
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वाचक  : वि० [सं०√वच्+ण्वुल-अक] १. कहने या बोलनेवाला। २. बताने या बोध करानेवाला। जैसे–सम्बन्ध-वाचक। ३. वाचन करने अर्थात् पढ़कर सुनानेवाला। जैसे–कथा-वाचक। पुं० १. वह जिससे किसी वस्तु का अर्थ बोध हो। नाम। संज्ञा। संकेत। २. व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान में तीन प्रकार के शब्दो में एक जो प्रसिद्ध या साक्षात्-अर्थ का बोधक होता है।, अर्थात् अर्थ के साथ जिसका वाच्य-वाचकवाला सम्बन्ध होता है।
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वाचकधर्म लुप्ता  : स्त्री० [ब० स०+टाप्] साहित्य में लुप्तोपमा अलंकार का एक प्रकार या भेद जिसमें वाचक और धर्म दोनों का कथन् नहीं होता। उदाहरण–दोनों भैया मुख शशि हमें लौट आकर दिखाओ–प्रियप्रवास।
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वाचक्नवी  : स्त्री० [सं० वचक्नु+इञ्+ङीष्] गार्गी। वाचकूटी। पुं० वचक्रु ऋषि की अपत्य या गोत्रज।
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वाचन  : पुं० [सं०√वच्+णिच्+ल्युट-अन] १. लिखी हुई चीज पढ़ना या उच्चारण करना। पठन। बाँधना जैसे–कथा-वाचक। २. कहना या कहकर बताना। ३. किसी मत, विचार या विषय का प्रतिपादन। ४. विधायिका सभा में किसी विधेयक का पढ़ा जाना (रीडिंग) जैसे– यह विधेयक का प्रथम वाचन था।
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वाचनक  : पुं० [सं० वाचन√कै+क०] पहेली।
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वाचना  : स्त्री०=वाचन। स०=बाँचना। (पढ़ना)।
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वाचनालय  : पुं० [सं०] वह सार्वजनिक (या निजी) स्थान जहाँ बैठकर पठन या अध्ययन किया जाता हो (रीडिंग रूम)।
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वाचनिक  : वि० [सं० वचन+ठक्-इक] वचन के द्वारा अथवा कथन के रूप में होनेवाला।
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वाचयिता (तृ)  : वि० [सं०√वच्+णिच्+तृच्]=वाचक।
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वाचस्पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. बृहस्पति २. प्रजापति। ३. ब्रह्मा। ४. सोम। ५. बहुत बड़ा विद्वान।
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वाचा  : स्त्री० [सं० वाच्+टाप्] १. वाणी। २. वचन, शब्द या वाक्य। ३. शपथ। ४. सरस्वती। अव्य० [सं०] वचन द्वारा। वचन से।
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वाचा-बद्ध  : वि० [सं०] किसी को वचन देने के कारण बँधा हुआ। प्रतिज्ञाबद्ध।
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वाचा-बंधन  : पुं० [सं०] प्रतिज्ञा करके उसमें बँधना।
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वाचापत्र  : पुं० [सं०] प्रतिज्ञा-पत्र।
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वाचाबंध  : वि०=वाचाबद्ध। पुं०=वाचा-बंधन।
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वाचाल  : वि० [सं० वाच्+आलच्] [भाव० वाचालता] १. बोलने में तेज। वाकपटु। २. बकवादी। व्यर्थ बोलनेवाला। ३. उद्दंडतापूर्वक या बहुत बढ़-बढ़कर बातें करनेवाला।
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वाचालता  : स्त्री० [सं० वाचाल+तल्+टाप्] वाचाल होने की अवस्था या भाव।
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वाचिक  : वि० [सं०√वच्+ठक्-इक] १. वाचा या वाणी-संबंधी। २. वाचा या वाणी से निकला हुआ। मुँह से कहा हुआ। ३. संकेत के रूप में कहा या बतलाया हुआ। पुं० १. सन्देश आदि के रूप में कहलाई जानेवाली बात या भेजा जानेवाला पत्र। २. अभिनय का एक प्रकार का भेद जिसमें केवल वाक्य-विन्यास द्वारा अभिनय का कार्य सम्पन्न होता है।
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वाची  : वि० [सं० वाच्+इनि, वाचिन] १. वाचक। वाचा-सम्बन्धी। २. वाचा के रूप में होनेवाला। ३. परिचय या बोध करानेवाला जैसे–पक्षी-वाची शब्द। ४. वाचन करनेवाला।
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वाच्  : स्त्री० [सं०√वच् (बोलना)+क्विप्] वाचा। वाणी। वाक्य।
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वाच्य  : वि० [सं०√वच्+ण्यत्] १. जो वाचा के रूप में आता हो या आ सकता हो। जो कहा जा सके या कहे जाने के योग्य हो। २. शब्द की अभिधा शक्ति के द्वारा जिसका बोध होता हो या हो सकता हो। अभिधेय। ३. जिसे लोग बुरा कहते हों। कुत्सित। निन्दनीय। बुरा। पुं० वाचक शब्द का अर्थ। वाच्यार्थ।
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वाच्यता  : स्त्री० [सं० वाच्य+तल्+टाप्] १. ‘वाच्य’ होने की अवस्था या भाव। २ निंदा। ३. बदनामी।
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वाच्यत्व  : पुं० [सं० वाच्य+त्व]=वाच्यता।
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वाच्यार्थ  : पुं० [सं०] वाचक का अर्थ। अभिधेयार्थ।
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वाच्यावाच्य  : पुं० [सं०] १. कही जाने के योग्य बात और न कही जाने के योग्य बात। २. किसी अवसर पर अथवा किसी व्यक्ति से कहने और न कहने योग्य बातें।
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वांछक  : वि० [सं०√वाञ्छ् (इच्छा करना)+ण्वुल-अन०] इच्छुक।
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वांछन  : पुं० [सं०√वाञ्छ्+ल्युट-अन] [भू० कृ० वांछित] वांछा या इच्छा करना।
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वांछनीय  : वि० [सं०√वाञ्छ्+अनीयर्] जिसकी वांछा या कामना की गई हो या की जाने को हो।
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वांछा  : स्त्री० [सं०√वाञ्छ्+अप्+टाप्] [भू० कृ० वांछित, वि० वांछनीय] इच्छा। अभिलाषा। चाह।
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वांछित  : भू० कृ० [सं०√वाञ्छ्+क्त०] जिसकी वांछा की गई हो। चाहा हुआ। इच्छित।
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वांछितव्य  : वि० [सं०] वांछनीय।
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वांछिनी  : स्त्री० [सं० वाञ्छा+इनि+ङीष्] पुंश्चली स्त्री।
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वांछी (छिन्)  : वि० [सं० वाञ्छा+इनि] वांछा करने या चाहनेवाला।
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वाज  : पुं० [सं०√वच्+घञ्] १. घृत। घी। २. यज्ञ। ३. अन्न। ४. जल। ५. संग्राम। ६. बल। ७. बाण के पीछे का पंजा। ८. पलक। ९. वेग। १॰. मुनि। ११. आवाज। शब्द।
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वाज  : पुं० [अ० व्ज] १. उपदेश। २. विशेषतः धार्मिक उपदेश।
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वाजपति  : पुं० [सं०] अग्नि।
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वाजपेई  : पुं०=वाजपेयी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाजपेय  : पुं० [सं०] सात श्रौत यज्ञों में से पाँचवाँ यज्ञ जो बहुत श्रेष्ठ माना जाता है।
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वाजपेयक  : वि० [सं० वाजपेय+कन्] वाजपेय-सम्बन्धी।
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वाजपेयी  : पुं० [सं० वाजपेय+इनि] वह पुरुष जिसने वाजपेय यज्ञ किया हो। २. कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के एक प्रतिष्ठित वर्ग की उपाधि। ३. उक्त के आधार पर बहुत बड़ा कुलीन या धर्म-निष्ठ व्यक्ति। उदाहरण–कौन धौ सोमजाजी, अजामिल, कौन गजराज धौ बाजपेई।–तुलसी।
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वाजप्य  : पुं० [सं०] एकगोत्रकार ऋषि। इनके गोत्र के लोग वाजप्यायन कहलाते हैं।
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वाजप्यापन  : पुं० [सं०] वाजप्य ऋषि के गोत्र का व्यक्ति।
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वाजबी  : वि०=वाजिबी।
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वाजभोजी (जिन्)  : पुं० [वाज्√भुज् (खाना)+णिनि] बाजपेय यज्ञ।
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वाजश्रव  : पुं० [सं०] एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि।
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वाजश्रवा (वस्)  : पुं० [सं०] १. अग्नि। २. एक गोत्र प्रवर्तक ऋषि ३. एक ऋषि जिनके पुत्र का नाम ‘नचिकेता’ था और जो अपने पिता के क्रुद्ध होने पर यमराज के पास ज्ञान प्राप्त करने गये थे।
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वाजसनेय  : पुं० [सं० वाजसनि+ठक्-एय] १. यजुर्वेद की एक शाखा जिसे याज्ञवल्क्य ने अपने गुरु वैशपायन पर क्रुद्ध होकर उनकी पढ़ाई हुई विद्या उगलने पर सूर्य के तप से प्राप्त की थी। २. याज्ञवल्क्य ऋषि।
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वाजसनेयक  : वि० [सं० वाजसनेय+कन्] १. याज्ञवल्क्य से संबद्ध। २. वाजसनेय।
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वाजा  : वि० [अ० वाजऽ] ज्ञात। विदित। जैसे–आपको यह बात वाजा रहे।
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वाजित  : वि० [सं० वाज+इतच्] १. पंखवाला। २. (तीर या वाण) जिसमें पंख लगे हों।
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वाजिन  : पुं० [सं० वाज+इनि-अण] १. शक्ति। २. होड़। ३. संघर्ष।
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वाजिनी  : स्त्री० [सं० वाजिन√ङीष्] १. घोड़ी। २. असगंध।
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वाजिब  : वि० [अ०] १. उचित। २. संगत।
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वाजिबी  : वि०=वाजिब।
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वाजिभ  : पुं० [सं०] अश्विनी नक्षत्र।
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वाजिमेध  : पुं० [सं० ष० त०] अश्वमेघ।
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वाजिराज  : पुं० [सं० ष० त०] १. विष्णु। २. उच्चैश्रवा।
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वाजिशिरा  : पुं० [सं० वाजिशिरस्+ब० स०] विष्णु का एक अवतार।
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वाजी (जिन्)  : पुं० [सं० वाज+इनि] १. घोड़ा। २. वासक। अड़ूसा। ३. हवि। ४. फटे हुए दूध का पानी।
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वाजीकर  : वि० [सं० वाजी√कृ (करना)+अच्] (औषध) जिससे स्त्री-संभोग की शक्ति बढ़ती हो।
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वाजीकरण  : पुं० [सं० वाज+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन] एक प्रक्रिया जिससे पुरुष में घोड़े की शक्ति आ जाती है।
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वाट  : पुं० [सं०√वट् (घेरना)+घञ्] १. मार्ग। रास्ता। २. इमारत। वास्तु। ३. मंडप।
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वाटधान  : पुं० [सं० ब० स] १. कश्मीर के नैऋंतकोण का एक प्राचीन जनपद। २. एक संकर जाति।
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वाटली  : स्त्री० [सं० वर्तुली] १. छोटी कमोरी। २. अँगूठी।
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वाटिका  : स्त्री० [सं०√वट् (घेरना)+ण्वुल्-अक,+टाप्, इत्व] १. वास्तु। इमारत। २. बगीचा। ३. हिंगुपत्री।
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वाटी  : स्त्री० [सं०√वट् (घेरना)+घञ्,+ङीष्] इमारत। वास्तु।
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वाट्टक  : पुं० [सं०] भुना हुआ जौ। बहुरी।
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वाट्य  : पुं० [सं० वाट+यत्] १. बरियारा। (पौधा २. भुना हुआ जौ।
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वाडव  : पुं० [सं० वाड√वा (प्राप्त होना)+क] वड़वाग्नि। बड़वानल।
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वाडवाग्नि  : स्त्री० [सं०]=बड़वानल।
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वाण  : पुं० [सं] वाण (दे०)
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वाणिज  : पुं० [सं० वणिज+अण्] १. व्यापारी। २. वड़वाग्नि।
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वाणिज्य  : पुं० [सं० वणिज+ष्यञ्] १. बहुत बड़े पैमाने पर होनेवाला व्यापार (कामर्स)।
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वाणिज्य-चिन्ह  : पुं० [सं० ष० त०] वह विशिष्ट चिन्ह जो कारखानेदार या व्यापारी अपने बनाये और बेचे जानेवाले सब तरह के माल या सामान पर इसलिए अंकित करते हैं कि औरों से उनका पार्थक्य और विशिष्टता सूचित हो। (मर्कन्टाइल मार्क)।
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वाणिज्य-दूत  : पुं० [ष० त०] किसी देश का वह राजकीय दूत जो किसी दूसरे देश में रहकर इस बात का ध्यान रखता है कि हमारे पारस्परिक वाणिज्य में कोई व्याघात न होने पावे। (कॉन्सल)।
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वाणिज्यवाद  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० वाणिज्यवादी] पाश्चात्य देशों में मध्य युग में प्रचलित वह मत या सिद्धान्त जिसके अनुसार यह माना जाता था कि साधारण जन-समाज की तुलना में वणिकों या व्यापारियों के हितों का सबसे अधिक ध्यान रखा जाना चाहिए जिसमें आयात कम और निर्यात अधिक हो। (मर्केन्टाइलिज्म)।
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वाणिता  : स्त्री० [सं० वाण+इतच्+टाप्] एक प्रकार का छन्द या वृत्त।
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वाणिनी  : स्त्री० [सं०√वण् (बोलना)+णिनि+ङीष्] १. नर्तकी। २. मत्त स्त्री। ३. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १६. वर्ण अर्थात् क्रमानुसार नगण, जगण, भगण, फिर जगण और अन्त में रगण और गुरु होता है।
