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अन  : उप० [सं० अनं] एक हिन्दी उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है—(क) अभाव, जैसे—अनधिकार, अनध्याय आदि। (ख) राहित्य या हीनता, जैसे—अन-छेद, अनगढ़, अन-देखा आदि। (ग) किसी क्रिया से अतीत या परे,जैसे—अनगिनत, अन-मोल, आदि। और (घ) अनुचित विरुद्ध या विपरीत होने का भाव, जैसे—अन-ऋतु, अन-रीति आदि। क्रि० वि० बिना। बगैर। उदाहरण—कहि जु चली अनहीं चितैं, ओठनिहीं में बात।—बिहारी। क्रि० वि० =अन्यत्र (और कहीं)। वि० =अन्य (और कोई)। पुं०=अन्न (अनाज)। पुं० [सं० अनन] श्वास-प्रश्वास। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-अहिवात  : पुं० [हिं० अन+अहियात] १. अहियात या सौभाग्य का न होना। २. वैधव्य।
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अन-ऋतु  : स्त्री० [हिं० अन√सं० ऋतु] १. बे-मौसिम। २. ऋतु। विपर्य्य। ३.ऋतु विरुद्ध कार्य।
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अन-कल  : वि० [हिं० अन+कल (कलन)] १. जिसका अनुमान या कल्पना न की जा सके। २. बहुत अधिक।
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अन-खुला  : वि० [हिं० अन (उप०)+खुलना] १. जो खुला न हो। बंद। जिसका कारण या रहस्य प्रकट न हो। फलतः गम्भीर या गहन।
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अन-गढ़  : वि० [सं० अन्=नहीं+हिं० गढ़ना] १. जो अभी अपने प्रकृति या मूल रूप में हो और गढ़ा, छीला या तराशा जाने को हो। बिना गढ़ा, छिला या तराशा हुआ। अ-संस्कृत या अ-परिष्कृत। (क्रूड) जैसे—अनगढ़ पत्थर या लकड़ी का कुंदा। २. बे-डौल और भद्दा। ३. बे-सिर पैर का। बेतुका। ४. अक्खड़। उजडु।
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अन-गिनत  : वि० [हिं० अन+गिनना] जो इतना अधिक हो कि गिना न जा सके। बहुत अधिक।
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अन-गुना  : वि० [हिं० अन+गुनना] १. जो सोचा, समझा या जाना न गया हो। २. जिसपर विचार न किया गया हो। वि० [हिं० अन+सं० गुण] सब गुणों से रहित। निर्गुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-चाखा  : वि० [हिं० अन+चखना] जिसे चखा न गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-चाहत  : वि० [हिं० अन=नहीं+चाहना] १. न चाहनेवाला। जो न चाहे। २. जिसे चाहा न गया हो। स्त्री० चाह या प्रेम का न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-चाहा  : वि० [हिं० अन+चाहना] जिसकी चाह या इच्छा न की गई हो। अवांछित।
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अन-चीता  : वि० [हिं० अन+चीतना=सोचना] १. जिसके संबंध में पहले से कुछ न सोचा गया हो। २. अचानक या सहसा होने वाला। ३. अन-चाहा।
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अन-चीन्ह  : वि० =अन-चीन्हा (अपरिचित)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-चैन  : स्त्री० [हिं० अन=नहीं+चैन] १. चैन या शान्ति न होने की अवस्था या भाव। बेचैनी। २. घबराहट। विकलता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-जन्मा  : वि० [हिं० अन+सं० जन्म] जिसने जन्म न लिया हो। जो जन्मा न हो। पुं० ईश्वर।
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अन-देखा  : वि० [हिं० अन+देखना] [स्त्री० अन-देखी] १. अभी तक जिसे पहले कभी देखा न गया हो। बिना देखा हुआ। (अन्-सीन) २. अपरिचित।
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अन-पच  : पुं० [हिं० अन=नहीं+पचना] भोजन न पचने की दशा या रोग। अजीर्ण। बद-हजमी।
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अन-पढ़  : वि० [हिं० अन+पढ़ना] जो कुछ पढ़ा-लिखा न हो। अशिक्षित।
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अन-पास  : पुं० [हिं० अन=नहीं+सं० पाश] १. पाश या बंधन का अभाव। २. छुटकारा। मोक्ष।
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अन-बन  : वि० [हिं० अन=नहीं+बनना] १. जो साथवाले के मेल का न हो। अन-मेल। २. दूसरे प्रकार का। भिन्न। ३. अनेक प्रकार का। विवध। उदा०—कंदमूल, जल-फल रुह अगनित अनबन भाँति।—तुलसी। ४. भद्दा या बेढंगा। स्त्री० दो पक्षों या व्यक्तियों में आपस में न बनने की अवस्था या भाव। बिगाड़।
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अन-माया  : वि० [हिं० अन+माय(माप)] १. जो नापा न जा सके। जिसकी थाह न हो। २. जिसकी सीमा न हो। असीम। बेहद। उदाहरण—भेंटी मातु भरत भरतानुज क्यों कहौं प्रेम अमित अनमायौ।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-मीच  : स्त्री० [हिं० अन+मीच=मृत्यु] आकस्मिक या असमय में होनेवाली मृत्यु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन-रितु  : स्त्री० [हिं० अन+रितु (ऋतु) या सं० अनृतु] प्राकृतिक कारणों से वातावरण का ऐसा विपर्याय जिसमें किसी ऋतु में किसी दूसरी ऋतु की स्थिति का भान हो। जैसे—जाड़े में बहुत पानी बरसना या गरमी में अधिक सरदी पड़ना। वि० जो अपनी उपयुक्त ऋतु में न होकर उससे पहले या पीछे हो। जैसे—अन-रितु फल या अन-रितु वर्षा।
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अन-सखरा  : वि० [हिं० अन+सखरा] (भोजन) जो सखरा न हो। पक्का। जैसे—अन सखरी रसोई=पूरी तरकारी आदि पकवान (दाल, भात रोटी आदि से भिन्न)।
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अन-सहन  : वि० [हिं० अन+सहना] १. जो सहा न जा सके। २. जो सहनशील न हो। स्त्री० १. सहनशीलता का अभाव। २. असह्म होने की अवस्था या भाव।
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अन-सिखा  : वि० [सं० अशिक्षित] [स्त्री० अन-सिखी] १. जिसने कुछ सीखा न हो। २. अशिक्षित।
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अन-सुना  : वि० [हिं० अन+सुनना] [स्त्री० अन-सुनी] १. जो कहा जाने पर सुना न गया हो या जिस पर ध्यान न दिया गया हो। मुहावरा—अन-सुनी करना=(क) सुनकर भी सुनने के समान करना। (ख) आज्ञा या आदेश की उपेक्षा करना। २. जो या जैसा आज तक कभी सुना न गया हो। अभूत-पूर्व।
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अन-होता  : वि० [हिं० अन=नहीं+होना] १. जो कभी होता हुआ दिखाई न दे। अनोखा। २. जिसके पास कुछ न हो। निर्धन।
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अन-होना  : वि० [हिं० अन+होना] [स्त्री० अन-होनी] १. जो जल्दी न तो हुआ हो और न हो सकता हो। सहसा न होनेवाला। २. अलौकिक।
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अन-होनी  : स्त्री० [हिं० अन+होना] १. सहसा न होनेवाली और प्रायः असंभव बात। अलौकिक घटना। २. अस्तित्व का अभाव। उदाहरण—होनि सों मढ़ों पै, अनहोनि जाकै बीच भरी, जामें चली जायवे बनाई रहि ठानी है।— घनआनंद।
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अनइत  : क्रि० वि० [सं० अन्यत्र] दूसरी जगह। उदाहरण—ओ ओ अनइते जाइ।—विद्यापति।
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अनइस  : पुं० दे० ‘अनैस’।
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अनइसा  : वि० दे० ‘अनैसा’ ।
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अनक  : वि० [सं० अणक] तुच्छ। कमीना। पुं०=आनक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनकदुंदंभ  : पुं० [सं० ] कृष्ण के पितामह का नाम।
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अनकना  : स० [सं० आकर्ण, प्रा० आकणन, हिं० अकनना] १. सुनना। २. चुपचाप या छिपकर सुनना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनकंप  : वि० [सं० अकम्प] १. जिसमें कंपन न हो। कंपन रहित। २. स्थिर। ३. दृढ़। पक्का। पुं० कंपन न होने की अवस्था। स्थिरता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनकस्मात्  : अव्य० [सं० न-अकस्मात् न० त०] जो अकस्मात् अचानक, या अकारण न हो।
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अनकहा  : वि० [सं० अन्=नहीं+कथ्=कहना] १. (भाव या विचार) जो कहा न गया हो। बिना कहा हुआ। २. (व्यक्ति) जो कहना न मानता हो। बे-कहा।
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अनकही  : वि० [हिं० अनकहा] १. जो पहले कभी न कही गयी हो। मुहावरा—अनकही देना=चुपचाप रहना। २. (बात) न कहने योग्य। फलतः अनुचित या अश्लील।
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अनकाढ़ा  : वि० [हिं० अन (उप०) +काढ़ना=निकालना] जो निकाला न गया हो।
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अनक्ररीद  : क्रि० वि० [अ०] १. करीब-करीब। लगभग। २. जल्द। शीघ्र। ३. नजदीक। पास। ४. प्रायः।
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अनक्रा  : पुं० दे० ‘उनका’।
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अनक्ष  : वि० [सं० न०-अक्ष, न० ब०] १. अक्ष-रहित। २. अंधा। नेत्रहीन।
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अनक्षर  : वि० [सं० न०-अक्षर, न० ब०] १. जो कहने योग्य न हो। जिसे अक्षरों का ज्ञान न हो। निरक्षर। ३. मूर्ख। ४. गूंगा। पुं० गाली। दुर्वचन।
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अनक्षिक  : वि० [सं० न०-अक्षि, न० ब० कप्]=अनक्ष।
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अनख  : वि० [सं० न० त०] जिसे नख या नाखून न हों। स्त्री० [सं० अन-अक्ष] १. मन में छिपा हुआ हलका क्रोध या गुस्सा। नाराजगी। २. खिन्नता के कारण होने वाली उदासीनता। ३.ईर्ष्या। ४.झंझट। ५.डिठौना।
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अनखना  : अ० [हिं० अनख] १. अप्रसन्न या रूष्ट होना। २. किसी पर क्रोध करना या बिगड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनखा  : पुं० [हिं० अनख] काजल की बिन्दी। डिठौना।
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अनखाना  : सं० [हिं० अनख] अप्रसन्न करना। नाराज करना। अ०=अनखना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनखाहट  : स्त्री० [हिं० अनखाना+आहट (प्रत्यय)] अनखने की क्रिया या भाव। अनख।
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अनखी  : वि० [हिं० अनख] जल्दी अप्रसन्न या रुष्ट होने अथवा बिगड़नेवाला।
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अनखी (खिन्)  : वि० [सं० न० त०] जिसे नख या नाखून न हों।
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अनखीहाँ  : वि० [हिं० अनख] [स्त्री० अनखौहीं] १. क्रोध से भरा हुआ। कुपित। २. जल्दी बिगड़ जाने वाला। गुस्सैल और चिड़चिड़ा। ३. अनुचित। बुरा। (क्व०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंग  : वि० [सं० न-अंग, न० ब०] जिसका अंग या शरीर न हो। अशरीरी। देह-रहित। पुं० १. कामदेव। २. आकाश। ३. मन। वि० अनंग।
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अनंग-क्रीड़ा  : स्त्री० [सं० न० त०] १. काम-क्रीड़ा। रति। २. छंद शास्त्र में, मुक्तक नामक विषय वृत्त के दो भेदों में से एक।
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अनंग-शत्रु  : पुं० [ष० त०] कामदेव के शत्रु, शिव।
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अनंग-शेखर  : पुं० [ब० स०] दंडक नामक वर्ण-वृत्त का एक भेद जिसमें ३२ वर्ण होते हैं।
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अनंगद  : वि० [सं० अनंग√दा (देना) +क] काम-वासना उत्पन्न करनेवाला।
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अनगन  : वि० [सं० अन√गणन]=अनगिनत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंगना  : अ० [सं० अनंग=शरीर रहित] शरीर की सुधि छोड़ना। सुध-बुध भूलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनगना  : अ० [सं० अन्√अगवना=आगे बढ़ना] जान-बूझकर किसी काम को टालने के लिए किसी काम में देर लगाना। विलंब करना। उदाहरण—मुँह धोवति, एड़ी घसति हँसति अनगवित तीर।—बिहारी। स० [सं० अनग्न=ढका हुआ] टूटे या टपकते हुए खपरैल की मरम्मत करना। खपड़ा फेरना। वि० =अनगिनत। पुं० [?] गर्भ का आठवाँ महीना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनगनिया  : वि० [सं० अगणित]=अन-गिनत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंगवती  : स्त्री० [सं० अनंग√मतुप् ,वत्व, डीष्] काम-वासना से युक्त स्त्री०। कामवती। कामिनी।
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अनगवना  : अ० स०=अनगाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनगाना  : अ० [हिं० अन+अगवना=आगे बढ़ना] देर लगाना। विलंब करना। स० १. टाल-मटोल करना। २. (केशादि) सँवारना या सुलझाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनगार  : वि० [सं० न-अगार, न० ब०] १. जिसके पास घर न हो। गृहहीन। २. (साधु या संन्यासी) जो घर बनाकर न रहे। बराबर घूमता-फिरता रहनेवाला।
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अनंगारि  : पुं० [सं० अनंग-अरि, ष० त०] कामदेव के शत्रु, शिव।
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अनगिन  : वि० = अनगिनत।
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अनगिना  : वि० [हिं० अन+गिनना] १. जो गिना न गया हो। अन-गिनत। बहुत अधिक।
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अनगिनित  : वि० =अनगिनत।
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अनंगी (गिन्)  : वि० [सं० अनंग√इनि] [स्त्री० अनंगिनी] बिना अंग, देह, शरीर का। अंग-रहित। पुं० १. ईश्वर। २. कामदेव। ३. कामुक व्यक्ति। उदाहरण—सूरदास यह विरद स्रवन सुनि, गरजत अधम अनंगी।—सूर।
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अनंगीकरण  : पुं० [सं० न०-अंगीकरण, न० त०] [भू० कृ० अनंगीकृत] १. अंग-रहित या अनंगी करने की क्रिया या भाव। २. अंगीकार न करने की क्रिया या भाव। ३. उत्तरदायित्व न लेते हुए अग्राह्वा करना। (रिप्यूडिएशन)
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अनगुत्ते  : क्रि० वि० [सं० अग्रोदित] सूर्य निकलने से पूर्व। तड़के।
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अनंगुरि  : वि० =अनंगुलि।
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अनंगुलि  : वि० [सं० न-अंगुलि, न० ब०] जिसे उँगलियाँ न हों।
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अनगैरी  : वि० [अ० गैर] गैर। अपरिचित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनग्नि  : वि० [सं० न-अग्नि, न० ब०] १. जिसके पास या जिसमें अग्नि न हो। २. अग्निहोत्र न करने वाला। ३. अग्निमांद्य नामक रोग से ग्रस्त। ४. अविवाहित।
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अनघ  : वि० [सं० न-अघ, न० ब०] १. अघ से रहित। निष्पाप। निर्दोष। २. पवित्र। शुद्ध। ३.सुन्दर। ४. निरपराध। ५. शोकहीन। पुं+० [न० त०] १. वह जो पाप न हो। पुण्य। २. [न० ब०] विष्णु। ३. शिव। ४. उजली सरसों।
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अनघरी  : स्त्री० [हिं० अन=विरुद्ध+घरी=घड़ी] बुरी घड़ी या समय। कु-समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनघैरी  : वि० [हिं० अन+घेरन] १. अपरिचित। २. जिसे बुलाया न गया हो। अनिमंत्रित। ३. जो बिना बुलाये कहीं पहुँचा हो। अनाहूत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनघोर  : वि० [हिं० अन+सं० घोर] जो घोर न हो। पुं० [सं० घोर ?] १. चुपके से। चुपचाप। २. अचानक। अकस्मात्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनचहा  : वि० [हिं० अन+न चाहना]=अन-चाहा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनचीन्हा  : वि० [हिं० अन+चीन्हना=पहचानना] १. जिसे पहले न चिन्हते (पहचानते) न हों। अ-परिचित। २. जिसकी चीन्ह (पहचान) न हुई हों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनच्छ  : वि० [सं० न-अच्छ, न० त०] १. जो अच्छा या स्वच्छ न हो। मलिन। २. जो अच्छा न हो। ३. असुन्दर।
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अनच्छता  : स्त्री० [हिं० अनच्छ] अच्छा न होने की अवस्था या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंजन  : वि० [सं० न-अंजन, न० ब०] १. जिसे काजल, रंग या लेप न लगा हो। २. जिसे दाग या धब्बा न लगा हो। पुं० १. विष्णु। २. परब्रह्म। ३. आकाश।
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अनजान  : वि० [हिं० अन+जानना] १. जिसे किसी प्रकार का ज्ञान न हो। २. जो किसी विषय विशेष का जानकार न हो। ३. (व्यक्ति) जिसके संबंध में अभी जानकारी प्राप्त न हुई हो। (स्ट्रेंजर) पुं० १. एक प्रकार का लंबी घास जिसे प्रायः भैसें खाती हैं। २. अजान नामक वृक्ष। ३. अज्ञान।
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अनजाने  : क्रि० वि० [हिं० अनजान] बिना जाने या समझे हुए। अनजान में।
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अनजोखा  : वि० [हिं० अन+जोखना] १. जिसका तौल या वजन न किया गया हो। २. जिसकी जाँच या पड़ताल न की गई हो।
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अनट  : पुं० [सं० अनृत] १. झूठ। २. अन्याय। ३. अपद्रव। ४. अत्याचार। ५. झंझट। बखेड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनड़  : वि० [सं० अनभ्र] १. जो नम्र सभ्य या सुशील न हो। उजड्ड या फूहड़। उदाहरण—दाटक अनड़ दंड नह दीधो, दोयण घड़ सिर दाव दियो।—दुरसाजी। पुं० पर्वत। पहाड़।
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अनडीठ  : वि० [सं० अन्-दृष्ट, प्रा० डिट्ट, हिं० डीठ] जो पहले कभी देखा न गया हो, फलतः अनोखा या बिल्कुल नया। अभूतपूर्व।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनडुह (ह्)  : पुं० [सं० अनस्=शकट√वह् (वहन करना)+क्विप् नि० सिद्धि] बैल।
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अनडुही  : स्त्री० [सं० अऩुह्+ड़ीप्] गाय।
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अनड्वान्  : पुं० [सं० दे० अनडुह्] १. बैल। साँड। २. सूर्य। ३. वृष राशि।
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अनणु  : वि० [सं० न-अणु, न० त०] जो सूक्ष्म या चारू न हो,फलतः स्थूल या रूक्ष। पुं० मोटा अन्न।
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अनंत  : वि० [सं० न-अंत, न० ब०] १. जिसका कहीं अंत छोर या सिरा न होता हो।(अन्- इंडिंग) जैसे—अनंत सागर २. जिसका अंत या समाप्ति न हो। अंतहीन। (नेवर-इंडिंग) ३. जिसका कहीं आदि अंत न हो। सदा बना रहने वाला। नित्य। शाश्वत (इन्फाइनाइट) ४. जिसके मान, विस्तार आदि की कल्पना न की जा सके। ५. जिसका नाश न हो। अविनाशी। ६. बहुत अधिक। पुं० १. विष्णु। २. कृष्ण। ३. शिव। ४. शेषनाग। ५. लक्ष्मण। ६.बलराम। ७.आकाश। ८. जैनों के एक तीर्थकर का नाम। ९. अभ्रक। अबरक। १. बाँह पर पहनने का एक गोलाकार आभूषण या गहना। ११. अनंत चतुदर्शी के व्रत में पहनने का एक गंडा। १२. अनंत चतुदर्शी का व्रत। १३. मोक्ष। १४. बादल। १५. श्रवण। नक्षत्र।
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अनत  : वि, [सं० न० त०] १. न झुकनेवाला। २. जो झुका न हो। फलतः सीधा। ३. जो नम्र न हो। अनम्र। ४. हठी। ५. दृढ़। क्रि० वि० [सं० अन्यत्र] अन्य स्थान पर। किसी और या दूसरी जगह। उदाहरण—अति रस-लुब्ध स्वान जूठनि ज्यों, अनत नहीं चित्त राख्यौ।—सूर।
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अनंत-काय  : पुं० [ब० स०] १. जैन मत के अनुसार ऐसी वनस्पतियाँ जिनका भक्षण या सेवन निषिद्ध हो। वि० बहुत बड़ी काया या शरीरवाला।
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अनंत-चतुर्दशी  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] भाद्र शुल्क चतुर्दशी, जिस दिन अनंत भगवान का व्रत और पूजन होता है।
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अनंत-जित्  : पुं० [सं० अनंत√जि (जीतना) +क्युप् तुक्] १. वासुदेव। २. चौदहवें जैन अर्हत्।
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अनंत-टंक  : पुं० [ब० स०] एक राग जो मेघराग का पुत्र माना गया है।
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अनंत-दर्शन  : पुं० [ष० त०] सब बातों का पूरा ज्ञान या सम्यक् दर्शन। (जैन)
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अनंत-दृष्टि  : वि० [सं० न० ब०] जो बहुत दूर तक देखता हो। दूर-दर्शी। पुं० १. इंद्र। २. शिव।
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अनंत-देव  : पुं० [कर्म० स०] १. शेषनाग। २. शेषशायी विष्णु।
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अनंत-नाथ  : पुं० [कर्म० स०] जैनों के चौदहवें तीर्थकर।
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अनंत-मूल  : पुं० [ब० स०] सारिवा नामक एक रक्तशोधक औषधि।
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अनंत-रूप  : वि० [ब० स०] जिसके अनंत रूप हों। पुं० विष्णु।
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अनंत-विजय  : पुं० [ब० स०] युधिष्ठिर के शंख का नाम।
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अनंत-वीर्य  : वि० [ब० स०] बहुत अधिक बल या पराक्रमवाला। पुं० जैनों के २३वें अर्हत् का नाम।
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अनंत-व्रत  : पुं० [ष० त०] अनंत चतुर्दशी का व्रत जो भाद्रप्रद शुक्ल १४ को होता है।
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अनंत-शक्ति  : वि० [ब० स०] जिसकी शक्ति अनंत हो। सर्वशक्तिमान। पुं० परमेश्वर।
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अनंत-शीर्षा  : स्त्री० [सं० अनंतशीर्ष-टाप्] वासुकि नाग की पत्नी।
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अनंत-श्री  : वि० [ब० स०] असीम ऐश्वर्य या शोभावाला। पुं० परमेश्वर।
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अनंतक  : वि० [सं० अनंत+कन्] १. सीमा-रहित। २. नित्य। पुं० अनंतदेव। (जैन)
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अनंतक  : वि० [सं० अनंत√गम् (जाना) +ड] अनंत काल तक चलने या विचरण करनेवाला।
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अनंततरित  : वि० [सं० अंतर+इतच्, न० त०] १. जिसमें अंतर या व्यवधान न पड़ा हो। २. जिनके बीच में कोई अंतर या व्यवधान न हो। ३. अखंडित। अटूट।
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अनंतता  : स्त्री० [सं० अनंत+तल्-टाप्] अनंत होने की अवस्था या भाव। असीमता।
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अनंतर  : जात-वि० [पं०त०]=अनंतरज।
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अनंतरज  : पुं० [सं० अनंतर√जन् (उत्पन्न होना) +ड] १. वह व्यक्ति जिसके पिता का वर्ण माता के वर्ण से एक दर्जा ऊँचा हो। जैसे—माता शूद्रा और पिता वैश्य। २. ऐसे भाई-बहन जिनका जन्म ठीक एक दूसरे के आगे-पीछे हुआ हो।
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अनंतरीय  : वि० [सं० अनंतर+छ-ईय] १. बाद का। २. जन्म०विकास आदि के क्रम में ठीक बाद का।
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अनंतर्हित  : वि० [सं० न-अंतर्हित, न० त०] १. मिला, लगा या सटा हुआ। २. क्रमबद्ध। श्रंखलाबद्ध ३. अखंडित।
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अनंतवान् (वत्)  : वि० [सं० अनत+मतुप् व आदेश] १. असीम। २. नित्य। पुं० ब्रह्मा के चार चरणों में से एक।
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अनंतशीर्ष  : पुं० [ब० स०] १. विष्णु। २. शेषनाग।
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अनंता  : वि० स्त्री० [सं० अनंत+टाप्] जिसका अंत या पारावार न हो। स्त्री० १. पृथ्वी। २. पार्वती। ३. कलियारी नाम का पौधा। ४. अनंतमूल। ५. दूर्वा। दूव। ६. छोटी पीपल। ७. जावासा। ८. अरणी नाम का वृक्ष। ९. सूत का बना हुआ वह अनंत जो अनंत चतुर्दशी को पहना जाता है।
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अनंतात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० अनंत-आत्मन्, कर्म० स०] परमात्मा।
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अनंतानुबंधी (षिन्)  : पुं० [सं० अनंत-अनुबंधिन्, कर्म० स०] जैनमतानुसार ऐसा दोष या दुष्ट स्वभाव जो कभी न छूटे।
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अनंताभिश्रेय  : पुं० [सं० अनंत-अभिधेय, ब० स०] परमेश्वर। वि० अनंत या असंख्य नामोंवाला।
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अनति  : वि० [सं० न-अति, न० त०] जो अति (अधिक या बहुत) न हो। कुछ। थोड़ा। जैसे—अनति दूर (=थोड़ी दूर)। स्त्री० [सं० न-नति, न० त०] १. न झुकने की क्रिया या भाव। २. अनम्रता। ३. घमंड।
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अनतिक्रमणीय  : वि० [सं० न-अतिक्रमणीय, न० त०] १. जिसका अतिक्रमण या उल्लंघन न हो सकता हो। २. जिसका अतिक्रमण करना उचित न हो।
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अनंती  : स्त्री० [सं० अनंत+हिं० ई (प्रत्यय)] १. अनंत या अंत-हीन होने की अवस्था,गुण या भाव। (इन्फिनिटी) २. छोटा या पतला अनंत। ३. बाँह पर बाँधने का गंडा।
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अनंत्य  : पुं० [सं० अनंत+यत्] १. अनंत होने की अवस्था, गुण या भाव। नित्यता। २. हिरण्यगर्भ का चरण।
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अनंद  : वि० [सं० ब० स०] आनन्द रहित। बिना प्रसन्नता का। पुं० [सं० नन्द् (समृद्धि) +घञ्, न० त०] १. आनन्द या प्रसन्नता का अभाव। २. हरी नामक छंद का दूसरा नाम। ३. [सं० नन्द्+णिच्+अच्, न० त०] एक प्रेत लोक का नाम। पुं० -=आनन्द। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनंदना  : अ० [सं० आनन्द] आनंदित खुश या प्रसन्न होना। स० आनंदित या प्रसन्न करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनदसर  : पुं० [सं० न-अवसर, न० त०] १. ऐसा अवसर जो किसी विशिष्ट कार्य के लिए उपयुक्त न हो। कुसमय। बे-मौका। २. एक काव्यालंकार जिसमें किसी कार्य के अनवसर होने या करने का वर्णन किया जाए। वि० [न० ब०] जिसके अवसर या अवकाश न हो। व्यस्त।
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अनदिटृय  : वि० [सं० अदृष्टि से] १. जो दिखाई न पड़ता हो। उदाहरण—मंत्र जप्प सब भूलि, करून कारून अनदिटिय।—चन्द्रवरदाई। २. जो पहले कभी न देखा गया हो।
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अनंदी  : पुं० [सं० ] एक प्रकार का धान। वि० =आनंदी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनद्य  : वि० [सं० अद्य√अद् (खाना) +यत् न-अद्य, न० त०] १. जो खाये जाने के योग्य न हो। अखाद्य। २. जिसे खाया न जा सके। पुं० सफेद सरसों।
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अनद्यतन  : वि० [सं० न-अद्यतन, न० त०] १. जो अद्यतन (आज के दिन का) न हो, बल्कि उससे पहले या बाद का हो। २. जो आज के दिन से संबंद्ध न हो। जैसे—अनद्यतन भविष्य या अनद्यतन भूत। ३. जो उन्नति, विकास की दृष्टि से वर्तमान की सीमा तक न पहुँचा हो। दिनातीत। पुराना। (आउट आफ डेट) पुं० आज के या वर्तमान दिन को छोड़कर, उससे भिन्न अर्थात् पहले या बाद का कोई दिन।
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अनद्यतन-भविष्य  : पुं० [कर्म० स०] १. आनेवाली आधी रात के बाद का समय। २. व्याकरण में, भूतकाल का एक भेद।
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अनधिक  : वि० [सं० न-अधिक, न० त०] १. जो अधिक न हो। २. जिससे आगे बढ़ा हुआ और कोई न हो। सब तरह से ठीक और पूरा। ३. सीमा-रहित।
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अनधिकार  : वि० [सं० न-अधिकार, न० ब०] १. जिसे अधिकार प्राप्त न हो। अनधिकारी। २. जिससे अधिकार छीन लिये गये हों। ३. अपात्र। पुं० [सं० न० त०] १. अधिकार का अभाव। अधिकार, प्रभुत्व या स्वत्व न होना। २. बे-बसी। लाचारी। ३. अयोग्यता। क्रि० वि० अधिकार न होते हुए। बिना अधिकार के। पद—अनधिकार चर्चा=जिस विषय का ज्ञान न हो, उस पर बोलना। अनधिकार चेष्टा=ऐसे काम या बात के लिए की जानेवाली चेष्टा या प्रयत्न जो अपने अधिकार के बाहर हो। जैसे—किसी दूसरे के घर में अकारण या बलपूर्वक जाना।
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अनधिकारिता  : स्त्री० [सं० अनधिकारिन्+तल्-टाप्] अनाधिकारी होने की अवस्था या भाव।
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अनधिकारी (रिन्)  : पुं० [सं० न-अधिकारिन्, न० त०] १. वह जिसे अधिकार प्राप्त न हो। अधिकारी या विपर्याय। २. वह जो किसी विषय का विशेषज्ञ या अधिकारी न हो।
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अनधिकृत  : वि० [सं० न-अधिकृत, न० त०] १. जिसके लिए अधिकार न मिला हो। २. जो अधिकार या वश में न किया गया हो। जो आधिकारिक न हो। जैसे—अनधिकृत विज्ञप्ति।
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अनधिगत  : वि० [सं० न-अधिगत, न० त०] १. जो अधिगत (प्राप्त या हस्तगत) न किया गया हो। २. जो अधिकार या वश में न आया हो। ३. जिसपर विचार न किया गया हो।
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अनधिगम्य  : वि० [सं० न-अधिगम्य, न० त०] १ जो अधिगम्य न हो। पहुँच के बाहर। . २. अज्ञेय। ३. अप्राप्य।
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अनधियुक्त  : वि० [सं० न-अधियुक्त, न० त०] [भाव० अनधियुक्ति] १. किसी काम में न लगा हुआ व्यक्ति। २. व्यक्ति, जिसकी जीविका न लगी हो। बेकार। (अन्-एम्प्लाँयड)
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अनधियुक्ति  : स्त्री० [सं० न-अदियुक्ति, न० त०] ऐसी स्थिति जिसमें मनुष्य के लिए अधियुक्ति या जीविका निर्वाह का कोई साधन न हो। बेकारी (अन्-एम्प्लाँयमेंट)
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अनधियोजन  : पुं० [सं० न-अधियोजन, न० त०]=अनधियुक्ति।