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वाणी  : स्त्री० [सं०√वण्+णिच्+इन्+ङीष्] १. सरस्वती। २. मुँह से निकलनेवाली सार्थक बात । वचन। मुहावरा–वाणी फुरना=मुँह से बात निकलना (व्यंग्य)। ३. बोलने या बातचीत करने की शक्ति। ४. जिह्वा जीभ। ५. स्वर। ६. एक छंद।
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वांत  : पुं० [सं०√वम् (वमन करना)+क्त] उलटी। कै। वमन।
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वात  : पुं० [सं०√वा (जाना आदि)+क्त] १. वायु। हवा। २. वैद्यक के अनुसार शरीर में होनेवाला वायु का प्रकोप।
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वात-गुल्म  : पुं० [सं० तृ० त] वात के प्रकोप से होनेवाला गुल्म रोग।
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वात-चक्र  : पुं० [सं० ब० स०] १. ज्योतिष में एक योग। २. [ष० त०] बवंडर। चक्रवात।
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वात-तूल  : पुं० [सं० तृ० त०] बहुत ही महीन तागों के रूप में हवा में इधर-उधर उड़ती हुई दिखाई देनेवाली चीज।
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वात-नीड़ा  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें वायु के प्रकोप से दाँत की जड़ में नासूर हो जाता है। (पायोरिया)।
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वात-पुत्र  : पुं० [सं० ष० त०] १. हनुमान। २. भीम। ३. नेवला।
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वात-प्रकृति  : वि० [सं० ष० त०] १. (व्यक्ति) जिसकी प्रकृति में वात की प्रधानता हो। २. (पदार्थ) जो खाने पर शरीर में वात का प्रकोप बढ़ानेवाला हो।
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वात-प्रकोप  : पुं० [सं० ष० त०] शरीर में वात या वायु का इस प्रकार बढ़ना या बिगड़ना कि कोई रोग उत्पन्न होने लगे।
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वात-मृग  : पुं० [सं० मध्य० स०] वायु की विपरीत दिशा में दौड़नेवाला एक प्रकार का मृग।
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वात-रक्त  : पुं० [सं० ब० स०] रक्त में रहनेवाला वात के प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला एक रोग जिसमें पैरों के तलवे से घुटने तक छोटी-छोटी फुँसियाँ हो जाती है, जठराग्नि मंद पड़ जाती है और शरीर दुर्बल होता जाता है।
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वात-सारथि  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि।
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वात-स्कंध  : पुं० [सं० ष० त०] आकाश का वह भाग जिसमें वायु चलती है।
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वात-स्वप्न  : पुं० [सं० ब० स०] अग्नि।
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वातकंटक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का बात रोग जिसमें पैरों की गाँठों या जोड़ों में बहुत पीड़ा होती है।
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वातकी (किन्)  : वि० [सं० वात+इनि, कुकच्] बात रोग से ग्रस्त।
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वातकुंभ  : पुं० [ष० त०] नख-क्षत।
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वातकेतु  : पुं० [सं० ष० त०] धूल। गर्द।
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वातकेलि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सुन्दर। आलाप। २. स्त्री के उपपति का दंत-क्षत।
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वातगंड  : पुं० [सं० ष० त०] बात के प्रकोप के कारण होनेवाला एक तरह का गलगंड रोग।
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वातघ्नी  : स्त्री० [सं० वात√हन् (मारना)+टक्+ङीष्] १. शालपर्णी। २. अश्वगंधा।
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वातज  : वि० [सं० वात√जन् (उत्पन्न करना)+ड] वात या वायु के प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला। जैसे–वातज रोग।
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वातंड  : पुं० [सं० वतंड+अण्] एक गोत्रकार ऋषि जिनके गोत्रवाले वातंड्य कहलाते हैं।
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वातंड्य  : पुं० [सं० वातंड+ष्यञ्] [स्त्री० वातंड्यायिनी] वातंड ऋषि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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वातध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] मेघ। बादल।
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वातपट  : पुं० [सं० ष० त०] पताका। ध्वजा।
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वातर  : वि० [सं० वात√रा (लेना)+क] १. वात-सम्बन्धी। २. अन्धड या तूफान से सम्बन्ध रखनेवाला। ३. हवा की तरह तेज।
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वातरंग  : पुं० [सं० ब० स०] पीपल।
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वातरथ  : पुं० [सं० ब० स०] मेघ। बादल।
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वातरायण  : पुं० [सं० वात√रै (शब्द करना)+ल्युट-अन] १. निष्प्रयोजन पुरुष। निकम्मा आदमी। ३. बौखलाया हुआ आदमी। ३. लोटा। ४. कुट नामक ओषधि।
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वातल  : पुं० [सं० वात√वला (लेना)+क०] चना। वि० वात का प्रकोप उत्पन्न करनेवाला।
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वातव  : वि० [सं०] १. वात से संबंध रखनेवाला। वात का। २. वात के कारण उत्पन्न होनेवाला (रोग या विकार) जैसे–वातव लासक।
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वातवलासक  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का घातक बात रोग जिसमें रोगी को ज्वर के साथ कलेजें की धड़कन अंगों की सूजन और नेत्र-कष्ट होता है। (बेरी-बेरी)।
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वातव्याधि  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. वात के प्रकोप से उत्पन्न होनेवाला रोग। २. गठिया नामक रोग।
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वाताट  : पुं० [सं० वात√अट् (चलना)+अच्] १. सूर्य का घोड़ा। २. हिरन।
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वातांड  : पुं० [सं० ब० स०] अंडकोश-संबंधी एक प्रकार का वायु रोग जिसमें एक अंड चलता रहता है।
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वातात्मज  : पुं० [सं० ष० त०] हनुमान।
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वाताद  : पुं० [सं० वात√अद् (खाना)+घञ्] बादाम।
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वातानुकूलन  : पुं० [सं०] [भू० कृ० वातानुकूलित] यांत्रिक या वैज्ञानिक प्रक्रिया से ऐसी व्यवस्था करना कि किसी घिरे हुए स्थान के तापमान पर उसके बाहर के ताप-मान का प्रभाव न पड़ने पावे, अर्थात् उस स्थान के अंदर की गरमी या सरदी नियंत्रित और नियमित रहे। (एयर-कन्डिशनिंग)।
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वातानूकूलित  : भू० कृ० [सं०] (स्थान) जिसका तापमान वातानुकूलन वाली प्रक्रिया से नियंत्रित और नियमित किया गया हो। (एयर-कन्डिशन्ड)।
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वातापी  : पुं० [सं०] एक राक्षस जो आतापि का भाई था (इन दोनों भाइयों को अगस्त्य ऋषि ने खा लिया था)।
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वाताप्य  : पुं० [सं० वातापि-यत्] १. जल। २. सोम।
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वाताम  : पुं० [सं० पृषो० सिद्धि] बादाम।
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वातायन  : पुं० [सं० ब० स०] १. झरोखा जो घरों आदि में इसलिए बनाया जाता है कि बाहर से प्रकाश और वायु अन्दर आवे। २. मंत्र-द्रष्टा ऋषि। ३. एक प्राचीन जनपद। ४. घोड़ा।
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वातायनी  : स्त्री० [सं० वातायन-ङीष्] लकड़ी लोहे सीमेन्ट आदि की वह रचना जो छत के नीचे दीवार में इसलिए बनाई जाती है कि कमरे में प्रकाश और वायु आ सके। (वेन्टिलेटर)।
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वातारि  : पुं० [सं० ष० त०] १. एरंड। रेंड। २. शतमूली। ३. वायन। ४. बायबिडंग। ५. जमीकन्द। सूरन। ६. भिलावाँ। ७. थूहड़। सेंहुड़। ८. शतावर। ९. नील का पौधा। तिलक।
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वाताली  : स्त्री० [सं० वाताल-ङीष्,ष० त०] १. तूफान। २. बवंडर।
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वातावरण  : पुं० [कर्म० स०] [वि० वातावरणिक] १. वायु की वह राशि जो पृथ्वी, ग्रह आदि पिडों को चारों ओर से घेरे रहती है। शरीर स्वास्थ्य आदि के विचार से वायु का उतना अंश जो किसी प्रदेश स्थान आदि में होता है। जैसे–बिहार का वातावरण, कमरे का वातावरण। ३. किसी वस्तु या व्यक्ति के आसपास की वह परिस्थिति या बात जिसका उस वस्तु या व्यक्ति के अस्तित्व जीवन-निर्वाह विकास आदि पर प्रभाव पड़ता है। ४. किसी कलात्मक या साहित्यिक कृति के वे गुण या विशेषताएँ जो दर्शक या पाठक के मन में उस कृति के रचनाकाल,रचना-स्थान आदि की कल्पना या मनोभाव उत्पन्न करती है। जैसे– इस मूर्ति का वातावरण बतलाता है कि यह शुंग काल की है,अथवा गांधार की बनी है (एडमाँस्फियर)।
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वातावरणिक  : वि० [सं०] १. वातावरण संबंधी। २. वातावरण का या वातावरण में होनेवाला।
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वांताशी  : वि० [सं० वात√अश् (खाना)+णिनि] वमन की हुई चीज खानेवाला। पुं० १. कुत्ता। २. वह ब्राह्मण जो केवल पेट के लिए अपने कुल की मर्यादा नष्ट करे।
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वाताष्ठीला  : स्त्री० [सं० तृ० त०] एक रोग जिसमें वात के प्रकोप के कारण पेट में गाँठ सी पड़ जाती है। (वैद्यक)।
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वातास  : स्त्री० [सं० वात] वायु। हवा। उदाहरण–जो उठती हो बिना प्रयास। ज्वाला सी पाकर वातास।–पंत।
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वांति  : स्त्री० [सं०√वम्+क्तिन्] कै। वमन।
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वाति  : पुं० [सं०√वा (जाना)+अति] १. वायु। हवा। २. सूर्य। ३. चन्द्रमा।
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वातिक  : वि० [सं० वात+ठञ्-इक] १. वात संबंधी। वात का। २. जिसे वात का कोई रोग हो। वात-ग्रस्त। ३. तूफान या बवंडर से सम्बन्ध रखनेवाला। ४. बकवादी। पुं० १. पागल। विक्षिप्त। २. एक प्रकार का ज्वर। ३. चातक। पपीहा।
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वातुल  : वि० [सं० वात+उलच्] [भाव० वातुलता] १. वात-संबंधी। २. वात के प्रकोप के कारण होनेवाला। जैसे–गठिया (रोग) पुं० पागल बावला।
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वातोदर  : पुं० [सं० तृ० त] एक रोग जिसमें हाथ, पाँव, नाभि, काँख, पसली, पेट, कमर और पीठ में पीड़ा होती है, इसके साथ कब्ज और खांसी भी होती है। (वैद्यक)।
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वातोन्माद  : पुं० [सं० वात+उन्माद, ब० स०]अपतंत्रक नामक रोग। (हिस्टीरिया) देखें ‘अपतंत्रक’।
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वातोर्मी  : पुं० [सं० ब० स०] ग्यारह अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें मगण भगण तगण और अन्त में दो गुरु होते हैं।
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वात्य  : वि० [सं०वात+यत्] वात या वायु-सम्बन्धी। जैसे– वात्य भार।
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वात्या  : स्त्री० [सं०वात+य+टाप्] १. बहुत तेज चलनेवाली हवा। २. विशेषतः ४॰ से ७५ मील प्रति घंटे चलनेवाली तेज आँधी (गेल)।
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वात्स  : पुं० [सं० वत्स+अण्] [स्त्री० वात्सी] १. एक गोत्रकार ऋषि का नाम। २. ब्राह्मण द्वारा शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न व्यक्ति।
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वात्सरिक  : पुं० [सं० वत्सर+ठक्–इक] ज्योतिषी। वि०१. वत्सर या वर्ष संबंधी। जैसे– वात्सरिक श्राद्ध। २. प्रतिवर्ष होनेवाला। वार्षिक।
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वात्सल्य  : पुं० [सं०] १. प्रेम। २. विशेषतः माता-पिता के ह्रदय में होनेवाला अपने बच्चों के प्रति नैसर्गिक प्रेम।
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वात्सल्य भाजन  : पुं० [सं०] वह जिसके प्रति वत्स का सा प्रेम हो। वत्स के समान प्रिय।
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वात्स्य  : पुं० [सं० वत्स+यञ्] १. एक प्राचीन ऋषि। २. एक गोत्र जिसमें ओर्व, च्यवन, भार्गव, जामदग्न्य और आप्नुवान नामक पाँच प्रवर होते हैं।
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वात्स्यायन  : पुं० [सं० वात्स्य+फक्-आयन] १. कामसूत्र के रचियता एक प्रसिद्ध ऋषि। २. न्याय शास्त्र के भाष्यकार एक प्रसिद्ध पंडित।
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वाद  : पुं० [सं०√वद्+घञ्] १. कुछ कहना या बोलना। २. वह जो कुछ कहा जाय। उक्ति। कथन। ३. किसी कथन के समर्थन के लिए उपस्थित किया जानेवाला तर्क। दलील। ४. किसी बात विशेषतः सैद्धांतिक बात के संबंध में दोनों ओर से कही जानेवाली बातें। तर्क-वितर्क। विवाद। बहस। ५. अफवाह। किवदन्ती। ६. विचार के लिए न्यायालय में उपस्थित किया जानेवाला अभियोग। मुकदमा। (सूट) ७. कला, विज्ञान या कल्पना मूलक किसी विषय के संबंध में नियमों, सिद्धांतों आदि के आधार पर स्थिर किया हुआ वह व्यवस्थित मत जो कुछ क्षेत्रों में प्रामाणिक और मान्य समझा जाता हो। (थियरी) जैसे– विकासवाद, सापेक्षवाद। ८. कोई ऐसा त्तत्व या सिद्धांत जो तत्त्वज्ञों का विशेषज्ञों द्वारा नियत या निश्चित हुआ हो। (इज़्म)। विशेष–इस अंतिम अर्थ में इसका प्रयोग कुछ संज्ञाओं के अन्त में प्रत्यय के रूप में होता है। जैसे–छायावाद, रहस्यवाद साम्यवाद आदि।