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अनधिष्ठित  : वि० [सं० न-अधिष्ठित, न० त०] १. जो किसी पद, स्थान आदि पर अधिष्ठित न हो। २. अनुपस्थित।
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अनधीन  : वि० [सं० न-अधीन, न० त०] जो किसी के अधीन न हो। स्वःधीन। पुं० वह स्वतंत्र बढ़ई जो अपनी इच्छानुसार कार्य करता हो।
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अनध्यक्ष  : वि० [सं० न-अध्यक्ष, न० त०] १. जो सामने न हो। अप्रत्यक्ष। २. जिसे इंद्रियों द्वारा जान न सकें। ३. जिसका कोई अध्यक्ष न हो। ४. जो अध्यक्ष न हो।
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अनध्ययन  : पुं० [सं० न-अध्यवसाय, न० त०] १. अध्ययन का अभाव। २. दे० ‘अनध्याय’।
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अनध्यवसाय  : पुं० [सं० न-अध्यवसाय, न० त०] १. अध्यवसाय का अभाव। २. एक अर्थालंकार जिसमें किसी एक वस्तु के संबंध में साधारण अनिश्चय का वर्णन किया जाता है।
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अनध्याय  : पुं० [सं० न-अध्याय, न० त०] वह दिन जो शास्त्रानुसार पढ़ने-पढ़ाने का न हो। पढ़ाई की दृष्टि से छुट्टी का दिन। यथा-अमावस्या, परिवा, अष्टमी, चतुर्दशी, और पूर्णिमा।
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अनध्यास  : वि० [सं० न-अध्यास, न० ब०] भूला हुआ। विस्मृत।
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अनन  : पुं० [सं० √अन्(जीना) +ल्युट्-अन] साँस लेना। जीना।
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अनना  : स० [सं० आनयन]=आनना (लाना)। उदाहरण—इहै ख्याल उर आनि हैं।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अननुज्ञप्त  : वि० [सं० न-अनुज्ञात, न० त०]=अननुज्ञात।
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अननुज्ञात  : वि० [सं० न-अनुज्ञात, न० त०] १. जो अनुज्ञात न हो। २. (व्यक्ति) जिसे अनुज्ञा न मिली हो। ३. (कार्य) जिसके लिए अनुज्ञा न मिली हो।
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अननुज्ञापित  : वि० [सं० न-अनुज्ञापित, न० त०]=अननुज्ञात।
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अननुभाषण  : पुं० [सं० न-अनुभाषण, न० त०] न्याय में, वह स्थिति जब वादी के तीन बार कोई बात कहने पर भी प्रतिवादी उसका कोई उत्तर नहीं देता और इसी लिए उसकी हार मान ली जाती है।
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अननुभूत  : वि० [सं० न-अनुभूत, न० त०] १. जो अनुभूत न हो। २. जिसका पहले कभी अनुभव न हुआ हो।
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अननुमत  : वि० [सं० न-अनुमत, न० त०] १.जिसे अनुमति न मिली हो। २. जिसकी अनुमति न मिली हो। 3. जो रुचिकर न हो। 4. अयोग्य।
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अननुरूप  : वि० [सं० न-अनुरूप, न० त०] १. जो किसी के अनुरूप न हो। अनुरूप का उल्टा। २. जो किसी की मर्यादा के अनुरूप या उपयुक्त न हो।
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अनंन्तर  : क्रि० वि० [सं० न० ब०] १. उपरान्त। पीछे। बाद। २. निरंतर। लगातार। वि० [सं० न-अंतर,न० ब०] १. जिसके बीच में कोई अन्तर न हो। अंतर-रहित। २. सटा या लगा हुआ। ३. पास या पड़ोस का। ४. अपने वर्ण से ठीक नीचे के वर्ण का। पुं० [सं० न० त०] १. अंतर या भेद का अभाव। २. निकटता। सामीप्य। ३. [सं० न० ब०] ब्रह्म।
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अनन्नास  : पुं० [पुर्त० अनानास] १. एक छोटा पौधा जिसके फल कटहल की तरह ऊपर से दानेदार और खाने में खट-मीठे होते हैं। (पाइनएपुल्) २. उक्त का फल।
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अनन्य  : वि० [सं० न-अन्य, न० ब०] १. जिसका संबंध किसी और से न हो। २. एकनिष्ठ। ३. अद्वितीय। ४. एकाग्र। पुं० विष्णु का एक नाम।
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अनन्य गति  : वि० [सं० न-अन्य-गति, न० ब०] जिसके लिए और कोई साधन या सहारा न हो। स्त्री० [न० त०] एक मात्र सहारा।
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अनन्य-गतिक  : वि० [न० ब० कप्] =अनन्य-गति।
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अनन्य-गुरु  : वि० [सं० न-अन्य-गुरु, न० ब०] १. जिससे कोई बड़ा न हो। २. जिसके लिए एक को छोड़ कोई और गुरु न हो।
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अनन्य-चित्त  : वि० [सं० न-अन्य-चित्त, न० ब०] जिसका चित्त किसी एक में लगा हो। इधर-उधर न हो। एकाग्र चित्त। लीन।
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अनन्य-चेता (तस्)  : वि० [सं० न-अन्य-चेतस्, न० ब०] दे० ‘अनन्य-चित्त’।
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अनन्य-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० न-अन्य-जन्मन्, न० ब०]=अनन्यज।
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अनन्य-दृष्टि  : वि० [सं० न-अन्य-दृष्टि, न० ब०] जिसकी दृष्टि किसी और या दूसरे पर टिकी या लगी हो। स्त्री० [न० त०] निष्ठापूर्वक या एकाग्र चित्त होकर देखने की स्थिति या भाव।
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अनन्य-देव  : वि० [सं० न-अन्य-देव, न० ब०] जिसका कोई और दूसरा देवता न हो। पुं० परमेश्वर।
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अनन्य-परता  : स्त्री० [सं० न-अनन्यपर, न० ब० अनन्यपर+तल्-टाप्] अनन्य-परायण। (दे०)
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अनन्य-परायण  : वि० [सं० अन्य-परायण, स० त० न-अन्य-परायण, न० त०] जिसका किसी और या दूसरे से नाता, प्रेम, लगाव या संबध न हो। अर्थात् एक ही रात में रहनेवाला।
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अनन्य-पूर्वा  : स्त्री० [सं० न-अन्य-पूर्व, न० ब०] १. वह स्त्री० जिसका पहले किसी से संबंध न रहा हो। निर्मल चरित्रवाली स्त्री। २. अविवाहित। कुमारी।
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अनन्य-भाव  : पुं० [सं० अन्य-भाव, स० त० न-अनन्यभाव, न० त०] एक निष्ठ भक्ति या साधना। वि० जिसका भाव या भक्ति एक ही के प्रति हो, किसी दूसरे के प्रति न हो। एकनिष्ठ भक्त।
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अनन्य-मनस्क  : वि० [सं० न-अन्य-मनस्, न० ब० कप्] दे० अनन्य-चित्त।
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अनन्य-योग  : वि० [सं० न-अन्य-योग, न० ब०] १. जिसका संबंध एक को छोड़कर और किसी से न हो। २. जो एक को छोड़ किसी दूसरे के काम न आ सके।
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अनन्य-वृत्ति  : वि० [सं० न-अन्य-वृत्ति, न० ब०] १. जिसकी मनोवृत्ति एकनिष्ठ हो। २. जिसकी कोई दूसरी वृत्ति या जीविका न हो।
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अनन्य-साधारण  : वि० [सं० अन्य-साधारण, स० त०, न-अन्य-साधारण, न० त०] १. एक को छोड़कर दूसरे में न मिलने वाला। २. असाधारण।
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अनन्यज  : वि० [सं० अनन्य√जन् (उत्पन्न होना)+ड] वह जो अन्य या दूसरे से उत्पन्न न हुआ हो। पुं० कामदेव।
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अनन्यता  : स्त्री० [सं० अनन्य+तल्-टाप्] १. अनन्य होने (अर्थात् किसी और या दूसरे से संबंध या लगाव न होने) की अवस्था या भाव। २. एक ही में लीन रहने की अवस्था या भाव। एक-निष्ठता। लीनता।
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अनन्यमना (नस्)  : वि० [सं० न-अन्य-मनस्, न० ब०] =अनन्य-चित्त।
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अनन्याधिकार  : पुं० [सं० अन्य-अधिकार, ष० त० न-अन्याधिकार, न० त०]=एकाधिकार।
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अनन्याश्रित  : वि० [सं० अन्य-अधिकार, ष० त० न-अन्याश्रित, न० त०] १. जो किसी अन्य या दूसरे के आश्रय में न रहता हो। २. स्वाधीन। पुं० ऐसी संपत्ति जिसपर ऋण आदि न लिया गया हो।
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अनन्वय  : पुं० [सं० न-अन्वय, न० त०] १. अन्वय का अभाव। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है। इसे अतिशयोपमा भी कहते है। उदाहरण—भरत-भरत सम जान।—तुलसी।
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अनन्वित  : वि० [सं० न-अन्वित, न० त०] जिसका अन्वय न हुआ हो।
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अनप  : वि० [सं० न-आप, न० ब०] जहाँ जल न हो। २. बिना जल का। जल-रहित।
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अनपकरण  : पुं० [सं० न-अपकरण, न० त०] १. अपकार या नुकसान न करना। २. ऋण या देन न चुकाना।
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अनपकर्ष  : पुं० [सं० न-अपकर्ष, न० त०] अपकर्ष या अवनति या अभाव।
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अनपकार  : पुं० [सं० न-अपकार, न० त०] १. अपकार या अहित का अभाव। २. निर्दोषिता।
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अनपकारक  : वि० [सं० न-अपकारक, न० त०] १. अपकार न करनेवाला। २. निरीह। निर्दोष।
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अनपकारी  : (रिन्)-वि० [सं० न-अपकारिन्, न० त०] =अनपकारक।
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अनपकृत  : वि० [सं० न-अपकृत, न० त०] जिसका अपकार या अहित न किया गया हो।
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अनपक्रम  : वि० [सं० न-अपक्रम, न० त०] १. अपक्रम का अभाव। २. दूर न जाना।
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अनपक्रिया  : स्त्री० [सं० न-अपक्रिया, न० त०]=अनपक्रम।
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अनपघात  : पुं० [सं० न-अपघात, न० त०] अपघात (आघात, क्षति आदि) का अभाव।
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अनपत्य  : वि० [सं० न-अपत्य, न० ब०] [भाव० अनपत्यता० स्त्री० अनपत्या] १. जिसे अपत्य या संतान न हो। निस्संतान। २. जिसका कोई उत्तराधिकारी न हो। ३. जो संतान के अनुकूल न हो।
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अनपत्य-दोष  : पुं० [ष० त०] स्त्री० का बाँझपन।
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अनपत्यक  : वि० [सं० न० ब० कप्]=अनपत्य।
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अनपत्रप  : वि० [सं० न-अपत्रपा, न० ब०] निर्लज्ज।
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अनपद  : क्रि० वि० [सं० अव्य० स०] १. किसी के पीछे-पीछे। पग-पग पर किसी का अनुसरण करते हुआ। २. वाक्य के प्रत्येक पद के अनुसार।वि० [अत्या० स०] (टीका या व्याख्या) जो हर पद के अनुसार हो। पुं० गीत का पहला पद। टेक।
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अनपभ्रंश  : पुं० [सं० न-अपभ्रंश, न० त०] १. जो अपभ्रंश न हो। २. व्याकरण के अनुसार वह शब्द जिसका रूप विकृत न हो। तत्सम या शुद्ध शब्द।
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अनपर  : वि० [सं० न-अपर, न० ब०] १. जिसकी बराबरी का और कोई न हो। अद्वितीय। २. जिसका कोई अनुयायी न हो। ३. अकेला। ४. एकमात्र। पुं० ब्रह्म।
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अनपराद्ध  : वि० [सं० न-अपराद्ध, न० त०] १. (कार्य) जो अपराद्ध न हो। २. (व्यक्ति) जिसने अपराध न किया हो।
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अनपराध  : वि० [सं० न-अपराध, न० त०] १. जिसने अपराध न किया हो। बेकसूर। निरपराध। पुं० [न० त०] अपराध का अभाव। अपराधहीनता।
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अनपराधी (धिन्)  : वि० [सं० न-अपराधिन्, न० त०] जिसने अपराध न किया हो। बेकसूर।
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अनपसर  : वि० [सं० न-अपसर, न० ब०] जिसमें से या जिसके लिए निकलने का मार्ग न हो। २. अन्यायपूर्ण। अक्षम्य। पुं० [न० त०] निकलने या हटने के मार्ग का अभाव।
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अनपाकरण  : पुं० [सं० न-अपाकरण, न० त०] १. न देना। न सौंपना। २. ऋण या देन न चुकाना। ३. अलग न करना। पुं० देन आदि न चुकाने के संबंध में होनेवाला झगड़ा या विवाद।
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अनपाकर्म (न्)  : पुं० [सं० न-अपाकर्मन्, न० त०]=अनपाकरण।
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अनपाय  : वि० [सं० न-अपाय, न० ब०] बाधा रहित। २. जिसका नाश या क्षय न हो। अनश्वर। पुं० [न० त०] १. अनश्वरती। नित्यता। २. [न० ब०] शिव।
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अनपायि-पद  : पुं० [सं० कर्म० स०] परमपद। मोक्ष।
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अनपायी (यिन्)  : वि० [सं० न—अपायिन्, न० त०] १. अचल। ध्रुव। २. स्थिर। ३. जो कभी नष्ट न हो। ४. दुःखरहित।
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अनपाश्रय  : वि० [सं० न —अपाश्रय, न० ब०] १. जो किसी की आश्रित न हो। २. स्वतंत्र।
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अनपेक्ष  : वि० [सं० न—अपेक्षा, न० ब०] १. जिसे किसी की अनपेक्षा या आवश्यकता न हो। २. जिसे किसी बात की चिंता या परवाह न हो। ३. तटस्थ। ४. निष्पक्ष। ५. असंबद्ध। 6 स्वतंत्र।
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अनपेक्षा  : स्त्री० [सं० न—अपेक्षा, न० त०] १. अपेक्षा का अभाव। २. दे० ‘उपेक्षा’।
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अनपेक्षित  : वि० [सं० न—अपेक्षित, न० त०] जिसकी अपेक्षा (आवश्यकता, चाह या परवाह) न हो।
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अनपेक्ष्य  : वि० [सं० न — अपेक्ष्य, न० त०]=अनपेक्षित।
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अनपेत  : वि० [सं० न — अपेत, न० त०] १. जो गया-बीता न हो। २. अपृथक्। युक्त। ३. विश्वास-पात्र।
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अनफा  : पुं० [यूनानी] ज्योतिष में एक प्रकार का योग।
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अनफाँस  : पुं० [हिं० अन+फाँस=पाश] पाश या बंधन का न होना। मोक्ष।
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अनबग्रह  : वि० [सं० न-अवग्रह,न० ब०] १. जिसमें या जिसके लिए कोई रुकावट न हो। २. जो किसी को न रोके।
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अनंबर  : वि० [सं० न-अंबर, न० ब०] १. अंबर-रहित। २. जिसके पास वस्त्र न हों। ३. जिसने वस्त्र धारण न किये हों। नंगा। पुं० एक तरह के जैन साधु जो नंगे रहते है।
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अनबात  : स्त्री० [हिं० अन=नहीं+बात] अनुचित या बुरी बात। उदा०—होत है भली न बात सुनि अनबात की।—सेनापति।
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अनबिध  : वि० =अनबिधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनबिधा  : वि० [सं० अन्+विद्ध] बिना बेधा या छेदा हुआ। जैसे—अन-बिधा मोती।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनबीह  : वि० [हिं० अन+सं० भय ?] निडर। निर्भय। उदा०—लोहाना अनबीह लीय बीरत समथ्थै।—चंदबरदाई।
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अनबूझ  : वि० [हिं० अन+बूझना] १. जो समझ में न आ सके। २. जिसे समझ न हो। नादान। ना-समझ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनबूड़ा  : वि० [हिं० अन=नहीं+डूबना] १. जो बूड़ा या डूबा न हो। २. जो गहराई में न पैठा हुआ हो। उदा०—तंत्रीनाद, कवित्तरस, सरस रास रतिरंग। अनबूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अंग।—बिहारी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनबेधा  : वि० =‘अनबिधा’।
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अनबोल  : वि० [हिं० अन=नहीं+बोलना] १. न बोलनेवाला। मौन। २. जो अपना सुख-दुःख न कह सके। ३. बे-जबान। गूँगा। ४. किसी का कहना न माननेवाला। बे-कहा। पुं० १. न कहने योग्य या अनुचित बात। २. आपस में न बोलने की अवस्था या भाव। अनबोला।
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अनबोलता  : वि०=अनबोला।
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अनबोला  : वि० [हिं० अन+बोलना] १. जो न बोलता हो। चुप। मौन। २. जिसके विषय में कुछ कहा न जा सके। अनिवर्चनीय। पुं० [हिं० अन+बोल] आपस के व्यवहार में लड़ाई-झगड़े आदि के कारण किसी से बोल-चाल या बात-चीत बंद हो जाना।
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अनब्याहा  : वि० [हिं० अन=नहीं+व्याहा] जिसका व्याह न हुआ हो। अविवाहित।
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अनंभ (स्)  : वि० [सं० न०-अभ्भस्० न० त०] जल से रहित। बिना जल का। वि० [सं० अन्=नहीं, अंभस्=पाप, विघ्न, बाधा] बाधा या विघ्न से रहित।
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अनभल  : पुं० [हिं० अन=नहीं+भला] १. बुराई। २. हानि। ३. अहित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०—(किसी का) अनभल ताकना=अहित या बुराई चाहना।
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अनभला  : वि० [हिं० अन=नहीं+भला] जो भला न हो; अर्थात् निंदनीय या बुरा। पुं० दे० ‘अनभल’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभवना  : अ० [सं० अनुभव] अनुभव करना। उदा०—वाकी गति जानै सोई जिहिं अनभई है।—ध्रुवदास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभाय (या)  : वि० [हिं० अन+भावना=अच्छा न लगना] न भानेवाला। अप्रिय। अरुचिकर। पुं० [हिं० अन+सं० भाव] [स्त्री० अनभाई] आपस का वैर, विरोध या द्वेष।
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अनभावता  : वि० दे० ‘अनभाय’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभिग्रह  : वि० [सं० न — अभिग्रह, न० ब०] जिसमें भेद-भाव न हो। पुं० [न० त०] १. भेद-शून्यता। एकरूपता। २. जैन मतानुसार सब मतों को उत्तम और मोक्ष-प्रद मानने का गलत सिद्धांत।
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अनभिज्ञ  : वि० [सं० न—अभिज्ञ, न० त०] [स्त्री० अनभिज्ञा, भाव अनभिज्ञता] १. जिसे किसी विशिष्ट बात या विषय की जानकारी न हो। (अन्-एक्वेन्टेड) २. अज्ञ। अनजान। नावाकिफ।
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अनभिज्ञता  : स्त्री० [सं० अनभिज्ञ+तल्-टाप्] अनभिज्ञ होने की अवस्था या भाव।
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अनभिप्रेत  : वि० [सं० न—अभिप्रेत, न० त०] जो अभिप्रेत न हो अवांछित।
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अनभिभूत  : वि० [सं० न—अभिभूत, न० त०] जो अभिभूत न हुआ हो।
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अनभिमत  : वि० [सं० न—अभिमत, न० त०] १. मत के विरुद्ध, असम्मत। २. तात्पर्यविरुद्ध। और का और। २. जो अभीष्ट न हो। अवांछित।
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अनभिरूप  : वि० [सं० न—अभिरूप, न० ब०] १. जिसका रूप एक-सा न हो। २. बे-डौल। बे-रूप। असुंदर।
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अनभिलषित  : वि० [सं० न—अभिलषित, न० त०] जो अभिलषित या वांछित न हो।
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अनभिलाष  : वि० [सं० न—अभिलाष, न० ब०] जिसे कोई अभिलाषा न हो। पु० [न० त०] १. अभिलाषा या इच्छा का अभाव। २. रस या स्वाद का अभाव।
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अनभिवाद्य  : वि० [सं० अभि(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)वद् (बोलना)+ण्यत्० न० त०] १. जो अभिवादन का अधिकारी या पात्र न हो। २. जिसका अभिवादन अभी न हुआ हो।
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अनभिव्यक्त  : वि० [सं० न—अभिव्यक्त, न० त०] जो प्रकट या व्यक्त न हो। गुप्त। २. जिसकी अभिव्यक्त न हो। ३. अस्पष्ट।
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अनभिसंधि  : स्त्री० [सं० न—अभिसंधि, न० त०] १. अभिसंधि का अभाव या विपर्याय। २. अभिप्राय या प्रयोजन का अभाव।
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अनभिहित  : वि० [सं० न-अभिहित, न० त०] १. जो अभिहित या उक्त न हो। २. जिसका नाम न लिया गया हो या कहा न गया हो। जो बँधा न हो। मुक्त।
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अनभीष्ट  : वि० [सं० न-अभीष्ट, न० त०] जो अभीष्ट न हो।
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अनभेदी  : वि० [सं० अभेदिन्] १. जो भेद या रहस्य न जाने। २. पराया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभै  : पुं० , वि०=अनभो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभो  : वि० [हिं० अन+भवा=हुआ] १. अपूर्व। अलौकिक। अद्भुत। विलक्षण। पुं० १. अचंभा। अचरज। २. अद्भुत, अप्राकृतिक या अनहोनी बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभोरी  : स्त्री० [सं० भ्रम] भुलावा। चकमा। क्रि० प्र०—देना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभौ  : वि० पुं० , दे० ‘अनभो’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनभ्यसित  : वि० =‘अनभ्यस्त’।
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अनभ्यस्त  : वि० [सं० न-अभ्यस्त, न० त०] १. जिसने अभ्यास न किया हो। अपिरपक्व। २. जिसका अभ्यास न किया गया हो।
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अनभ्यास  : पुं० [सं० न-अभ्यास, न० त०] १. अभ्यास का अभाव। २. आदत का न होना।
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अनभ्यासी (सिन्)  : वि० [सं० न-अभ्यासिन्, न० त०] १. अभ्यास न करने वाला। २. जिसने अभ्यास न किया हो।
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अनभ्र  : वि० [सं० न-अभ्र, न० ब०] (आकाश) जो अभ्र या मेघ से रहित हो। स्वच्छ।
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अनभ्रवृष्टि  : स्त्री० [सं० अनभ्र-वृष्टि,कर्म०स०] १. बिना बादल के अचानक होनेवाली वर्षा। २. ऐसा लाभ या प्राप्ति जिसकी आशा या अनुमान पहले से न हो।
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अनम  : वि० [सं० अनभ्र] १. न झुकनेवाला। अनभ्र। २. उद्वत। पुं० ब्राह्मण (जो दूसरों को नमस्कार न करे)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमद  : वि० [हिं० अन+सं० मद] जिसे मद या घमंड न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमन  : वि० =अनमना। पुं० [न० त०] न झुकना।
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अनमना  : वि० [सं० अन्यमनस्क] [स्त्री० अनमनी] १. जिसका मन ठीक तरह से किसी काम में न लग रहा हो। अन्यमनस्क। २. बीमार। अस्वस्थ।
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अनमनापन  : पुं० [हिं० अनमना+पन(प्रत्यय)] १. अनमने होने की अवस्था या भाव। २. उदासी। खिन्नता। ३. बात-चीत में होने वाला रूखापन।
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अनमाँगा  : वि० [हिं० अन=नहीं+माँगना] बिना माँगा हुआ। अयाचित।
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अनमायपा  : वि० [हिं० अन=नहीं+मापना] जिसे मापा न गया हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमारग  : पुं० [हिं० अन=बुरा+मारग] १. अनुचित या बुरा मार्ग। २. अनुचित या बुरा आचरण या व्यवहार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमारिका  : स्त्री० [सं० अनगार+ठक्-इक, टाप्] १. अनगार (साधु या संन्यासी) होने की अवस्था या भाव।
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अनमिख  : क्रि० वि० [सं० अनिमेष] १. बिना पलक गिराये। एकटक। २. निरंतर। लगातार।
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अनमित्र  : वि० [सं० न-अमित्र, न० ब०] जिसका कोई अमित्र (विरोधी या शत्रु) न हो। पुं० वह अवस्था जिसमें कोई अमित्र (विरोधी या शत्रु) न हो।
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अनमिल  : वि० [हिं० अन=नहीं+मिल=मिलना] १. स्वभावतः जो किसी से मिल न सकता हो। २. बे-मेल। जिसका किसी से जोड़ या मेल न बैठता हो। ३. जिससे मेल-जोल न हो। ४. पराया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमिलत  : वि० [हिं० अनमिल]=अनमिल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमिलता  : वि० [हिं० अन=नहीं+मिलना] १. जो कहीं मिल ही न सकता हो। अप्राप्य। २. जो सहज में न मिलता हो। दुष्प्राप्य। ३. दे० ‘अनमेल’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमीलना  : अ० [सं० उन्मीलन] १. (आँखे) खुलना। २. (कलियों आदि का) खिलना या विकसित होना। ३. प्रफुल्लित या प्रसन्न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमेल  : वि० [हिं० अन+मेल] १. जिसका किसी से मेल या जोड़ न बैठे। बेजोड़। २. जिसमें मिलावट न हो। विशुद्ध। ३. जिसके मेल या बराबरी का और कोई न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनमेली  : स्त्री० [हिं० अन+मेल] १. एक प्रकार की असंगत और निरर्थक कविता जिसे ढकोसला भी कहते है। विशेष दे० ‘ढकोसला’।
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अनमोल  : वि० [हिं० अन+मोल] १. जिसका मूल्य इतना अधिक हो कि उसकी कल्पना न हो सके। २. बहुमूल्य। ३. सुन्दर। ४. उत्तम। क्रि० वि० बिना मोल लिये हुए। बिना दाम दिये। मुफ़्त में।
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अनम्र  : वि० [न० त०] १. जो झुका न हो। २. जो नम्र न हो। अविनीत। ३. उद्दंड। उद्धत।
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अनय  : पुं० [न० त०] १. नय या नीति का अभाव। अनीति। अन्याय। २. अनम्रता। ३. विपत्ति। ४. कुप्रबंध। ५. अनुचित या निंदनीय आचरण।
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अनयन  : वि० [न० ब०] नेत्रहीन। अंधा।
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अनयस  : पुं० दे० ‘अनैस’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनयास  : क्रि० वि० =अनायास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरंग  : वि० [हिं० अन+सं० रंग] दूसरे रंग या प्रकार का। उदाहरण—कारौ अपनौ रंग न छाँडै, अनरँग कबहुँ न होई।—सूर।
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अनरथ  : पुं० =अनर्थ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरना  : स० [सं० अनादर] अनादर या अपमान करना।
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अनरस  : पुं० [हिं० अन+रस] १. रस का अभाव। रसहीनता। शुष्कता। २. रूखाई। ३. मनोमालिन्य। मनमुटाव। ४. निरानंद। दुःख। ५. रसविहीन काव्य। वि० जिसमें कोई रस (आनंद या स्वाद) न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरसना  : अ० [हिं० अन=नहीं+सं० रस] १. उदास होना। २. खिन्न या अप्रसन्न होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरसा  : वि० [हिं० अन+सं० रस] १. बिना रस का। २. अनमना। अन्यमनस्क। ३.माँदा। बीमार। रोगी। पुं० दे०‘अँदरसा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरसों  : क्रि० वि० दे० ‘अतरसों’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनराजकता  : स्त्री० =अराजकता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनराता  : वि० [हिं० अन=नहीं+राता] १. जो रंगा हुआ न हो। २. जो लाल रंग का न हो। ३. जिसमें अनुराग या प्रेम न उत्पन्न हुआ हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनराति  : स्त्री० [हिं० अन+सं० रीति] १. रीति या नियम विरुद्ध आचरण या व्यवहार। अनीति। २. बुरी रीति या प्रथा। कुप्रथा।
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अनरीता  : वि० [हिं० अन+रीता=रिक्त] जो भरा हुआ न हो। खाली रिक्त। उदाहरण—रीते अनरीते करे भरे बिगारत दीठ।—रहीम।
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अनरुच  : वि० [हिं० अन+रूचना] जो रुचता न हो। अच्छा न लगने वाला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरुचि  : स्त्री० [हिं० अन+सं० रुचि] १. रुचि या प्रवृत्ति का अभाव। अरुचि। अनिच्छा। २. मन्दाग्नि नामक रोग में वह अवस्था जब भोजन करना अच्छा नहीं लगता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनरूप  : वि० [हिं० अन=बुरा+सं० रूप] १. जिसका कोई रूप न हो। अरूप। २. जिसका रूप अच्छा न हो। कुरूप। ३. जो किसी के रूप के अनुरूप या समान न हो। असमान। असदृश।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनर्गल  : वि० [सं० न-अर्गल,न० ब०] [भाव०अनर्गलता] १. जिसमें अर्गल या रुकावट न हो। २. जिसमें किसी प्रकार की बाधा न हो। ३. अनियंत्रित। मन-माना। ४. अंड-बंड। ऊटपटांग। बे-सिर पैर का।
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अनर्घ  : वि० [सं० न-अर्घ, न० ब०] १. जिसका अर्घ या मूल्य न हो। २. बहुमूल्य। ३. उचित या नियत दर या भाव से कम या अधिक। जैसे—अनर्घ क्रय या विक्रय।
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अनर्घ्य  : वि० [सं० न-अर्घ्य, न० त०] १. जो अर्घ्य प्राप्त करने तथा पूजेजाने के योग्य न हो। २. जिसका मूल्य न लगाया जा सके। बहुमूल्य। ३. [न० ब०] सबसे अधिक पूजनीय।
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अनर्जित  : वि० [सं० न-अर्जित, न० त०] जो अर्जित न किया गया हो। (अन-अर्न्ड) जैसे—अनर्जित आय या धन।
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अनर्थ  : पुं० [सं० न-अर्थ,न० त०] १. अर्थ का अभाव। २. अनुचित या विपरीत अर्थ। ३. अनुचित काम या अशुभ घटना। ४. विपत्ति। ५. अधर्म से प्राप्त किया हुआ धन। ६. [न० ब०] विष्णु का एक नाम। वि० १. जिसका कोई अर्थ न हो। अर्थ-हीन। २. जिससे कुछ अर्थ या प्रायोजन न निकले। निरर्थक। व्यर्थ का। ३. भिन्न अर्थवाला।