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वाद-ग्रस्त  : वि०=विवादग्रस्त।
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वाद-चंचु  : पुं० [स० त०] शास्त्रार्थ करने में पटु। वाद-विवाद करने में दक्ष।
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वाद-पद  : पुं० [सं०] विधिक क्षेत्र में किसी वाद या दीवानी मुकदमे से संबंध रखनेवाली वे विवादास्पद और विचारणीय बातें जो पहले पक्ष की ओर से दावे के रूप में कही जाती हों, परन्तु दूसरा पक्ष जिनसे इन्कार करता हो। तनकीह। (इश्यू) विशेष—न्यायालय ऐसी ही बातों के सत्यासत्य का विचार करके उनके आधार पर मुकदमे का निर्णय करता है। यह दो प्रकार का होता है–विधि वाद-पद जिमसें केवल कानूनी दृष्टि से विचारणीय बातें आती हैं और तथ्य वाद-पद जिसमें तथ्य अर्थात् वास्तविक घटनाओं से संबंध रखनेवाली बातें आती हैं। इन्हें क्रमात् इश्यू ऑफ लाँ और इश्यू आँफ फ़ैक्ट्स कहते हैं।
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वाद-प्रतिवाद  : पुं० [सं० द्व० स०] दो पक्षों या व्यक्तियों में किसी विषय पर होनेवाला खंडन-मंडन और तर्क-वितर्क।
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वाद-मूल  : पुं० [सं० ष० त०] वह मूल कारण जिसके आधार पर कोई मुकदमा या व्यवहार न्यायालय में विचारार्थ उपस्थित किया जाता है। (कॉज आँफ ऐक्शन)।
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वाद-विवाद  : पुं० [सं० द्व० स०] १. वाद-प्रतिवाद। २. वह विचारपूर्ण बात-चीत जो किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए होती है। (डिस्कशन)।
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वाद-विषय  : पुं० [सं० ष० त०] वाद-मूल। (दे०)
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वाद-व्यय  : पुं० [सं० ष० त०] किसी वाद या मुकदमे में होनेवाला उचित और नियमित व्यय (कास्टस)।
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वाद-साधन  : पुं० [सं० ष० त०] १. अपकार करना। २. तर्क करना।
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वाद-हेतु  : पुं० [सं० ष० त०]=वाद-मूल।
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वादऋणी  : पुं० [सं० ब० स०] न्यायालय ने जिसे अपने फैसले में ऋणी ठहराया है। (जजमेंट क्रिडेटर)
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वादक  : वि० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+ण्वुल-अक] १. कहने या बोलनेवाला। २. वाद-विवाद करनेवाला। ३. बाजा बजानेवाला।
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वाददंड  : पुं० [ष० त०] सारंगी आदि बाजे बजाने की कमानी।
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वादन  : पुं० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+ल्युट-अन] १. कहने या बोलने की क्रिया। २. बाजा बजाना। ३. बाजा। वाद्य। ४. वादक।
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वादनक  : पुं० [सं० वादन+कन्] बाजा।
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वादर  : पुं० [सं० वदर+अण्] १. कपास का पौधा। २. सूती कपड़ा। ३. बेर का पेड़। वि० सूती कपड़े का बना हुआ।
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वादरायण  : पुं० [सं० वदर+अयन, ष० त०+अण्] बादरायण (वेदव्यास)।
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वादरायणि  : पुं०=वादरायणि (शुकदेव)।
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वादा  : पुं० [अ० वाइदः] १. किसी काम या बात के लिए नियत किया हुआ समय। २. किसी से दृढ़ता और निश्चयपूर्वक यह कहना कि हम तुम्हारे लिए अमुक काम करेंगे या तुम्हें अमुक चीज देंगे। प्रतिज्ञा। वचन। क्रि० प्र०– पूरा करना। ३. दे० ‘वायदा’।
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वादा-खिलाफी  : स्त्री० [अ०+फा०] वादा पूरा न करना। प्रतिज्ञा का पालन न करना।
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वादानुवाद  : पुं० [सं० द्व० स०]=वाद-प्रतिवाद।
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वादिक  : वि० [सं० वादि+कन्] कहनेवाला। पुं० १. जादूगर। २. भाट। चारण। ३. तार्किक।
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वादित  : भू० कृ० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+क्त] जिसमें से नाद या स्वर उत्पन्न किया गया हो। बजाया हुआ।
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वादित्र  : पुं० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+इत्र] वाद्य। बाजा।
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वादी  : वि० [सं० वादिन्] १. बोलनेवाला। वक्ता। २. जो किसी वाद से सम्बन्ध रखता हो या उसका अनुयायी हो। जैसे—समाजवादी। पुं० १. वह जो कोई ऐसा विषय उपस्थित करे जिस पर विचार होने को हो या दूसरों को जिसका खंडन अथवा विरोध करना पड़े। २. वह जो न्यायालय में किसी के विरुद्ध कोई अभियोग उपस्थित करे। फरियादी। मुद्दई। २. संगीत में वह स्वर जो किसी राग में सर्वप्रमुख होता है, और जिसका उपयोग और स्वरों की अपेक्षा अधिक होता है। इसी स्वर पर ठहराव भी अपेक्षया अधिक होता है और इसी के प्रयोग से उस राग में जान भी आती है और उसकी शोभा भी होती है। जैसे—यमन राग में गांधार स्वर वादी होता है। स्त्री०=आई (वात की अधिकता या जोर)। (पश्चिम) वि०=वातग्रस्त। जैसे—वादी शरीर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वादींद्र  : पुं० [सं० स० त०] मंजुघोष का एक नाम।
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वादीवदि  : क्रि० वि० [सं० वाद से] कह-बदकर। दृढ़तापूर्वक कह कर। उदा०–बहुतै कटकि माहि वादीवदि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वाद्य  : पुं० [सं०√वद् (कहना)+णिच्+यत्] १. बाजा बजाना। २. बाजा।
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वाद्य-वृंद  : पुं० [सं०] १. अनेक प्रकार के बहुत से बाजों का समूह। २. उक्त प्रकार के बाजों का वह संगीत जो ताल, लय आदि के विचार से एक साथ बजने पर होता है। (आर्केस्ट्रा)
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वाद्य-संगीत  : पुं० [सं०] ऐसा संगीत जिसमें केवल वाद्य या बाजे ही बजते हों, कंठ संगीत बिलकुल न हो। (इन्स्ट्रूमेंटल म्यूजिक)
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वाद्यक  : पुं० [सं० वाद्य√कन्] बाजा बजानेवाला।
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वाध  : पुं० [सं०√वाध् (रोकना)+घञ्]=बाघ (बाधा)।
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वाधूल  : पुं० [सं० वाधू√ला (गोना)+क] एक गोत्राकार ऋषि। इनके गोत्र के लोग वाधौल कहलाते हैं।
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वान  : पुं० [सं०√वा (गमनादि)+ल्युट्–अन] १. गति। २. सुरंग। ३. सुगंध। ४. पानी में लगनेवाला हवा का झोंका। ५. चटाई। प्रत्य० [सं० वान्] एक प्रत्यय जो कुछ सवारियों के नामों के अंत में लगकर उन्हें चलाने या हाँकनेवाले का सूचक होता है। जैसे—एक्कावान, गाड़ीवान। वि० [सं०] १. वन-संबंधी। जंगल का। २. सूखा या सुखाया हुआ। पुं० १. बड़ा और घना जंगल। २. जल आदि का बहाव या आगे बढ़ना। ३. सूखा फल। (ड्राई फ्रूट)। ४. महक। सुगंधि। ५. यम।
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वान-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] करघे की वह लकड़ी जिसमें बुनने के लिए बाना लपेटा रहता है।
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वान-वासिका  : स्त्री० [सं० वानवास+कन्+टाप्, इत्व] सोलह मात्राओं के छन्दों या चौपाइयों का एक भेद, जिसमें नवीं और बारहवीं मात्राएँ लघु होती हैं।
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वानक  : पुं० [सं० वान+कन्] ब्रह्मचर्यावस्था।
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वानप्रस्थ  : पुं० [सं० वन+प्र√स्था (ठहरना)+कु, वनप्रस्थ+अण्] १. भारतीय आर्यों में जीवन-यापन के चार शास्त्र विहित आश्रमों या विभागों में से एक जो गृहस्थ आश्रम के उपरान्त और संन्यास से पहले आता है और जिसमें मनुष्य ५॰ वर्ष का हो जाने पर पचीस वर्षों तक वनों में घूमता-फिरता रहता है। २. महुए का पेड़। ३. पलास।
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वानर  : पुं० [सं०] १. ऐसा प्राणी जो पूरी तरह से तो नर या मनुष्य न हो, फिर भी उससे बहुत कुछ मिलता-जुलता हो। जैसे—गोरिल्ला, चिम्पांजी आदि। २. बन्दर। ३. दोहे का एक लघु भेद जिसके प्रत्येक चरण में १॰ गुरु और २८ लघु होते हैं।
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वानर-युद्ध  : पुं० [सं०] दे० ‘छापामार लड़ाई’।
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वानर-सेना  : स्त्री० [सं०] छोटे-छोटे बच्चों का दल जो कोई विशिष्ट कार्य करने के लिए नियुक्त हो।
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वानरी  : वि० [सं०] १. वानर-सम्बन्धी। बन्दर का। २. वानर या बन्दर की तरह का। जैसे—वानरी तप। स्त्री० १. बन्दर की मादा। बँदरिया। २. केंवाच। कौंछ।
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वानरी तप  : पुं० [सं०] एक प्रकार का तप या तपस्या जो बन्दरों की तरह बराबर वृक्षों पर ही रहकर और उनके पत्ते, फल आदि खाकर की जाती है।
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वानवासक  : पुं० [सं० वानवास+कन्] वैदेही माता से उत्पन्न वैश्य का पुत्र।
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वानस्पतिक  : वि० [सं०] १. वनस्पति सम्बन्धी। वनस्पति का। २. वनस्पति के द्वारा बनने या होनेवाला । जैसे–वानस्पतिक खाद या तैल।
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वानस्पतिक खाद  : स्त्री० [सं०+हिं] गोबर, मल, पौधों आदि के मिश्रण से बनाई हुई खाद। कूड़े आदि से बनी खाद (कम्पोस्ट)।
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वानस्पत्य  : पुं० [सं० वनस्पति+ण्य] १. वह वृक्ष जिसमें पहले फूल लगकर पीछे फल लगते हैं। जैसे–आम, जामुन आदि। २. वनस्पतियों का वर्ग या समूह। ३. वनस्पतियों के तत्त्वों और उनकी वृद्धि, पोषण आदि से सम्बन्ध रखनेवाला शास्त्र। (आरबोरिकल्चर)। वि०=वानस्पतिक।
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वानाचार  : पुं० [सं०] दे० ‘वाम-मार्ग’।
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वानिक  : वि० [सं० वन+ठक्–इक] १. जंगली। वन्य। २. जंगल में रहनेवाला। वनवासी।
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वानीर  : पुं० [सं० वन+ईरन+अण्] १. बेंत। २. पाकर वृक्ष।
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वानेय  : पुं० [सं० वन+ढञ्-एय] केवड़ी मोथा। वि० १. वन में रहने या होनेवाला। २. जल संबंधी।
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वान्  : प्रत्य० [सं०] [स्त्री० वती] एक संस्कृत प्रत्यय जो कुछ शब्दों के अंत में लग कर युक्त या संपन्न होने का सूचक होता है। जैसे—ऐश्वर्यवान्, धैर्यवान् आदि।
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वान्य  : वि० [सं० वन+ण्य] वन-संबंधी। वन का। जंगली।
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वाप  : पुं० [सं०√वप् (बोना)+घञ्] १. बीज आदि बोना। बपन। २. खेत। ३. मुंडन।
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वापक  : वि० [सं०√वप् (बोना)+णिच्+ण्वुल–अन] बपन करने अर्थात् बीज बोनेवाला।
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वापन  : पुं० [सं०√वप् (बोना)+णिच्-छल्युट–अन] बीज बोना।
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वापस  : वि० [फा०] १. (जीव या यान) जो कहीं न जाकर लौट आया हो। २. (वस्तु) जिसे किसी ने मँगनी माँगकर अथवा खरीदकर फेर दिया हो।
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वापसी  : वि० [फा] १. जो वापस होकर आया हो। जैसे–वापसी जवाब। २. वापस जाने से संबंध रखनेवाला। जैसे–वापसी टिकट। स्त्री० १. वापस होने या लौटने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. वापस की या लौटाई हुई चीज देने या लेने की क्रिया या भाव।
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वापसी-टिकट  : पुं० [हिं०] वह टिकट जिससे कहीं जाया और वहाँ से वापस आया जा सकता हो। जैसे–रेल या हवाई जहाज का वापसी टिकट (रिटर्न टिकट)।
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वापिका  : स्त्री० [सं० वप+इञ्+कन्+टाप्]=वापी।
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वापित  : वि० [सं०√वप् (बोना)+णिच्+क्त] १. बोया हुआ। २. मूँड़ा हुआ।
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वापी  : स्त्री० [सं० वापि+ङीष्] एक प्रकार का चौड़ा और बड़ा कूआँ या छोटा तालाब जिमसें जल तक पहुँचने के लिए प्रायः सीढ़ियाँ बनी रहती हैं। बावली।
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वाप्य  : पुं० [सं० वापी+यत्, वा√वप्+ण्यत्] वपन किये या बोए जाने के योग्य (बीज या भूमि)। पुं० १. वापी या बावली का पानी। २. बोया हुआ धान्य। (रोपे हुए से भिन्न) २. कुट नामक औषधि।
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वाम  : वि० [सं० वा+मन्] १. शरीर के उस पक्ष में या उसकी ओर होने वाला जो दूसरे पक्ष की अपेक्षा साधारण प्राणियों में कमजोर या दुर्बल होता है। बायाँ। २. ‘दक्षिण’ का ‘दाहिना’ का विपर्याय। ३ प्रतिकूल। विरुद्ध। ३. कुटिल। टेढ़ा। ४. दुष्ट। बुरा। पुं० १. कामदेव। २. वरुण। ३. धन-संपत्ति। ४. कुच। स्तन। ५. चन्द्रमा के रथ का एक घोड़ा ६. सवैया छंद का आठवाँ भेद, जिसके प्रत्येक चरण में सात जगण, और एक यगण होते हैं। इसे मंजरी, मकरंद और माधवी भी कहते हैं। ७. वामदेव।
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वाम-कक्ष  : पुं० [सं०ब०स०] एक गोत्रकार ऋषि जिनके गोत्र के लोग वामकक्षायन कहलाते हैं।
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वाम-मार्ग  : पुं० [सं०] तांत्रिक साधना में एक पद्धति जिसमें मृत प्राणियों के दाँतों की माला, पहनते, कपाल या खोपड़ी का पात्र रखते, छोटी कच्ची मछलियाँ और माँस खाते तथा सजातीय पर-स्त्रियों से समान रूप से मैथुन करते हैं।
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वाम-मार्गी  : वि० [सं०] वाम-मार्ग सम्बन्धी। वाम-मार्ग का। पुं० वह जो वाम-मार्ग का अनुयायी हो।
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वाम-शील  : वि० [सं०] [सं० वामशीला] प्रायः या सदा वाम अर्थात् प्रतिकूल या विरुद्ध रहनेवाला।
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वामक  : पुं० [सं० वाम+कन्] १. एक प्रकार की अंग-भंगी। २. बौद्धों के अनुसार एक चक्रवर्ती।
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वामता  : स्त्री० [सं०] १. वाम होने की अवस्था या भाव। २. प्रतिकूलता। विरुद्धता।
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वामदेव  : पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. एक वैदिक ऋषि।
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वामदेवी  : स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. सावित्री।
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वामन  : वि० [सं०] [स्त्री० वामनी] १. छोटे कद या डील का। ठिंगना। २. नाटा। बौना। खर्च। ३. ह्रस्व। पुं० १. विष्णु। २. विष्णु का पाँचवाँ अवतार जो अदिति के गर्भ से हुआ था, और जिसमें उन्होंने बौने का रूप धारण करके राजा बलि को छलकर उससे सारी पृथ्वी दान रूप में ले ली थी। ३. अठारह पुराणों में से एक। ४. शिव। ५. एक दिग्गज का नाम। ६. छोटे डील का या बौना घोड़ा।
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वामन-द्वादशी  : स्त्री० [सं० ष० त] भाद्रपद शुक्ला द्वादशी जिस दिन व्रत करके वामन अवतार की पूजा करने का विधान है।
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वामनिका  : स्त्री० [सं० वामन+कन्+टाप्+इत्व] स्कंद की अनुचरी एक मातृका। २. बौनी या ठिंगनी स्त्री।
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वामनी  : स्त्री० [सं० वामन+ङीष्] एक प्रकार का योनि रोग।
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वामलूर  : पुं० [सं० वाम√लू (काटना)+रक्] दीमक का भीटा। वल्मीक बाँबी।
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वामलोचना  : स्त्री० [सं०] सुन्दरी स्त्री।
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वामा  : स्त्री० [सं०√वम् (निकालना)+अण्+टाप्, अथवा वाम+अ+च्+टाप्] १. स्त्री० २. दुर्गा। ३. पार्श्वनाथ की माता। ४. दस अक्षरों के एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में तगण, यगण और भगण तथा अंत में एक गुरु होता है।
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वामाक्षी  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. सुंदरी स्त्री। २. दीर्घ ‘ई’ स्वर या उसकी मात्रा।
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वामांगिनी  : स्त्री० [सं०] विवाहिता पत्नी।
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वामांगी  : स्त्री० [सं०]=वामांगिनी।
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वामाचारी (रिन्)  : पुं० [सं० वामाचार+इनि]=वाममार्गी।
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वामाँदा  : वि० [फा०] [भाव० वामाँदगी] १. पीछे छूटा हुआ। २. थक जाने के कारण रास्ते में पीछे छूटा हुआ। ३. बाकी बचा हुआ। ४. लाचार। विवश।
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वामावर्त  : वि० [सं० वाम-आ√वृत्+अच्] १. (पदार्थ) जिसका मुँह बाई ओर घूमा हुआ हो। जैसे–वामावर्त शंख। २. (क्रिया) जिसका आरंभ बाई ओर से हो। जैसे–वामावर्त प्रदक्षिणा। ‘दक्षिणा-वर्त’ का विपर्याय।
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वामिका  : स्त्री० [सं० वाम+कन्+टाप्+इत्व] चंडिका देवी।
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वामी  : स्त्री० [सं० वाम+ङीष्] १. श्रृंगाली। गीदड़ी। २. घोड़ी। ३. हथनी। ४. गधी।
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वामेक्षणा  : स्त्री० [सं० ब० स०] सुंदर नेत्रोंवाली स्त्री।
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वामोरु  : स्त्री० [सं० ब० स०] सुंदर स्त्री।
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वाम्नी  : स्त्री० [सं०] एक गोत्रकार विदुषी जिसके गोत्रवाले वाम्नेय कहलाते थे।
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वाय  : पुं० [सं०√वे (बुनना)+घञ्] १. बुनना। वपन। २. साधन। अव्य० [फा०] दुःख, शोक आदि का सूचक अव्यय। जैसे–वायकिस्मत।
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वाय  : स्त्री० [सं० वायु] १. हवा। २. गंध। महक। (राज०) जैसे—बधवाव (बाघ के शरीर से निकलनेवाली गंध)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वायक  : वि० [सं०] बुननेवाला। पुं० जुलाहा। तन्तुवाय।
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वायदंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. करघे का हत्था। २. करघे की ढरकी।
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वायदा  : पुं० [फा० वाइदः] १. वादा। वचन। २. सट्टेवालों की परिभाषा में, भविष्यकाल के सम्बन्ध में किया जानेवाला सौदा। जैसे–दालों के वायदे के बाजारों में इस सप्ताह भी अच्छी तेजी-मंदी आई।
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वायन  : पुं० [सं०√वे (बुनना)+ल्युट-अन] १. मंगल अवसरों, उत्सवों आदि के समय बनाई जानेवाली मिठाई। २. उक्त का वह अंश जो रिश्ते-नाते में भेजा जाय। ३. सौगात।
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वायव  : वि० [सं०] १. वायु संबंधी। वायु का। २. वायु के द्वारा या उसकी सहायता से होनेवाला। (एरियल)। ३. जिसका कुछ भी आधार न हो। हवाई। जैसे–वायव स्वप्न।
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वायव-भट्ठी  : स्त्री० दे० ‘पवन भट्ठी’।
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वायवी  : वि० [वायु+अण्+ङीष्] वायु के समान हृदय के भीतर ही भीतर रहनेवाला। प्रकाश में न आनेवाला। स्त्री० उत्तर पश्चिमी कोण।
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वायवीय  : वि० [सं०] १. वायु संबंधी। २. वायु के बल से चलनेवाला (एरियल) स्त्री वह ताल जिसका एक सिरा तो रेडियो यंत्र से संबद्ध होता है और दूसरा सिरा या तो खुले आकाश में विस्तृत होता है या ऊँचाई पर खड़े हुए बाँस के साथ लगा रहता है। (एरियल)।
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वायव्य  : वि० [सं० वायु+यत्] १. वायु संबंधी। २. वायु के द्वारा बनने या होनेवाला। ३. जिसका देवता वायु हो। पुं० १. पश्चिम और उत्तर दिशाओं के बीच का कोण जिसका अधिपति वायु देवता माना गया है। २. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ३. दे० ‘वायु-पुराण’।
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वायव्या  : स्त्री० [सं०वायव्य+टाप्]=वायव्य (कोण)।
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वायस  : पुं० [सं०] १. अगर का पेड़। २. कौआ।
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वायसतंतु  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. हनु के दोनों जोड़। २. काल तुंडी।
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वायसी  : स्त्री० [सं० वायस+अण्+ङीष्] १. छोटी मकोय। काकमाची। २. महाज्योतिष्मती। ३. सफेद घुँघची। ४. काकजंघा। ५. महाकरंज। ६. काकतुंडी । कौआ ठोढ़ी।
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वायसेसु  : पुं० [सं० ष० त०] काँस (तृण)।
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वायु  : स्त्री०=वायु। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वायु  : स्त्री० [सं०] १. वायु। हवा। विशेष–हमारे यहाँ (क) इसकी गिनती पाँच महाभूतों में की गई है और इसका गुण स्पर्श कहा गया है। (ख) इसकी एक दूसरे के ऊपर सात, तहें या परतें मानी गई है। जिनके नाम है–आवह, प्रवह, संवह, उद्वह, विवह, परिवह और परावह। २. धार्मिक क्षेत्र में एक देवता जो उक्त का अधिष्ठाता माना गया है और जिसका निवास उत्तर-पश्चिम कोण में माना गया है। ३. दर्शन में जीवनी-शक्ति या प्राणों का वह मुख्य आधार जो शरीर के अन्दर रहता है और जिसके पाँच भेद कहे गये हैं–प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। ४. वैद्यक में, उक्त का वह अंश या रूप जो शरीर के अन्दर रहता है और जिसके प्रकोप का विकार से अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते है। वात।
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वायु-अपनयन  : पुं० [सं०] वायु का धूल, बालू, आदि उड़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना। विशेष—प्रायः समुद्र तट से और शुष्क प्रदेशों से होकर बहनेवाली वायु वहाँ से अपने साथ बहुत-सी धूल, बालू आदि भी उड़ा ले जाती है जिससे कहीं तो ऊपर की मिट्टी साफ होने से नीचे का चट्टान निकल आती है और कहीं रेत के टीले बन जाते हैं। विज्ञान में वायु की यहि क्रिया वायु-अपनयन कहलाती है।
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वायु-कोण  : पुं० [सं०] वायव्य (कोण)।
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वायु-गुल्म  : पुं० [सं०] १. वायु-विकारों के कारण पेट में बनने या घूमता रहनेवाला वायु का गोला। २. बवंडर।
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वायु-छिद्र  : पुं० [सं०] भू-गर्भ शास्त्र में, समुद्र तट की चट्टानों में कहीं-कहीं पाये जानेवाले वे छिद्र जिनमें हवा भरी रहती है, और ज्वार या भाटा होने पर जिनमें से भीतरी वायु के दबाव के कारण पानी के फुहारे छूटने लगते हैं (ब्लो-होल)।
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वायु-तनय  : पुं० [सं० ष० त०]=वायु-नंदन (हनुमान्)।
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वायु-दारु  : पुं० [सं०] मेघ। बादल।
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वायु-देव  : पुं० [ब० स०] स्वाति नक्षत्र।
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वायु-नंदन  : पुं० [वायु√नंद (हर्षित करना)+ल्यु-अन] १. हनुमान। २. भीम।
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वायु-पंचक  : पुं० [ष० त०] शरीर में रहनेवाला प्राण, अपान, समान उदान और ध्यान नामक पाँचों वायुओं का समाहार।
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वायु-पथ  : पुं०=वायु-मार्ग।
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वायु-पुत्र  : पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीम।
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वायु-पुराण  : पुं० [मध्य० स०] अठारह मुख्य पुराणों में से एक पुराण।
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वायु-फल  : पुं० [सं०] इन्द्रधनुष।
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वायु-भक्ष्य  : पुं० [सं०] सर्प। साँप।
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वायु-भार  : पुं० [सं०] वायु-मण्डल में वायु की ऊपरी तहों का नीचेवाली तहों पर पड़नेवाला वह भार जिसके कारण नीचे की वायु घनी और भारी होती है। (एटमास्फेरिक प्रेशर)। विशेष–हमारे धरातल पर प्रति वर्ग इंच प्रायः १४॥ पौंड भार रहता है।
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वायु-भार-मापक  : पुं० [सं०] वह यंत्र जिससे किसी स्थान या वातावरण के घटने या बढ़नेवाले ताप-क्रम का पता चलता है। (बैरोमीटर)।
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वायु-मंडल  : पुं० [सं०] १. वह गोलाकार वाष्पीय आवरण जो हमारी पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। (एटमाँस्फियर) २. दे० ‘वातावरण’।
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वायु-मरुत्  : स्त्री० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार एक प्राचीन लिपि।
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वायु-मार्ग  : पुं० [सं०] आकाश या वायु में के वे निश्चित मार्ग जिनसे होकर हवाई जहाज आदि एक देश से या स्थान से दूसरे देश या स्थान को जाते हैं। (एयर रूट)।
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वायु-मिति  : स्त्री० [सं०] वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि वायु में कितनी शुद्धता है। (यूडिओमेट्री)।
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वायु-यान  : पुं० [मध्य० स०] हवा में उड़नेवाला मनुष्य निर्मित यान। हवाई जहाज।
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वायु-लोक  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक लोक। २. आकाश।
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वायु-वलन  : पुं० दे० ‘वातानुकूलन’।
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वायु-वाहन  : पुं० [ष० त०] १. विष्णु। २. शिव। ३. धूआँ।
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वायु-संवलन  : पुं० [सं० ब० स०] [वि० वायु-संवलित] दे० ‘वातानुकूलन’।
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वायु-संवलित  : भू० कृ० [सं०] दे० ‘वातानुकूलित’।