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अनर्थ भाव  : वि० [ब० स०] जिसका भाव दुष्ट हो। बुरे भाव या स्वभाव वाला। पुं० [कर्म० स०] दुष्ट भाव।
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अनर्थ-कर  : वि० [ष० त०] =अनर्थकारी।
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अनर्थ-लुप्त  : वि० [ब० स०] जिसमें अनर्थ या व्यर्थ के तत्त्वों या बातों का अभाव हो।
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अनर्थ-संशय  : पुं० [ब० स०] महान अनर्थ या अनिष्ट होने की आशंका या उससे युक्त कोई कार्य।
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अनर्थक  : वि० [सं० न-अर्थ,न० ब०कप्] १. अनर्थ या खराबी करने वाला। २. अर्थरहित। निरर्थक। व्यर्थ। ३.बेफायदा।
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अनर्थकारी (रिन्)  : [सं० अनर्थ√कृ(करना)+णिनि] १. उलटा या विपरीत अर्थ करनेवाला। २. अनर्थ या परम अनुचित काम करनेवाला। ३.बहुत बड़ी हानि या खराबी करनेवाला। जैसे—अनर्थकारी भूकंप।
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अनर्थनाशी (शिन्)  : पुं० [अनर्थ√नश्(अदर्शन)+णिच्+णिनि] शिव।
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अनर्थानुबंध  : पुं० [सं० अनर्थ-अनुबंध, ष० त०] ऐसी स्थिति जिसमें शत्रु का कुछ नाश होने पर भी उसके द्वारा अनर्थ होने की संभावना हो।
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अनर्थापद  : पुं० [सं० अनर्थ-आपद्,ष०त०] अनर्थ होने की आशंका या सम्भावना।
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अनर्थार्थसंशय  : पुं० [सं० अनर्थ-अर्थसंशय,द्व०स०] ऐसी स्थिति जिसमें एक ओर तो अर्थसिद्धि की संभावना हो और दूसरी ओर अनर्थ की आशंका।
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अनर्थार्थानुबंध  : पुं० [सं० अनर्थ-अर्थानुबंध,द्व०स०] अपने लाभ के लिए उपद्रव खड़ा करने के उद्देश्य के लिए शत्रु या पड़ोसी की धन तथा सैन्य से की जाने वाली सहायता।
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अनर्थ्य  : वि० [सं० अनर्थ+यत्]=अनर्थक।
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अनर्यदर्शी (शिंन्)  : वि० [सं० अनर्थ√दृश्(देखना)+णिनि] [स्त्री० अनर्थदर्शिनी] १. अनर्थ की ओर दृष्टि रखनेवाला। २. अहित करने या सोचनेवाला।
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अनर्ह  : वि० [सं० न-अर्ह,न० त०] [भाव० अनर्हता] १. जो दंड या पुरस्कार का पात्र न हो। २. अपात्र। अयोग्य। ३. अपर्याप्त। अनुपयुक्त।
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अनर्हता  : स्त्री० [सं० अनर्ह+तल्-टाप्]अनर्ह (अनुपयुक्त, अपर्याप्त, अपात्र या अयोग्य) होने का भाव।
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अनर्हीकरण  : पुं० [सं० अनर्ह+च्वि√कृ(करना)+ल्युट्-अन] १. किसी कार्य के संचालन अथवा किसी पद के लिए किसी को अनुपयुक्त या अपात्र ठहराना। २. अपर्याप्त या अयोग्य सिद्धि करना।
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अनल  : पुं० [सं०√अन (जीवन)+कलच्] १. अग्नि। आग। २. जठराग्नि। ३. पवन। हवा। ४. आठ वस्तुओं में से पाँचवाँ वसु। ५. एक पितृ देव। ६. परमेश्वर। ७. जीव। ८. विष्णु। ९. वासुदेव। १. कृत्तिका नक्षत्र। ११. ५॰वाँ संवत्सर। १२. तीन की संख्या। १३. माली नामक राक्षस का पुत्र जो विभीषण का मंत्री था। १४. चीता नामक वृक्ष। १५. भिलावें का पेड़।
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अनल-चूर्ण  : पुं० [ष० त०] बारूद।
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अनल-पक्ष  : पुं० [ब० स०] एक कल्पित चिड़िया जिसके संबंध में कहा जाता है कि यह सदा आकाश में ही उड़ती रहती और वहीं अंडे देती है।
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अनल-पंख  : पुं० दे० ‘अनल-पक्ष’।
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अनल-परवचार  : पुं० [सं० अनलपक्ष-चर] हाथी। (डि०) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनल-प्रिया  : स्त्री० [ष० त०] अग्नि की स्त्री, स्वाहा।
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अनल-मुख  : वि० [ब० स०] १. जिसके मुख से अग्नि निकलती हो। २. जो अग्नि के द्वारा सब पदार्थों को ग्रहण करे। पुं० १. देवता। २. ब्राह्नाण। ३. चीता नामक पौधा। ४. भिलावे का पेड़।
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अनलद  : वि० [सं० अनल√दा (देना)+क] १. अग्नि उत्पन्न करने या देने वाला। २. आग बुझानेवाला (पानी)।
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अनलस  : वि० [सं० न-अलस, न० त०] १. आलस्यरहित, फलतः फुर्तीला। २. चैतन्य। 3. [न अलसो यस्मात्, न० ब०] जिससे बढ़कर कोई आलसी न हो।
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अनलसित  : वि० [सं० न-अलस, न० त०] आलस्यरहित। वि० [हिं० अन+लसना] १. जो लसित न हो। २. शोभा न देने वाला। अशोभन।
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अनलहक  : पुं० [अ०] एक अरबी पद जो अहं ब्रह्मास्मि का वाचक है और जिसका अर्थ है-मैं ही ब्रह्म या ईश्वर हूँ।
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अनला  : स्त्री० [सं० अनल+टाप्] १. दक्ष प्रजापित की एक कन्या जिसका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था। २. माल्यवान नामक राक्षस की एक पुत्री।
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अनलायक  : वि० [हिं० अन=नहीं+अ० लायक] १. जो लायक (योग्य) न हो। अयोग्य। नालायक। २. अनुपयुक्त।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनलि  : पुं० [सं०√अन् (जीना)+अच् अन-अलि, ब० स० पररूप] बक नामक वृक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनलेख  : वि० [हिं० अन=नहीं+सं० लक्ष्य=देखने योग्य] १. जो दिखाई न दे। अलक्ष्य। अदृश्य। २. अगोचर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनलेखा  : वि० [हिं० अन=नहीं+लेखा] १. जिसका लेखा या हिसाब न हो सके। २. अनगिनत। असंख्य। उदाहरण—साधनपुंच परे अनलेखे, मै हौं अपने मन एकौ न लेख्यौ।—घनानंद।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनल्प  : वि० [सं० न-अल्प,न० त०] १. जो अल्प या थोड़ा न हो। अधिक। बहुत। २. यथेष्ट।
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अनवकांक्षा  : स्त्री० [सं० न-अवकाँक्षा, न० त०] १. इच्छा का अभाव। अनिच्छा। २. किसी परिणाम के लिए आतुर न होना। (जैन०)।
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अनवकाश  : पुं० [सं० न-अवकाश,न० त०] अवकाश का अभाव। फुरसत न होना। वि० [न० ब०] जिसे अवकाश या फुरसत न हो।
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अनवकाशिक  : पुं० [सं० न-अवकाश, न० त० अनवकाश+ठन्-इक] वह ऋषि जो एक पैर पर खड़ा होकर तप करे।
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अनवक्षक  : वि० [सं० अव√ईक्ष् (देखना)+ण्युल्-अक, न० त०]=अनवेक्ष।
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अनवगत  : वि० [सं० न-अवगत, न० त०] जो अवगत न हो। न जाना हुआ।
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अनवगाह  : वि० [सं० न-अवगाह, न० ब०] १. जो इतना गहरा हो कि थाह न लगे। अथाह। २. गंभीर। गहन। पुं० [न० त०] अवगाह या स्नान का अभाव।
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अनवगाही (हिन्)  : वि० [सं० अवगाह+इनि, न० त०] १. जो गहराई में न जाता हो। २. विशेष अध्ययन न करनेवाला।
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अनवगाह्म  : वि० [सं० न-अवगीत,न० त०] जिसका या जिसमें अवगाहन न हो सके।
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अनवगीत  : वि० [सं० न-अवगीत, न० त०] जिसका अवगीत (निंदा) न हुआ हो।
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अनवच्छिन्न  : वि० [सं० न-अवच्छिन्न,न० त०] १. जो विच्छिन्न (अर्थात् किसी से अलग या बीच में टूटा) न हो। २. जिसका पृथक् या स्वतंत्र स्वरूप निश्चित न हो। ३. जिसका क्रम बीच में न टूटे। जैसे—अनवच्छिन्न हास। ४. बहुत अधिक।
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अनवट  : पुं० [सं० अन्धपट, मि० मुखपट=मुखौटा] बैलों की आँखों पर बाधा जाने वाला कपड़ा या पट्टी। स्त्री० [?] पैर के अँगूठे में पहनने का एक प्रकार का छल्ला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनवद्य  : वि० [सं० न-अवद्य,न० त०] जिसमें कोई दोष न निकाला जा सके। निर्दोष। जैसे—अनवद्य अंगोंवाली सुन्दरी।
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अनवधान  : पुं० [सं० न-अवधान,न० त०] १. अवधान का अभाव। असावधानी। २. लापरवाही। वि० [न० ब०] असावधन। लापरवाह।
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अनवधानता  : स्त्री० [सं० अनवधान+तल्-टाप्] अवधान का अभाव। असावधानता।
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अनवधि  : वि० [सं० न-अवधि, न० ब०] जिसकी अवधि न हो। अवधि-रहित। क्रि० वि० निरंतर। सदैव। हमेशा।
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अनवना  : अ०=अँगवना (धारण करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनवभ्र  : वि० [सं० अव√भ्रंश (अधपतन)+ड,न० त०] १. जिसका नाश न हो। २. अक्षुण्ण।
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अनवम  : वि० [सं० न-अवम,न० त०] जो झुका हुआ या नीचे न हो (फलतः ऊँचा, बड़ा या श्रेष्ठ)।
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अनवय  : पुं० [सं० अन्वय] १. वंश। कुल। २. दे०अन्वय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनवर  : वि० [सं० न-अवर,न० त०] १. जो छोटा न हो। २. जो कम न हो। वि० [अ०] १. चमकीला। २. शोभायमान।
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अनवरत  : क्रि० वि० [सं० अव√रम्+क्त,न० त०] निरंतर। लगातार। सतत।
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अनवरोध  : पुं० [सं० न-अवरोध, न० त०] अवरोध का अभाव।
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अनवलंब  : वि० [सं० न-अवलंब, न० त०] जिसे कोई सहारा न हो। अवलंबहीन।
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अनवलंबन  : पुं० [सं० न-अवलंबन, न० त०] अवलंब या सहारा न लेना या न होना।
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अनवलंबित  : वि० [सं० न-अवलंबित, न० त०] १. जो किसी पर अवलंबित न हो। २. निराधार। बे-सहारा।
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अनवलोभन  : पुं० [सं० अव√लुप्(छेदन)+ल्युट्,पृषो०भत्व, न० त०] गर्भ के तीसरे माह में होने वाला एक संस्कार।
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अनवसान  : वि० [सं० न-अवसान, न० ब०] १. जिसका अंत या अवसान न हुआ हो। २. जिसका अंत या समाप्ति न होती हो।
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अनवसित  : वि० [सं० न-अवसित, न० त०] १. न ठहरने या रुकने वाला। २. लगातार चलता रहने वाला। ३. अस्त न होने वाला।
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अनवसित-संधि  : स्त्री० [कर्म० स०] ऐसी संधि जो किसी जंगल या ऊसर जमीन को आबाद या उपजाऊ बनाने अथवा कोई देश बसाने के लिए की गई हो। औपनिवेशिक संधि।
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अनवसिता  : स्त्री० [सं० अनवसित+टाप्] एक प्रकार का वैदिक छंद।
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अनवस्कर  : वि० [सं० न=अवस्कर, न० ब०] १. मल-रहित। २. स्वच्छ।
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अनवस्थ  : वि० [सं० न-अवस्था, न० ब०] १. अस्थिर। चंचल। २. अव्यवस्थित। ३. डाँवाडोल।
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अनवस्था  : स्त्री० [सं० न-अवस्था, न० त] १. ठीक और यथोचित अवस्था या स्थिति न होना। २. अव्यवस्था। ३. आतुरता। अधीरता। ४. तर्क में ऐसी अवस्था जिसमें एक स्थिति पर न ठहरकर बराबर हर कारण का पूर्व कारण पूछा जाए और ऐसी धारा चलती रहने से कोई निर्णय न हो सके। यह एक प्रकार का दोष माना गया है।
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अनवस्थान  : पुं० [सं० न-अवस्थान, न० त०] १. स्थिरता या निश्चय का अभाव। २. आचरण-भ्रष्टता।
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अनवस्थायी (यिन्)  : वि० [सं० न-अवस्थायिन्, न० त०] १. अस्थायी। २. अस्थिर।
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अनवस्थित  : वि० [सं० न-अवस्थित, न० त०] १. अस्थिर। २. चंचल। ३. अधीर। ४. क्षुब्ध। ५. अशांत। ६. अव्यवस्थित। ७. निराधार।
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अनवस्थिति  : स्त्री० [सं० न-अवस्थिति, न० त०] १. अस्थिरता। २. चंचलता। ३. अधीरता। ४. आधारहीनता। ५. अवलंबशून्यता। ५. योग में, समाधि प्राप्त हो जाने पर भी चित्त का स्थिर न होना।
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अनवहित  : वि० [सं० न-अवहित, न० त०] १. असावधान। बे-खबर। २. ला-परवाह।
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अनवाद  : पुं० [हिं० अन=बुरा+सं० वाद] १. व्यर्थ का वदा-विवाद। फालतू बातचीत। उदाहरण—रंग रहै सो करियै लालन भलो न अति अनवाद।—आनंदघन।२. बुरा वचन। कटु या कठोर बात।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनवाप्त  : वि० [सं० न-अवाप्त, न० त०] जो प्राप्त न हुआ हो। अप्राप्त।
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अनवाप्ति  : स्त्री० [सं० न-अवाप्ति, न० त०] अप्राप्ति। (दे०)
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अनवाँसना  : स० [सं० नव+हिं० बासन] नये कपड़े, बरतन आदि का पहले-पहल प्रयोग या व्यवहार में लाना।
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अनवाँसा  : पुं० [सं० अण्वंश] १. कटी हुई फसल का पूला। ओंसा। २. पहले-पहल जोती-बोई जानेवाली जमीन की पहली फसल।
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अनवाँसा  : स्त्री० [सं० अण्वंश] बिस्वाँसी का बीसवाँ भाग। (भूमि की एक नाप)।
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अनवेक्ष  : वि० [सं० न-अवेक्षा, न० ब०] १. (विषय आदि) ध्यान न देने योग्य। २. (व्यक्ति) असावधान। लापरवाह। ३. उदासीन।
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अनवेक्षण  : पुं० [सं० अव√ईक्ष्+ल्युट्-अक,न० त०] १. ध्यान न देने का भाव। असावधानता। लापरवाही। २. उदासीनता। ३. निरीक्षण का अभाव।
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अनवेक्षणीय  : वि० [सं० अव√ईक्ष्+अनीयर्, न० त०] (ऐसा सामान्य अपराध) जिसपर ध्यान देना कर्त्तव्य न हो। (नॉनकागनिजेबुल)
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अनवेक्षा  : स्त्री० [सं० अव√ईक्ष्+अड-टाप्,न० त०] [वि० अनवेक्षित, अनवेक्षणीय] ऐसे सामान्य अपराध या अनुचित बात पर ध्यान न देना जिसपर विधि के अनुसार ध्यान दिया जा सकता हो। (नॉनकागनिजेन्स)
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अनंश  : वि० [सं० न०-अंश, न० ब०] १. जिसका कोई अंश या भाग न हो। २. जो पैत्रिक संपत्ति पाने का अधिकारी हो। ३. विष्णु और आकाश का विशेषण।
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अनशन  : पुं० [सं० न-अशन, न० त०] १. भोजन न करना। निराहार रहना। उपवास। २. मोक्ष प्राप्ति के निमित्त मरने से कुछ दिन पूर्व आहार का त्याग।
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अनश्वर  : वि० [न० त०] जो नश्वर न हो।
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अनसत्त  : वि० [हिं० अन+सं० सत्य] १. जो सत्य न हो। २. असत्य बोलने वाला। वि० [हिं० अन+सं० सत्त्व] जिसमें सत्त्व या सार न हों।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनसमझ  : वि० [हिं० अन+समझना] १. जो कुछ समझता-बूझता न हो। नासमझ। २. (विषय) जो जाना या समझा हुआ न हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनसमझे  : क्रि० वि० [हिं० अनसमझा] बिना समझे हुए।
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अनसहत  : वि० [हिं० अन+सहना] १. जो सहा न जा सके। असह्म। २. जो सह न सके। असहनशील।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनसाना  : अ० [हिं० अनख या अनिष्ट ?] १. अप्रसन्न या रूष्ट होना। २. चिढ़ना। स० १. किसी को अप्रसन्न या नाराज करना। २. चिढ़ाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनसूय  : वि० [सं० न-असूया, न० ब०] १. दूसरों के दोषों की ओर ध्यान न देने वाला। २. असूया या ईर्ष्या से रहित।
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अनसूयक  : वि० [सं० न-असूयक, न० त०]=अनसूय।
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अनसूया  : स्त्री० [सं० न-असूया, न० त०] १. दूसरों के अवगुणों की ओर ध्यान न देना। २. ईर्ष्या या द्वेष न रखना। ३. अत्रि मुनि की पत्नी। ४. शकुंलता की एक सखी।
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अनसूयु  : वि० [सं० न-असूयु, न० त०]=अनसूय।
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अनस्तमित  : वि० [सं० न-अस्तमित, न० त०] १. जो अस्त न हुआ हो। २. जिसका पतन या ह्वास न हुआ हो।
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अनस्तित्व  : पुं० [सं० न-अस्तित्व, न० त०] अस्तित्व का अभाव। अविद्यामानता।
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अनस्थिक  : वि० [सं० न-अस्थि, न० ब०कप्]=अनस्थ।
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अनस्य  : वि० [सं० न-अस्थि, न० ब० अच्] जिसमें हड्डी न हो।
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अनह (न्)  : पुं० [सं० न-अहत्,न० त०] १. कुदिन। बुरा दिन। २. दिन का अभाव।
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अनहंकार  : वि० [सं० न-अहंकार, न० ब०] अहंकार से रहित। पुं० [न० त०] अहंकार का अभाव।
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अनहंकृत  : वि० [सं० न-अहंकृत, न० त०] जिसे अहंकार न हो।
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अनहंकृति  : स्त्री० [सं० न-अहंकृति, न० त०] अहंकार का अभाव।
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अनहद  : पुं० दे०‘अनाहत’। वि० दे० ‘बे-हद’।
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अनहदनाद  : पुं० दे०‘अनाहत-नाद’।
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अनहित  : वि० [हिं० अन+सं० हित] १. अहितकारी। २. शत्रु। पुं० १. हित का अभाव। २. अशुभ कामना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनहितू  : वि० [हिं० अन+हितू] अनहित चाहनेवाला। अशुभ-चिंतक।
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अनाई-पठाई  : स्त्री० [सं० आनयन+प्रस्थान, प्रा० पट्ठान] १. बुलवाने (या माँगने) और भेजने की क्रिया। २. वधू का ससुराल से बाप के घर आना और फिर ससुराल जाना।
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अनाकनी  : स्त्री० दे० ‘आनाकानी’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनाकर्ण  : वि० [सं० न-आकर्ण, न० ब०] जो कभी सुना न गया हो। अश्रुत। उदाहरण—अनाकर्ण चैतन्य कछू न चितवै साधन तन।—नंददास। पुं० [न० त०] सुनने का अभाव।
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अनाकानी  : स्त्री० =आनाकानी।
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अनाकार  : वि० [सं० न-आकार, न० ब०] १. जिसका आकार, आकृति या रूप न हो। निराकार। २. ईश्वर का एक विशेषण।
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अनाकाल  : पुं० [सं० अकाल] अकाल। दुर्भिक्ष। भुख-मरी। वि० दे० ‘अन-रितु’।
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अनाकाश  : वि० [सं० न-आकाश, न० ब०] जो पारदर्शक न हो। पुं० [न० त०] आकाश का अभाव।
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अनाकुल  : वि० [सं० न-आकुल, न० त०] जो आकुल या व्यग्र न हो, अर्थात् शांत। स्थिर। २. जो संगत न हो। असंगत। ३. एकाग्रचित्त।
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अनाकृत  : वि० [सं० न-आकृत, सहसुपा सं० न-आकृत, न० त०] १. जो पुनः प्राप्त करने के योग्य न हो अथवा पुनः प्राप्त न किया गया हो। २. जो रोका गया न हो। अनिवारित। ३. जिसके विषय में सावधानी न बरती गई हो।
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अनाक्रमण  : पुं० [सं० न-आक्रमण, न० त०] आक्रमण का अभाव। आक्रमण न करना। जैसे—अनाक्रमण की संधि।
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अनाक्रांत  : वि० [सं० न-आक्रांत, न० त०] जो आक्रांत न हुआ हो।
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अनाक्रांता  : स्त्री० [सं० अनाक्रांत+टाप्] १. कंटंकारि या भटकटैया। नामक पौधा।
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अनाखर  : वि० [सं० अनक्षर, प्रा० अनक्खर] १. जो पढ़ा-लिखा न हो। २. असभ्य। ३. बे-डौल। भद्दा।
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अनागत  : वि० [सं० न-आगत, न० त०] १. जो अभी पास या सामने न आया हो। अनुपस्थित। अप्रस्तुत। २. भावी। होनहार। ३. अ-परिचित। अज्ञात। ४.अनादि। ५. अद्भुत। विलक्षण। क्रि० वि० अचानक। सहसा। पुं० १. संगीत शास्त्र के अनुसार एक ताल। २. आगे आनेवाला समय। भविष्यत्काल।
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अनागत-वक्ता (क्त्)  : पुं० [ष० त०] भविष्य की बात कहने वाला। भविष्यद्-वक्ता।
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अनागति  : स्त्री० [सं० न-आगति, न० त०] १. आगमन न होना। न आना। २. न पाना। अप्राप्ति। ३. गति या पहुँच न होना।
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अनागम  : पुं० [सं० न-आगम, न० त०] १. आगमन न होना। न आना। २. न पाना। अप्राप्ति। ३.संपत्ति आदि जिसपर चिरकाल से अधिकार हो किन्तु जिसका कोई लेख्य प्रमाण न हो।
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अनागम्य  : वि० [सं० न-आगम्य, न० त०] =अगम्य।
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अनागर  : पुं० [न० त०] वह जो नागर न हो।
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अनागामी (मिन्)  : पुं० [न-आगामिन्, न० त०] वह जो न आये या न लौटे। वि० जिसका कुछ भी आगम (भविष्य) न हो।
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अनागार  : वि० [सं० न-आगार, न० ब०] जिसका घर-द्वार न हो। पुं० सन्यासी।
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अनाघात  : पुं० [सं० न-आघात, न० त०] १. आघात का अभाव। २. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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अनाघ्रात  : वि० [सं० न-आघ्रात, न० त०] जिसे किसी ने सूँघा न हो।
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अनाचरण  : पुं० [सं० न-आचरण, न० त०] १. किसी कार्य का आचरण न करना। २. जो करने को हो वह न करना। करने का काम छोड़ देना। (ओमिशन) ३. दे०‘अनाचार’।
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अनाचार  : पुं० [सं० न-आचार,न० त०] १. धर्म और नीति के विरुद्ध निंदनीय आचरण। खराब या बुरा चाल-चलन। कदाचार। (इम्माँरैलिटी) २. दुराचार। भ्रष्टाचार। कुरीति। कुचाल। वि० [न० ब०] १. विचित्र। २. अभद्र।
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अनाचारिता  : स्त्री० [सं० अनाचारिन्+तल्-टाप्] १. निंदनीय। आचरण। २. कुरीति।
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अनाचारी (रिन्)  : वि० [सं० अनाचार+इनि ] १. कुत्सित या निंदनीय। आचरणवाला। २. भ्रष्टाचारी।
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अनाज  : पुं० [सं० अन्नाद्य] गेहूँ, चावल, दाल आदि अन्न। धान्य। गल्ला। (ग्रेन) पद—अनाज का दुश्मन=अधिक खानेवाला। पेटू।
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अनाजी  : वि० [हिं० अनाज] जो अनाज से बना हो अथवा जिसमें अनाज का अंश हो। ‘फलाहारी’ का विपर्याय। पुं० अनाज या अन्न से तैयार किया हुआ भोजन।
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अनाज्ञप्त  : वि० [सं० न-आज्ञप्त,न० त०] १. (व्यक्ति) जिसे आज्ञा न मिली हो। २. (कार्य) जिसके लिए आज्ञा न दी गई हो।
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अनाज्ञाकारिता  : स्त्री० [सं० अनाज्ञाकारिन्+तल्-टाप्] १. आज्ञा का पालन न करना। आज्ञाकारी न होना। २. आदेश न मानना या उसका उल्लंघन करना।
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अनाज्ञाकारी (रिन्)  : पुं० [सं० न-आज्ञाकारिन्, न० त०] वह जो आज्ञा या आदेश का पालन न करता हो।
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अनाड़ी  : वि० पुं० [सं० अनार्य, पा० अनरिय, सं० अज्ञानी, प्रा० अण्णाली] १. नासमझ। नादान। २. जो निपुण न हो। अ-कुशल। अ-दक्ष। ३. गँवार।
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अनाढद्य  : वि० [सं० न-आढ्य, न० त०] दरिद्र। निर्धन।
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अनातप  : वि० [न-आतप, न० ब०] १. धूप-रहित। २. छायादार। ३. जो तपता न हो, फलतः शीतल या ठंड़ा। पुं० [न० त०] १. धूप का अभाव। २. छाया। ३. शीतलता।
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अनातुर  : वि० [सं० न-आतुर, न० त०] १. जो आतुर न हो। २. रोग से मुक्त। निरोग।
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अनात्म (न्)  : वि० [सं० न-आत्मन्, न० ब०] १. जिसमें आत्मा न हो। २. आत्मा या अध्यात्म से भिन्न, अर्थात् भौतिक, शारीरिक आदि। ३. जो अपना न हो। ४. अपने आप पर नियंत्रण न रखने वाला। पुं० [न० त०] आत्मा से भिन्न पदार्थ। जैसे—शरीर आदि।
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अनात्म-धर्म  : पुं० [ष० त०] शरीर का धर्म और व्यापार।
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अनात्म-वाद  : पुं० [ष० त०] वह सिद्धान्त जिसमें आत्मा का अस्तित्व नहीं माना जाता।
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अनात्मक  : वि० [सं० न-आत्मन्, न० ब० कप्] १. जिसका संबंध आत्मा से न हो। २. क्षणिक। ३. अयथार्थ। ४. जिसका संबंध अपने से न हो।
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अनात्मक-दुःख  : पुं० [कर्म० स०] अज्ञान से उत्पन्न दुःख। सांसारिक आधि-व्याधि।
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अनात्मज्ञ  : वि० [सं० अनात्मन्√ज्ञा (जानना)+क] १. जिसे आत्मीय या आत्मा का ज्ञान न हो। २. अज्ञानी।
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अनात्मवान् (वत्)  : वि० [सं० आत्मन्+मतुप्, वत्व, न० त०] असंयमी।
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अनात्म्य  : वि० [सं० आत्मन्+यत्, न० त०] १. जिसका संबंध आत्म या आत्मा से न हो। २. जो अपने परिवार के लोगों और मित्रों से स्नेह न रखता हो।
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अनात्यंतिक  : वि० [सं० न-आत्यंतिक, न० त०] जो आत्यंतिक न हो।
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अनाथ  : वि० [ब० स०] [स्त्री० अनाथा, अनाथिनी] १. जिसका कोई नाथ या स्वामी न हो। बिना मालिक का। २. जिसाक कोई पालन-पोषण करने वाला न हो। ३. असहाय। अशरण। ४. दीन। दुःखी।
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अनाथानुसारी (रिन्)  : वि० [सं० अनाथ-अनुसारिन्, ष० त०] अनाथों का सहायक।
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अनाथालय  : पुं० [सं० अनाथ-आलय, ष० त०] वह स्थान जहाँ असहाय, दीन-दुखियों, विधवाओं या माता-पिता हीन बच्चों आदि का पालन-पोषण होता है। (आँरफनेज)
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अनाथाश्रम  : पुं० [सं० अनाथ-आश्रम, ष० त०]=अनाथालय।
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अनाद  : पुं० [सं० ?] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में मगण, यगण, गुरु और लघु होता है। इसे वाणी भी कहते हैं।
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अनादर  : पुं० [सं० न-आदर, न० त०] [वि० अनादृत,अनादरणीय] १. आदर न होना। निरादर। अपमान। अप्रतिष्ठा। बेइज्जती। २. साहित्य में एक अलंकार जिसमें कोई दूसरी वस्तु प्राप्त करने की आशा से किसी प्राप्त वस्तु के अनादर का उल्लेख होता है। वि० [न० ब०] जिसका आदर न हुआ हो।
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अनादरण  : पुं० [सं० आ√दृ (आदर)+ल्युट्। अन० त०] [भूत० कृ० अनादृत] १. अनादर या अपमान करने की क्रिया या भाव। २. बंको आदि में किसी देयक या प्राप्यक का इसलिए अस्वीकृत होना और उसका धन न चुकाया जाना कि उस पर हस्ताक्षर करने वाले के खाते में उसका इतना धन जमा नहीं। (डिस्-आँनरिंग)
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अनादरणीय  : वि० [सं० न-आदरणीय, न० त०] १. जो आदर या अधिकारी का पात्र न हो। २. तिरस्कार या अवहेलना के योग्य।
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अनादरित  : वि० [सं० अनादर+इतच्] १. जिसका आदर न किया गया हो। २. जिसका अनादर किया गया हो।
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अनादि  : वि० [सं० न-आदि, न० ब०] १. जिसका आदि या आरंभ न हो। २. जो सदा से बना चला आ रहा हो। ३. परमात्मा का एक विशेषण।
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अनादि-निधन  : वि० [सं० अनादि-निधन, द्व०,०न-आदि निधन, न० ब०] १. जिसका आदि अंत न हो। २. नित्य। ३. परमेश्वर का एक विशेषण।
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अनादि-सिद्धि  : वि० [पं० त०] जो अनादि काल से चला आ रहा हो।
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अनादित्व  : पुं० [सं० अनादि+त्व] १. अनादि होने की अवस्था या भाव। २. नित्यता।
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अनादिष्ट  : वि० [सं० न-आदिष्ट,न० त०] १. जिसे आदेश या आज्ञा न मिली हो। २. जिसके लिए आदेश या आज्ञा न दी गई हो।
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अनादृत  : वि० [सं० न-आदृत, न० त०] १. जिसका आदर या अपमान हुआ हो। २. जिसका आदर या सम्मान न किया गया हो।
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अनादेय  : वि० [सं० न-आदेय, न० त०] (पदार्थ) जो ग्रहण करने या लिये जाने के योग्य न हो। अग्राह्म।
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अनादेश  : पुं० [सं० न-आदेश, न० त०] आदेश या आज्ञा का अभाव।
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अनादेश-कर  : वि० [सं० न-आदेश न० ब०, अनादेश-कर, ष० त०] १. बिना आज्ञा के करने वाला। २. ऐसा काम करने वाला जिसके लिए आज्ञा न मिली हो।
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अनाद्य  : वि० [सं० न-आद्य, न० त०] १. अनादि। २. अभक्ष्य।
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अनाद्यंत  : वि० [सं० आदि-अंत, द्व० स० न-आद्यंत, न० ब०] जिसका न तो आरंभ या आदि हो और न अंत। सदा से चला आने और सदा बना रहनेवाला। पुं० शिव।
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अनाद्यवंत  : वि० [सं० अनादि-अनंत, द्व० स०]=अनाद्यंत।
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अनाधार  : वि० [सं० न-आधार, न० ब०] १. जिसका कोई आधार न हो। जैसे— अनाधार कथन। २. जिसे किसी का सहारा न हो।
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अनाधि  : वि० [सं० न-आधि, न० ब०] आधि (मानसिक चिंताओं आदि) से युक्त या रहित।
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अनाधृष्ट  : वि० [सं० आ√धृष् (दबाना)+क्त,न० त०] १. जिसपर नियंत्रण न हो। २. जो नष्ट या क्षीण न किया गया हो। ३. पूर्ण।
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अनाना  : स० [सं० आनयनम्] हिं० आनना का प्रेरणार्थक रूप। (किसी से कुछ) माँगना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनानास  : पुं०=अनन्नास।
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अनाप-शनाप  : पुं० [सं० अनाप्त=अनु] असंबंद्ध प्रलाप। बेतुकी बकवास। आँय-बाँय। वि० ऊटपटाँग।
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अनापद्  : स्त्री० [सं० न-आपद्, न० त०] आपद् या विपत्ति का अभाव। वि० [न० ब०] जिसमें आपद् या विपत्ति की संभावना न हो।
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अनापा  : वि० [सं० अ=नहीं+हिं० नापना] १. जो नापा न गया हो। २. अपरिमित। ३. असीम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनाप्त  : वि० [सं० न-आप्त, न० त०] १. जो प्राप्त न हुआ हो। अप्राप्त। २. जो सामने उपस्थित या घटित न हुआ हो। ३. अविश्वस्त। ४. असत्य। ५. अ-कुशल। अनाड़ी। ६. अनात्मीय।
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अनाम (न्)  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसका कोई नाम न हो। बिना नाम का। २. जो प्रसिद्धि न हुआ हो। अप्रसिद्ध। पुं० मलमास।
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अनामक  : वि० [सं० न० ब० कप्] दे० ‘अनाम’। पुं० १. मलमास। २. बवासीर नामक रोग।
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अनामय  : वि० [सं० न-आमय, न० ब०] १. आमय या रोग से रहित। नीरोग। २. दोष-रहित। निर्दोष। ३.अच्छा। उत्तम। पुं० [न० त०] १. तंदुरस्ती। स्वास्थ्य। २. कुशल-क्षेम। ३. [न० ब०] विष्णु। ४. शिव।
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अनामा  : वि० =अनाम। स्त्री० [सं० अनामन्+डाप्]=अनामिका।
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अनामिका  : स्त्री० [सं० अनामा+कन्-टाप् इत्व] कनिष्टा और मध्यमा के बीच की उँगली।
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अनामिष  : वि० [सं० न० ब०] १. आमिष से रहित। निरामिष। मांस-रहित। २. प्रलोभन-रहित। ३. लाभ-रहित।
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अनामृत  : वि० [सं० अमृत] जिसकी मृत्यु न हो। अमर।
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अनामेल  : पुं० दे० ‘एनामेल’।
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अनायक  : वि० [न० ब०] १. जिसका कोई नायक न हो। २. जो (स्वयं) नायक न हो। ३. अव्यवस्थित।
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अनायत  : वि० [सं० न-आयत, न० त०] १. जो बंधा हुआ और फलतः दृढ़ न हो। २. जो अलग न हो। मिला हुआ। ३. जो लंबा न हो। स्त्री०=इनायंत (कृपा)।
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अनायत्त  : वि० [सं० न-आयत, न० त०] १. जो अधीन या वश में न हो। २. स्वतंत्र। स्वाधीन।
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अनायास  : क्रि० वि० [सं० न-आयाम, न० ब०] १. बिना प्रयास किए। २. अचानक। सहसा।
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अनायुप्य  : वि० [सं० न-आयुष्य, न० ब०] १. जो आयुवर्धक न हो। २. जो दीर्घ जीवन के लिए घातक हो।
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अनायुष  : वि० [सं० न-आयुष, न० ब०] जिसके पास हथियार या अस्त्र न हों। शस्त्र-विहीन।
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अनार  : पुं० [फा०] १. एक प्रसिद्ध पेड़ और उसका फल। दाड़िम। २. उक्त फल के आकार की एक प्रकार की छोटी आतिशबाजी। ३. दो छप्परों को बाँधने वाली रस्सी। पद—अनार दाना। (दे०)
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अनार-दाना  : पुं० [फा०] १. खट्टे अनार का सुखाया हुआ दाना। २. राम दाना। ३.एक प्रकार की मिठाई। ४.एक प्रकार की लाल रंग की छीट जिसे स्त्रियाँ पहनती है।
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अनारत  : वि० [सं० आ√रम् (क्रीड़ा)+क्त, न० त०] जो नित्य या सतत रहे। नित्य। सतत। अव्य० सदा। हमेशा। पुं० अविच्छिन्नता।
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अनारंभ  : वि० [सं० न-आरंभ न० ब०] आरंभ-रहित। पुं० [न० त०] आरंभ का अभाव।
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अनारभ्य  : वि० [सं० न-आरभ्य,न० त०] जो आरंभ किये जाने के योग्य न हो।
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अनारस  : पुं०=अनन्नास।
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अनारी  : वि० [फा०] १. अनार-संबंधी। अनार का। २. अनार के छिलके या दाने की तरह का। लाल। (टार्टन गोल्ड) पुं० १. अनार के छिलके उबालकर बनाया जाने वाला एक प्रकार का लाल रंग। (कार्टन गोल्ड) २. लाल आँखों वाला कबूतर। ३. समोसे की तरह का एक प्रकार का पकवान। वि० =अनाड़ी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनारोग्य  : वि० [सं० न-आरोग्य, न० ब०] १. अस्वस्थ। २. स्वास्थ के लिए हानिप्रद। पुं० [न० त०] आरोग्य का अभाव। अस्वस्थता।
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अनार्जव  : वि० [सं० न-आर्जव, न० ब०] १. जो ऋजु या सीधा न हो। २. कुटिल। ३. बेईमान। पुं० [न० त०] १. आर्जव या ऋजुता का अभाव। २. बेईमानी। (डिस्-आनेस्टी) ३. कुटिलता। ४. रोग।
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अनार्तव  : वि० [सं० न-आर्तव,न० त०]=अन-रितु। पुं० स्त्रियों की ऋतुधर्म या रजोधर्म की रुकावट।
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अनार्तवा  : स्त्री० [सं० अनार्तव+टाप्] (स्त्री० ) जो ऋतुमती न हो। अरजस्वला।
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अनार्य  : वि० [सं० न-आर्य, न० त०] १. जो आर्य न हो। २. अश्रेष्ठ और फलतः उपेक्ष्य। पुं० म्लेच्छ शूद्र आदि जो आर्यों से भिन्न हैं।
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अनार्य-कर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० अनार्य-कर्मन्+कन्, प० त०+इनि] अनार्यों के-से कर्म करनेवाला।
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अनार्य-तिक्त  : पुं० [मध्य० स०] चिरायता (पौधा)।
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अनार्यक  : पुं० [सं० न-आर्य, न० ब० अनार्य+कन्] अगर नामक वृक्ष की लकड़ी।
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अनार्यज  : वि० [सं० अनार्य√जन् (उत्पत्ति)+ड] १. जिसका जन्म अनार्यों से हुआ हो। २. अनार्य देश में उत्पन्न। पुं० अगरु वृक्ष।
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अनार्यता  : स्त्री० [सं० अनार्य+तल्-टाप्] १. अनार्य होने की अवस्था या भाव। २. अशिष्टता। असभ्यता।
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अनार्यत्व  : पुं० [सं० अनार्य+त्व]=अनार्यता।
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अनार्ष  : वि० [सं० न-आर्ष, न० त०] जो आर्ष न हो।
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अनार्षेय  : वि० [सं० न-आर्षेय, न० त०] =अनार्ष।
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अनालंब  : वि० [सं० न-आलंब, न० ब०] जिसका कोई आलंब या सहारा न हो। निराश्रित। पुं० [न० त०] आलंब या सहारे का अभाव।
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अनालंबन  : पुं० [सं० न-आलंबन, न० ब०] =अनालंब।
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अनालंबी  : स्त्री० [सं० अनालंब डीष्] शिव की वीणा। वि० [सं० अनालंबित] जिसका कोई आलंब या सहारा न हो।
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अनालाप  : वि० [सं० न-आलाप, न० ब०] १. मौन। २ ०मितभाषी। पुं० [न० त०] १. मौनावलंबन। २. अधिक न बोलना। ३. किसी से बातचीत न करना। असंभाषण।
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अनालोचित  : वि० [सं० न-अनालोचित,न० त०] १. जिसकी आलोचना, विवेचना, समीक्षा न की गई हो। २. जो देखा न गया हो। अदृष्ट।
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अनावरण  : पुं० [सं० न-आवरण,न० त०] [वि० आनावृत] १. किसी चीज पर पड़ा हुआ आवरण या परदा हटाना। २. कोई ऐसा सार्वजनिक कृत्य या समारोह जिसमें किसी महापुरुष के चित्र, मूर्ति आदि के सामने पड़ा हुआ परदा हटाकर उसे सर्वसाधारण के लिए दर्शनीय किया जाता है। उद्घाटन। (अनवीलिंग)
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अनावरित  : भू० कृ=अनावृत्त।
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अनावर्त्तक  : वि० [सं० न-आवर्तक, न० त०] १. जो आवर्त्तक न हो। २. जो एक ही बार होकर रह जाए। बार-बार न हो। (नानरेकरिंग) जैसे—अनावर्त्तक दान या व्यय।
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अनावर्त्तन  : पुं० [सं० न-आवर्तन, न० त०] १. न लौटना। २. फिर इस संसार में जन्म न लेना।
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अनावर्षण  : पुं० [सं० न-आवर्षण, न० त०] वर्षा का अभाव। अवर्षण। सूखा।
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अनावश्यक  : वि० [सं० न-आवश्यक, न० त०] १. जो आवश्यक न हो। २. जो उपयोग में न आवे। ३. व्यर्थ। फालतू।
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अनावश्यकता  : स्त्री० [सं० अनावश्यक+तल्-टाप्] आवश्यकता का अभाव। जरूरत का न होना।
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अनावासिक  : वि० [सं० आवास+ठन्-इक, न० त०] जो स्थायी निवासी या आवासिक न हो। बल्कि किसी दूसरे देश में आकर अस्थायी रूप से बसा हो। (नॉनरेजिडेण्ट)
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अनाविद्ध  : वि० [सं० न-आविद्ध,न० त०] १. जिसमें वेध या छेद न हुआ हो। अनविधा। २. जिसपर चोट न लगी हो।
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अनाविल  : वि० [सं० न-आविल, न० त०] १. जो गँदला या गंदा न हो। २. स्वच्छ। निर्मल। ३.स्वास्थ्यप्रद (देश या स्थान)
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अनावृतन  : पुं० [सं० आवरण] १. अनावृत्त या नंगा करना। ऊपर का आवरण उतारना या हटाना। २. जल-प्रवाह, वर्षा वायु सूर्य ताप आदि के कारण भूमि के ऊपरी भाग की मिट्टी आदि का निकलकर दूर हटते जाना जिसमें नीचे या चट्टानी या पथरीला अंश ऊपर निकल आता हैं। (डिन्यूडेशन)
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अनावृत्त  : भू० कृ० [सं० न-आवृत्त, न० त०] १. जिसके ऊपर या आगे पड़ा हुआ परदा हटा दिया गया हो। २. (चित्र या मूर्ति) जिसका आवरण संबंधी समारोह हुआ हो। (अनवील्ड) ३. चारों तरफ से घिरा हुआ।
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अनावृत्ति  : स्त्री० [सं० न-आवृत्ति, न० त०]=अनावर्तन।
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अनावृष्टि  : स्त्री० [सं० न-आवृष्टि, न० त०] वृष्टि न होना। अनावर्षण। सूखा।
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अनावेदित  : वि० [सं० न-आवेदित, न० त०] १. जो आवेदित न हुआ हो या न किया गया हो। २. जो मालूम या विदित न कराया गया हो।
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अनाश  : वि० [सं० न-आशा, न० ब०] १. जिसे आशा न हो। २. जिसका नाश न हुआ हो। पुं० [सं० न-नाश, न० त०] नाश का अभाव।
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अनाशक  : वि० [न० त०] जो नाशक न हो। वि० [सं० आ√अश् (खाना)+घञ्, न० ब० कप्] आमरण अनशन करनेवाला।
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अनाशकायन  : पुं० [सं० अनाशक (=आत्मा)-अयन (=प्राप्त्युपाय) ष०त०] उपावस युक्त ब्रह्मचर्य व्रत।
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अनाशस्त  : वि० [सं० आ√शंश् (स्तुति)+क्त, न० त०] जिसकी आशंसा या प्रशंसा न की गई हो।
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अनाशा  : स्त्री० [सं० न-आशा, न० त०] आशा का अभाव। नैराश्य।
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अनाशी शिन्  : वि० [सं०√नश्, (नष्ट होना) +णिनि, न० त०] नाश से रहित। अनश्वर। (आत्मा, ब्रह्म आदि)
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अनाशु  : वि० [सं०√नश्+उण्, न० त०] १. नाशरहित। २. [√अश् (व्याप्ति)+उण् न० त०] जो व्यापक न हो। ३. जो तेज न हो। मंद। सुस्त।
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अनाश्य  : वि० [सं०√नश्ण्यत्, न० त०]=अविनश्वर
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अनाश्रमी (मिन्)  : वि० [सं० न-आश्रमिन् न० त०] १. जिसका कोई आश्रय न हो। २. गार्हस्थ्य आदि चारों आश्रमों से रहित या अलग। ३. वर्णाश्रम धर्म से भ्रष्ट। पतित।
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अनाश्रय  : वि० [सं० न-आश्रय, न० ब०] आश्रयहीन। बे-साहार। पुं० [न० त०] आश्रय का अभाव।
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अनाश्रित  : वि० [सं० न-आश्रित, न० त०] १. जिसे किसी का आश्रय न हो। आश्रय-रहित। बे-सहारा। २. जो दूसरों पर आश्रित न हो। स्वाधीन। ३. जो अधिकार रहते भी ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों से वंचित हो।
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अनास  : वि० [सं० न० ब०] १. जिसे नाक न हो। बिना नाक वाला। २. नकटा।
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अनासक्त  : वि० [सं० न-आसक्त, न० त०] १. जो आसक्त न हो। २. अलग या दूर रहनेवाला। निर्लिप्त। (डिटैच्ड)
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अनासक्ति  : स्त्री० [सं० न-आसक्ति,न० त०] १. आसक्ति या अनुराग न होना। २. दूर, अलग या उदासीन रहना। अलगाव। (डिटैचमेण्ट)
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अनासती  : स्त्री० [?] कु-समय। कु-अवसर। (डिं)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनासिक  : वि० [सं० न-नासिक, न० ब०] १. बिना नाक का। २. नकटा।
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अनासीन  : वि० [सं० न-आसीन, न० त०] १. जो आसीन या बैठा हुआ न हो। अपने आसन, स्थान आदि से हटा हुआ। २. अपने पद या आधिकारिक स्थान से हटाया हुआ। (अन-सीटेड)
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अनास्था  : स्त्री० [सं० न-आस्था, न० त] १. आस्था या श्रद्धा न होना। २. विश्वास न हो। ३. अनादर। ४. उदासीनता।
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अनास्वाद  : वि० [सं० न-आस्वाद, न० ब०] बिना स्वाद का। विरस। पुं० [न० त०] स्वाद का न होना।
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अनास्वादित  : भू० कृ० [सं० न-आस्वादित, न० त०] जिसका स्वाद न लिया गया हो।
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अनाह  : पुं० [सं०√नह् (बंधन)+घञ्, न० त०] पेट फूलने का रोग। अफरा। वि० =अनाथ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनाहक  : क्रि० वि० [फा०ना+अ,हक] व्यर्थ। बेफायदा। उदाहरण— चौरासी लख जीव जोनि मैं भटकत फिरत अनाहक।—सूर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनाहत  : वि० [सं० न-आहत, न० त०] १. जो आहत न हो। २. जिसपर आघात न हुआ हो। ३. जिसकी उत्पत्ति आघात से न हुई हो। ४. (गणित में) जिसका गुणन न हुआ हो। पुं० १. हाथों के अँगूठों से दोनों कान बंद करने पर सुनाई पड़नेवाला एक प्रकार का शब्द। अनहद नाद। २. हठयोग में शरीर के अंदर ह्रदय के पास का वह चक्र या स्थान जहाँ से उक्त शब्द निकलता है। (हार्ट प्लेक्सस) ३. नया कपड़ा जो अभी पहना न गया हो।
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अनाहतनाद  : पुं० [कर्म० स०] वह ध्वनि या शब्द जो योगियों को अपने अंदर सुनाई पड़ता है। ( दे०‘अनाहत’ २. )
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अनाहतशब्द  : पुं० [कर्म० स०]=अनाहत नाद।
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अनाहदवाणी  : स्त्री० [सं० अनाहत-वाणी] आकाश-वाणी। देव-वाणी।
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अनाहार  : पुं० [सं० न-आहार, न० त०] [वि० अनाहारी] आहार या भोजन का अभाव या त्याग। वि० [न० ब०] जिसने कुछ खाया न हो। निराहार।
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अनाहार-मार्गणा  : स्त्री० [ष० त०] जैनों का एक प्रकार का व्रत।
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अनाहार्य  : वि० [सं० न-आहार्य, न० त०] १. (पदार्थ) जो आहार्य या खाये जाने के योग्य न हो। २. जिसे पकड़ा न जा सके। ३. जिसे उत्पन्न न किया जा सके।
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अनाहिताग्नि  : पु० [सं० न-आहिताग्नि न० त०] वह जिसने विधिपूर्वक अग्न्याधान न किया हो। अग्निहोत्र न करनेवाला।
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अनाहूत  : वि० [सं० न-आहूत, न० त०] १. जो आहूत न हो। जिसे बुलाया न गया हो। अनिमंत्रित। २. (कथन या बात) जो अवसर या प्रयोजन न होने पर भी अनावश्यक रूप से कही गई हो। (अन्-कॉल्ड-फॉर)
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अनि  : अव्य० [अन्य] अन्य। दूसरा। उदाहरण—अनि सूरवीर नरवर सकल, चुड़ी येह धर उप्परी।—चंद्रवरदाई। स्त्री० [सं० अनीक] सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिआई  : वि० =अन्यायी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिक  : वि० =अनेक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिकेत  : वि० [न० ब०] जिसका कोई निकेतन (घर-बार) न हो। बे-घरवाला। पुं० १. संन्यासी। २. वह जो जगह-जगह घूमकर जीवन निर्वाह करता हो। यायावर। खानाबदोश।
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अनिग्रह  : पुं० [न० त०] निग्रह, रोक या बंधन का अभाव। २. दंड,पीड़न आदि का अभाव। वि० [न० ब०] १. बंधन-रहित। बे-रोक। २. असीम। बहुत अधिक। ३. कष्ट, पीड़ा रोग आदि से रहित। ४. जिसे कोई दंड या सजा न मिली हो। ५. जो दंडित होने के योग्य न हो। अदंड्य।
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अनिच्छ  : वि० [सं० न—इच्छा, न० ब०] १. जिसे किसी बात की इच्छा या चाह न हो। इच्छा-रहित। २. जो चाहा न गया हो। ३. जो इच्छा के विरुद्ध हो। क्रि० वि० बिना इच्छा के।
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अनिच्छा  : स्त्री० [सं० न—इच्छा, न० त०] १. इच्छा न होने की दशा या भाव। २. प्रवृत्ति, रुचि आदि का अभाव।
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अनिच्छिक  : वि० [सं० न० ब० कप्] अनिच्छ।
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अनिच्छित  : वि० [सं० इच्छा+इतच्, न० त०] १. (वस्तु) जिसकी इच्छा या चाह न की गई हो। अन-चाहा। २. जो रुचिकर न हो। अच्छा न लगनेवाला।
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अनिच्छु  : वि० [सं० न — इच्छु, न० त०] =अनिच्छ।
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अनिच्छुक  : वि० [सं० न — इच्छुक, न० त०] =अनिच्छ।
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अनिजक  : वि० [सं० निज+कन्, न० त०] १. जो निज का या अपना न हो। २. दूसरे से संबंध रखनेवाला। दूसरे का। पराया।
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अनित  : वि० =अनित्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनित्य  : वि० [न० त०] [भाव० अनित्यता] १. जो नित्य या सद न बना रहे, बल्कि कुछ समय बाद नष्ट हो जाय। अस्थायी। जैसे—संसार और उसकी सब वस्तुएँ अनित्य हैं। २. कभी न कभी नष्ट हो जानेवाला। नश्वर। (मॉर्टल) ३. अनिश्चित। ४. जो स्वयं कार्य-रूप हो और जिसका कोई कारण हो। ५. असत्य। झूठा।
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अनित्यकर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा धार्मिक कृत्य जो नित्य नियमित रूप से नहीं बल्कि कुछ विशिष्ट अवसरों पर किया जाता है।
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अनित्यक्रिया  : स्त्री० [कर्म० स०] =अनित्यकर्म।
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अनित्यता  : स्त्री० [सं० अनित्य+तल् — टाप्] १. अनित्य होने की अवस्था, गुण या भाव। २. नश्वरता।
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अनित्यदत्त  : पुं० [तृ० त०] ऐसा बालक जो किसी को स्थायी रूप से दत्तक बनाने के लिए दिया गया हो।
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अनित्यदत्तक  : पुं० [सं० अनित्यदत्त+कन्] =अनित्यदत्त।
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अनित्यभाव  : पुं० [कर्म० स०] क्षण-भंगुरता। नश्वरता।
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अनित्यसम  : पुं० [तृ० त०] तर्क में ऐसा दूषित और अमान्य उत्तर या कथन जिसमें किसी विशिष्ट धर्म या अपवाद-स्वरूप तथ्य के आधार पर ऐसी बातों का भी अंतर्भाव हो जाय, जिनका अंतर्भाव न हो सकता हो।
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अनिंद  : वि० =अनिंदनीय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिंदनीय  : वि० [न० त०] १. जिसकी निंदा न की जा सकती हो। २. जिसकी निंदा करना उचित न हो। ३. निर्दोष। ४. उत्तम। अच्छा।
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अनिदान  : वि० [न० ब०] १. जिसका निदान न हो सके। २. कारण-रहित। पुं० [न० त०] १. निदान का अभाव। २. कारण का अभाव।
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अनिंदित  : वि० [न० त०] जिसकी निंदा न हुई हो।
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अनिंद्य  : वि० [न० त०] जिसकी निंदा न की जा सकती हो अर्थात् श्रेष्ठ।
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अनिद्र  : वि० [सं० न—निद्रा, न० ब०] १. जिसे नींद न आती हो। २. जागता हुआ। पुं० उन्निद्र नामक रोग, जिसमें नींद बिलकुल नहीं आती।
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अनिद्रा  : स्त्री० [न० त०] १. नींद न आने की अवस्था या भाव। २. नींद न आने का रोग। उन्निद्र।
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अनिद्रित  : वि० [न० त०] जो सोया हुआ न हो। फलतः जागता हुआ।
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अनिप  : पुं० [सं० अनीक, हिं० अनी=सेना=प=पति] सेनापति। सेनाध्यक्ष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिपात  : पुं० [न० त०] १. निपात का अभाव। न गिरना। २. जीवन का बना रहना।
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अनिभृत संधि  : स्त्री० [सं० अनिभृत, न० त०, अनिभृत-संधि, कर्म० स०] किसी की इच्छित भूमि उसे देकर उससे की जानेवाली संधि या मेल।
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अनिभ्य  : वि० [सं० न—इभ्य, न० त०] धनहीन। दरिद्र।
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अनिमक  : पुं० [सं०√अन्+इमन्—अनिम√कै (प्रकाश)+क] १. कोयला। २. भौंरा। ३. मेढ़क। ४. पद्मकेशर। ५. मधु-मक्खी। 6. महुए का वृक्ष।
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अनिमा  : स्त्री० =अणिमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिमाउ  : पुं० =अन्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिमादिक  : स्त्री० [सं० अणिमा+आदि] अणिमा, महिमा आदि आठों सिद्धियाँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनिमित्त  : वि० [न० ब०] बिना हेतु का। जिसका कोई निमित्त या हेतु न रहा हो। कारण-रहित। क्रि० वि० बिना किसी कारण, प्रयोजन या हेतु के।
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अनिमित्तक  : वि० [न० ब०, कप्] =अनिमित्त।
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अनिमिष  : क्रि० वि० [न० ब०] १. बिना पलक गिराए। एक-टक। २. निरंतर। लगातार। वि० जिसकी पलकें न गिर रही हों। टक लगाकर देखनेवाला। पुं० [वि० अनिमिषीय] देवता।
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अनिमिष-दृष्टि  : वि० [ब० स०] बिना पलक गिराये देखनेवाला।
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अनिमिष-नयन  : वि० [ब० स०] =अनिमिषदृष्टि।
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अनिमेष  : क्रि० वि० [न० ब०] दे० ‘अनिमिष’। पुं० देवता।
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अनियत  : वि० [न० त०] १. जो नियत या निश्चित न हो। २. अनियमित। ३. अस्थिर। ४. अपरिमित। असीम। ५. असाधारण।
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अनियतात्मा (त्मन्)  : पुं० [सं० अनियत—आत्मन्, न० ब०] १. वह जिसकी बुद्धि या मन स्थिर न हो। २. वह जिसका मन उसके वश में न हो।
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अनियंत्रित  : वि० [न० त०] १. जिसपर किसी का या किसी प्रकार का नियंत्रण न हो। बिना रोक-टोक का। (अनकण्ट्रोल्ड) २. जो कोई प्रतिबंध न माने। मनमानी करनेवाला।
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अनियंत्रित शासन  : पुं० [कर्म० स०] दे० ‘निरंकुश शासन’।
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अनियम  : पुं० [न० त०] [वि० अ-नियमित] नियम का अभाव। अव्यवस्था।
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अनियमित  : वि० [न० त०] [भाव० अ-नियमितता] १. जो नियमित न हो। नियम-रहित। अव्यवस्थित। २. जिसमें नियमों का ठीक तरह से या पूरा-पूरा पालन न हुआ हो। बेकायदा। (इर्रेगुलर)। ३. अ-निश्चित। अस्थिर।
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अनियारा  : वि० [हिं० अनी=नोंक+हिं० आर (प्रत्य०)] [स्त्री० अनियारी] १. नुकीला। २. पैना। तीक्ष्ण। ३. काट करनेवाला कटीला। उदा०—बदन मदन की सोभा चितवन अनियारी—मीराँ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनियोग  : पुं० [न० त०] १. नियोग का अभाव। २. ऐसा निषेध जो उचित, उपयुक्त या ठीक न हो।
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अनिरा  : पुं० [सं० अ=नहीं+निकट, प्रा० निअर, निअड़] बहका हुआ या इधर-उधर घूमनेवाला पशु।
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अनिरुक्त  : वि० [न० त०] १. जिसका निर्वचन (व्युत्पत्ति आदि से युक्त व्याख्या) न हुआ हो। २. जो स्पष्ट रूप से न कहा गया हो।
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अनिरुद्ध  : वि० [न० त०] १. जो निरुद्ध या रुका हुआ न हो। २. जिसमें कोई रुकावट न हो। ३. स्वेच्छाचारी। पुं० १. श्रीकृष्ण के पौत्र और प्रद्युम्न के पुत्र जिन्हें ऊषा ब्याही थी। २. शिव। ३. गुप्तचर। जासूस। ४. विष्णु।
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अनिर्णय  : पुं० [न० त०] निर्णय का न होना। अनिश्चय।
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अनिर्णीत  : वि० [न० त०] जिसका या जिसके संबंध में कोई निर्णय न हुआ हो।
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अनिर्दश  : वि० [न० ब०] जिसके अशौच के दस दिन अभी न बीते हों। (धर्मशास्त्र)
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अनिर्दिष्ट  : वि० [न० त०] जो निर्दिष्ट या निश्चित न हो।
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अनिर्दिष्ट भोग  : पुं० [कर्म० स०] बिना आज्ञा लिए दूसरे की वस्तु काम में लाना।
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अनिर्देश  : पुं० [न० त०] आदेश या निर्देश का अभाव।
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अनिर्देश्य  : वि० [न० त०] १. जिसका निर्देश न हो सकता हो। २. जिसकी व्याख्या न हो सकती हो।