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वायु-सुख  : पुं० [सं०] अग्नि। आग।
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वायु-सेना  : स्त्री० [सं०] सेना का वह विभाग जो वायुयानों से शत्रु-पक्ष पर गोले आदि फेंकता है।
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वायु-सेवन  : पुं० [सं०] स्वास्थ्य रक्षा के लिए खुली हवा में घूमना-फिरना उठना-बैठना या रहना।
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वायु-सेवा  : स्त्री० [फा०] वायुयानों के द्वारा की जानेवाली कोई सार्वजनिक सेवा। जैसे– वायुयान द्वारा यात्री या डाक लाने ले जाने का काम।
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वायु-स्नान  : पुं० [सं०] स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए नंगे बदन होकर खुली हवा में कुछ देर तक इस प्रकार रहना कि शरीर के सब अंगों में अच्छी तरह हवा लगे। एयर बाथ।
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वायुगंड  : पुं० [तृ० त०] १. अजीर्ण नामक रोग। २. पेट अफरने का रोग। अफरा।
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वायुमंडल-विज्ञान  : पुं० [सं०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि पृथ्वी के वायु-मंडल की क्या-क्या विशेषताएं हैं, उसमें कैसे-कैसे वाष्प है, और ऊपर की ओर उसका विस्तार कहाँ तक और कैसा है। (एयरॉलोजी)।
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वायुमापी  : पुं० [सं०] वह यंत्र जो वायु मिति के द्वारा वायु की शुद्धि और उसमें होनेवाले आक्सीजन का मान या माप बतलाता है (यूडिओमीटर)।
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वार  : पुं० [सं०√वृ+घञ्] १. द्वार। दरवाजा। २. अवरोध। रुकावट। ३. आवरण। ढक्कन। ४. नियत काल या समय। ५. किसी काम या बात की पुनरावृत्ति का आनेवाला अवसर। दफा। बार। बारी। (दे० ‘बार’) ६. सप्ताह के दिनों के नामों के अन्त में लगनेवाला कालावधिक सूचक शब्द। जैसे–रविवार, सोमवार आदि। ७. क्षण। ८. कुंज नामक वृक्ष। ९. शराब पीने का प्याला। १॰. तीर। बाण। ११. जलाशय का किनारा। कूल। तट। १२. विशेष रूप से जलाशय का वह किनारा जो वक्ता की ओर हो। उदाहरण-पार कहे उत वार है और कहे उतपार। इसी किनारे बैठ रह, वार यहि पार। पद—वार-पार, वारापार (देखें स्वतंत्र शब्द)। अव्य० और। तरफ। पुं० [सं० बार=दांव, बारी] आक्रमण आदि के समय किया जानेवाला आघात। प्रहार। जैसे–तलवार या लाठी से वार करना। मुहावरा–वार खाली जाना= (क) प्रहार, निशाने आदि में चूक होना। (ख) युक्ति निष्फल होना। प्रत्य० [फा०] क्रम से। क्रमात्। जैसे–तफसीलवार, नामवार,ब्योरेवार। प्रत्यय०=वाला। जैसे–करनवार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वार-कन्या  : स्त्री० [सं०] वेश्या रंडी।
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वार-तिय  : स्त्री० [सं० वार+स्त्री] वेश्या।
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वार-पार  : पुं० [सं० अवर-पार] १. इस पार के और उस पार के दोनों, किनारे या सिरे। जैसे–बाढ़ का पानी चारों ओर इतनी दूर तक फैल गया था कि कहीं उसका वार-पार नहीं दिखाई देता था। २. पूरा या समूचा। विस्तार। अव्य इस किनारे,छोर या सिरे से उस किनारे छोर या सिरे तक। वार-पार। जैसे– तीर हिरन के वार-पार कर गया।
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वार-फेर  : पुं०=वारा-फेरा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वार-बाण  : पुं० [सं०] कंचुक की तरह का, पर उससे कुछ छोटा एक पुराना पहनावा जो युद्ध के समय पहना जाता था।
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वार-वधू  : स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।
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वारंक  : पुं० [सं०√वृ+अंकन्] पक्षी।
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वारक  : वि० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्+ण्वुल्-अक] १. वारण अर्थात् निषेध करनेवाला। २. रूकावट डालनेवाला। प्रतिबंधक। पुं०१. घोड़ा। २. घोड़े का कदम। ३. ऐसा समय या स्थान जहाँ कोई कष्ट या पीड़ा हो। ४. बाधा या अवसर या स्थान। ५. एक प्रकार का सुगंधित तृण।
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वारकी  : पुं० [सं० वारक+इनि] १. प्रतिवादी। २. शत्रु। ३. समुद्र। ४. ऐसा तपस्वी जो केवल पत्ते खाकर रहता हो। पर्णाशी। यती।
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वारकीर  : पुं० [सं० स० त०] १. किसी की पत्नी का भाई। साला। २. द्वारपाल। ३. बाड़वाग्नि। बड़वानल। ४. जूँ नाम का कीड़ा। ५. कंघी। ६. लड़ाई में सवार के काम आनेवाला घोड़ा।
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वारंग  : पुं० [सं०√वृ+अंगच्] १. तलवार की मूठ। २. प्राचीन वैद्यक में एक प्रकार का अस्त्र।
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वारगह  : पुं० [सं० वारि+गृह, मि० फा० बारगाह] १. तंबू। खेमा। २. दे० ‘बारगाह’। पुं० [सं० वारण+गृह] हाथियों के बाँधने का स्थान। उदाहरण-बंधण दधि कि वारगह।–प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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वारज  : पुं० [सं०] [भू० कृ० वारित] १. अनिष्ट या अनुचित कार्य आदि के सम्बन्ध में होनेवाली निषेधात्मक आज्ञा, आदेश या सूचना। निषेध। मनाही। २. अनिष्ट आदि को दूर रखने या उनसे बचने के लिए किया जाने वाला उपाय या कार्य। ३. आपत्तिजनक या दूषित प्रकाशनों आदि का प्रचार रोकने के लिए राज्य या शासन की ओर से होनेवाली निषेधात्मक आज्ञा या व्यवस्था। (स्क्रेप्शन)। ४. बाधा। रुकावट। ५. शरीर को अस्त्रों आदि से आघात से बचानेवाला। कवच। बकतर। ६. हाथी को वश में रखनेवाला अंकुश। ७. सम्भवतः इसी आधार पर हाथी की संज्ञा। ८. छप्पय छन्द का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में कुछ आचार्यों के मत से ४१ गुरु और ७॰ लगु तथा कुछ आचार्यों के मत से ४१ गुरु और ६६ लघु मात्रा होती है। ९. हरताल। १॰. कला शीशम। ११. सफेद कोरैया।
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वारंट  : पुं० [अं०] १. आज्ञा-पत्र। २. विधिक क्षेत्र में न्यायालय का ऐसा आज्ञापत्र जिसके अनुसार किसी राजकीय कर्मचारी को कोई ऐसा काम करने का आदेश होता है जो साधारण स्थिति में वह न कर सकता हो। जैसे– गिरिफ्तारी या तलाशी का वारंट। ३. लोकव्यवहार में किसी की गिरफ्तारी के लिए निकलनेवाला आज्ञा-पत्र।
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वारणावत  : पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर जिसमें दुर्योधन के पांडवों के लिए लाक्षागृह बनवाया था।
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वारणिक  : वि० [सं०] १. वारण-संबंधी। २. (उपाय या कार्य) जो अनिष्ट, क्षति, हानि आदि से बचने अथवा अपने हित-साधन के विचार से पहले किया जाय प्रिकाशनरी।
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वारणीय  : वि० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्+अनीयर्] वारण करने योग्य। मनाही के लायक।
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वारद  : पुं०=वारिद (बादल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वारदात  : स्त्री० [अं० ‘वारिद’ का बहु० शुद्ध रूप वारिदात] १. घटना। २. बुरी घटना। दुर्घटना। २. चोरी डकैती मार-पीट, दंगा-फसाद आदि की आपराधिक घटना। ४. किसी प्रकार की घटना का विवरण। (मूलतः बहुवचन पर उर्दू हिन्दी में एक वचन रूप में प्रयुक्त)
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वारन  : पुं० [सं० वंदनमाल] बंदनवार। पुं० [सं० वारण] हाथी। स्त्री० [हिं० वारना] वारने की क्रिया या भाव। निछावर। बलि। पुं० [सं० वारण] परदा। उदाहरण–निरवौर वारण बिसारै पुनि द्वार हू कौ।–सेनापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वारना  : स० [सं० वारण=दूर करना] टोने-टोटके के रूप में कोई चीज किसी के सिर के चारों ओर से घुमाकर निछावर करना। मुहावरा–वारी जाऊँ=निछावर हो जाऊँ (स्त्रियाँ)। पुं० निछावर। मुहा०– (किसी पर) वारने जाना=निछावर होना।
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वारनिश  : स्त्री० [अं०] १. स्पिरिट, चपड़े, रूमी मस्तगी आदि के योग से बननेवाला एक प्रकार का घोल जो लकड़ी के सामान पर चमक लाने के लिए लगाया जाता है।
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वारयितव्य  : वि० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्+तव्यत्]=वारणीय।
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वारयिता (तृ)  : पुं० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्+तृच्] १. रक्षक। २. पति। वि० वरण करनेवाला।
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वारवाणि  : पुं० [सं०] १. वंशी बजानेवाला। २. अच्छा गवैया। ३. न्यायाधीश। ४. ज्योतिषी।
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वारवाणी  : स्त्री० [सं०] वेश्या।
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वारवासि, वारवास्य  : पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक प्राचीन जनपद जो भारत की पश्चिमी सीमा के उस पार था।
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वारस्त्री  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वेश्या रंडी।
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वारा  : वि० [सं० वारण] १. (पदार्थ) जिसके खरीदने या बेचने में कुछ अधिक बचत भी हो। २. (दर या भाव) जिस पर बेचने से लागत व्यय निकल आने के सिवा कुछ आर्थिक बचत भी हो। पुं० १. वह स्थिति जिसमें किसी निश्चित दर पर कोई चीज खरीदने या बेचने से लागत, व्यय आदि निकालने के साथ-साथ कुछ बचत भी होती है। २. फायदा। लाभ। उदाहरण–उनके बारे की कछू मोपै कही न जाइ।–रसानिधि। पुं० [हिं० वारना] चीज वारने या निछावर करने की क्रिया या भाव। पद–वारा-फेरा। मुहावरा–वारा जाना या वारा होना=किसी पर निछावर जाना या बलि होना। (बहुत अधिक प्रेम का सूचक) वारी जाना=वारा जाना (स्त्रियाँ)।
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वारा-न्यारा  : पुं० [हिं० वार+न्यारा] १. झंझट या झगड़े बखेड़े आदि का निपटारा। २. ऐसी स्थिति जिसमें किसी एक ओर का पूरा निर्णय या निश्चय हो जाय, या तो इधर हो जाय या उधर हो जाय जैसे–सट्टे में लाखों का वारा-न्यारा होता रहता है।
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वारा-पार  : पुं० [सं० वार+पार] १. यह पार और वह पार। २. अन्तिम या चरम सीमा। जैसे–ईश्वर की महिमा का कोई वारापार नहीं है।
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वारा-फेरा  : पुं० [हिं० वारना+फेरना] १. किसी के ऊपर से कोई चीज या कुछ द्रव्य निछावर करने की क्रिया या भाव। २. विवाह, मुंडन आदि शुभ अवसरों पर होनेवाली उक्त रस्म। ३. वह धन या पदार्थ जो उक्त प्रकार से निछावर किया जाय।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वारांगणा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] वेश्या। रंडी।
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वाराणसी  : स्त्री० [सं०] वरुणा और अस्सी नदियों के बीच में बसी हुई तथा गंगा तट पर स्थित काशी नगरी। बनारस।
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वाराणसेय  : वि० [सं० वाराणसी+ढक्–एय] १. वाराणसी सम्बन्धी। २. वाराणसी में उत्पन्न या बना हुआ। बनारसी।
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वारांनिधि  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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वाराह  : पुं० [सं०] [स्त्री० वाराही] १. सूअर। बराह। २. विष्णु का तीसरा अवतार जो शूकर या शूअर के रूप में हुआ था। काली मैनी का वृक्ष। ३. जलाशय के किनारे होनेवाला बेंत।
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वाराहपत्री  : स्त्री० [सं० ब० स०] अश्वगंधा। असगंध।
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वाराही  : स्त्री० [सं० वराह+ङीष्] १. ब्रह्माणी आदि आठ मातृकाओं में से एक मातृका। २. एक योगिनी। ३. श्यामा पक्षी। ४. कँगनी नामक कदन्न। ५. वाराही कन्द।
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वाराही-कंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का महाकंद जो औषध में काम आता है। गृष्टि।
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वारि  : पुं० [सं०√वृ (रोकना)+णिच्-इञ्, अथवा वृ+इण्] १. जल। पानी। २. कोई तरल द्रव या पदार्थ। ३. वाणी। सरस्वती। ४. हाथी बाँधने का सिक्कड़। ५. छोटा गगरा या घड़ा। ६. सुगन्ध बाला।
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वारि-केय  : पुं० [वारिका+ढक्–एय] दे० ‘जल-लेखी’।
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वारि-कोल  : पुं० [सं०] कच्छप। कछुआ।
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वारि-गर्भ  : पुं० [ब० स०] बादल। मेघ।
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वारि-चर  : वि० [सं०] पानी में रहने और चलने फिरने वाला जलचर। पुं० १. मछली आदि जीव-जन्तु जो पानी में रहते हैं। २. शंख।
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वारि-रथ  : पुं० [सं० ष० त०] जहाज या यान।
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वारि-रुह  : पुं० [वारि√रुह् (उत्पन्न होना)+क] कमल।
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वारि-वर्त  : पुं० [सं० वारि+आवर्त] मेघ। बादल।
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वारि-वास  : पुं० [सं०] मद्य के निर्माण या व्यापारी।
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वारि-वाह  : पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. नागर मोथा।