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अनिर्धारित  : वि० [न० त०] जो निर्धारित या निश्चित न हो।
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अनिर्धार्य  : वि० [न० त०] १. जिसका निर्धारण न हो सके। २. जिसका लक्षण स्थिर न किया जा सके।
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अनिर्बंध  : वि० [न० ब०] १. जिसमें कोई निर्बंध या बंधन न हो। बंधन-रहित। २. जो बंधन से रहित हो, अर्थात् स्वतंत्र।
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अनिर्भर  : वि० [न० त०] १. जो निर्भर न हो। २. थोड़ा। ३. हलका।
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अनिर्वच  : वि० =अनिर्वचनीय।
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अनिर्वचनीय  : वि० [न० त०] [भाव० अनिर्वचनीयता] १. जो वचन या वाणी से कहा न जा सकता हो। अकथ्य। २. जिसका वर्णन या विवेचन न हो सकता हो।
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अनिर्वाच्य  : वि० [न० त०] १. जिसका कथन या निर्वचन न हो सके। जो कहकर न बतलाया जा सके। २. जिसका निर्वाचन या चुनाव न हो सकता हो।
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अनिर्वाप्य  : वि० [न० त०] १. जो बुझाया न जा सके। जैसे—अनिर्वाप्य ज्वाला। २. जिसका निर्वापण या शमन न हो सके। जैसे—अनिर्वाप्य वैमनस्य।
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अनिर्वाह  : पुं० [न० त०] १. निर्वाह का अभाव। गुजर न होना। २. पूरा न होना।
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अनिर्वाह्य  : वि० [न० त०] १. जिसका निर्वाह न हो सकता हो। २. जिसका निर्वहण (यातायात) न हो सके।
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अनिर्वाह्य-पण्य  : पुं० [कर्म० स०] वह माल जिसके आने-जाने पर रोक लगी हो। (कौ०)
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अनिल  : पुं० [सं० √अन् (जीना)+इलच्] १. वायु। पवन। २. पवन के प्रकारों के आधार पर ४९ की संख्या। ३. वात रोग। ४. पक्षाघात। ५. विष्णु। 6० स्वाति नक्षत्र। 7० आठ वसुओं में से एक। ८. सागवान का वृक्ष।
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अनिल-कुमार  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीम। ३. देवताओं का एक भेद। (जैन)
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अनिल-प्रकृति  : वि० [ब० स०] वायु-स्वभाववाला। वात प्रकृतिक। पुं० शनि ग्रह।
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अनिल-वाह  : वि० [सं० अनिल√वह् (ढोना)+अण् हवा की तरह बहनेवाला। उदा०—इस अनिल-वाह के पार प्रखर।—निराला।
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अनिल-व्याधि  : स्त्री० [ष० स०] वात रोग।
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अनिल-सख  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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अनिल-सारथि  : पुं० [ब० स०] अग्नि।
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अनिलहा (हन्)  : वि० [सं० अनिल√हन् (हिंसा)+क्विप्] वातजन्य विकार दूर करनेवाला।
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अनिलात्मज  : पुं० [सं० अनिल—आत्मज, ष० त०] १. हनुमान। २. भीम।
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अनिलाशन  : वि०=अनिलाशी।
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अनिलाशी (शिन्)  : वि० [सं० अनिल√अश् (भोजन)+णिनि] वायु पीकर जीने या रहनेवाला। पुं० साँप।
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अनिवर्तन  : पुं० [न० त०] निवर्त्तन का अभाव।
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अनिवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० नि√वृत् (बरतना)+णिनि, न० त०] १. न लौटनेवाला। २. पीछे न हटनेवाला। पीठ न दिखलानेवाला। ३. तत्पर। मुस्तैद।
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अनिवार  : वि० [न० ब०] १. जिसे बीच में कोई रोकनेवाला न हो। उदा०—अनिवार कामना नित अबाध अमना बहती।—पंत। २. दे० ‘अनिवार्य’।
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अनिवारित  : वि० [न० त०] १. जिसका निवारण न हुआ हो। २. नियंत्रण-रहित। निरंकुश।
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अनिवार्य  : वि० [न० त०] १. जिसका निवारण न हो सकता हो। अवश्यंभावी। २. जिससे बचा न जा सके। (अनएवायडेंबुल)
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अनिवार्य भर्ती  : स्त्री० [सं० अनिवार्य+हिं० भर्ती] सैनिक सेवाओं के लिए लोगों को अनिवार्य रूप से या अधिकार-पूर्वक भर्ती करने की प्रथा या स्थिति। (कान्स्क्रिप्शन)
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अनिश  : क्रि० वि० [सं० नि√शी (सोना)+डमु,न० त०] निरंतर। लगातार
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अनिश्चय  : पुं० [न० त०] १. निश्चय का अभाव या न होना। २. किसी अज्ञात बात या अनिर्णीत विषय में विचार या सिद्धान्त का निश्चय न होना। (अन्सर्टेण्टी)
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अनिश्चित  : वि० [न० त०] [भाव० अनिश्चितता, अनिश्चय] १. जो निश्चत न हो या हुआ हो। २. जिसके आने या घटित होने का कोई निश्चय या ठीक-ठिकाना न हो।
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अनिषिद्ध  : वि० [न० त०] जो निषिद्ध न हो।
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अनिष्कासिनी  : स्त्री० [न० त०] घर से बाहर न निकलने वाली पर्दानशीन औरत।
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अनिष्ट  : वि० [सं० न-इष्ट, न० त०] १. जो इष्ट या वांछित न हो। जैसे—अनिष्ट प्रसंग या फल। २. जो अशुभ, अहितकर, अमंगलकारी या हानिकारक हो। ३. बहुत ही अनुचित या बुरा। ४. नाश करनेवाला। पुं० १. अमंगल। अहित। २. हानि। ३. विपत्ति। ४. नाश।
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अनिष्ट-प्रदर्शन  : पुं० [ष० त०] दे० ‘असंगति प्रदर्शन’।
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अनिष्ट-प्रसंग  : पुं० [ष० त०] १. अनुचित या अवांछित प्रसंग। २. बुरा विषय। ३. अवछित या बुरा तर्क।
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अनिष्ट-फल  : पुं० [कर्म० स०] बुरा लक्षण। असगुन।
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अनिष्ट-शंका  : स्त्री० [ष० त०] १. अमंगल या दुर्भाग्य की आशंका या भय।
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अनिष्ट-हेतु  : पुं० [कर्म० स०] बुरा लक्षण। असगुन।
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अनिष्टकर  : वि० [ष० त०] अनिष्ट करनेवाला।
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अनिष्टकारी (रिन्)  : वि० [सं० अनिष्ट√कृ (करना)+णिनि] अनिष्टकर।
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अनिष्टाप्ति  : स्त्री० [सं० अनिष्ट-आप्ति, ष० त०] १. अनिष्ट बात या घटित होना। २. अनिष्ट फल या वस्तु का प्राप्त होना।
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अनिष्टाशंसी (सिन्)  : वि० [सं० अनिष्ट-आ√शंस् (कहना)+णिनि] जो अमंगल या अशुभ का सूचक हो अथवा उसकी सूचना दे।
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अनिष्पत्ति  : वि० [न० त०] १. निष्णता या पूर्णता का अभाव। २. पूरा या सिद्ध न होने की दशा या भाव। अपूर्णता।
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अनिष्पन्न  : वि० [न० त०] (कार्य जो निष्पन्न न हुआ हो अथवा न किया गया हो।
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अनिसृष्ट  : वि० [न० त०] १. जिसे आज्ञा या अधिकार न मिला हो। २. जिसका उपयोग बिना आज्ञा लिये किया गया हो।
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अनिसृष्टोपभोक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० अनिसृष्ट-उपभोक्तृ, ष०त०] वह जो स्वामी की आज्ञा लिये बिना धरोहर का उपयोग करे।
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अनिस्तीर्ण  : वि० [न० त०] १. जो पार न किया गया हो। २. जो अलग न किया गया हो। ३. जिससे छुटकारा न मिला हो। ४. जिसका प्रतिवाद या उत्तर न दिया गया हो।
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अनिस्तीर्णाभियोग  : वि० [सं० न-निस्तीर्ण-अभियोग, न० ब०] जो अभियोग या आरोप से बरी या मुक्त न हुआ हो।
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अनी  : स्त्री० [सं० अणि=अग्रभाग, नोंक] १. किसी चीज का अगला नुकीला सिरा। २. आगो निकली हुई नोक। ३. नाव या जहाज का अगला सिरा जो नुकीला होता है। स्त्री० [सं० अनीक=समह] १. समूह। झुंड। २. सेना। स्त्री० [हिं आन=मर्यादा] १. ग्लानि, द्वेष या लज्जा के कारण मन में होनेवाली कसक। मुहावरा—अनी पर कनी चाटना=ग्लानि के कारण कनी चाटकर आत्म-हत्या करना। अव्य० [सं० अपि] स्त्रियों के पारस्परिक संबोधन में प्रयुक्त होने वाला शब्द। अरी। री।
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अनीक  : पुं० [सं०√अन् (जीता)+ईकन्] १. सेना। २. युद्ध। ३. समूह। झुंड। ४. किनारा। तट। ५. पंक्ति। वि० [हिं० अ+नीक=अच्छा] जो अच्छा न हो, फलतः त्याज्य या बुरा।
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अनीकिनी  : स्त्री० [सं० अनीक इनि-ङीष्] १. अक्षौहिणी का दसवाँ भाग या अंश जिसमें २१८७ हाथी, ५६६१ घोड़े और १॰९३५ पैदल होते थे। २. सेना। ३. कमलिनी। ४. समूह। झुंड।
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अनीठ  : [सं० अनिष्ट] खराब। बुरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनीठि  : स्त्री० [सं० अनिष्टि] १. बुराई। २. क्रोध। (क्व०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनीड  : वि० [न० ब०] १. (पक्षी) जिसका घोंसला न हो। २. (व्यक्ति) जिसका घर-बार या रहने का ठिकाना न हो। निराश्रय। ३. बिना शरीर का। अशरीरी।
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अनीत  : स्त्री०=अनीति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनीति  : स्त्री० [न० त०] १. नीति का अभाव। २. अनुचित और नीति विरुद्ध व्यवहार। ३. दुष्टता। पाजीपन। ४. अत्याचार। जुल्म।
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अनीतिमान् (मत्)  : वि० [सं० अनीति+मुतप्] अनीति पूर्ण आचरण करनेवाला।
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अनीदार  : वि० [हिं० अनी+फा० दार] तेज नोकवाला।
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अनीप्सित  : वि० [सं० न-ईप्सित, न० त०] जिसकी ईप्सा या चाह न की गई हो। अन-चाहा।
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अनीश  : वि० [सं० न-ईश, न० ब०] १. ईश्वर-रहित। २. जिसका कोई ईश या स्वामी न हो, फलतः अनाथ या दीन। ३.जो ईश्वर को न मानता हो, फलतः नास्तिक। ४. जो किसी के नियंत्रण या वश में न हो। ५. [न० त०] अशक्त। शक्तिहीन। निर्बल। ६. असमर्थ। पुं० [न० ब०] विष्णु का एक नाम।
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अनीश्वर  : वि० [न० ब०] १. ईश्वर को न माननेवाला। नास्तिक। जैसे—अनीश्वरवाद। २. दे० ‘अनीश’।
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अनीश्वरवाद  : पुं० [ष० त०] [वि० अनीश्वरवादी] वह मत या वाद जिसमें ईश्वर का अस्तित्व न माना गया हो। जैसे—मीमांसा-दर्शन।
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अनीश्वरवादी (दिन्)  : वि० [सं० अनीश्वरव√वद् (बोलना)+णिनि] ईश्वर का अस्तित्व न मानने वाला। नास्तिक।
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अनीष्ट-प्रवृत्तिक  : वि० [ब० स०कप्] अनिष्ट करने की प्रवृत्ति रखनेवाला।
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अनीस  : वि० =अनीश। पुं० [अ०] सहायक और साथी। मित्र। स्नेही।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनीसून  : पुं० [यू०] एक प्रकार की सौंफ।
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अनीह  : वि० [सं० न-ईहा, न० ब०] १. जिसे ईहा (इच्छा या चाह) न हो। निस्पृह। २. मोह-माया से रहित। निर्लिप्त। ३. असावधान। ४. किसी बात की चिंता या ध्यान न रखनेवला। ला-परवाह।
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अनीहा  : स्त्री० [सं० न-ईहा, न० त०] १. ईहा (इच्छा या वासना) का अभाव। २. उदासीनता। निरपेक्षता। पु०-उप० [सं०√अन् (जीना)+उ] एक उपसर्ग जो शब्दों के पहले लगकर निम्नलिखित अर्थ देता है। (क) पीछे। बाद में। जैसे—अनुचर, अनुगत, अनगमन, अनुगायन आदि। (ख) साथ में लगा हुआ या पास। साथ-साथ। जैसे—अनुतट, अनुपथ आदि। (ग) प्रत्येक या हर एक। जैसे—अनुक्षण, अनुदिन आदि। (घ) कई बार या बार-बार। जैसे—अनुयाचन, अनुसीलन आदि। (च) तुल्य सदृश या समान। जैसे—अनुरूप। (छ) ठीक या नियमित। जैसे—अनुक्रम। अव्य-१. स्वीकृतिसूचक अव्यय। हाँ। २. इसके बाद या आगे। अब। ३. पीछे। उदाहरण—देहु उतरू अनु करहु कि नाहीं-तुलसी। पुं० =अणु।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनु-जन्मा (न्मन्)  : पुं० [सं० ब० स०]=अनुज।
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अनु-ज्येष्ठ  : वि० [सं० अत्या०स०] सबसे बड़े अर्थात् ज्येष्ठ से छोटा या तुरन्त बादवाला।
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अनु-भूमिका  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] किसी बड़े ग्रन्थ के किसी विभाग या प्रकरण से पहले दी जानेवाली छोटी भूमिका।
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अनु-भ्राता (तृ)  : पुं० [सं० अत्या० स०] छोटा भाई।
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अनु-लिपि  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] किसी खुदी या लिखी हुई आकृति या लेख पर से उसकी ज्यों की त्यों उतारी या छापकर तैयार की हुई नकल। (फैक्सिमिली) जैसे—किसी शिलालेख की अनुलिपि।
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अनुक  : वि० [सं० अनु+कन्] १. सहायक। २. आश्रित। ३. कामी कामुक।
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अनुकथन  : पुं० [सं० अनु√कथ् (कहना)+ल्युट्-अन] १. किसी के कथन के बाद या साथ किया जानेवाला कथन। २. क्रम-बद्ध वर्णन या व्याख्या। ३. बात-चीत। वार्तालाप।
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अनुकंपा  : स्त्री० [सं० अनु√कंप्+अञ-टाप्] १. दूसरों का कष्ट या दुःख देखकर उनके प्रति मन में उत्पन्न होने वाली दया। (पिटी) २. सहानुभूति। पुं०=अण्ड।
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अनुकंपित  : भू० कृ० [सं० अनु√कंप्+अञ-टाप्] जिसपर अनुकपा की गई हो।
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अनुकंप्य  : वि० [सं० अनु√कप्+ण्यत्] जिसपर अनुकंपा की जा सकती हो या की जाने को हो।
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अनुकरण  : पुं० [सं० अनु√कृ (करना)+ल्युट्-अन] १. किसी को अगुआ या नेता मानकर उसके पीछे-पीछे चलना। अनुसरण करना। २. किसी को कुछ करते हुए देखकर वैसा ही काम करना। ३. किसी का कोई काम या चीज देखकर उसी की तरह किया जानेवाला काम या बनाई जानेवाली चीज। नकल। (इमिटेशन)
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अनुकरणीय  : वि० [सं० अनु√कृ+अनीयर्] १. जिसका अनुकरण करना उचित हो। २. (आदर्श या चरित्र) जो अनुकरण के योग्य हो।
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अनुकर्त्ता (र्तृ)  : वि० [सं० अनु√कृ+तृच्] १. अनुकरण करनेवाला अनुयायी। २. आदर्श पर चलनेवाला। ३. किसी की आज्ञा के अनुसार चलनेवाला। आज्ञाकारी।
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अनुकर्म (न्)  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अनुकरण।
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अनुकर्ष  : पुं० [सं० अनु√कृष् (खींचना)+घञ्] १. खिंचाव। २. आकर्षण। ३. देवता का आवाहन। ४. कर्तव्य के पालन में होनेवाला विलंब। ५. रथ के नीचे का भाग।
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अनुकर्षण  : पुं० [सं० अनु√कृष्+ल्युट्-अन] १. आकर्षण। खिंचाव। २. आवाहन।
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अनुकलन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० अनुकलित] दूसरे की कोई बात लेकर और उसे अपने अनुकूल बनाकर ग्रहण करना। (एडाप्टेशन)
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अनुकल्प  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आवश्यकता, उपयोगिता आदि के विचार से अथवा विवश होने पर दो वस्तुओं या बातों में से कोई एक बात या वस्तु चुनने का अधिकार, अवस्था या भाव। दो वस्तुओं या बातों में से कोई ऐसी वस्तु या बात जो चुनी जाने या गृहीत होने को है। जैसे—गेहूँ और चावल में से कोई एक पसंद कर लेने की स्थिति या स्वतंत्रता। २. वह बात या वस्तु जो किसी दूसरी बात या वस्तु के अभाव में उसके स्थान पर काम दे सके। (आल्टर्नेटिव)।
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अनुकांक्षा  : स्त्री० [सं० अनु√कांक्ष् (चाहना)+अ-टाप्]=आकांक्षा।
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अनुकांक्षित  : भू० कृ० [सं० अनु√कांक्ष्+क्त] जिसकी अनुकांक्षा या आकांक्षा की गई हो। इच्छित।
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अनुकांक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० अनु√कांक्ष+णिनि] अनुकांक्षा करने या चाहनेवाला। इच्छुक।
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अनुकाम  : वि० [सं० अत्या० स०] १. जो इच्छा के अनुकूल हो। रुचिकर। २. कामना करने या चाहनेवाला। ३. आसक्त। कामी। पुं० [प्रा० स०] सदिच्छा।
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अनुकामी (मिन्)  : वि० [सं० अनु√कम् (चाहना)+णिनि] १. स्वेच्छा से कार्य करने वाला। २. कामी।
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अनुकार  : पुं० [सं० अनु√कृ (करना)+घञ्]=अनुकरण।
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अनुकारक  : वि० [सं० अनु√कृ+ण्वुल्-अक] ज्यों की त्यों किसी की नकल करने वाला। नकलची। (इमीटेटर)
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अनुकारी (रिन्)  : वि० [सं० अनु√कृ+णिनि] १. अनुकरण करनेवाला। २. नकल करनेवाला। ३. आज्ञाकारी। ४. भक्त।
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अनुकार्य  : वि० [सं० अनु√कृ+ण्यत्] जिसका अनुकरण किया जा सकता हो या किया जाने को हो।
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अनुकाल  : वि० [सं० अत्या० स०] जो समय के अनुसार उचित या ठीक हो। सामयिक।
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अनुकीर्तन  : पुं० [सं० अनु√कृत् (जोर से शब्द करना)+ल्युट्-अन] १. कथन। २. वर्णन।
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अनुकूल  : वि० [सं० अत्या०स०] १. (व्यक्ति या परिस्थिति) जो इच्छा, रुचि या समय के अनुरूप या उपयुक्त हो। जैसे—अनुकूल वातावरण। २. किसी प्रकार की कार्य सिद्धि या उद्देश्य में सहायक होनेवाला। ३. उत्साहवर्धक। ४. लाभदायी।पुं० १. साहित्य में वह नायक जो एक ही विवाहित स्त्री से संबंध और प्रेम रखता हो। २. एक काव्यालंकार जिसमें प्रतिकूल बात से अनुकूल बात की सिद्धि का उल्लेख होता है। ३.विष्णु। क्रि० वि० ओर। तरफ।
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अनुकूलता  : स्त्री० [सं० अनुकूल+तल्-टाप्] अनुकूल होने की अवस्था या भाव।
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अनुकूलन  : पुं० [सं० अनुकूल+क्विप्+ल्युट्-अन्] १. किसी को अपने अनुकूल करना या बनाना। २. अपने आपको किसी के अनुकूल करना।
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अनुकूलना  : [सं० अनुकूलन] अनुकूल और फलतः पक्षमें करना। प्रसन्न करना। उदाहरण— फिर झूले नव वृत्तों पर अनुकूलें अलि अनुकूलें। निराला। अ० किसी के अनुकूल होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुकूला  : स्त्री० [सं० अनुकूल+टाप्] १. मौक्तिक माला नामक छंद का दूसरा नाम। २. दंती नामक वृक्ष।
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अनुकृत  : वि० [सं० अनु√कृ+क्त] [भाव० अनुकृति] १. जो किसी के अनुकरण पर बनाया गया हो। २. नकल किया हुआ। ३. नकली।
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अनुकृति  : स्त्री० [सं० अनु√कृ+क्तिन्] १. दूसरे को देखकर उसके अनुकरण पर वैसा ही किया हुआ काम। नकल। २. किसी की कोई चीज देखकर ज्यों की त्यों वैसी ही बनाई हुई चीज। (इमिटेशन) ३. साहित्य में एक अलंकार जिसमें एक ही वस्तु की किसी दूसरे के कारण से किसी अन्य वस्तु के अनुसार होने का वर्णन होता है।
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अनुकृष्ट  : वि० [सं० अनु√कृष् (खींचना)+क्त] १. खिंचा हुआ। आकृष्ट। २. आसक्त।
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अनुक्त  : वि० [सं० न-उक्त, न० त०] [स्त्री० अनुक्ता] जो उक्त अर्थात् कहा हुआ न हो। बिना कहा हुआ।
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अनुक्त-निमित्त  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० अनुक्त-निमित्ता] जिसके निमित्त या कारण का उल्लेख न हुआ हो। जैसे—अनुक्त निमित्ता विभावना।
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अनुक्ति  : स्त्री० [सं० न-उक्ति,न० त०] १. अनुक्त होने या न कहने की क्रिया या भाव। २. अनुचित या बुरी उक्ति का कथन।
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अनुक्रम  : पुं० [सं० अनु√कम् (गति+घञ्] [वि० अनुक्रमिक] १. ठीक और नियमित रूप से चलनेनाला क्रम। सिलसिला। २. लगातार एक के बाद एक होने की क्रिया या भाव। ३. लगातार एक के बाद दूसरे के आने का क्रम। (सीक्वेन्स)
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अनुक्रमण  : पुं० [सं० अनु√कम्+ल्युट्-अन] १. सिलसिला बाँधकर चलना। २. किसी के पीछे चलना। ३. पीछे की ओर चलना।
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अनुक्रमणिका  : स्त्री० [सं० अनुक्रमण-ङीष्+कन्,ह्रस्व,टाप्] १. अनुक्रम। सिलिसिला। २. किसी ग्रन्थ या पुस्तक में आये हुए विषयों अथवा मुख्य शब्दों की वह सूची जो उसके अंत में अक्षर-क्रम से दी जाती है। (इन्डेक्स)
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अनुक्रांत  : भू० कृ० [सं० अनु√कम्+क्त] १. उल्लंघन किया हुआ। २. क्रमपूर्वक किया हुआ। ३. उल्लेख किया हुआ।
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अनुक्रिया  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] १.=अनुकृति। २. किसी कार्य या क्रिया के बाद अथवा उसके फलस्वरूप होनेवाली क्रिया। (रिऐक्शन)
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अनुक्रोश  : पुं० [सं० अनु√कुश् (आह्वान, रोदन)+घञ्] कृपा। दया।
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अनुक्षण  : क्रि० वि० [सं० अव्य०स०] १. हर क्षण में। प्रतिक्षण। २. निरंतर। लगातार। सतत।
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अनुख्याता (तृ)  : वि० [सं० अनु√ख्या (कहना)+तृच्] १. पता लगानेवाला। २. भेद या रहस्य जानने या प्रकट करनेवाला।
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अनुख्याति  : स्त्री० [सं० अनु√ख्या+क्तिन्] १. पता लगाने का काम या भाव। २. रहस्य या भेद का उद्घाटन या प्रकाशन।
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अनुख्यान  : पुं० [सं० अनु√ख्या+ल्युट्-अन] १. पता लगाना। २. भेद या रहस्य प्रकट करना।
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अनुग  : वि० =अनुगत।
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अनुगणन  : पुं० [सं० अनु√गण्(गिनना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ अनुगणित] १. मन ही मन अथवा मुँह-जबानी किया या लगाया जानेवाला हिसाब। २. लाक्षणिक रूप में, हानि-लाभ आदि का मन में किया जाने वाला अनुमान। (रेकनिंग)
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अनुगत  : वि० [सं० अनु√गम्(जाना)+क्त] [स्त्री० अनुगता, भाव० अनुगति, अनुगत्य] १. पीछे चलने वाला। अनुगामी। २. किसी सिद्धान्त को मानने वाला। अनुयायी। ३. अनुकूल। पुं० अनुचर। सेवक।
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अनुगंता (तृ)  : पुं० [सं० अनु√गम् (जाना)+तृच्]=अनुगामी।
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अनुगतार्थ  : वि० [सं० अनुगत-अर्थ, ब० स०] प्रायः मिलते-जुलते अनुकूल या संगत अर्थवाला।
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अनुगति  : स्त्री० [सं० अनु√गम् (जाना)+क्तिन्] १. किसी के पीछे-पीछे चलना। अनुगमन। २. अनुकरण। ३.मृत्यु। मौत।
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अनुगम  : पुं० [सं० अनु√गम्+घञ्] तर्क-शास्त्र में कोई बात सिद्ध करने के लिए भिन्न-भिन्न तथ्यों या तत्त्वों के आधार पर स्थिर किया जानेवाला परिणाम। (इन्डक्शन)
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अनुगमन  : पुं० [सं० अनु√गम्+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे चलना। अनुसरण। २. अनुकरण। ३. नकल। ४. मृत पति के शव के साथ विधवा का जल मरना। सहमरण। ५. स्त्री के साथ होने वाला संभोग या सहवास। ६. अर्थ का ठीक ज्ञान या बोध।
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अनुगांग  : वि० [सं० अत्या० स०] गंगा के किनारे का (देश या प्रांत)।
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अनुगामिता  : स्त्री० [सं० अनुगामिन्+तल्-टाप्] १. अनुगामी होने की अवस्था या भाव। २. अनुगमन।
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अनुगामी (मिन्)  : वि० [सं० अनु√गम्+णिनि] [स्त्री० अनुगामिनी, भाव० अनुगामिता] १. अनुगमन करने या किसी के पीछे चलनेवाला। २. किसी का आचरण देखकर उसके पीछे चलनेवाला। ३.अनुयायी। ४.आज्ञाकारी।
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अनुगामुक  : वि० [सं० अनु√गम्+उकञ्]=अनुगामी।
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अनुगायक  : वि० [सं० प्रा० स०] अनुगायन करनेवाला।
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अनुगायन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी अच्छे गानेवाले के साथ-साथ या पीछे-पीछे उसकी तरह गाना। गाने में संगत करना। २. किसी के गीत का गीत के रूप में ही अनुवाद या उल्था करना।
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अनुगीत  : पुं० [सं० प्रा० स०] एक प्रकार का छंद।
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अनुगीति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०,] एक प्रकार का मात्रिक छंद।
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अनुगुण  : पुं० [सं० ब० स०] साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी अच्छी वस्तु के सामीप्य से किसी दूसरी वस्तु के गुण और भी बढ़ जाने का उल्लेख होता है। जैसे—चन्द्रमुखी नायिका के गले में पड़कर सोने का हार और भी अधिक चमकने लगा। वि० १. समान गुणवाला। २. सटीक। ३. अनुकूल। ४. अनुगत।
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अनुगुप्त  : भू० कृ० [सं० अनु√गुप् (रक्षा)+क्त] १. गुप्त किया या छिपाया हुआ। २. आश्रय या रक्षा में रखा हुआ।
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अनुगूँज  : स्त्री०=गूँज (प्रतिध्वनि)
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अनुगृहीत  : वि० [सं० अनु√ग्रह् (ग्रहण)+क्त] [स्त्री० अनुगृहीता] १. जिसपर अनुग्रह हुआ हो। २. किसी के द्वारा जिसका कुछ उपकार हुआ हो। उपकृत। (ओबलाइज्ड) ३.उपकार मानने वाला।
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अनुग्रह  : पुं० [सं० अनु√ग्रह+अप्] [कर्ताअनुग्राहक, वि० अनुगृहीत,अनुग्रह्म] १. छोंटो पर प्रसन्न होकर उनका किया जानेवाला उपकार, भलाई या हिमायत। २. दया अथवा पक्षपातपूर्वक किसी को उन्नत, प्रसन्न सा सुखी करने की प्रवृत्ति या भावना। (फेवर)
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अनुग्रही (हिन्)  : वि० [सं० अनुग्रह+इनि] १. कार्य करने में कुशल। २. ऐंद्रजालिक।
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अनुग्रहीत  : वि०=अनुगृहीत।
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अनुग्राहक  : वि० [सं० अनु√ग्रह्+ण्यल्-अक] [स्त्री० अनुग्राहिका] १. अनुग्रह करनेवाला। कृपालु। २. समय पर दूसरों के काम आनेवाला या उनकी सहायता करनेवाला। (ओब्लाइजिंग)
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अनुग्राही (हिन्)  : वि० [अनु√ग्रह्+णिनि]=अनुग्राहक।
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अनुग्राह्म  : वि० [सं० अनु√ग्रह्+ण्यत्] १. जो अनुग्रह का पात्र हो। २. जिसपर अनुग्रह होने को हो।
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अनुघटन  : पुं० [सं० अनु√घट्(चेष्टाआदि)+ल्युट्-अन] १. संबंध स्थापित करना। २. परस्पर मिलाना।
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अनुघात  : पुं० [सं० प्रा० स०] नाश।
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अनुच  : वि० =अनुच्च।
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अनुचर  : वि० [सं० अनु√चर् (गति आदि)+ट] [स्त्री० अनुचरी, भाव० अनुचरण] १. किसी के पीछे चलनेवाला। २. सेवा करने वाला। पुं० सहचर। साथी।