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वारि-वाहन  : पुं० [ष० त०] मेघ। बादल।
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वारि-शास्त्र  : पुं० [सं०] १. फलित ज्योतिष का वह अंग जिससे यह जाना जाता है कि कब, कहाँ और कितनी वर्षा होगी। २. दे० ‘वारिकेय’।
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वारिकफ  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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वारिज  : वि० [सं०] जल में या जल से उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. कमल। २. मछली। ३. शंख। ४. घोंघा। ५. कौड़ी। ६. खरा और बढ़िया सोना। ७. द्रोणी लवण।
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वारिजात  : वि० पुं० [सं०]=वारिज।
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वारित  : भू० कृ० [सं०] जिसका वारण किया गया या हुआ हो। मना किया हुआ।
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वारित्र  : पुं० [सं० वारि√त्रा (रक्षा करना)+ड] अविहित या निन्दनीय आचरण।
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वारिद  : पुं० [सं०] १. बादल। मेघ। २. नागर मोथा। वि० [अ०] जो आकर उपस्थित या घटित हुआ हो। सामने आया हुआ आगत। विशेष–वारिदात इसी का बहुवचन है जो हिन्दी में ‘वारदात’ (देखें) के रूप में प्रचलित है।
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वारिदात  : स्त्री० [अ०]=वारदात।
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वारिधर  : पुं० [सं०] १. बादल। मेघ। २. नागर मोथा। ३. एक प्रकार का सम वृत्त वर्णिक छन्द जिसके प्रत्येक चरण में रगण, नगण और दो भगण होते हैं।
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वारिधि  : पुं० [सं०] समुद्र।
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वारिनाथ  : पुं० [सं० ष० त०] १. वरुण। २. समुद्र। ३. बादल। मेघ।
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वारिनिधि  : पुं० [सं०] समुद्र।
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वारिपर्णी  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] १. जलकुंभी। २. पानी में होनेवाली काई।
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वारियंत्र  : पुं० [सं०] फुहारा।
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वारियाँ  : अव्य० [हिं० वारना] मैं तुम पर निछावर हूँ (स्त्रियाँ)। मुहावरा– बारियाँ जाऊँ=दे० ‘वारा’ के अन्तर्गत मुहा०–‘वारी जाऊँ’। वारियाँ लेना=बार-बार निछावर होना। (विशेष दे० ‘वारना’ और ‘वारा’ के अन्तर्गत)।
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वारिस  : पुं० [अ०] १. वह जिसे किसी की विरासत मिले। २. उत्तराधिकारी। व्यापक क्षेत्र में, जिसने अपने आपको किसी दूसरे के कार्यों का संचालन करने के योग्य बना लिया हो।
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वारी  : स्त्री० [सं० वारि+ङीष्] १. हाथी के बाँधने की जंजीर या अँडुआ। गजबंधन। २. छोटा घड़ा। कलसा। वि० स्त्री० दे० ‘वारा’ के अन्तर्गत ‘वारी’ जाना आदि मुहा०।
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वारी-फेरी  : स्त्री०=वारा-फेरा।
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वारींद्र  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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वारीश  : पुं० [सं० ष० त०] समुद्र।
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वारु  : पुं० [सं०√वृ (मना करना)+णिच्+उण्] वह हाथी जिस पर विजय पताका चलती है। विजय-हस्ति।
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वारुठ  : पुं० [सं० वारु+ठन्] १. मृत्यु-शय्या। २. शव ले जाने की अरथी। टिकठी।
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वारुंड  : पुं० [सं०√वृ+उण्ड] १. साँपों का राजा। २. नाव में भरा हुआ पानी बाहर फेंकने का तसला। ३. कान की मैल। खूँट। ४. आँख में निकलनेवाला कीचड़ या मल।
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वारुण  : पुं० [सं० वरुण+अण्] १. जल-पानी। २. शतभिषा नक्षत्र। ३. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ४. हरताल। ५. एक उप-पुराण। ६. वरुण या बरुना नामक वृक्ष। वि० १. वरुण संबंधी। २. जलीय। ३. पश्चिमी।
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वारुण-कर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] कूआँ तालाब, नहर आदि बनाने का काम।
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वारुणक  : पुं० [सं० वारुण+कन्] एक प्राचीन जनपद।
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वारुणि  : पुं० [सं० वरुण+इञ्] १. अगस्त्य मुनि। २. वसिष्ठ। ३. भृगु ऋषि। ४. दाँतवाला हाथी। ५. वारुण या बरुना नामक पेड़। ६. वारुणाक जनपद।
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वारुणी  : स्त्री० [सं० वरुण+अण्+ङीष्] १. वरुण की पत्नी, वरुणानी। २. वृन्दावन के एक कदंब का रस जो वरुण की कृपा से बलराम जी के लिए निकला था। ३. कदंब के फलों से बनाई जानेवाली मदिरा। ४. मदिरा। शराब। ५. उपनिषदविद्या जिसका उपेदश वरुण ने किया था। ६. पश्चिम दिशा। ७. शतभिषा नक्षत्र। ८. एक प्राचीन नदी (कदाचित् आधुनिक वरुणा)। ९. इन्द्रवारुणी लता। १॰. घोड़े की एक प्रकार की चाल। ११. मादा हाथी। हथनी। १२. भुई आँवला। १३. गाँडर दूब। १४. गंगास्नान का एक पुण्य पर्व या योग जो चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को शतभिषा नक्षत्र पड़ने पर होता है।
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वारुणी वल्लभा  : पुं० [ष० त०] समुद्र।
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वारुणीश  : पुं० [सं० ष० त०] विष्णु।
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वारुण्य  : वि० [सं० वरुण+ण्य, अथवा वारुणी+यत्] वरुण-संबंधी। वारुण।
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वारुद  : पुं० [सं० वारु√दा (देना)+क] अग्नि। आग।
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वार्कजंभ  : पुं० [सं० वृकजंभ+अण्] १. वृकजंभ ऋषि के गोत्रज। २. एक साग का नाम।
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वार्क्ष  : वि० [सं० वृक्ष+अण्] वृक्ष संबंधी। वृक्ष का। पुं० वृक्षों की छाल से बना हुआ कपड़ा।
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वार्क्षी  : स्त्री० [सं० वार्क्ष+ङीष्] प्रचेतागण की स्त्री मारिषा का दूसरा नाम।
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वार्ड  : पुं० [अं०] १. रक्षा। हिफाजत। २. वह व्यक्ति जो किसी की रक्षा या हिफाजत में रहता हो। ३. किसी विशिष्ट कार्य के लिए स्थानों का निश्चित किया हुआ विभाग। मंडल। जैसे– (क) इस नगर पालिका में १२ वार्ड हैं। (ख) इस अस्पताल में यक्ष्मा के रोगियों के लिए अलग वार्ड बनेगा।
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वार्डन  : पुं० [अं०] किसी विभाग विशेषतः छात्रावास के किसी विभाग का व्यवस्थापक आधिकारी।
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वार्डर  : पुं० [अं०] १. वह जो किसी वार्ड (मंडल) में रक्षा का काम करता हो। २. जेलों में कैदियों का पहरेदार।
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वार्णक  : पुं० [सं० वर्णक+अण्] लेखक।
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वार्णव  : पुं० [सं०] [वर्णनद से वर्णु+अण्] आधुनिक बन्नू नगर और उसके आसपास के प्रदेश का पुराना नाम।
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वार्णिक  : पुं० [सं० वर्ण+ठञ्-इक] लेखक।
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वार्त  : वि० पुं०=वार्त्त।
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वार्तक  : पुं० [सं० वार्त+कन्] वटेर पक्षी।
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वार्तमानिक  : वि० [सं० वर्तमान+ठक्-इक] १. वर्तमान (काल) से सम्बन्ध रखनेवाला। आजकल का २. जो वर्तमान (उपस्थित या विद्यमान) से सम्बन्ध रखता हो।
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वार्ता  : स्त्री० [सं०] १. बात-चीत। २. ऐसा कथन या बात जो केवल औपचारिक रूप से कही गई हो। पर जिसका व्यावहारिक रूप में सदा उपयोग न होता हो। (फारमल टाक)। ३. ऐसा कथन जो किसी को किसी विषय का ज्ञान कराने लिए हो। (टाक) ४. किवदन्ती। जनश्रुति। अफवाह। ५. खबर। समाचार। ६. वृत्तान्त। हाल। ७. बातचीत का प्रसंग या विषय। ८. वैश्यों की वृत्ति। जैसे–कृषि गो-रक्षा, वाणिज्य-व्यापार आदि। ९. चीजें खरीदना और बेचना। क्रय-विक्रय। १॰. दुर्ग का एक नाम।
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वार्तालाप  : पुं० [सं० ष० त०] लोगों में आपस में होनेवाली बात-चीत। कथोपथन।
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वार्तिक  : वि० [वृत्ति+ठक्-इक] १. वार्ता संबंधी। २. वार्ता या समाचार लानेवाला। ३. विशद व्याख्या के रूप में होनेवाला। व्याख्यात्मक। पुं० १. किसान। २. व्यवसायी। ३. दूत चर। ४. वैद्य। ५. ऐसी विश्लेषणात्मक व्याख्या जिसमें किसी सूत्र, भाष्य आदि का अर्थ समझाया जाता है उसमें होनेवाली छूट, त्रुटि आदि का निर्देश किया जाता है तथा उसकी व्याप्ति मर्यादित या वर्द्धित की जाती है। ६. कात्यायन का वह प्रसिद्ध ग्रंथ जिसमें पाणिनी के सूत्रों पर विश्लेषणात्मक व्याख्याएँ लिखी हुई है।
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वार्त्त  : वि० [वृत्ति+अण्] १. वृत्ति-सम्बन्धी। वृत्ति का। २. नीरोग। स्वस्थ। ३. हल्का। ४. निस्सार। ५. साधारण। ६. ठीक। पुं० वह जो किसी वृत्ति (काम, धन्धे या पेशे) में लगा हो। वह जो रोजी-रोजगार में लगा हुआ हो।
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वार्त्ताक  : पुं० [सं०] १. बैगन। भंटा। २. बटेर पक्षी।
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वार्त्ताकी  : स्त्री० [सं० वार्ताक+ङीष्] बैंगन। भंटा।
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वार्त्तानुकर्षक  : पुं० [सं० ष० त०] गुप्त बातें ढूँढ़ कर जानने या निकालने वाला, अर्थात् गुप्तचर। जासूस।
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वार्त्तानुजीवी (विन्)  : वि० [सं० ष० त०] कृषि या व्यापार से जीविका चलानेवाला।
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वार्त्तायन  : पुं० [सं० ब० स०] दे० ‘राजपत्र’।
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वार्त्तावह  : पुं० [सं० वार्ता√वह् (ढोना)+अच्] १. पनसारी। २. दूत। ३. राजकीय शासन का आय-व्यय आदि से सम्बन्ध रखनेवाला अंग या विभाग।
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वार्दर  : पुं० [वार√दृ (फाड़ना)+अप्] १. दक्षिणावर्त्त शंख। २. जल। ३. आम की गुठली। ४. रेशम। ५. घोड़े के गले पर दाहिनी ओर की एक भौंरी।
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वार्द्धक्य  : पुं० [सं० वृद्ध+ष्यञ्, कुक्] १. वृद्ध होने की अवस्था या भाव। वृद्धावस्था। २. वृद्धावस्था के फलस्वरूप होनेवाली कमजोरी। ३. वृद्धि।
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वार्ध्रीणस  : पुं० [सं० वार्द्धी नासिका+अच्, नस-आदेश, णत्व, ब० स०] १. लंबे कानोंवाला बकरा। २. गेड़ा। ३. एक प्रकार का पक्षी जिसका बलिदान प्राचीन काल में विष्णु उद्देश्य से किया जाता था।
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वार्मुच  : पुं० [सं० वार्√मुच् (त्याग)+क्विप्] १. बादल। २. मोथा।
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वार्य  : वि० [सं०] १. वरण करने योग्य। २. वर के रूप में प्राप्त या स्वीकार करने योग्य। ३. बहुमूल्य। वि०=निवार्य। पुं० १. वर। २. चहारदीवारी।
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वार्ष  : वि० [सं०]=वार्षिक।
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वार्षक  : पुं० [सं० वर्ष+अण्+कन्] पुराणानुसार पृथ्वी के दस भागों में से एक।
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वार्षगण  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का वैदिक आचार्य।
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वार्षिक  : वि० [सं० वर्षा+ठक्-इक] १. जल की वर्षा या वर्षा ऋतु से संबंध रखनेवाला। २. प्रति वर्ष होनेवाला। एक वर्ष के बाद होनेवाला। ३. एक वर्ष तक चलता रहनेवाला। अव्यय प्रति वर्ष के हिसाब से।
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वार्षिकी  : स्त्री० [सं० वार्षिक] १. प्रति वर्ष दी जानेवाली वृत्ति या अनुदान। (एनुइटी) २. प्रतिवर्ष होनेवाला कोई प्रकाशन। (एनुअल) ३. किसी मृत व्यक्ति के उद्देश्य से उसकी मरणतिथि के विचार से प्रतिवर्ष होनेवाला कोई स्मारक कृत्य। बरसी।
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वार्षिक्य  : वि० [सं० वार्षिक+यत्]=वार्षिक। पुं० वर्षा ऋतु।
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वार्षी  : स्त्री० [सं० वर्षा+अण्+ङीष्] वर्षा ऋतु।
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वार्षुक  : वि० [सं० वर्षुक+अण्] १. बरसनेवाला। २. बरसानेवाला।
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वार्ष्ण  : पुं० [सं० वृष्णि+अण्] कृष्णचन्द्र।
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वार्ष्णेय  : वि० [सं० वृष्णि+ढक्-एय] १. वार्ष्ण सम्बन्धी। २. वार्ष्ण का अनुयायी या भक्त। पुं० १. वृष्णि का वंशज। २. श्रीकृष्ण।
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वार्हस्पत्य  : वि० [सं० वृहस्पति+य़ञ्]=बार्हस्पत्य।
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वाल  : पुं० [√वल् (चलना)+घञ्] (घोड़ों आदि की) पूँछ के बाल। प्रत्यय। [हिं० वाला] एक प्रत्यय जो कुछ संज्ञाओं के अन्त में लगकर यह अर्थ देता है— (क) वाला या मालिक जैसे कोठीवाल। (ख) रहनेवाला, जैसे—गयावाल। (ग) क्रिया करनेवाला, जैसे—देवाल=देने-वाला, लेवाल=लेनेवाला।
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वालक  : पुं० [सं० वाल+कन्] १. बालछड़। २. हाथ में पहनने का कंगन।
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वालंटियर  : पुं० [अं०] स्वयंसेवक।
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वालदैन  : पुं० [अ० वालिदैन] माता-पिता।
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वालना  : स० [?] गिराना। डालना। (राज०) उदाहरण—काजल गल वालियौ किरि।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वालव  : पुं० [सं० वाल√वा (गमनादि)+क] फलित ज्योतिष में एक करण।
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वाला  : स्त्री० [सं० वाल+टाप्] इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के मेल से बने हुए उपजाति नामक सोलह प्रकार के वृत्तों में से एक, जिसके पहले तीन चरणों में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं तथा चौथे चरण में और सब वही रहता है, वल प्रथम वर्ण लघु होता है। प्रत्यय० [सं० वान्] [स्त्री० वाली] १. पूर्ववर्त्ती पद (संज्ञा) के स्वामी या धारक का बोधक। जैसे—घरवाला, चश्मेवाला। २. पूर्ववर्ती पद (क्रिया) के संपादक का बोधक। जैसे—नाचने-वाला, मारनेवाला। ३. पूर्ववर्ती पद (स्थान वाचक संज्ञा) से संबंध रखनेवाला। जैसे— शहरवाला, देहातीवाली जमीन। ४. पूर्ववर्तीपद (उपभोग्य वस्तु) के उपभोग से सम्बन्ध रखनेवाला। (पश्चिम) जैसे—खानेवाली मिठाई=खाने की मिठाई। वि० [फा०] उच्च। ऊँचा।
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वालिका  : स्त्री० [सं० वाल+कन्+टाप्, इत्व] १. =बालिका। २. =बालुका।
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वालिद  : पुं० [अ०] [स्त्री० वालिदा, भाव० वल्दियत] पिता। बाप।
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वालिदा  : स्त्री० [अं० वालिदः] माता। माँ।
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वालिदैन  : पुं० [अं०] माँ-बाप। माता-पिता।
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वाली (लिन्)  : पुं० [सं० वाहिहंसा (तृ), वालि√हन् (मारना)+तृच्, ष० त०] सुग्रीव का बड़ा भाई एक वानर। प्रत्यय० हिं० वाला का स्त्री। पुं० [अं०] १. मालिक। स्वामी। २. बादशाह। ३. सहायक। मददगार। ४. संरक्षक।
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वालुक  : स्त्री० [सं०] १. वृक्ष की शाखा। डाल। २. ककड़ी। ३. वालुका। बालू।
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वालेय  : पुं० [सं० वालि+ढञ्-एय] १. पुत्र। बेटा। २. एक प्रकार का करंज। ३. गधा।
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वाल्क  : वि० [सं० वल्क+अण्] वल्कल या छाल संबंधी। पुं० वृक्षों की छाल या उसके रेशों से बना हुआ कपड़ा।
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वाल्कल  : वि० [सं० वल्कल+अण्] वल्कल संबंधी। छाल का।
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वाल्मीकि  : पुं० [सं० वल्मीक+इञ्] संस्कृत भाषा के आदि कवि तथा रामायण के रचयिता।
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वाल्मीकीय  : वि० [सं० वाल्मीकि+छ-ईय] १. वाल्मीकि सम्बन्धी। वाल्मीकि का। २. वाल्मीकि-कृत।
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वाल्हा  : पुं०=वल्लभ (राज०)।
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वावदूक  : पुं० [सं०√वद् (बोलना)+यङ्, दीर्घ, ऊक्] १. अच्छा बोलनेवाला। वक्ता। वाग्मी। २. बकवादी।
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वावना  : अ० [सं०वाद्य] बजना। उदाहरण-विधि सहित बधावे वाजित्र वावे।—प्रिथीराज। स०=बजाना।
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वावू  : स्त्री०=वायु (राज०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वावैला  : पुं० [अं०] १. रोना-पीटना। विलाप। २. शोर-गुल। हो-हल्ला। क्रि० प्र०—मचाना।
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वांश  : वि० [सं० वंश+अण्] १. वंश संबंधी। वंश का। २. बाँस संबंधी।
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वाशक  : वि० [सं० वा√शा (पतला करना)+ण्वुल-अक] १. चिल्लाने वाला। २. रोनेवाला। पुं०=वासक (अडूसा)।
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वाशन  : पुं० [सं० वा√शा (छीलना)+ल्युट-अन] १. पक्षियों का बोलना। २. मक्खियों का भिनभिनाना। ३. चिल्लाना।
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वांशिक  : पुं० [सं० वंश+ठक्-इक] १. बांस काटनेवाला। २. वंशी अर्थात् बाँसुरी बनानेवाला।
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वाशित  : पुं० [सं०√वाश् (शक करना)+क्त, इत्व] पशु, पक्षी आदि का शब्द।
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वाशिता  : स्त्री० [सं० वाशित+टाप्] १. स्त्री। २. हथनी।
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वाशिष्ठ  : पुं० [वशिष्ठ+अण्] १. एक उपपुराण का नाम। २. एक प्राचीन तीर्थ। वि० वशिष्ठ संबंधी।
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वाशिष्ठी  : स्त्री० [सं० वाशिष्ठ+ङीप्] गोमदी नदी।
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वांशी  : स्त्री० [सं० वाँस+ङीष्] वंसलोचन।
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वाष्कल  : वि० [सं० वष्कल+अण्] बड़ा। पुं० योद्धा।
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वाष्प  : पुं० [सं०] १. भाप। २. आँसू। ३. लोहा। ४. भटकटैया।
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वाष्प-स्नान  : पुं० [सं०] कुछ विशिष्ट प्रकार के रोगों की चिकित्सा के लिए ऐसी स्थिति में रहना कि सारे शरीर या पीड़ित अंग पर खौलते हुए पानी की भाप लगे। (एयर बाथ)।
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वाष्पन  : पुं० [सं०] ताप की सहायता से तरल पदार्थ को वाष्प के रूप में परिणत करना। वाष्प बनाना। (वेपोराइज़ेशन)
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वाष्पशील  : वि० [सं०] [भाव० वाष्पशीलता] (पदार्थ) जो कुछ विशिष्ट अवस्थाओं में वाष्प बनकर उड़ता हुआ समाप्त हो सकता हो (वोलेटाइल)।
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वास  : पुं० [सं० वस्+घञ्] १. किसी स्थान पर टिक कर रहना। अवस्थान। निवास। जैसे— कल्पवास, कारावास, स्वर्गवास आदि। २. घर। मकान। ३. अडूसा। वासक। ४. गंध। बू। पुं० [सं० वस्त्र] कपड़ा। वस्त्र। उदाहरण—धरौ निधि नील वास उत्तर सुधारत हौ।—सेनापति।
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वास-स्थान  : पुं० [सं०] रहने की जगह। निवास-स्थान। आवास (एबोड)।
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वासक  : पुं० [सं० वास+ण्वुल्-अक] १. अडूसा। २. दिन। दिवस। ३. शालक राग का एक भेद।
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वासक-सज्जा  : स्त्री० [सं० वासक√सज्ज (तैयार होना)+णिच्+अण्+टाप्] साहित्य में वह नायिका जो स्वयं सज-संवरकर तथा घर-वार सँवारकर प्रिय की प्रतीक्षा में बैठी हुई हो।
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वासग  : वि० [सं० वासक] बसानेवाला। पुं०=वासुकि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासगृह  : पुं० [सं०] वासभवन।
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वासंत  : पुं० [सं० वसन्त+अण्] १. कोयल। २. मलयानिल। ३. मूँगा। मैनफल। ४. ऊँट।
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वासत  : पुं० [सं०√वास् (शक करना)+अतच्] गधा।
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वासंतक  : वि० [सं० वासंत+कन् अथवा वसंत+वुञ्-अक] १. वसंत संबंधी। २. वसंत ऋतु में होनेवाला।
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वासति  : पुं० [सं० ब० स०] १. उत्तर भारत का एक प्राचीन जनपद। २. उक्त जनपद का निवासी। ३. इक्ष्वाकु का एक पुत्र।
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वासंतिक  : पुं० [सं० वसन्त+ठक्—इक] १. भाँड़। २. नर्तक। वि० वसंत सम्बन्धी।
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वासंती  : स्त्री० [वासन्त+ङीष्] १. माधवीलता। २. जूही। ३. दुर्गा। ४. गनियारी। ५. मदनोत्सव। ६. एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में १४-१४ वर्ण होते हैं।
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वासतेय  : वि० [सं० वसति+ढञ्-एय] बस्ती के योग्य। रहने लायक (स्थान)।
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वासंदर  : स्त्री० [सं० वैश्वानर] आग। अग्नि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासन  : पुं० [सं० वसि+ल्युट-अन] [वि० वासित] १. निवास करना। बसना। २. सुगंधित करना। वासना। ३. वसन। कपड़ा। ४. ज्ञान।
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वासना  : स्त्री० [सं०√वस् (मिलना)+णिच्+युच्-अन+टाप्] १. कोई ऐसी आकांक्षा, इच्छा या कामना जो मन में दबी हुई बनी या बसी रहती हो। विशेष—शास्त्रों में कहा है कि यह किसी पूर्व संस्कार के फलस्वरूप में बनी रहती है और जब तक इसका अन्त नहीं होता, तब तक मनुष्य को मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। न्याय-शास्त्र में कहा गया है कि वह एक प्रकार का मिथ्या संस्कार है, जो शरीर को आत्मा से भिन्न समझने की दशा में मन में बना रहता है। २. किसी चीज या बात की ऐसी इच्छा या वासना जिसकी पूर्ति सहज में न हो सकती हो। ३. ज्ञान। ४. दुर्गा का एक नाम। ५. अर्क की पत्नी का नाम। स०=वासना (गन्ध से युक्त करना)।
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वासभवन  : पुं० [सं०] १. रहने का घर। २. प्राचीन भारत में धवल गृह का वह ऊपरी भाग (सौध से भिन्न) जिसमें स्वयं राजा और रानियाँ रहा करती थीं २. अन्तः पुर। ३. शयनागार।
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वासर  : पुं० [सं०√वस् (निवास करना)+णिच्+अर] १. दिन। दिवस। २. वह कमरा या घर जिसमें वर-वधू की सोहागरात होती है।
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वासर-कन्यका  : स्त्री० [ष० त०] रात्रि। रात।
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वासरमणि  : पुं० [सं० ष० त०] सूर्य।
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वासरिक  : वि० [सं०] १. वासर संबंधी। वासर का। २. प्रतिदिन होनेवाला। दैनिक।
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वासरेश  : पुं० [सं०] सूर्य।
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वासव  : वि० [सं०] १. वसु-संबंधी। २. इन्द्र-संबंधी। इन्द्र का। पुं० १. इन्द्र। २. धनिष्ठा। नक्षत्र।
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वासवि  : पुं० [सं०] १. इन्द्र के पुत्र जयंत। २. अर्जुन।
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वासवी  : स्त्री० [सं० वासव+ङीष्] १. व्यास की माता सत्यवती। मत्स्यगंधा। २. इन्द्राणी। शची।
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वासवेय  : पुं० [सं० वासवी+ढञ्-एय] वासवी के पुत्र, वेदव्यास।
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वासा  : स्त्री० [सं०√वस्+णिच्+अच्+टाप्] १. वासक। अडूसा। २. माधवी लता। पुं०=बासा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासामात्य  : पुं० [सं० वास+अमात्य] वह राजकीय अधिकारी जो किसी पराये राज्य में वहाँ के शासन आदि पर दृष्टि रखने के लिए अमात्य के रूप में रखा जाता हो। (रेजिडेन्ट)।
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वासि  : पुं० [सं० वस+इञ्] एक प्रकार का छोटा कुल्हाड़ा या बसूला।
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वासित  : भू० कृ० [सं० वास+क्त, इत्व] १. वास अर्थात् सुगंध से युक्त सुगंधित किया या महकाया हुआ। २. कपड़े से ढका हुआ। ३. देर का बना हुआ। बासी।
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वासिता  : स्त्री० [सं० वासित+टाप्] १. स्त्री। २. हथनी। ३. आर्या छन्द का एक भेद जिसके प्रत्येक चरण में ९ गुरु और ३९ लघु वर्ण होते हैं।
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वासिल  : वि० [अ०] १. जिसका वस्ल अर्थात् संयोग हुआ हो। २. जो वसूल अर्थात् प्राप्त हुआ हो। पद—वासिल-बाकी।
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वासिल-बाकी  : पुं० [अ+फा०] ऐसी सभी धनराशियाँ या रकमें जो या तो प्राप्य होने पर प्राप्त या वसूल हो चुकी होने अथवा अभी प्राप्त या वसूल होने को बाकी हो।
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वासिलात  : पुं० [अ० वासिल का बहु०] वे धनराशियाँ या रकमें जो वसूल हो चुकी हों।
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वासिष्ठ  : वि० [सं० वसिष्ठ+अण्] वसिष्ठ संबंधी। पुं० १. वसिष्ठ का वंशज। २. खून। लहू।
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वासिष्ठी  : स्त्री० [सं० वसिष्ठ+ङीष्] गोमती नदी।
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वासी (सिन्)  : वि० [सं० वास+इनि] रहनेवाला। बसनेवाला। जैसे—काशीवासी, मथुरावासी। स्त्री० [सं० वस+इञ+ङीष्] बढ़इयों का बसूला।
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वासु  : पुं० [सं०] १. विष्णु। २. आत्मा। ३. परमात्मा। ४. पुनर्वसु। नक्षत्र।
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वासुकि  : पुं० [सं० वासु√कै+क+इञ्] १. आठ नाग राजाओं में से एक जो कश्यप के पुत्र माने जाते हैं तथा जिनका उपयोग समुद्र-मन्थन के समय रस्सी के रूप में किया गया था। २. एक प्राचीन देवता।