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अनुचार  : पुं० [सं० अनु√चर्+घञ्] १. किसी के अधीन रहकर उसके पीछे-पीछे चलना। २. किसी आदरणीय, पूज्य या सेव्य का अनुचर बनकर और उसके प्रति निष्ठा रखते हुए किया जानेवाला अनुकूल आचरण या व्यवहार। (एलीजिएन्स)।
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अनुचारक  : वि० [सं० अनु√चर्+ण्युल्-अक]=अनुचर।
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अनुचारी (रिन्)  : पुं० [सं० अनु√चर्+णिनि] १. वह जो किसी का अनुचर हो। २. सेवक। दास।
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अनुचित  : वि० [सं० न-उचित, न० त०] [भाव० अनौचित्य] १. जो उचित न हो। ना-मुनसिब। २. बुरा। खराब। ३. जो ठीक या वाजिब न हो। औचित्य की सीमा के बाहर। गैर-वाजिब। (अन्ड्यू)
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अनुचिंतन  : पुं० [सं० अनु√चिन्त्(स्मरण)+ल्युट्-अन] १. सोच-विचार। २. बीती या भूली हुई बात फिर से स्मरण करना। ३. चिंता।
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अनुचिंता  : स्त्री० [सं० अनु√चिन्त्+अ-टाप्]=अनुचिंतन।
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अनुच्च  : वि० [सं० न-उच्च, न० त०] जो उच्च या ऊँचा न हो। फलतः नीचा। उच्च का विपर्याय।
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अनुच्चरित  : वि० [सं० न-उच्चारित, न० त०] १. जिसका उच्चारण न हुआ हो। २. (व्यंजन या स्वर) जिसका उच्चारण बोलने में न होता हो। (साइलेण्ट) ३. न बोलने या उत्तर न देनेवाला।
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अनुच्छिति  : स्त्री० [सं० न-उच्छित्ति, न० त०]=अनुच्छेद।
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अनुच्छिष्ट  : वि० [सं० न-उच्छिष्ट,न० त०] १. जो उच्छिष्ट या जूठा न हो। २. जो अभी तक और किसी के उपयोग, प्रयोग या व्यवहार में न आया हो, फलतः बिलकुल नया।
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अनुच्छेद  : पुं० [सं० न-उच्छेद, न० त०] १. कट जानेपर भी अलग या नष्ट न होना। २. किसी साहित्यिक रचना, पुस्तक आदि के किसी प्रकरण के अन्तर्गत वह विशिष्ट विभाग जिसमें किसी एक विषय या उसके किसी अंग की मीमांसा या विवेचना होती है। (पैराग्राफ)
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अनुछन  : अव्य=अनुक्षण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुज  : वि० [सं० अनु√जन् (उत्पन्न होना)+ड] [स्त्री० अनुजा] पीछे या बाद में उत्पन्न होनेवाला। पुं० १. छोटा भाई। २. स्थल-कमल।
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अनुजा  : स्त्री० [सं० अनुज-टाप्] छोटी बहन।
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अनुजात  : वि० [सं० अनु√जन्+क्त]=अनुज।
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अनुजीवी (दिन्)  : वि० [सं० अनु√जीव् (जीना)+णिनि] [स्त्री० अनुजीविनी] १. दूसरे के सहारे जीनेवाला। २. आश्रित। ३. अनुयायी। पुं० नौकर। सेवक।
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अनुज्ञप्त  : भू० कृ० [सं० अनु√ज्ञप्(बताना)+क्त] १. (कार्य) जिसके लिए अनुज्ञा या स्वीकृति मिल चुकी हो। २. (व्यक्ति) जिसे अनुज्ञा मिल चुकी हो। (एलाउड)
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अनुज्ञप्ति  : स्त्री० [सं० अनु√ज्ञप्+क्तिन्] [भू० कृ० अनुज्ञप्त] १. कोई काम करने की स्वीकृति या आज्ञा देने की क्रिया या भाव। अनुज्ञापन। (सैंक्शन) २. वह पत्र जिसमें कोई अनुज्ञा लिखी हो।
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अनुज्ञा  : स्त्री० [सं० अनु√ज्ञा (जानना)+अङ्-टाप्] [वि० अनुज्ञप्त, अनुज्ञात] १. आज्ञा। हुकुम। २. वह अनुमति या स्वीकृति जो किसी बड़े अधिकारी द्वारा किसी को कोई इष्ट कार्य करने के लिए दी जाती है। इजाजत। (सैक्शन, परमिशन) ३. बिना आपत्ति किये किसी को कोई काम करने देना। (एलाऊ) ४. साहित्य में एक अलंकार जिसमें किसी बुरी चीज या बात में कोई गुण या विशेषता देखकर उसे पाने का उल्लेख होता है। जैसे—रावण चाहता था कि मैं राम के हाथों मरकर मोक्ष प्राप्त करूँ।
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अनुज्ञा-पत्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी को किसी अधिकारी से कोई इष्ट कार्य करने अथवा कुछ लेने की अनुज्ञा मिली हो। (परमिट)
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अनुज्ञात  : भू० कृ [सं० अनु√ज्ञा+क्त] १. (कार्य) जिसके संबंध में अनुज्ञा मिल चुकी हो। २. (व्यक्ति) जिसे अनुज्ञा मिली हो।
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अनुज्ञान  : पुं० [सं० अनु√ज्ञा+ल्युट्-अन]=अनुज्ञा।
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अनुज्ञापक  : वि० [सं० अनु√ज्ञा+णिच्,पुक्+ण्युल्-अक] १. अनुज्ञापन करने या अनुज्ञा देने वाला। २. जिसके लिए अनुज्ञा मुल चुकी हो। अनुज्ञा के अनुसार होनेवाला। (पर्मिसिव) जैसे—अनुज्ञापक कानून।
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अनुज्ञापन  : भू० कृ० [अनु√ज्ञा+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] [भू०कृअनुज्ञापित, अनुज्ञप्त] १. अनुज्ञा देने की क्रिया या भाव। अनुज्ञा देना। २. बतलाना। ३. क्षमा करना।
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अनुज्ञापित  : भू० कृ० [अनु√ज्ञा+णिच्+क्त]=अनुज्ञप्त।
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अनुज्ञेय  : वि० [सं० अनु√ज्ञा+यत्] जिसके संबंध में अनुज्ञा दी जा सकती हो अर्थात् जिसके होने से कोई विशेष हानि न हो। (परमिसिव।
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अनुतप्त  : वि० [सं० अनु√तप् (तपना)+क्त] १. जिसे अनुताप या पश्चाताप हुआ हो। २. जिसे बहुत ताप या कष्ट पहुँचा हो। बहुत दुःखी।
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अनुतर  : वि० =अनुत्तर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुताप  : पुं० [सं० अनु√तप्+घञ्] [वि० अनुतप्त] १. दाह। जलन। २. मानसिक दुःख। ३. पछतावा। पश्चात्ताप।
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अनुतापन  : वि० [सं० अनु√तप्+णिच्+ल्युट्-अन] १. अनुताप या खेद उत्पन्न करनेवाला। २. ताप या जलन पैदा करने वाला। पुं० अनुताप या पश्चात्ताप करने की क्रिया या भाव।
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अनुतोष  : पुं० [सं० अनु√तुष्(प्रीति)+घञ्] [भू० कृ० अनुतुष्ट] १. किसी काम से होनेवाला संतोष। २. वह पुरस्कार या धन जो किसी को तुष्ट या प्रसन्न करने केलिए दिया जाए। आनुतोषिक। (ग्रेटिफिकेशन)
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अनुतोषण  : पुं० [सं० अनु√तुष् (प्रीति)+घञ्] [भू० कृ० अनुतोषित] १. किसी काम से सनुष्ट होने की क्रिया या भाव। २. किसी को कुछ देकर अपने अनुकूल करना। (ग्रेटिफिकेशन)
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अनुत्तम  : वि० [सं० न-उत्तम, न० त०] १. जो उत्तम न हो। २. [न० ब०] सबसे अच्छा। पुं० १. विष्णु। २. शिव।
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अनुत्तर  : वि० [सं० न-उत्तर, न० ब०] १. जो उत्तर न दो। निरूतर। २. सर्वोत्तम। ३. स्थिर। ४. तुच्छ। ५. दक्षिणी। पुं० [सं० अनुत्तरित] १. उत्तर या जवाब न मिलना। २. जैनों के एक प्रकार के देवता।
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अनुत्तर दायी (यिन्)  : पुं० [सं० न-उत्तरदायिन्, न० त०] १. वह जो अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह न करे अथवा ध्यान न रखें। गैर-जिम्मेदार। (इर्रेस्पाँन्सिबुल) २. वह जो किसी काम के लिए उत्तरदायी न हो।
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अनुत्तरित  : वि० [सं० न-उत्तरित, न० त०] (पत्र आदि) जिसका उत्तर या जवाब न दिया गया हो।
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अनुत्तान  : वि० [सं० न-उत्तान, न० त०] जो उत्तान या ऊपर की ओर मुँह किये हुए न हो। पट। चित्त का उल्टा।
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अनुत्ताप  : पुं० [सं० न-उत्ताप, न० त०] मन में होनेवाला ताप या क्लेश, जो दस क्लेशों में से एक माना गया है। (बौद्ध)
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अनुत्तीर्ण  : वि० [सं० न-उत्तीर्ण, न० त] जो उत्तीर्ण या पारित न हुआ हो।
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अनुत्थान  : पुं० [सं० न-उत्थान, न० त०] उत्थान का न होना। उत्थान का अभाव।
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अनुत्पत्ति  : स्त्री० [सं० न-उत्पत्ति,न० त०] १. उत्पत्ति का अभाव। २. विफलता।
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अनुत्पत्तिक  : वि० [सं० न-उत्पत्ति, न० त० कप्] जो अभी तक उत्पन्न न हुआ हो।
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अनुत्पन्न  : वि० [सं० न-उत्पन्न, न० त०] १. जो पैदा न हुआ हो। २. जो पूरा न हुआ हो।
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अनुत्पाद  : पुं० [सं० न-उत्पाद, न० त०] उत्पत्ति या उत्पादन का अभाव।
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अनुत्पादक  : वि० [सं० न-उत्पादक, न० त०] जो उत्पादक न हो। उत्पन्न न करनेवाला।
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अनुत्पादन  : पुं० [सं० न-उत्पादन,न० त०] १. उत्पन्न न करना या न होना। २. वस्तुओं आदि का उत्पादन न करना।
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अनुत्साह  : पुं० [सं० न-उत्साह, न० त०] [वि० अनुत्साही] १. उत्साह या उमंग का न होना। २. संकल्प का अभाव। वि० [न० ब०] जिसमें उत्साह न हो। उत्साह-रहित।
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अनुत्सुक  : वि० [सं० न-उत्सुक, न० त०] १. जो उत्सुक न हो। २. कामना-रहित।
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अनुत्सेक  : पुं० [सं० न-उत्सेक, न० त०] दर्प या घमंड न होना।
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अनुदक  : वि० [सं० न-उदक,न० ब०] १. (स्थान) जहाँ जल न हो। २. सहाँ थोड़ा जल हो। क्रि० वि० बिना जल के।
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अनुदग्र  : वि० [सं० न-उद्-अग्र, न० ब०] १. जो उदग्र या ऊँचा न हो। २. कोमल। ३. दुर्बल। ४. तेज या क्रान्ति से रहित।
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अनुदत्त  : भू० कृ० [सं० अनु√दा (देना)+क्त] १. धन या वस्तु जो अनुदान के रूप में दी गई हो। २. लौटाया हुआ।
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अनुदर  : वि० [सं० न-उदर, न० ब०] १. पतली या छोटी कमर वाला। २. दुबला-पतला।
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अनुदर्शन  : पुं० [सं० अनु√दृश् (देखना)+ल्युट्-अन] निरीक्षण।
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अनुदात्त  : वि० [सं० न-उदात्त, न० त०] १. जो उदात्त या उच्च न हो अर्थात् छोटा। २. नीचा या उतरा हुआ (स्वर)। ३. उच्चारण के विचार से लघु। पुं० उच्चारण के विचार से तीन प्रकार के स्वरों में से वह जो उदात्त या ऊँचा नहीं, बल्कि जो नीचा होता है।
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अनुदान  : पुं० [सं० अनु√दा+ल्युट्-अन] [वि० आनुदानिक, भू०कृ०अनुदत्त] वह आर्थिक सहायता जो राज्य, शासन, आधिकारिक संस्था आदि की ओर से किसी विशेष कार्य के लिए किसी व्यक्ति या संस्था को दी जाती है। (ग्रान्ट)
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अनुदार  : वि० [सं० न-उदार, न० त०] १. जो उदार न हो। २. कृपण। कंजूस। पुं० [सं० अनु-दारा, ब० स०] वह जिसकी पत्नी आज्ञाकारिणी हो।
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अनुदित  : वि० [सं० न-उदित, न० त०] १. न कहा हुआ। २. न कहने योग्य। ३. जिसका उदय न हुआ हो।
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अनुदिन  : क्रि० वि० [सं० अव्य० स०] प्रतिदिन। हर रोज।
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अनुदिवस  : क्रि० वि० [अव्य० स०]=अनुदिन।
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अनुदिष्ट  : भू० कृ० [सं० अनु√दिश् (बताना)+क्त] १. जिसे या जिसकी ओर अनुदेश किया गया हो। २. जिसे यह बतलाया गया हो कि अमुक कार्य इस प्रकार होना चाहिए।
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अनुदृष्टि  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी वस्तु का ऐसा दृश्य या रूप जिसमें दूर से देखने पर उसके सब अंग अपने ठीक अनुपात में और एक दूसरे से उचित दूरी पर दिखाई दें। (पार्स्पेक्टिव)
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अनुदेश  : पुं० [सं० अनु√दिश् (बताना)+घञ्] १. किसी दिशा, बात या व्यक्ति की ओर संकेत करना। २. बड़ो का छोटों को यह बतलाना या समझाना कि अमुक काम या बात किस ढंग या प्रकार से की जानी चाहिए। (इन्स्ट्रक्शन)
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अनुदेशन  : पुं० [सं० अनु√दिश्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुदिष्ट] अनुदेश करने की क्रिया या भाव। (इन्स्ट्रक्शन)
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अनुद्भट  : वि० [सं० न-उद्भट, न० त०] जो उद्भट न हो, फलतः सौम्य।
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अनुद्भूत  : पुं० [सं० न-उद्भूत, न० त०] १. जो अभी उद्भूत न हुआ हो। २. जो अन्दर दबा हुआ तो हो, पर अभी सामने आकर सक्रिय न हुआ हो। सुप्त। (डाँर्मेन्ट)
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अनुद्यत  : पुं० [सं० न-उद्यम, न० त०] जो किसी काम या बात के लिए उद्यम या तत्पर न हो।
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अनुद्यम  : पुं० [सं० न-उद्यम, न० त०] उद्यम या उद्योग का अभाव। वि० [न० ब०] उद्योग या प्रयास न करनेवाला।
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अनुद्यमी (मिन्)  : वि० [सं० न-उद्यमिन्, न० त०] १. जो कोई उद्यम या काम न करता हो। अकर्म्मण्य। २. आलसी। सुस्त।
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अनुद्योग  : पुं० [न-उद्योग, न० त०] उद्योग या प्रयत्न का अभाव। वि० दे० ‘अनुद्यम’।
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अनुद्योगी (गिन्)  : वि० [सं० न-उद्योगिन्, न० त०] उद्योग या प्रयत्न न करनेवाला।
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अनुद्रुत  : पुं० [सं० अनु√द्रु (गति)+क्त] संगीत में लय का एक भेद जिसमें द्रुत से कुछ अधिक समय लगता है।
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अनुद्वत  : वि० [सं० न-उद्वण, न० त०] जो उद्वत या उच्छृंखल न हो। फलतः विनीत।
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अनुद्वरण  : पुं० [सं० न-उद्वरण, न० त०] १. न हटाना। २. प्रमाणित या सिद्ध न करना। ३. उद्वरण के रूप में न लेना।
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अनुद्वर्ष  : पुं० [सं० न-उद्धर्ष, न० त०] उद्वेग का अभाव।
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अनुद्वार  : पुं० [सं० न-उद्धार, न० त०] १. उद्धार न होना। २. विभाजन या विभाग न करना। ३. अंश, भाग या हिस्सा न लेना।
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अनुद्वाह  : पुं० [सं० न-उद्वाह, न० त०] उद्वाह या विवाह का न होना।
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अनुद्विग्न  : वि० [सं० न-उद्विग्न, न० त०] १. जो उद्विग्न न हुआ हो अर्थात् शान्त। २. निर्भय। निःशंक।
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अनुद्वृत  : भू० कृ० [सं० न-उद्वृत, न० त०] १. जो उद्धृत न किया गया हो। २. जो क्षत-विक्षत न किया गया हो। ३. जो प्रमाणित या सिद्ध न किया गया हो।
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अनुद्वेग  : पुं० [सं० न-उद्वेग, न० त०] उद्वेग का अभाव।
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अनुधर्मक  : वि० [सं० ब० स०कप्] जो आकृति, धर्म, स्वरूप आदि के विचार से किसी के सदृश या समान हो। (एनैलोगस)
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अनुधर्मता  : स्त्री० [सं० अनु-धर्म, ब० स०+तल्-टाप्] आकृति, धर्म, रूप आदि के विचार से किसी के समान होने की अवस्था या भाव।
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अनुधर्मी (र्मिन्)  : वि० [सं० अनु-धर्म, प्रा० स०+इनि]=अनुधर्मक।
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अनुधावन  : पुं० [सं० अनु√धाव्(गति)+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे चलना या दौड़ना। अनुसरण। २. अनुकरण। नकल। ३. किसी बात या विषय का अनुसंधान। खोज। ४. सोच-विचार या चिंतन करना।
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अनुध्यान  : पुं० [सं० अनु√ध्यै(चिंता)+ल्युट्-अन] बार-बार ध्यान स्मरण या चिंतन करना।
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अनुनय  : पुं० [सं० अनु√नी (ले जाना)+अच्] १. विनय। विनती। २. रूठें हुए को मनाना। ३. दे० अनुशासन।
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अनुनयी (यिन्)  : वि० [सं० अनुनय+इनि] १. अनुनय करनेवाला। २. विनयशील। नम्र।
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अनुनाद  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. नाद, विज्ञान में वह गंभीर और स्थूल नाद जो एक ही प्रकार के दो सूक्ष्म नादों के योग्य से उत्पन्न होता है। (रेजोनेन्स) जैसे—जब आदमी बातें करता है तब उसके कलेजे की धड़कन में उसका अनुनाद सुनाई पड़ता है। २. गूँज। प्रतिध्वनि। (ईको)
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अनुनादपेटी  : स्त्री० [सं० अनुनाद+हिं० पेटी] ग्रामोफोन बाजे में डिबिया के आकार का वह अंग जिसकी सहायता से रिकार्डों में आवाज भरी जाती है और तब फिर से सुनाई देती है। (साउण्ड बाँक्स)
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अनुनादित  : भू० कृ० [सं० अनु√नद् (शब्द करना)+णिच्+क्त] जिसका अनुनाद या गूँज हुई हो। प्रतिध्वनित।
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अनुनायक  : भू० कृ० [सं० अनु√नी (ले जाना)+ण्युल्-अक]=अनुनयी।
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अनुनायिका  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] नायिका के साथ रहनेवाली स्त्री० (सखी या दासी)।
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अनुनासिक  : वि० [सं० अत्या० स०] (व्यंजन) जिसके उच्चारण में नाक से भी कुछ ध्वनि निकलें। जैसे—ङ ञ, ण, न, म और अनुस्वार।
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अनुनीत  : वि० [सं० अनु√नी+क्त] १. जिसके विषय में अनुनय किया जाए। प्रार्थित। २. समादृत। ३. प्रसन्न। ४. प्राप्त। ५. अनुशासन में लाया हुआ।
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अनुनीति  : स्त्री० [सं० अनु√नी+क्तिन्]=अनुनय।
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अनुन्नत  : वि० [सं० न-उन्नत, न० त०] १. जो उन्नत या ऊँचा न हो। २. जिसकी उन्नति न हुई हो।
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अनुन्माद  : पुं० [सं० न-उन्माद, न० त०] उन्माद का अभाव।
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अनुपकार  : पुं० [सं० न-उपकार, न० त०] १. उपकार का अभाव। २. अपकार।
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अनुपकारी (रिन्)  : वि० [सं० अनुपकार+इनि] १. अनुपकार करनेवाला। २. उपकार न मानने वाला। ३. व्यर्थ का। निकम्मा।
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अनुपगत  : वि० [सं० न-उपगत, न० त०] १. जो प्राप्त न हुआ हो या पास न आया हो। अप्राप्त। २. जिसका अनुभव न हुआ हो।
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अनुपगीत  : वि० [सं० न-उपगीत, न० त०] जिसका गुणगान या प्रशंसा न हुई हो।
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अनुपतन  : पुं० [सं० अनु√पत् (गिरना)+ल्युट्-अन] १. किसी पर या किसी के बाद गिरना। २. एक के बाद दूसरे, दूसरे के बाद तीसरे और इसी प्रकार बराबर होता रहने वाला पतन-क्रम। जैसे—औरंगजेब के बाद उसके उत्तराधिकारियों के अनुपतन में मराठों और विदेशियों के आक्रमण ही मुख्य कारण थे। ३. अनुपात। वैराशिक। (गणित)
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अनुपत्र  : पुं० [सं० प्रा० स०] [स्त्री० अल्पा०अनुपत्री] पत्ते के आकार का वह बहुत छोटा अंश जो कुछ पौधों के डंठलों की जड़ में दोनों ओर निकलता है। (स्टिप्यूला)
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अनुपथ  : क्रि० वि० [सं० अत्या०स०] किसी के दिखलाये हुए पथ पर या उसके अनुसार। पुं० नौकर। सेवक।
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अनुपदवी  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] मार्ग। रास्ता।
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अनुपदिक  : वि० [सं० अनुपद+ठन्-इक] १. पग-पग पर पीछे चलनेवाला। २. प्रतिपद के अनुसार होनेवाला (कथन, व्याख्या आदि)।
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अनुपदिष्ट  : भू० कृ० [सं० न-उपदिष्ट, न० त०] १. जिसे उपदेश न दिया गया हो अथवा न मिला हो। २. अशिक्षित। ३. जो उपदेश के रूप में न बतलाया गया हो।
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अनुपदी (दिन्)  : वि० [सं० अनुपद+इनि] १. अनुसरण करनेवाला। २. अन्वेषण या पीछा करनेवाला। ३. पूछ-ताछ या प्रश्न करनेवाला।
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अनुपधि  : वि० [सं० न-उपधि, न० ब०] छल-कपट से रहित। भोला। सीधा।
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अनुपनीत  : वि० [सं० न-उपनीत, न० त०] १. जो उपनीत (पास लाया हुआ) न हो। अप्राप्त। २. जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो।
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अनुपपत्ति  : स्त्री० [सं० न-उपपत्ति, न० त०] १. उपपत्ति का अभाव। २. असंगति। ३. असिद्धि। ४. अप्राप्ति। ५. असमर्थता।
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अनुपपन्न  : वि० [सं० न-उपपन्न, न० त०] १. जिसकी उपपत्ति न हुई हो। २. अयुक्त। ३. जिसका प्रतिपादन न हुआ हो। ४. अप्रमाणित।
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अनुपबीती (तिन्)  : वि० [सं० न-उपबीतिन्,न० त०] जिसका यज्ञोपवीत संस्कार न हुआ हो।
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अनुपम  : वि० [सं० न-उपमा, न० ब०] [भाव० अनुपमता] १. जिसकी किसी से उपमा न दी जा सकती हो। जिसकी बराबरी का और कोई दूसरा न हो। उपमा-रहित। बेजोड़। (इन्कम्पेअरेबुल) २. बहुत अच्छा या बढ़िया।
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अनुपमता  : स्त्री० [सं० अनुपम+तल्-टाप्] अनुपम होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अनुपमा  : स्त्री० [सं० न-उपमा, न० त०] १. उपमा का अभाव। २. दक्षिण-पश्चिम दिशा के कुमुद नामक गज की पत्नी।
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अनुपमित  : वि० [सं० न-उपमित, न० त०] १. जिसकी उपमा न दी गई हो। २. अनुपम। बेजोड़।
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अनुपमेय  : वि० [सं० न-उपमेय, न० त०] १. जिसकी उपमा न दी जा सकती हो। २. अनुपम।
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अनुपयुक्त  : वि० [सं० न-उपयुक्त, न० त०] [भाव० अनुपयुक्तता] १. जो उपयुक्त (ठीक या योग्य) न हो। (इन्एक्सपीडियेन्ट) २. जो सटीक न हो। ३. बे-मेल।
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अनुपयुक्तता  : स्त्री० [सं० अनुपयुक्त+तल्-टाप्] अनुपयुक्त होने की अवस्था गुण या भाव।
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अनुपयोग  : पुं० [सं० न-उपयोग, न० त०] १. उपयोग या व्यवहार का अभाव। काम में न लाना। २. अनुचित रूप से किया जानेवाला उपयोग।
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अनुपयोगिता  : स्त्री० [सं० अनुपयोगिन्+तल्-टाप्] अनुपयोगी होने की अवस्था, गुण या भाव।
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अनुपयोगी (गिन्)  : वि० [सं० न-उपयोगिन्, न० त०] १. जो किसी उपयोग या काम में न आ सकता हो। व्यर्थ का। निरर्थक। २. हानिकारक।
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अनुपलक्षित  : वि० [सं० न-उपलक्षित, न० त०] १. जिसका ज्ञान या परिचय न मिला हो। २. जिसका अनुसंधान या खोज न हुई हो। ३. बे-निशान।
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अनुपलब्ध  : वि० [सं० न-उपलब्ध, न० त०] १. जो लब्ध या प्राप्त न हुआ हो। न मिला हुआ। २. अज्ञात।
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अनुपलब्धि  : स्त्री० [सं० न-उपलब्धि, न० त०] १. उपलब्धि या प्राप्त न होना। न मिलना। २. किसी विषय का ज्ञान या जानकारी न होना।
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अनुपशय  : पुं० [सं० न-उपशय, न० त०] ऐसी चीज या बात जिससे रोग और बढ़े।
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अनुपस्कृत  : वि० [सं० न-उपस्कृत, न० त०] १. जिसका उपस्करण, परिष्करण या संस्कार न हुआ हो० २. जो अपने वास्तविक या शुद्ध रूप में न हो० ३. न पकाया हुआ। ४. निर्दोष।
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अनुपस्थान  : वि० [सं० न-उपस्थान, न० त०]=अनुपस्थित।
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अनुपस्थित  : वि० [सं० न-उपस्थित, न० त०] [भाव० अनुपस्थिति] जो उपस्थित, मौजूद या सामने न हो। अविद्यमान। गैर-हाजिर। (ऐबसेन्ट)
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अनुपस्थिति  : वि० [सं० न-उपस्थित, न० त०] उपस्थति० वर्तामन या सामने न होने का भाव। उपस्थित या सामने न होना। गैर-मौजूदगी। (ऐबसेन्ट)
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अनुपहत  : वि० [सं० न-उपहत, न० त०] १. जिसपर आघात न हुआ हो। २. जो पहले उपयोग या व्यवहार में न आया हो। कोरा। नया।
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अनुपाख्य  : वि० [सं० न-उपाख्या, न० ब०] जिसकी उपाख्या न हो सके। जो स्पष्ट कहे जाने या समझने के योग्य न हो।
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अनुपात  : पुं० [सं० प्रा० स०] [वि० आनुपातिक, क्रि० वि० अनुपाततः] १. एक के बाद दूसरे का आना या गिरना। २. दो मानों, मूल्यों या संख्याओं के मान का वह पारस्परिक संबंध जो इस विचार से स्थिर किया जाता है कि एक से दूसरे का कितनी बार गुणा या भाग हो सकता है। (रेशियो) जैसे—२ और ५ में वही अनुपात है जो ८ और २॰ में या १६ और ४॰ में है।
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अनुपातक  : पुं० [सं० प्रा० स०] ऐसा अपराध या पाप जो महापातक के समान हो। जैसे—चोरी, पर-स्त्री गमन।
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अनुपातन  : पुं० [सं० अनुपात+णिच्+ल्युट्-अन] वस्तुओं के उनके अनुपात, आकार महत्त्व आदि के विचार से क्रमशः लगाते हुए उनके वर्ग निश्चित करना। कोटि-बंधन (ग्रेडिंग)।
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अनुपातिक  : वि० =आनुपातिक।
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अनुपाती (तिन्)  : वि० [सं० अनु√पत् (गिरना)+णिनि]=आनुपातिक।
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अनुपान  : पुं० [सं० अनु√पा (पीना)+ल्युट्-अन] वह पदार्थ जो किसी औषध के अंग-रूप में (उसे ठीक, गुणकारी या प्रभावशाली बनाने के उद्देश्य से) उसके साथ या बाद खाया या पीया जैए। जैसे—यदि कोई औषध शहद के साथ खाएँ तो शहद उसका अनुपान होगा।
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अनुपाय  : वि० [सं० न-उपाय, न० ब०] १. (कार्य) जिसका कोई उपाय न हो। २. (व्यक्ति) जिसके लिए कोई उपाय या मार्ग न रह गया हो।
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अनुपालन  : पुं० [सं० अनु√पाल (पालन)+णिच्+ल्युट्-अन] १. आज्ञा या आदेश का ठीक रूप से पालन या कार्यान्वित करना। २. किसी पत्र या आज्ञा को उसके ठीक स्थान तक पहुँचाने का काम। तामील (सरविस) ३. पालन और रक्षा।
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अनुपाश्रया भूमि  : स्त्री० [सं० न-उपाश्रय, न० ब० अनुपाश्रया भूमि, व्यस्तपद] ऐसी भूमि जो और अधिक लोगों को आश्रय या रहने का स्थान न दे सके।
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अनुपासन  : पुं० [सं० उप्√आस् (बैठना)+ल्युट्-अन, न० त०] उपासन या ध्यान का अभाव।
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अनुपुरुष  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. व्यक्ति, जिसका उल्लेख पहले हो चुका हो। २. किसी के पीछे-पीछे चलने वाला। अनुगामी।
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अनुपूरक  : वि० [सं० अनु√पूर् (पूर्ति)+ण्युल्-अक] अभाव, कमी या त्रुटि आदि की पूर्ति के लिए बाद में जोड़ा, बढ़ाया या लगाया हुआ। (सप्लिमेन्टरी) पुं० उक्त प्रकार से जोड़ा या बढ़ाया हुआ अंश।
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अनुपूरण  : पुं० [सं० अनु√पूर्+ल्युट्-अन] अभाव, कमी या त्रुटि आदि की पूर्ति करने के लिए बाद में कुछ और लगाना या बढ़ाना। (सप्लिमेन्टेशन)
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अनुपूरित  : भू० कृ० [सं० अनु√पूर्+क्त] जिसका या जिसमें अनुपूरण हुआ हो।
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अनुपूर्ति  : स्त्री० [सं० अनु√पूर्+क्तिन्] अनुपूरण करने की क्रिया या भाव।
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अनुपूर्व  : वि० [सं० अत्या स०] १. जो किसी क्रम से होता हो। २. क्रम-क्रम से बराबर होता रहनेवाला। सिलसिलेवार। ३. जो नियत क्रम से चला आ रहा हो। नियमित। ४. जिसके सब अंग उपयुक्त नाप-तौल के हों। सुडौल।
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अनुपूर्व गात्र  : वि० [ब० स०] जिसके अंग बे-डौल न हों।
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अनुपूर्वत  : क्रि० वि० [सं० अनुपूर्व+तस्] नियमित क्रम या सिलसिले से। क्रमशः। (सक्सेसिवली)
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अनुपूर्ववत्सा  : स्त्री० [ब० स०] नियमित रूप से बच्चा देने वाली गाय।
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अनुपूर्व्य  : वि० [सं० अनुपूर्व+यत्] १. क्रमबद्ध। २. नियमित।
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अनुपेत  : वि० [सं० न-उपेत, न० त०] १. (शिक्षा के लिए) जो गुरू या शिक्षक के सामने न आया हो। २. अप्राप्त।
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अनुप्त  : वि० [सं०√वप (बोना)+क्त, संप्रसारण, न० त०] जो बोया न गया हो।
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अनुप्रदान  : पुं० [सं० अनु-प्र√दा (देना)+ल्युट्-अन] १. दान (बौद्ध) २. वृद्धि। अभिवृद्धि।
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अनुप्रपन्न  : वि० [सं० प्रा० स०] पीछे पड़ा हुआ।
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अनुप्रयुक्त  : भू० कृ० [अनु-प्र√युज (योग)+क्त] जिसका अनुप्रयोग या अनुप्रयोजन हुआ हो या किया गया हो। (एप्लायड)
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अनुप्रयोग  : पुं० [सं० अनु-प्र√युज्+घञ्] कोई चीज, बात या सिद्धान्त कहीं से लाकर किसी अवस्था या विषय में उनका प्रयोग करना। कहीं से लाकर किसी नये काम या नई जगह में लगाना। (एप्लिकेशन)
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अनुप्रयोजन  : पुं० [सं० अनु-प्र√युज्+ल्युट्-अन] अनुप्रयोग करने की क्रिया या भाव। (एप्लिकेशन)
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अनुप्रयोज्य  : वि० [सं० अनु-प्रं√युज्+ण्यत्] जिसका अनुप्रयोग या अनुप्रयोजन हो सके, किया जा सके अथवा होने को हो। (एप्लिकेबुल्)
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अनुप्रवेश  : पुं० [सं० अनु-प्र√विश् (घुसना)+घञ्] किसी के साथ, उसके पीछे या बाद में प्रवेश करना।
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अनुप्रश्न  : पुं० [सं० प्रा० स०] किसी भाषण, व्याख्यान आदि की समाप्ति पर वक्ता से किया जानेवाला प्रश्न।
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अनुप्रसक्ति  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] घनिष्ट संबंध।
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अनुप्रसम  : वि० [सं० प्रा० स०] जो प्रसम (अर्थात् अपनी संगत और साधारण अवस्था, स्थिति आदि) से कुछ घटकर या नीचे हो। प्रसम से कम या नीचा। (सबनाँर्मल) विशेष दे० ‘प्रसम’।
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अनुप्रसमतः  : क्रि० वि० [सं० अनुप्रसम+तस्] अनुप्रसम दशा या रूप में। (सब-नाँर्मिली)
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अनुप्रस्थ  : वि० [सं० अत्या० स०] जो चौड़ाई के बल हो। आड़े बल में। आड़ा। तिर्यक। (ट्रान्सवर्स)
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अनुप्राणन  : पुं० [सं० अनु-प्र√अन्(जीना)+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुप्राणित] १. जीवन डालना या प्राण संचार करना। २. उत्साह या प्रेरणा देना। ३. स्फुरण।
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अनुप्राणित  : भू० कृ० [सं० अनु-प्र√अन्+णिच्+क्त] १. जिसमें प्राणों या जीवन का संचार किया गया हो। २. उत्साहित या प्रेरित।
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अनुप्रापण  : पुं० [सं० अनु-प्र√आप् (व्यक्ति)+ल्युट्-अन] [वि० अनुप्राप्य, अनुप्राप्त] (कर, दंड आदि के रूप में) प्राप्तव्य धन इकट्ठा करना या उगाहना। वसूली करने की क्रिया या भाव। वसूली। (कलेक्शन)
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अनुप्राप्त  : भू० कृ० [सं० अनु-प्र√आप् +क्त] १. जो बाद में प्राप्त हुआ हो। २. (कर, दंड आदि के रूप में) उगाहा, वसूला या इकट्ठा किया हुआ। (धन)।
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अनुप्राप्ति  : स्त्री० [सं० अनु-प्र√आप् +क्तिन्] [वि० अनुप्राप्त] (कर, दंड आदि के रूप में) प्राप्तव्य धन इकट्ठा करने की क्रिया या भाव। वसूली।
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अनुप्राप्य  : वि० [सं० अनु-प्र√आप् +ण्यत्] जो प्राप्त होने को हो या प्राप्त किया जा सके। उगाहने योग्य।
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अनुप्राशन  : पुं० [सं० अनु-प्र√अश् (खाना)+ल्युट्-अन] खाना। भोजन।
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अनुप्रास  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह शब्दालंकार जिसमें किसी पद में एक ही अक्षर या वर्ण अथवा स्वर-सहित अक्षर या वर्ण की बार आते हैं। वर्ण-वृत्ति। वर्ण-मैत्री। (एलिटरेशन) उदाहरण—मणि, मणीन्द्र, माणिक्य, मेघमणि, मौक्तिक माला, तोरण-बन्दनवार-विभूषित नगरी बाला।—आनंदकुमार। विशेष—इसके छेक, वुत्य, श्रुत्य, लाट अन्त्य और पुनरूक्त वदाभास ये छः भेद हैं।
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अनुप्रास-हीन  : वि० [सं० तृ० त०] (पाश्चात्य ढंग की नये प्रकार की कविता) जिसके अंत में अनुप्रास या तुक मिलाने का ध्यान न रखा गया हो। (ब्लैकवर्स)
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अनुप्रेक्षा  : स्त्री० [सं० अनु-प्र√ईक्ष (देखना)+अ-टाप्] १. आँखें गड़ाकर देखना। ध्यान से देखना। २. चिंतन। मनन।
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अनुबद्ध  : वि० [सं० अनु-बंध्+क्त] १. किसी के साथ बँधा हुआ। २. जिसके संबंध में कोई अनुबंध या समझौता न हुआ हो। (एग्रीड) ३. लगाव रखनेवाला। संबंद्ध।
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अनुबंध  : पुं० [सं० अनु-√अंश् (बाँधना)+घञ्] [वि० अनुबद्ध] १. आपस मे या एक दूसरे के साथ बाँधनेवाला तत्त्व या संबंध। बन्धन। २. अंगों, जीवों, वस्तुओं आदि में आवश्यक और अनिवार्य रूप से होनेवाला घनिष्ठ पारस्परिक संबंध। (को-रिलेशन) ३. किसी प्रकार का आपसी ठहराव, संविता या समझौता। (एग्रिमेन्ट) ४.लिखित समझौता। संविदा। ५. परिणाम। फल। ६. अपत्य। संतान। ७. उद्देश्य। ८. प्रवृत्ति। ९. किसी बड़े या विकट रोग के साथ होनेवाले दूसरे गौण कष्ट या विकार। १. आरंभ। ११. मार्ग। १२. ग्रंथ का प्रकरण या परिच्छेद। १३. पाणिनीय व्याकरण में गुण, वृद्धि आदि के लिए उपयोगी एक सांकेतिक वर्ण, जो प्रत्यय में रहता है। १४. वैद्यका में वात, पित्त और कफ में से वह तत्त्व जो समय विशेष में अप्रधान हो।
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अनुबंध-चतुष्टय  : पुं० [ष० त०] विषय, प्रयोजन अधिकारी और संबंध इन चारों का समुदाय।
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अनुबंध-पत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें किसी अनुबंध की शर्ते लिखी हों। इकरारनामा। (एग्रिमेन्ट)
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अनुबंधक  : वि० [सं० अनु-प्र√बंध् +ण्युल्-अक] अनुबंध करनेवाला।
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अनुबंधन  : पुं० [सं० अनु-प्र√बंध् +ल्युट्-अन] १. अनुबंध करने या होने का भाव। २. क्रम। सिलसिला।
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अनुबंधी (धिन्)  : वि० [सं० अनुबन्ध+इनि] १. संबंध या लगाव रखनेवाला। २. (व्यक्ति या विषय) जिसका संबंध अनुबंध से हो। ३.परिणाम या फल के रूप में होने वाला। स्त्री० १. प्यास। २. हिचकी।
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अनुबल  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. मुख्य बल य़ा शक्ति की सहायता करनेवाला गौण बल या शक्ति। २. सहायता के लिए लाई हुई सेना।
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अनुबोध  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. बाद में या पीछे होनेवाला बोध अथवा स्मरण। २. [अनु√बुध् (जानना)+णिच्+अक] १. अनुबोध करने या करानेवाला। २. आलोक-पत्र।
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अनुबोधन  : पुं० [सं० अनु√बुध्+ल्युट्-अन] विषय या बात स्मरण होने या कराने की क्रिया या भाव।
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अनुब्राह्मण  : पुं० [सं० अत्या०स०] ब्राह्मणों का-सा आचरण या कर्म। वि० ब्राह्मणों का-सा। ब्राह्मणों जैसा।
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अनुभक्त  : भू० कृ० [सं० अनु√भञ्ज् (विभक्त करना)+क्त] १. जिसका अनुभाजन हुआ हो। २. जो अनुभाजन के अनुसार यथा अंश प्राप्त हुआ हो। (रैशन्ड)
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अनुभक्तक  : पुं० [सं० अनुभक्त+कन्] वह अंश या भाग जो लोगों को उनकी आवश्यकता का ध्यान रखते हुए दिया जाए। (रैशन)
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अनुभव  : पुं० [सं० अनु√भू (होना)+अप्] [वि० अनुभाव्य, अनुभवी, बू० कृ० अनुभूत] १. कष्ट, सुख आदि के रूप में होनेवाला ज्ञान। अनुभूति। जैसे—ताप या शीत का अनुभव। २. बहुत से काम प्रयोग आदि करते रहने और देखने-सुनने आदि से प्राप्त ज्ञान-पुंज जो (उनकी स्मृतियों से भिन्न) होता है। तजरुबा। (एक्सपीरिएन्स) जैसे—उन्हें चिकित्सा (या व्यापार) का अच्छा अनुभव है।
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अनुभवना  : स० [सं० अनुभव] १. अनुभव प्राप्त करना। २. अनुभूति से युक्त होना। अनुभूति प्राप्त करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुभविता (तृ)  : पुं० [सं० अनु√भू+तृच्] वह जो अनुभव करता हो। अनुभव करनेवाला। जैसे—मन अनुभविता और अनुभाव्य दोनों है।
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अनुभवी (विन्)  : वि० [सं० अनुभव+इनि] १. जिसे कोई या किसी प्रकार का अनुभव हो। २. जिसने किसी काम या विषय का अच्छा अनुभव प्राप्त किया हो।
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अनुभाजन  : पुं० [सं० अनु√भाज् (पृथक् करना)+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुभाजित] वह व्यवस्था जिसमें लोगों की आवश्यकता का ध्यान रखते हुए कोई वस्तु समान रूप से निश्चित मात्रा में तथा अंश या हिस्से के रूप में उन्हें दी जाती है। (रैशनिंग)
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अनुभाव  : पुं० [सं० अनु√भू (होना)+णिच्+धञ्] १. महिमा। बड़ाई। २. प्रभाव। ३. दृढ़ विश्वास। ४. दृढ़ निश्चय या संकल्प। ५. साहित्य में, वे विशिष्ट मानसिक और शारीरिक व्यापार जो मन में कोई भाव उत्पन्न होने, विशेषतः किसी रस की अनुभूति होने पर होते है। (एन्सुएन्ट) विशेष—साहित्यकारों ने नौं सात्त्विक अनुभाव (स्तंभ, स्वेद, स्वर-भंग, कंप, वैवर्ण्य, अश्रु, रोमांच, प्रलय और जुंभा) और बारह कायिक तथा मानसिक अनुभाव या हाव (लीला, विलास, विच्छित, विभ्रम, किलकिंचित्, ललित, मोट्टायित, विव्वोक, विह्रत, कुटृमित, हेला और बोधक) मानें हैं। ६. किसी व्यक्ति, वस्तु, वर्ग आदि में विशेष रूप से पाये जानेवाले गुण या लक्षण। (कैरेक्टरिस्टिक्स)
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अनुभावक  : वि० [सं० अनु√भू+णिच्+ण्युल्-अक] सोचने विचारने में प्रवृत्त करनेवाला।
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अनुभावन  : पुं० [सं० अनु√भू+णिच्+ल्युट्-अन] अंगभंगी द्वारा मन के भाव व्यक्त करना।
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अनुभावी (दिन्)  : वि० [सं० अनु√भू+णिनि] [संत्री० अनुभाविनी] १. जिसमें अनुभव करने की शक्ति या संवेदना हो। २. वह साक्षी जिसने सारी घटना स्वयं देखी हो। (आई विटनेस) ३. मृतक के वे संबंधी जिन्हें अशौच या सूतक लगता हो।
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अनुभाव्य  : वि० [सं० अनुभव से] जिसका अनुभव किया जा सकता हो या किया जाने को हो। अनुभव के योग्य। वि० [सं० अनु√भू+णिच्+यत्] १. प्रशंसा या बड़ाई के योग्य। २. (गुण या लक्षण) जो किसी में विशेष रूप से पाया जा सकता हो।
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अनुभाषण  : पुं० [सं० अनु√भाष् (बोलना)+ल्युट्-अन] १. किसी की कही हुई बात को फिर या दुबारा कहना। २. कथोपकथन। वार्तालाप।
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अनुभूत  : भू० कृ० [सं० अनु√भू+क्त] १. जिसका अनुभव हुआ हो। जिसका साक्षात् ज्ञान हुआ हो। २. (पदार्थ) परीक्षा, प्रयोग आदि के द्वारा जिसकी उपयोगिता या वास्तविकता जान ली गई हो। जो अनुभव से ठीक सिद्ध हो चुका हो। परीक्षित।
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अनुभूति  : स्त्री० [सं० अनु√भू+क्तिन्] १. वह ज्ञान जो अनुमिति, उपमिति, प्रत्यक्ष या शब्द-बोध के आधार पर प्राप्त हुआ हो। (स्मृति के आधार पर प्राप्त किये हुए ज्ञान से भिन्न) २. कल्पना। ३. भावना।
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अनुभोग  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. उपभोग। २. दे० ‘भोग’।
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अनुमत  : वि० [सं० अनु√मन् (मानना)+क्त] १. जिसे या जिसके लिए आज्ञा, आदेश अनुमति या स्वीकृति मिल चुकी हो। २. प्रिय। रुचिर। पुं० १. आज्ञा। २. अनुमति। ३. सहमति। ४. प्रेम।
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अनुमति  : स्त्री० [सं० अनु√मन्+क्तिन्] १. आज्ञा। हुकुम। २. कोई काम करने से पहले उसके संबंध में अधिकारी से मिलने या ली जानेवाली स्वीकृति जो बहुत कुछ आज्ञा के रूप में होती हैं। अनुज्ञा। (परमिशन) ३. कोई काम करते समय या चुकने पर किसी बड़े या उच्चाधिकारी के द्वारा होनेवाला उसका अनुमोदन या समर्थन। स्वीकृति। (एस्सेन्ट) ४. चतुर्दशी से युक्त पूर्णिमा।
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अनुमति-पत्र  : पुं० [सं० ष०] वह पत्र या लेख जिसपर अनुमति या स्वीकृति लिखी हो।
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अनुमरण  : पुं० [सं० अनु√मृ (मरना)+ल्युट्-अन] स्त्री का पति के शव से साथ सती होना।
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अनुमा  : स्त्री० [सं० अनु√मा (मान)+अङ्-टाप्]=अनुमान।
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अनुमाता (तृ)  : वि० [सं० अनु√मा+तृच्] अनुमान करने वाला।
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अनुमान  : पुं० [सं० अनु√मि, या√मा+ल्युट्-अन] [भू० कृअनुमिति० वि० अनुमेय, आनुमानिक, अनुमानित १. अपने मन से यह समझना कि ऐसा हो सकता है या होगा। अटकल। अंदाज (गेस) २. मोटा हिसाब लगाकर अंदाज से यह समझना कि यह ऐसा या इतना होगा। (एस्टिमेट) ३. न्याय में, प्रमाण के चार भेदों मे से वह भेद जिससे प्रत्यक्ष साधन के द्वारा अप्रत्यक्ष साध्य की भावना या सिद्धि होती है। ४. साहित्य में एक अलंकार जिसमें साध्य के संबंध में साधन के द्वारा प्राप्त होनेवाला ज्ञान कुछ विलक्षण या चमत्कारपूर्ण ढंग से वर्णित होता है। (इन्फिएरेन्स) ५. भावना। विचार।
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अनुमानतः  : क्रि० वि० [सं० अनुमान+तस्] अनुमान के आधार पर। अन्दाज से। अटकल से।
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अनुमानना  : स० [सं० अनुमान] अनुमान करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुमानित  : भू० कृ० [सं० अनुमान+क्विप्+क्त] अनुमान से समझा हुआ। अनुमित।
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अनुमानोक्ति  : स्त्री० [सं० अनुमान-उक्ति, तृ० त०] १. अनुमान के आधार पर कही हुई बात। २. मन में किया जानेवाला ऊहापोह या तर्क-वितर्क।
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अनुमापक  : वि० [सं० अनु√मा+णिच्+ण्युल्-अक] अनुमान कराने वाला। पुं० [हिं० अनुमान] अनुमापन करने या करानेवाला व्यक्ति।
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अनुमापन  : पुं० [सं० अनु√मा+णिच्, पुक्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुमापित] रासायनिक प्रक्रिया से यह पता लगाना कि किसी घोल या मिश्रण में कोई विशिष्ट तत्त्व या पदार्थ कितनी मात्रा में है। (टाइट्रेशन)
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अनुमापना  : स० [सं० अनुमान से] अनुमान या कल्पना करना। समझना। उदाहरण—दुरजन हमर दुःख न अनुमापब।—विद्यापति।
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अनुमित  : भू० कृ० [सं० अनु√मा+क्तिन्] १. जो अनुमान से जाना समझा गया हो। (गेस्ड) २. जो अनुमान से या मोटा हिसाब लगाकर ठहराया गया हो। (एस्टिमेटेड)
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अनुमिति  : स्त्री० [सं० अनु√मा (मान)+क्तिन्] १. अनुमित होने की अवस्था या भाव। २. तर्क में, सामने आई हुई बात या बातों के आधार पर निकाला हुआ निष्कर्ष, जो अनुभूति के चार भेदों में से एक माना गया है। (इन्फेरेन्स)
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अनुमृता  : स्त्री० [सं० अनु√मृ (मरना)+क्त] १. वह स्त्री जिसकी मृत्यु उसके पति की मृत्यु के उपरान्त हुई हो। २. पति के शव के साथ सति होने वाली स्त्री।
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अनुमेय  : वि० [सं० अनु√मा+यत्] जिसे अनुमान से जान सकें। अनुमान में आने योग्य।
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अनुमोद  : पुं० [सं० अनु√मुद् (प्रीति)+घञ्, या णिच्+घञ्]=अनुमोदन।
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अनुमोदन  : पुं० [सं० अनु√मुद्+णिच्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुमोदित, वि० अनुमोद्य] १. प्रसन्नता प्रकट करना। २. किसी को प्रसन्न करने के लिए आप भी प्रसन्न होना। ३. किसी के किये हुए काम या सामने रक्खे हुए सुझाव को ठीक मानकर अपनी स्वीकृति देना या उसका समर्थन करना। (एप्रूवल)
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अनुमोदित  : भू० कृ० [सं० अनु√मुद्+णिच्+क्त] १. (बात या विचार) जिसका किसी से अनुमोदन किया हो। २. (बात या विचार) जिसे किसी उच्च अधिकारी ने ठीक मान लिया हो और जिसके अनुसार कार्य करने की स्वीकृति दे दी हो।
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अनुमोद्य  : वि० [सं० अनु√मुद्+णिच्+यत्] जिसका अनुमोदन किया जा सकता हो या किया जाने को हो।
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अनुयाचक  : पुं० [सं० अनु√याच् (माँगना)+ण्युल्-अक] अनुचायन करनेवाला व्यक्ति। (कैन्वेसर)
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अनुयाचन  : पुं० [सं० अनु√याच् (माँगना)+ण्युल्-अन] [कर्त्ता अनुयाचक, अनुयाची, बू० कृ० अनुयाचित] किसी को अनुरोध पूर्वक समझा-बुझाकर कर अपने अनुकूल करते हुए उससे कोई काम करने को कहना। (कैन्वेसिंग) जैसे—मत या वोट के लिए अथवा किसी के हाथ अपना माल बेचने के लिए अनुयाचन करना।
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अनुयाचित  : भू० कृ० [सं० अनु√याच्+क्त] जिसका या जिसके लिए अनुयाचन किया गया हो।
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अनुयाची (चिन्)  : पुं० [अनु√याच्+णिनि]=अनुयाचक।
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अनुयाता (तृ)  : पुं० [सं० अनु√या (जाना)+तृच्] अनुगामी या अनुयायी।
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अनुयात्रिक  : वि० [सं० अनुयात्रा+ठन्-इक]=अनुयाता।
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अनुयान  : पुं० [सं० अनु√या+ल्युट्-अन] किसी के पीछे चलना। अनुगमन।
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अनुयायिता  : स्त्री० [सं० अनुयायिन्+तल्-टाप्] अनुयायी होने की अवस्था या भाव।
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अनुयायी (यिन्)  : वि० [सं० अनु√या (जाना)+णिनि] [स्त्री० अनुयायिनी, भाव० अनुयायिता] १. किसी के पीछे-पीछे चलनेवाला। अनुगामी। २. अनुकरण करनेवाला। ३. किसी के उपद्देश्य या सिंद्धान्त मानने और उसके अनुसार चलनेवाला। (फाँलोअर) पुं० अनुचर। सेवक। दास।
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अनुयुक्त  : वि० [सं० अनु√युज् (योग)+क्त] १. जिसके विषय में अनुयोग (पूछ-ताछ) किया गया हो। २. परीक्षित। ३. निंदित।
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अनुयुग  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. किसी युग का कोई छोटा और विशिष्ट भाग जिसमें निरन्तर कुछ विशिष्ट प्रकार की घटनाएँ हुई हों। (इपॉक) जैसे—पुराशास्त्र की दृष्टि से प्रस्तर-युग की अनुयुगों में विभक्त है। २. कोई ऐसा विशिष्ट काल या समय जिसमें विशिष्ट महत्त्व की घटनाएँ या परिवर्तन हुए हों। शक। (इपॉक)
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अनुयोक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० अनु√युज्+तृच्] [स्त्री० अनुयोक्त्री] १. अनुयोग या पूछ-ताछ करनेवाला। २. वेतन लेकर विद्यार्थियों को शिक्षा देनेवाला। (ट्यूटर)
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अनुयोग  : पुं० [सं० अनु√युज्+घञ्] १. प्रश्न करना। पूछना। २. संदेह दूर करने या सत्यता के संबंध में शंका होने पर किया जाने वाला प्रश्न। पूछ-ताछ। (क्वेरी) ३. वेतन लेकर विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम। (ट्यूशन)
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अनुयोग चिन्ह  : पुं० [सं० ष० त०] छापे और लिखावट में एक प्रकार का चिन्ह जो अनुयोग (जिज्ञासा) या शंका सूचित करता है, और जिसका रूप यह है- ‘?’।
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अनुयोगी (गिन्)  : वि० [सं० अनु√युज्+णिच्-क्त] १. अनुयोग करनेवाला। २. दे० ‘अनुयोक्ता’।
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अनुयोजन  : पुं० [सं० अनु√युज्+ल्युट्-अन] १. प्रश्न। २. प्रश्न करने की क्रिया या भाव। अनुयोग।
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अनुयोजित  : भू० कृ० [सं० अनु√युज्+णिच्-क्त] जिसके विषय में अनुयोग या पूछ-ताछ की गई हो। अनुयुक्त।
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अनुयोज्य  : वि० [सं० अनु√युज्+ण्यत्] जिसके विषय में पूछ-ताछ की जा सकती हो या की जाने को हो।।
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अनुरक्त  : भू० कृ० [सं० अनु√रञ्ज्+क्त] [भाव० अनुरक्ति] १. जिसके मन में किसी के प्रति अनुराग हुआ हो। २. किसी की ओर झुका हुआ। आसक्त। ३. रँगा हुआ। ४. रक्तवर्ण का। लाल।
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अनुरक्त-प्रकृति  : वि० [ब० स०] १. (वह राजा) जिसकी प्रजा उसमें अनुरक्त हो। २. जिसने साम दाम आदि के द्वारा प्रजावर्ग को संतुष्ट कर लिया हो।
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अनुरक्ति  : स्त्री० [सं० अनु√रञ्ज्+क्तिन्] [वि,०अनुरक्त] १. अनुरक्त होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. किसी के प्रति भक्ति, श्रद्धा या सद्भाव होना। अनुराग। प्रेम। (एफेक्शन)
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अनुरंजक  : पुं० [सं० अनु√रञ्ज् (राग)+ण्युल्-अक] अनुरंजन प्रश्न या संतुष्ट करनेवाला।
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अनुरंजन  : पुं० [सं० अनु√रञ्ज्+ल्युट्-अन] १. रंग से युक्त करना। रँगना। २. प्रसन्न या संतुष्ट करना। ३. अनुराग। प्रीति। ४. आसक्ति। मन-बहलाव।
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अनुरंजित  : भू० कृ० [सं० अनु√रञ्ज्+णिच्-क्त] जिसका अनुरंजन किया गया हो।
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अनुरणन  : पुं० [सं० अनु√रण् (शब्द)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुरणित] १. गूँज। २. व्यंजना। ३. संगीत शास्त्र में, स्वर का वह मुख्य स्वरूप जो नाद या शब्द की लहरों के क्रम से उत्पन्न होकर कुछ देर में लीन या समाप्त हो जाता है।
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अनुरत  : वि० =अनुरक्त।
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अनुरति  : स्त्री० [सं० अनु√रम्+क्तिन्] १. अनुराग। २. आसक्ति।
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अनुरथ्या  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] सड़क के दोनों ओर का छोटा रास्ता। पटरी।
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अनुरस  : पुं० [सं० अत्या०स०] १. साहित्य में, किसी रस के साथ रहकर उसमें सहायक होनेवाला रस। २. प्रतिध्वनि। पुं० प्रतिध्वनि।
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अनुरसित  : वि० [सं० अनु√रस् (शब्द)+क्त] प्रतिध्वनि।
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अनुरहस  : पुं० [सं० अत्या० स० अच्] एकांत स्थान। निराला।
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अनुराग  : पुं० [सं० अनु√रञ्ज्+घञ्] [भू० कृ० अनुरक्त] १. किसी से प्रसन्न होकर शुद्ध भाव से उसकी ओर प्रवृत्त होना या मन लगाना। २. श्रंगारिक क्षेत्र में वह आरंभिक और हलका प्रेम या स्नेह जो मिलन अथवा विशेष सम्पर्क स्थापित होने से पहले होता है। (एफेक्शन) ३. दे० ‘अनुरक्ति’।
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अनुरागना  : स० [सं० अनुराग] १. अनुराग या प्रीति करना। प्रेम करना। २. आसक्त होना। पुं० अनुराग या प्रेम से युक्त होना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुरागी (गिन्)  : वि० [सं० अनुराग+इनि] [स्त्री० अनुरागिनी] १. अनुराग रखनेवाला। प्रेमी। २. भक्त।
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अनुरात्र  : अव्य० [सं० अनु-रात्रि, अव्य० स० अच्] १. हर रात। २. रात में।
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अनुराध  : पुं० [सं० अनु√राध्+ल्युट्-अन] १. विनती। विनय। २. प्रार्थना। याचना।
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अनुराधन  : पुं० [सं० अनु√राध्+ल्युट्-अन] १. अंत या समाप्ति की ओर ले जाना। २. पूरा करना।
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अनुराधना  : स० [सं० अनुराध] विनय करना। प्रार्थना या विनती करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुराधपुर  : पुं० [सं० ष० त०] लंका की पुरानी राजधानी।
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अनुराधा  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] सत्ताइस नक्षत्रों में से सत्रहवाँ नक्षत्र।
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अनुरूप  : वि० [सं० अत्या० स० या अव्य० स० अच् प्रत्यय] १. जिसका रूप किसी के तुल्य, समान या सदृश हो। ठीक वैसा। २. अनुकूल। ३. उपयुक्त। योग्य।
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अनुरूपक  : पुं० [सं० अनु√रूप (साकार करना)+अज्+कन्] १. वह जो किसी के अनुरूप हो या अनुकरण पर बना हो। २. प्रतिमा। मूर्ति। ३. समान वस्तु। मिलती-जुलती चीज। उदाहरण—गति, आनन, लोचन, पाँयन के अनुरूप से मन मानि लिए।—केशव।
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अनुरूपण  : पुं० [सं० अनु√रूप+णिच्+ल्युट्-अन] किसी को किसी के अनुरूप बनाने की अवस्था, क्रिया या भाव।
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अनुरूपता  : स्त्री० [सं० अनुरूप+तल्-टाप्] १. किसी के अनुरूप होने की क्रिया या भाव। जैसा कोई और हो, वैसा ही उसके समान होना। २. अनुकूलता। ३. समानता। सादृश्य। ४. उपयुक्तता।
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अनुरूपना  : स० [सं० अनुरूप] अपने अनुरूप या समान बनाना। अ० किसी के अनुरूप बनना या होना।
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अनुरूपा सिद्धि  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] भाई, बंधु आदि को साम, दाम आदि के द्वारा अनुकूल करना। (कौ०)
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अनुरेखन  : पुं० [सं० अनुलेखन] [भू० कृ० अनुरेखित] १. रेखाओं रेखा-चित्रों आदि की अनुकृति प्रस्तुत करना। २. किसी चित्र या अंकन के ऊपर पतला या पारदर्शक कागज रखकर उसकी रेखाएँ आदि लेते हुए उसकी नकल तैयार करना। (ट्रेसिंग)
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अनुरेखित  : भू० कृ० [सं० अनुरेखा, प्रा० स०+इतज्] जिसका अनुरेखन हुआ हो।
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अनुरोदन  : पुं० [सं० अनु√रुद् (रोना)+ल्युट्-अन] १. किसी के साथ (संवेदना जतलाते हुए) रोना। २. संवेदना प्रकट करना।
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अनुरोध  : पुं० [सं० अनु√रुध् (रोकना)+घञ्] १. बाधा। रुकावट। २. विनयपूर्वक किसी बात के लिए किया जाने वाला हठ। ३. उत्तेजना या प्रेरणा।
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अनुरोधक  : वि० [सं० अनु√रुध्+ण्युल्-अक] अनुरोध करनेवाला।
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अनुरोधी (धिन्)  : वि० [सं० अनुरोध+इनि]=अनुरोधक।
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अनुर्वर  : वि० [सं० न-उर्वर, न० त०] [स्त्री० अनुर्वरा] (भूमि) जो उर्वर या उपजाऊ हो, फलतः बंजर। पुं० बंजर भूमि।