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वासुकेय  : वि० [सं०] वासुकि-सम्बन्धी। पुं०=वासुकि।
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वासुदेव  : पुं० [सं०] १. वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्णचन्द्र। २. पीपल का पेड़।
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वासुदेव-धर्म  : पुं० [सं०] वि० पू० चौथी, पाँचवी शती का एक धार्मिक संप्रदाय जो वासुदेव या श्रीकृष्ण का उपासक था। यह ‘एकांतिक धर्म’ का विकसित रूप था।
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वासुदेवक  : पुं० [सं० वासुदेव+कन्] वासुदेव या श्रीकृष्ण के उपासक।
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वासुंधरेयी  : स्त्री० [सं० वासुन्धरेय+ङीष्] सीता।
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वासुभद्र  : पुं० [सं०] वासुदेव। श्रीकृष्णचन्द्र।
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वासुर  : पुं०=वासर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वासुरा  : स्त्री० [सं० वास+उरण्+टाप्] १. स्त्री। २. हथनी। ३. जमीन। भूमि। ४. रात। रात्रि।
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वासू  : स्त्री० [सं० वास+ऊ (बहु०)] नाटक में सेविका बननेवाली स्त्री के लिए संबोधन रूप में प्रयुक्त शब्द।
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वासोख्त  : पुं० [फा०] १. दिल के बहुत ही जले हुए या दुःखी रहने की अवस्था या भाव। मानसिक सन्ताप। २. उर्दू फारसी में मुसछम (षट्-पदी) के रूप में लिखा हुआ वह काव्य जिसमें प्रेमिका के उपेक्षापूर्ण दुर्व्यवहारों के कारण परम दुःखी होकर प्रेमी उसे जली-कटी बातें सुनाता और अपने दिल के फफोले फोडता है।
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वासोख्ता  : वि० [फा०] १. जला हुआ। २. दिल-जला।
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वास्कट  : स्त्री० [अ० वेस्टकोट] पाश्चात्य ढंग की बिना आस्तीन की कुरती या फतुही।
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वास्तव  : वि० [सं० वस्तु+अण्] जो वस्तु या तथ्य के रूप में हो। यथार्थ। सत्य। पुं० परमार्थ अथवा मूलतत्त्व या भूत। पद—वास्तव में=वास्तविकता यह है कि। हकीकत में।
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वास्तविक  : वि० [सं० वस्तु+ठक्-इक] [भाव० वास्तविकता] १. जो वास्तव में हो। जो अस्तित्व में हो। विशेष—यथार्थ और वास्तविक में मुख्य अन्तर यह है कि यथार्थ में उचित और न्यायसंगत होने का भाव प्रधान है और उसका अर्थ है जैसा होना चाहिए, वैसा। परन्तु वास्तविक मुख्यतः इस भाव का सूचक है कि किसी चीज या बात का प्रस्तुत या वर्तमान रूप क्या अथवा कैसा है। काल्पनिक या मिथ्या से भिन्न। (रियल)। २. (वस्तु) जो खरी तथा प्रामाणिक हो।
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वास्तविकता  : स्त्री० [सं०] १. वास्तविक होने की अवस्था या भाव। (रिएलिटी) २. ऐसी स्थिति जो सत्य हो। ३. ऐसी बात जो घटित हुई हो।
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वास्तव्य  : वि० [सं०√वस्+तव्यत्] १. निवास करने अर्थात् बसने या रहने के योग्य। (स्थान) २. निवास करने या बसनेवाला (व्यक्ति)। पुं० बसी हुई जगह बस्ती।
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वास्ता  : पुं० [अ० वास्तः] १. संबंध। लगाव। सरोकार। मुहावरा— (किसी का) वास्ता देना=किसी की शपथ देना (पश्चिम) (किसी से) वास्ता पड़ना=किसी से लेन-देन या व्यवहार स्थापित होना। २. मित्रता। ३. अवैध संबंध विशेषतः पर-स्त्री और पर-पुरुष का। ४. जरिया। द्वारा।
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वास्तु  : पुं० [सं०] १. बसने या रहने के लिए अच्छा और उपयुक्त स्थान। २. वह स्थान जिस पर रहने के लिए मकान बनाया जाय। ३. बनाकर तैयार किया हुआ घर या मकान। ४. ईंट, चूने, पत्थर, लकड़ी आदि से बनाकर तैयार की जानेवाली कोई रचना। इमारत। जैसे—कूआँ, तालाब, पुल आदि।
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वास्तु-कर्म (न्)  : पुं० [ष० त०] इमारत बनाने का काम।
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वास्तु-कला  : स्त्री० [सं०] वास्तु या मकान, महल आदि बनाने की कला जिसके अन्तर्गत चित्रण और तक्षण दोनों आते हैं और जो बिलकुल आरभिक तथा सब कलाओं की जननी मानी गई है। (आर्किटेक्चर)।
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वास्तु-काष्ठ  : पुं० [सं०] इमारत के काम में आनेवाली लकड़ी, अर्थात् किवाड़,चौखट,धरनें आदि बनाने के योग्य लकड़ी।
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वास्तु-पुरुष  : पुं० [सं०] वास्तु अर्थात् इमारत का या बसने योग्य स्थान का अधिष्ठाता देवता।
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वास्तु-पूजा  : स्त्री०=वास्तु-शांति।
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वास्तु-बंधन  : पुं० [ष० त०] इमारत बनाने का काम।
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वास्तु-यान  : पुं० [सं०] वह याग जो नये घर में प्रवेश करने से पहले किया जाता है।
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वास्तु-विद्या  : स्त्री०=वास्तु-कला।
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वास्तु-वृक्ष  : पुं० [सं०] वह वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती हो।
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वास्तु-शांति  : स्त्री० [सं०] कर्मकांड संबंधी वे कृत्य जो गृह-प्रवेश से पहले वास्तु या मकान के दोष शांत करने के लिए किए जाते हैं और जिसमें वास्तु-पुरुष का पूजन प्रधान होता है।
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वास्तु-शास्त्र  : पुं० [सं०]=वास्तु-कला।
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वास्तुक  : पुं० [सं० वास्तु+कन्] १. बथुआ नाम का साग। २. पुनर्नवा। गदहपूरना।
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वास्तुप वास्तुपति  : पुं०=वास्तु-पुरुष।
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वास्तूक  : पुं० [सं० वास्तु+कन्, पृषो० दीर्घ] बथुआ (साग)।
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वास्तूपशम,वास्तूपशमन  : पुं०=वस्तु-शांति।
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वास्ते  : अव्य० [अ०] १. निमित्त। लिए। जैसे—मेरे वास्ते किताब लाना। २. सबब। हेतु। जैसे— मैं भी इसी वास्ते वहाँ गया था।
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वास्तेय  : वि० [सं० वस्ति+ढञ्-एय] १. वास्तु-संबंधी। २. बसने या रहने के योग्य। (स्थान)।
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वास्तोष्पति  : पुं० [सं० ष० त०] १. इन्द्र। २. देवता। ३. वास्तुपति।
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वास्त्र  : वि० [सं० वस्त्र+अण्] १. वस्त्र-संबंधी। २. वस्त्र से बना हुआ। ३. ढका हुआ। पुं० प्राचीन भारत में वह रथ जो कपड़े से ढका होता था।
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वास्य  : वि० [सं० वास+यत्] १. (स्थान) जो बसने के योग्य हो। २. (स्थान) जो छाये जाने के योग्य हो।
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वाह  : वि० [सं०√वह् (ढोना+घञ्] १. वहन करनेवाला। २. बहनेवाला। (यौ० के अन्त में) पुं० १. वाहन। सवारी। जैसे—गाड़ी। रथ आदि। २. बोझ खींचने या ढोनेवाला पशु। जैसे— घोड़ा बैल आदि। ३. वायु हवा। ४. चार गोणी के बराबर एक पुरानी तौल। ५. बाँह। बाहु। अव्य० [फा०] १. प्रशंसा सूचक शब्द। धन्य। जैसे—वाह यह तुम्हारा की काम था। २. आश्चर्य, घृणा आदि का सूचक शब्द। जैसे—वाह यह तुम कैसी बात कहते हो। पुं० [?] एक प्रकार का रात्रिचर जन्तु जिसकी बोली प्रायः बिल्ली की बोली की तरह होती है। यह पेड़ों पर भी चढ़ सकता है और पाला भी जाता है।
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वाह-वाही  : स्त्री० [फा०] १. कोई अच्छा काम करने पर लोगों का वाह-वाह कहना। साधुवाद। २. समाज में होनेवाली प्रशंसा। क्रि० प्र०—मिलना।—लूटना।—होना।
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वाहक  : वि० [सं०√वह् (ढोना)+ण्वुल्-अक] ढोया या लादकर ले जानेवाला। पुं० १. कुली। २. सारथी। ३. एक विषैला कीड़ा।
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वाहणी  : पुं०=वाहन (डि०)।
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वाहन  : पुं० [सं०√वह् (ढोना)+ल्युट-अन, वृद्धि, निपा] १. वहन करने अर्थात् ढोने की क्रिया या भाव। २. कोई ऐसा पशु या चीज जिस पर लोग सवार होते हों। सवारी। जैसे—घोड़ा गाड़ी रथ आदि। ३. उद्योग। प्रयत्न।
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वाहनप  : पुं० [सं०] वह जो किसी प्रकार के वाहन की देख-रेख करता हो। जैसे— महावत, साईस आदि।
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वाहना  : स्त्री० [सं० वाहन+टाप्] सेना। स० १. =वाहना। २. =बाँधना।
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वाहनिक  : पुं० [सं० वाहन+ठक्-इक] वह जो भारवाहक पशुओं के पालन-पोषण वर्द्धन आदि का काम करता हो।
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वाहनीक  : पुं०=वाहनिक।
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वाहनीय  : वि० [सं०√वह (ढोना)+णिच्+अनीयर्] जो वहन किया जा सके। पुं० भारवाही पशु।
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वाहरु  : पुं०=पाहरु (पहरेदार)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाहला  : स्त्री० [सं० वाह+लच्+टाप्] १. धारा। स्रोत। २. प्रवाह। बहाव। ३. वाहन। पुं० १. =बादल। २. =नाला। (पानी का)। (राजा०)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाहवना  : स०=वाहना (बहाना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वाहि  : सर्व० [हिं० वा] उसको। उसे।
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वाहिक  : पुं० [सं० वाह+ठक्-इक] १. गाडी, रथ आदि यान। २. ढक्का नाम का बाजा।
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वाहिकता  : स्त्री० [वाहिक+तल्-टाप्] वाहिक होने की अवस्था या भाव।
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वाहिकस्व  : पुं०=वाहिकता।
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वाहिका  : स्त्री० [सं०] रक्तवहन करने वाली शिरा। वाहिनी। (वेसल)
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वाहित  : भू० कृ० [सं०√वह (ढोना)+णिच्+क्त] १. जिसका वहन हुआ हो। ढोया हुआ। २. बहता हुआ। प्रवाहित। ३. चलाया हुआ। चालित। ४. वंचित।
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वाहिद  : वि० [अ०] १. एक। २. अकेला। ३. अनुपम। पुं,० ईश्वर।
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वाहिनी  : स्त्री० [सं०] १. सेना। फौज। २. प्राचीन भारतीय सेना की एक इकाई जो तीन गल्मों के योग से बनती थी। ३. आज-कल सेना का वह विशिष्ट विभाग जो किसी एक उच्च सैनिक अधिकारी के अधीन हो। (डिवीजन) ४. शरीर-विज्ञान में नली के आकार के वे सूक्ष्म आधार जो रक्त के कण एक-स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाते हैं। (वेसल) ५. नदी।
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वाहिनीपति  : पुं० [सं० ष० त०] १. वाहिनी नामक सैनिक विभाग का अधिपति। २. सेनापति।
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वाहिनीय  : वि० [सं०] शरीर के अन्दर की वाहिनियों से संबंध रखनेवाला। (वैस्कयुलर)।
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वाहियात  : वि० [अ० वाही का फा० बहु] [भाव० वाहियातपन] १. (वस्तु) जो निरर्थक या व्यर्थ हो। २. (बात) जो बे-सिर पैर का अश्लील या बेहूदी हो। ३. (व्यक्ति) जो तुच्छ, दुष्टप्रकृति निकम्मा या मूर्ख हो। विशेष—यह शब्द मूलतः बहुवचन संज्ञा होने पर उर्दू और हिन्दी में विशेषण रूप में दोनों वचनों में समान रूप से प्रयुक्त होता है। जैसे—वाहियात लड़का, वाहियात बात।
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वाहियाती  : स्त्री० [फा० वाहयात] १. वाहियातपन। २. कोई वाहियात बात।
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वाही  : वि० [अ०] १. सुस्त। ढीला। २. निकम्मा। निरर्थक। उदाहरण—अजी बस जाओ भी, कुछ तुम तो बड़े वाही हो।—इन्शा०। वाहियात इसी का बहु० रूप है। ३. अश्लील गंदा और भद्दा। मुहावरा— वाही तबाही बकना= (क) अश्लील, गंदी या भद्दी बातें कहना। (ख) बे-सिर-पैर की या व्यर्थ की बातें करना। ४. मूर्ख। बेवकूफ। ५. आवारा। बेहूदा।
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वाही-तबाही  : वि० [अ० वाही+तबाही] १. आवारा। २. बेहूदा। ३. बे-सिर-पैर का। अंड-बंड। स्त्री० गन्दी और भद्दी बातें। क्रि० प्र०—बकना।
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वाहु  : स्त्री० [सं०√वाध् (नाश करना)+कु, हादेश]=बाहु।
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वाह्य  : वि० [सं०√वह्+ण्यत्] वहन किये जाने के योग्य। जिसका वहन हो सके। पुं० १. यान सवारी। २. घोड़े बैल, हाथी आदि पशु जो वहन के काम आते हैं। वि० क्रि० वि०=वाह्म। विशेष—उक्त अर्थ में ‘बाह्म’ के यौ के लिए दे० ‘बाह्म’ के यौ०।
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वाह्लिक  : वि० [सं०] वाह्लीक देश का।
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वाह्लीक  : पुं० [सं०√वह्+लिण्०+कन्] १. एक प्राचीन जनपद जो भारत की उत्तर पश्चिम सीमा पर था। गांधार के पास का प्रदेश। आधुनिक बल्ख राज्य़। २. उक्त देश का निवासी। ३. उक्त का घोड़ा। ४. केसर। ५. हींग।
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