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अनुलग्न  : वि० [प्रा० स०] १. किसी के साथ जुड़ा, मिला या लगा हुआ। (अटैच्ड या एन्क्लोज्ड) २. दे० ‘समावृत्त’।
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अनुलग्नक  : पुं० [सं० अनुलग्न+कन्] वह पत्र या कागज जो किसी दूसरे पत्र के साथ लगा, जुड़ा या नत्थी किया गया हो। (एन्क्लोजर)
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अनुलंब  : पुं० [सं० अनु√लम्ब (लटकना)+घञ्] मानसिक अनिश्चितता की ऐसी अवस्था जिसमें चिंता अथवा भय के कारण कोई निश्चय न हुआ हो परन्तु निश्चय पर पहुँचने की इच्छा बनी हो। (सस्पेन्स)
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अनुलंब खाता  : पुं० [सं० अनुलंब×हिं० खाता] ऐसा खाता जिसमें अस्थायी रूप से तब तक के लिए रकमें लिखी जाती हैं जब तक उनका ठीक स्थान निश्चित नहीं हो जाता। (सस्पेन्स एकाउन्ट)
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अनुलंबन  : पुं० [सं० अनु√लम्ब् (लटकना, सहारा लेना)+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुलंबित] १. अस्थायी रूप से किसी को कोई काम करने से रोकना। २. किसी कर्मचारी के दोष या अपराध की सूचना मिलने पर उसकी जाँच तक के लिए अस्थायी रूप से उनको अपने पद से हटाया जाना। मुअत्तल करना। (सस्पेन्शन)
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अनुलंबित  : भू० कृ० [सं० अनु√लम्ब्+क्त] १. जिसका अनुलंबन हुआ हो। २. जो अस्थायी रूप से हटाया गया हो। (सस्पेंडेड)
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अनुलाप  : पुं० [सं० अनु√लप् (बोलना)+घञ्] १. कही हुई बात फिर से कहना या दोहराना। पुनरुक्ति। (रिपीटीशन) २. एक ही बात घुमा-फिरा कर बार-बार कहना।
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अनुलास  : पुं० [सं० प्रा० ब० स०] मोर।
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अनुलिखित  : भू० कृ० [सं० अनु√लिख् (लिखना)+क्त] अनुलेख के रूप में लाया हुआ। नकल किया हुआ।
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अनुलेख  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अनुलिखित]=प्रतिलिपि।
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अनुलेखन  : पुं० [सं० अनु√लिख् (लिखना)+ल्युट्-अन] [कर्त्ता-अनुलेखक, वि० अनुलेख्य] १. घटना या कार्य आदि का लेखा लिखना। जैसे—वायु की गति या भूकंप के धक्के का अनुलेखन। २. अनुलेख के रूप में कुछ लिखने की क्रिया। प्रतिलिपि करना।
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अनुलेप  : पुं० [सं० अनु√लिप् (लीपना)+घञ्] १. सुगंधित लेप, उबटन आदि। २. उक्त वस्तुओं का शरीर पर होनेवाला लेप।
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अनुलेपक  : वि० [सं० अनु√लिप्+ण्वुल्-अक] अनुलेपन करनेवाला।
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अनुलेपन  : पुं० [सं० अनु√लिप्+ल्युट्-अन] [भू० कृ० अनुलिप्त] १. किसी के ऊपर लेप लगाना या चढ़ाना। २. शरीर में सुगंधित पदार्थ लगाना। ३. पोतना। लीपना।
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अनुलोम  : पुं० [सं० अव्य० स० अच्] १. ऊँचे की ओर से नीचे की ओर या बड़े से छोटे की ओर आने का क्रम। उतार। २. संगीत में, ऊँचे स्वर से क्रमशः नीचे स्वरों का उच्चारण। अवरोह।
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अनुलोम-जन्मा (न्मन्)  : वि० [ब० स०]=अनुलोमज।
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अनुलोम-विवाह  : पुं० [सं० सं० तृ० त०] ऐसा विवाह जो ऊँचे वर्ण के पुरुष तथा नीचे वर्ण की स्त्री में हो। जैसे—वैश्य और शूद्र का विवाह।
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अनुलोमज  : वि० [सं० अनुलोप√जन् (उत्पन्न होना)+ड] अनुलोम विवाह से उत्पन्न (संतान)।
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अनुलोमतः  : अव्य० [सं० अनुलोम+तस्] अनुलोमवाले क्रम से या ऐसे क्रम के विचार से।
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अनुलोमन  : पुं० [सं० अनुलोम+क्विप्+ल्युट्-अन] १. पेट का मल बाहर निकालने के लिए उपाय या प्रयत्न करना। २. ऐसी औषधि जिससे पेट का मल बाहर निकले।
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अनुलोमा  : स्त्री० [सं० अनुलोम+अच्-टाप्] वह स्त्री जो अपने पति से नीची जाति की हो।
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अनुलोमा सिद्धि  : स्त्री० [सं० व्यस्तपद] नरगवासियों, देशवासियों तथा सेनापतियों को दान तथा भेद से अपने अनुकूल करना। (कौ०)
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अनुल्लंघन  : पुं० [सं० न-उल्लंघन, न० त०] उल्लंघन न करना।
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अनुल्लंघ्य  : वि० [सं० उद्√लंघ् (लाँघना)+ण्यत्, न-उल्लंध्य, न०त] १. जिसका उल्लंघन न हो सकता हो। २. जिसका उल्लंघन करना उचित न हो।
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अनुवक्ता (क्तृ)  : पुं० [सं० अनु√वच् (बोलना)+तृच्] १. पीछे या बाद में बोलने वाला। २. किसी की कही हुई बात दोहरानेवाला। ३. उत्तर देनेवाला।
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अनुवचन  : पुं० [सं० अनु√वच् +ल्युट्-अन] [कर्त्ता, अनुवक्ता] १. किसी की कही हुई बात फिर से कहना या दोहराना। २. किसी बात का अर्थ या आशय स्पष्ट करना। अर्थापन। व्याख्या। (इण्टरप्रिटेशन) ३. प्रकरण। अध्याय। ४. भाग। खंड। हिस्सा। ५. शिक्षण। ६. पाठ। ७. भाषण।
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अनुवत्सर  : पुं० [सं० प्रा० स०] पाँच वर्षों के युग का चौथा वर्ष। (ज्यो०) क्रि० वि० प्रति वर्ष। हर साल।
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अनुवर्ती (र्तिन्)  : वि० [सं० अनु√वृत्+णिनि] १. अनुसरण या अनुगमन करनेवाला। २. प्रसन्न या संतुष्ट करनेवाला। ३. किसी के उपरांत परिणामस्वरूप होनेवाला। (कान्सिक्वेन्ट) ४. किसी के बाद आने या रखा जानेवाला।
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अनुवर्त्तक  : वि० [सं० अनु√वृत् (बरतना)+ण्युल्-अक]=अनुवर्त्ती।
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अनुवर्त्तन  : पुं० [सं० अनु√वृत्+ल्युट्-अन] १. किसी की इच्छा के अनुसार आचरण या व्यवहार करना। २. अनुगमन। अनुसरण। ३. पुराने नियम या सिद्धान्त का प्रयोग करना अथवा उनके अनुसार कोई काम करना। ४. प्रसन्न या संतुष्ट करनेवाला। ५. परिणाम। फल।
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अनुवंश  : पुं० [सं० अत्या० स०] १. किसी वंश का इतिहास। वंशवृत्त। २. वंश-वृक्ष।
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अनुवंश  : वि० [सं० अत्या० स०] १. दूसरे की इच्छा के अनुसार चलनेवाला। २. आज्ञाकारी। ३. वशीभूत। पुं० [प्रा० स०]=अनुवंशता।
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अनुवशता  : स्त्री० [सं० अनुवश+तल्-टाप्] किसी के वश (या आज्ञा) में रहने की अवस्था या भाव।
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अनुवसित  : भू० कृ० [सं० अनु√वस् (आच्छादन)+क्त] १. जिसने वस्त्र धारण किया हो। २. कपड़े से घेरा या ढका हुआ।
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अनुवह  : पुं० [सं० अनु√वह् (ढोना)+अच्] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक।
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अनुवा  : पुं० [सं० अनूप=जलयुक्त] १. कुएँ की जगत का वह भाग जहाँ खड़े होकर पानी खींचते है। २. पानी निकालने के लिए जमीन में खोदा जानेवाला गड्ढा। चोआ। पुं० [सं० एनस्] व्यभिचार। छिनाला।
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अनुवाक  : पुं० [सं० अनु√वच् (बोलना)+घञ्,कुत्व] किसी ग्रन्थ का विशेषतः वेदों का कोई अध्याय या प्रकरण।
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अनुवाचन  : पुं० [सं० अनु√वच्+णिच्+ल्युट्-अन] १. यज्ञों में विधि के अनुसार मंत्रों का पाठ करना या कराना। २. अध्वर्यु के आदेशानुसार होता द्वारा ऋग्वेद के मंत्रों का पाठ। ३. किसी प्रकार के वाचन के उपरान्त होनेवाली उसकी उद्धरणी।
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अनुवाद  : पुं० [सं० अनु√वद्(बोलना)+घञ्] [कर्त्ता-अनुवादक, वि० अनुवाद्य, भू० कृ० अनुवादित, अनूदित] १. किसी की कही हुई बात फिर से कहना। दोहराना। २. तर्कशास्त्र में ऐसी बात बार-बार या कई रूपों में कहना जो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बिलकुल ठीक हो। ३. एक भाषा में लिखी हुई चीज या कही हुई बात के दूसरी भाषा में कहने या लिखने की क्रिया या प्रक्रिया। भाषातंर। उत्था। तर्जुमा। (ट्रांसलेशन)
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अनुवादक  : पुं० [सं० अनु√वद्+ण्युल्-अक] [स्त्री० अनुवादिका] अनुवाद या भाषांतर करनेवाला। एक भाषा से दूसरी भाषा में लिखने या कहनेवाला व्यक्ति। (ट्रांस्लेटर)
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अनुवादित  : भू० कृ० [सं० अनुवाद+क्विप्+क्त] १. जिसका अनुवाद हो चुका हो। २. (ग्रन्थ या लेख) जो अनुवाद के रूप में हो। अनुवाद किया हुआ। अनूदित।
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अनुवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अनु√वद्+णिनि] १. दे० अनुवादक। २. संगीत में वह स्वर जो किसी राग के वादी स्वर के अनुरूप हो और उस राग का सौन्दर्य बढ़ाने में सहायता देता हो।
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अनुवाद्य  : वि० [सं० अनु√वद्+ण्यत्] १. अनुवाद किये जाने के योग्य। २. जिसका अनुवाद होने को हो या हो रहा हो। ३. जिसका अनुवाद हो सकता हो।
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अनुवास  : पुं० [सं० अनु√वास् (सुगंधित करना)+घञ्] १. सुगंधित करना। (विशेषतः वस्त्र)। २. [अनु√वस् (निवास)+घञ्] निकट, समीप या साथ रहना। ३. किसी तरल औषधि (भेषज अथवा शक्तिवर्धक) को पिचकारी द्वारा गुदा-मार्ग से शरीर के अन्दर पहुँचाना। (एनिमा)
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अनुवासन  : पुं० [सं० अनु√वास्+ल्युट्-अन] अनुवास करने की क्रिया या भाव।
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अनुवासन-वस्ति  : स्त्री० [ष० त०] १. प्राचीन भारत में, शरीर के अन्दर औषध पहुँचाने की पिचकारी। २. पदार्थों को सुगंधित करने के लिए बना हुआ यंत्र।
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अनुवासित  : भू० कृ० [सं० अनु√वास्+णिनि] १. जिसका अनुवासन हुआ हो। २. सुगंधित किया हुआ।
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अनुवासी (सिन्)  : वि० [सं० अनु√वास्+णिनि] १. अनुवास करनेवाला। २. सुगंधित करनेवाला। ३. [अनु√वस्+णिनि] पास या पड़ोस में रहनेवाला।
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अनुवित्त  : वि० [सं० अनु√विद् (पाना)+क्त] मिला हुआ। प्राप्त।
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अनुवित्ति  : स्त्री० [सं० अनु√विद्+क्तिन्] प्राप्ति।
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अनुविद्ध  : भू० कृ० [सं० अनु√व्यध् (बेधना)+क्त] १. बिंधा या बेधा हुआ। २. गूँधा या पिरोया हुआ। ३. मिला हुआ। युक्त। ४. फैला हुआ। व्य़ाप्त। ५. सजाया हुआ। अलंकृत।
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अनुविधान  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. आज्ञा, आदेश, विधान के अनुरूप काम करने की क्रिया या भाव। आज्ञाकारिता। २. किसी के कहे या बतलाये हुए ढंग से कोई काम करने क क्रिया या भाव।
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अनुविष्ट  : भू० कृ० [सं० अनु√विश् (बैठना या पैठना)+क्त] [भाव० अनुविष्ट, अनुवेश] जो अपने स्थान विशेष पर लिख लिया गया हो। चढा, चढ़ाया या टाँका हुआ। (एन्टर्ड)
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अनुविष्टि  : स्त्री० [सं० अनु√विश्+ क्तिन्]=अनुवेश।
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अनुवृत्त  : वि० [सं० अनु√वृत् (बरतना)+क्त] १. जिसका अनुकरण या अनुसरण किया गया हो। २. दोहराया या दोबारा कहा या पढ़ा हुआ। ३. (पद) जो अनुवृत्ति के रूप में ग्रहण किया जाए। विशेष—दे० अनुवृत्ति। ४. अतीत संबंधी। ५. सच्चरित्र। पुं० वह व्यक्ति जिसे कोई अनुवृत्ति मिलती हो। अनुवृत्ति पानेवाला। (पेन्शनर)
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अनुवृत्ति  : स्त्री० [सं० अनु√वृत्+क्तिन्] १. एक बार कही या पढ़ी हुई चीज या बात फिर से कहना या दोहराना। २. व्याकरण में, किसी कथन में आया हुआ कोई अंश या पद परवर्ती कथन में फिर से ग्रहण करना या मानना। जैसे—राम भी आया है और मानव भी। में माधव भी के साथ आया है माना गया है। ३. [प्रा० स०] वृत्ति या वेतन का वह प्रकार या रूप जिसमें किसी कर्मचारी को बहुत दिनों तक काम करने पर, उसकी वृद्धावस्था में अथवा उसकी किसी प्रकार की अन्य सेवा, योग्यता आदि के विचार से भरण-पोषण के लिए कुछ धन मिलता है या दिया जाता है। (पेन्शन)
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अनुवृत्तिक  : वि० [सं० आनुवृत्तिक] १. अनुवृत्ति संबंधी। अनुवृत्ति का। २. (पद या सेवा) जिसके संबंध में अनुवृत्ति मिल सकती हो। (पेंशनेबुल)
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अनुवृत्तिधारी (रिन्)  : पुं० [सं० अनुवृत्ति√धृ (धारण करना)+णिनि] वह जिसे अनुवृत्ति मिलती हो। अनुवृत्ति पानेवाला। (पेन्शनर)
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अनुवृत्ती  : पुं० [सं० आवृत्ति से]=अनुवृत्तिधारी।
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अनुवेतन  : पुं० [सं० प्रा० स०] दे ‘अनुवृत्ति’ ३.।
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अनुवेश  : पुं० [सं० अनु√विश् (प्रवेश करना)+घञ्] १. किसी के पीछे या साथ-साथ प्रवेश करनेवाला। २. प्रवेश। ३. छोटे भाई का बड़े भाई से पहले विवाह होना। ४. (खाते, पूँजी आदि धन या नाम) यथा स्थान लिखा या चढ़ाया जाना। (एन्टरी)
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अनुवेश-पत्र  : पुं० [ष० त०]=अनुवेशिका।
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अनुवेश-लेख  : पुं० [ष० त०]=अनुवेशिका।
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अनुवेशन  : पुं० [सं० अनु√विश्+ल्युट्-अन] अनुवेश करने की क्रिया या भाव।
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अनुवेशिका  : स्त्री० [सं० अनु√विश्+णिच्+ण्युल्-अक+टाप्, इत्व] पार-पत्र की पीठ पर लिखा हुआ इस आशय का प्रमाण-लेख कि अमुख स्थान पर यह जाँचा गया है और इसे लेकर यात्री आगे जा सकता है। (वीजा)
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अनुवेश्य  : वि० [सं० अनुवेश+यत्०] १. एक के अंतर पर स्थित। दूसरा। २. पड़ोसी के एक घर के अंतर पर रहनेवाला।
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अनुव्याख्या  : पुं० [सं० प्रा० स०] अर्थ को और अधिक करने वाली व्याख्या।
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अनुव्याख्यान  : पुं० [सं० प्रा० स०] अर्थ स्पष्ट करने के लिए और अधिक व्याख्या करना।
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अनुव्याहरण  : पुं० [सं० प्रा० स०]=अनुव्यवहार।
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अनुव्याहार  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. पुनरुक्ति। २. शाप।
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अनुव्रजन  : पुं० [सं० प्रा० स०] १. किसी को विदा करते समय उसके साथ कुछ दूर तक जाना। २. आज्ञा-पालन।
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अनुव्रज्या  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] दे० ‘अनुव्रजन’।
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अनुव्रत  : [सं० अत्या० स०] १. श्रद्धा करनेवाला। २. विश्वास भाजन। पुं० एक तरह का जैन साधु।
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अनुशतिक  : पुं० [सं० शत+ठन्-इक, अनु-शतिक, प्रा० स०] सौ से अधिक सैनिकों का अध्यक्ष।
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अनुशय  : पुं० [सं० अनु√शी (सोना)+अच्] १. पुराना वैर। २. झगड़ा। विवाद। ३. दान-संबंधी विवाद या उसका निर्णय। ४. काम से मिलने वाला अवकाश। छुट्टी। ५. पश्चात्ताप। उदाहरण—लघुता मत देखो वक्ष चीर। जिसमें अनुशय बन घुसा तीर।—प्रसाद। ६.किसी की दी हुई आज्ञा या किये हुए कार्य को नहीं के समान करना। रद्द करना। (रिवोकेशन)
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अनुशयान  : वि० [सं० अनु√शी+शानच्] [स्त्री० अनुशायाना] पश्चाताप करनेवाला।
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अनुशयाना  : स्त्री० [सं० अनुशयन+टाप्] साहित्य में, वह परकीया नायिका जो अपने प्रिय के मिलने के स्थान के नष्ट हो जाने से दुःखी हो।
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अनुशयी (यिन्)  : वि० [सं० अनुशय+इनि] १. वैर या द्वेष करनेवाला। २. झगड़ालू। ३. पश्चाताप करनेवाला। ४. चरण छूकर प्रणाम करनेवाला। ५. अनुरक्त। आसक्त। पुं० १. प्राचीन काल में वह राजकीय अधिकारी जो दान-संबंधी झगड़ों का निर्णय करता था। (अर्थशास्त्र) २. पेट में एक प्रकार की होने वाली फुंसी।
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अनुशर  : पुं० [सं० अनु√शु (हिंसा)+अच्] राक्षस।
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अनुशंसा  : स्त्री० [सं० अनु√शंस् (स्तुति)+अ-टाप्] [भू० कृ० अनुशंसित] किसी व्यक्ति या प्रार्थना आदि के संबंध में यह कहना कि यह अच्छा, उपयुक्त ग्राह्वा अथवा मान्य है। सिफारिश। (रेकमेंडेशन)
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अनुशंसित  : भू०कृ० [सं० अनु√शंस्+क्त] जिसकी अनुसंसा या सिफारिश की गई हो। (रेकमेंडेड)
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अनुशासक  : पुं० [सं० अनु√शास् (शासन करना)+ण्युल्-अक] १. अनुशासन या नियंत्रण करनेवाला। २. उपदेश या शित्रा देने वाला। ३. विश्वविद्यालय का कार्याध्यक्ष। (प्रौक्टर)
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अनुशासन  : पुं० [सं० अनु√शास्+ल्युट्-अन] १. शासन करना। विशेषतः अपने ऊपर शासन करना। अपने को वश में रखना। २. दूसरों को प्रशिक्षित करना। शित्रा देना। ३. वह विधान जो किसी संस्था या वर्ग के सब सदस्यों को ठीक तरह से कार्य या आचरण करने के लिए बाध्य करे। (डिसिप्लिन) ४. विवरण।
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अनुशासनिक  : वि० [सं० अनुशासन+ठन्-इक] १. अनुशासन संबंधी। २. जो अनुशासन के रूप में हो। (डिसिप्लिनरी)
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अनुशासनीय  : वि० [सं० अनु√शास्+अनीयर्] जिस पर या जिसके प्रति अनुशासन किया जा सके या किया जाने को हो।
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अनुशासित  : वि० [सं० अनु√शास्+क्त्] १. जिसका या जिसके प्रति अनुशासन किया गया हो। २. जो अनुशासन में रखा या लाया गया हो।
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अनुशासी (सिन्)  : पुं० [सं० अनु√शास्+णिनि]=अनुशासक।
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अनुशास्ता  : पुं० [सं० अनु√शास्+तृच्]=अनुशासक।
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अनुशिष्ट  : भू० कृ० [सं० अनु√शास्+क्त]=अनुशासित।
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अनुशिष्टि  : स्त्री० [सं० अनु√शास्+क्तिन्]=अनुशासन।
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अनुशीलन  : पुं० [सं० अनु√शील् (समाधि)+ल्युट्-अन] [वि० अनुशीलित, कर्ता-अनुशीलक] १. चिंतन। मनन। २. बार-बार किया जानेवाला अध्ययन या अभ्यास। ३. किसी ग्रन्थ तथ्य विषय के सब अंगो तथा उपांगों पर बहुत ही सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना और उनसे परिचित होना। (स्टडी)
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अनुशीलनीय  : वि० [सं० अनु√शील्+अनीयर्] जिसका अनुशीलन या चिंतन या मनन होने को हो या हो सकता हो।
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अनुशीलित  : भू० कृ० [सं० अनु√शील्+क्त] जिसका अनुशीलन किया गया हो।
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अनुशोक  : पुं० [सं० अनु√शुच् (सोचना)+घञ्] १. मानसिक दुख। २. पश्चात्ताप।
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अनुशोचक  : वि० [सं० अनु√शुच्+ण्युल्-अन] १. (व्यक्ति) पश्चात्ताप करनेवाला। २. (विषय) खेदजनक।
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अनुशोचन  : पुं० [सं० अनु√शुच्+ल्युट्-अन] पश्चात्ताप करने की क्रिया या भाव।
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अनुशोची (चिन्)  : पुं० [सं० अनु√शुच्+णिनि] वह जो पश्चात्ताप कर रहा हो।
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अनुशोधन  : पुं० [सं० प्रा० स०] [भू० कृ० अनुशोधित] १. किसी चीज या बात में इस दृष्टि से शोधन या सुधार करना कि उसके सब दोष तो दूर हो जाएँ, पर रूप जो ज्यों का त्यों बना रहे। (मॉडिफिकेशन) २. इस प्रकार किया हुआ शोधन या सुधार।
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अनुश्रव  : पुं० [सं० अनु√श्रु (सुनना)+अप] १. वैदिक परंपरा। २. अनुश्रुति।
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अनुश्राविक  : वि० [सं० श्रव+ठञ्-इक,अनु-श्राविक प्रा० स०] परंपरा से श्रुति द्वारा प्राप्त परलोक-संबंधी (ज्ञान)। जैसे—स्वर्ग, देवता, अमृत इत्यादि का।
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अनुश्रुत  : वि० [सं० अनु√श्रु+क्त] (कथा, ज्ञान या बात) जिसे लोग बहुत दिनों से एक ही रूप में सुनते चले आये हों। (लीगेंडरी)
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अनुश्रुति  : वि० [सं० अनु√श्रु+क्तिन्] वह कथा, ज्ञान या बात जिसे लोग बहुत दिनों से एक ही रूप में अपने पूर्वजों से सुनते आ रहे हों। अनुश्रव। ऐतिह्वा। (लीगेंड)
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अनुषक्त  : वि० [सं० अनु√सञ्ज्+क्त] १. संबंद्ध। २. साथ लगा हुआ। संलग्न।
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अनुषक्ति  : स्त्री० [सं० अनु√सञ्ज्+क्तिन्] १. अपने सहायक या राज्य के प्रति जन-साधारण का होनेवाला कर्त्तव्य। राज्यभक्ति। (एलिजिएन्स) २. आसक्ति। ३. संबद्धता।
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अनुषंग  : पुं० [सं० अनु√सञ्ज् (मिलना)+घञ्] [वि० आनुषंगिक, अनुषंगी] १. कूरूणा। दया। २. संबंध। लगाव। ३. एक बात के बाद दूसरी बात आप से आप होना। (इंसिडेंस) ४. प्रसंग के अनुसार एक बात से उसके साथ होनेवाली दूसरी बात भी मान या समझ लेना।
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अनुषंगी (गिन्)  : वि० [सं० अनु√सञ्ज्+धिनुण्] १. संबंधी। २. अनिवार्य परिणाम के रूप में आने या होनेवाला। ३. सामान्य रूप से प्रयुक्त होनेवाला। ४. आसक्त। ५. किसी कार्य, विषय या तथ्य के बाद सहायक या संबद्ध रूप में आप से आप होनेवाला। (एक्सेसरी आफ्टर दि फैक्ट)। ६. सहायक।
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अनुषेक  : पुं० [सं० अनु√सिच् (सींचना)+घञ्] १. (खेत आदि में) जल सींचना। २. बार-बार जल छिड़कना या छिड़काव करना।
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अनुषेचन  : पुं० [सं० अनु√सिच्+ल्युट्-अन]=अनुषेक।
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अनुष्टुप  : पुं० [सं० अनु√स्तुम्भ् (रोकना)+क्विप्,षत्व] आठ-आठ अक्षरों के चार चरणों का एक संस्कृत छंद।
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अनुष्ठातव्य  : वि० [सं० अनु√स्था (ठहरना)+तव्यत्]=अनुष्ठेय।
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अनुष्ठाता (तृ)  : वि० [सं० अनु√स्था+तृच्] १. अनुष्ठान करनेवाला। २. कार्य आरंभ करनेवाला।
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अनुष्ठान  : पुं० [सं० अनु√स्था+ल्युट्-अन] [वि० अनुष्ठित] १. कार्य आरंभ करने की क्रिया या भाव। २. नियम-पूर्वक कोई काम करना। ३. शास्त्र-विहित कर्म करना। ४. फल के निमित्त किसी देवता का किया जानेवाला आराधन। प्रयोग। पुरश्चरण।
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अनुष्ठान-शरीर  : पुं० [ष० त०] सूक्ष्म और स्थूल शरीर के बीच का शरीर। (सांख्य०)
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अनुष्ठापन  : पुं० [सं० अनु√स्था+णिच्+ल्युट्-अन,पुक् आगम] किसी को कार्य करने में प्रवृत्त करना।
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अनुष्ठायी (यिन्)  : वि० [सं० अनु√स्था+णिनि] अनुष्ठान करनेवाला।
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अनुष्ठित  : भू० कृ० [सं० अनु√स्था+क्त] विधि-पूर्वक अनुष्ठान के रूप में चलाया या ठाना हुआ (काम)।
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अनुष्ठेय  : वि० [सं० अनु√स्था+यत्] अनुष्ठान के रूप में किये जाने के योग्य।
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अनुष्ण  : वि० [सं० न-उष्ण, न० त०] १. जो उष्ण या गर्म न हो, अर्थात् ठंडा। २. सुस्त। आलसी। पुं० नीला कमल।
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अनुसंधान  : [सं० अनु-सम्√धा (धारण)+ल्युट्-अन] १. किसी व्यक्ति, विषय या बात के पीछे लगकर उसका संधान करना, ढूढ़ना या पता लगाना। २. किसी विषय से संबंध रखनेवाली सभी बातों का अच्छी तरह तथा व्योरेवार पता लगाना। जाँच-पड़ताल। (इन्वेस्टिगेशन)
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अनुसंधानना  : स० [सं० अनुसंधान] १. अनुसंधान करना। २. खोजना। ढूँढ़ना। ३. मन में विचार करना। सोचना।
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अनुसंधानी (निन्)  : [सं० अनुसंधान+इनि] १. अनुसंधान, जाँच-पड़ताल या खोज करने वाला व्यक्ति। २. वह जो योजना बनाने में कुशल हो।
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अनुसंधायक  : पुं० [सं० अन्√सम्-धा+ण्युल्-अक] वह जो अनुसंधान या खोज करे। अनुसंधानकारी।
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अनुसंधायी (यिन्)  : पुं० [सं० अनु-सम्√धा+णिनि]=अनुसंधानी।
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अनुसंधि  : स्त्री० [अनु-सम्√धा+सम्-कि] १. अनुसंधान। तलाश। २. काव्य, नाटक आदि की रचना में कवि का सभी पात्रों के कार्यों, क्रिया-कलापों आदि की संगतता का पूरा और यथोचित ध्यान रखना। ३. दे० ‘अभिसंधि’।
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अनुसंधित्सु  : वि० [सं० अनु-सम्√धा+सन्+उ] अनुसंधान करने की इच्छा रखने या प्रयत्न करनेवाला।
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अनुसमर्थन  : पुं० [प्रा० स०] अनुमोदन।
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अनुसंयान  : पुं० [सं० अनु-सम्√या(जाना)+ल्युट्-अन] प्राचीन भारतीय राजतंत्र में वह व्यवस्था जिसके अनुसार प्रति तीसरे या पाँचवें वर्ष किसी राज्य के महामात्यों का समस्त वर्ग बदल दिया जाता था।
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अनुसयाना  : स्त्री० अनुशयाना। (नायिका)।
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अनुसर  : वि० [सं० अन√सृ(गति)+ट] अनुसरण करनेवाला। पुं० १. अनुचर। २. साथी। क्रि० वि० =अनुसार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुसरण  : पुं० [सं० अनु√सृ+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे या बाद में आना। किसी के पीछे उसी दिशा में चलना। २. किसी के आदेश, आज्ञा आदि के अनुसार चलना। ३. अनुकरण। ४. अनुकूल आचरण। ५. प्रथा। ६. अभ्यास।
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अनुसरता  : पुं० [सं० अनुसर्त्तू, हिं० अनुसरण] १. वह जो किसी का अनुसरण करे या उसके पीछे-पीछे चले। अनुगामी। २. सेवक, दान या नौकर। उदाहरण—बहुत पतित उद्धार किये तुम, हौं जिनको अनु सरतो।—सूर।
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अनुसरना  : अ० [हिं० अनुसरण] १. किसी के पीछे-पीछे चलना। अनुगमन करना। उदाहरण—जिमि पुरुषहिं अनुसर परछाँहीं।—तुलसी। २. कोई बात मानकर उसके अनुसार काम करना। ३. नियम या निश्चय के अनुसार चलना।
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अनुसर्प  : पुं० [सं० अत्या० स०] साँप की तरह जीव या प्राणी।
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अनुसंहित  : वि० [सं० अन-सम्√धा (धारण करना)+क्त] १. जिसकी खोज या जाँच पड़ताल की गई हो। २. (किसी के) अनुसार या अनुरूप।
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अनुसार  : वि० [सं० अत्या० स०] १. जो किसी के अनुसरण पर हो। २. किसी के ढंग या रूप से मिला हुआ। अनुरूप। क्रि० वि० [अव्य० स०] १. किसी की तरह पर। वैसे ही, जैसे कोई प्रस्तुत या सामने न हो। २. किसी के कथन, मत आदि के रूप में। जैसे—आपके अनुसार यह पुस्तक किसी के काम की नहीं है। पुं० [अनु√सृ (गति)+घञ्] १. अनुसरण। २. प्रथा। ३. प्रकृति या प्राकृतिक अवस्था। ४. चलन। ५. परिणाम।
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अनुसारक  : वि० [सं० अनु√सृ+ण्युल्-अक] अनुसरण करनेवाला।
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अनुसारणा  : स्त्री० [सं० अनु√सृ+णिच्+युच्-अन+टाप्] १. अनुसरण करना। २. पीछा करना।
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अनुसारतः  : क्रि० वि० [सं० अनुसार+तस्] किसी के अनुसार। वैसे ही। (एकार्डिन्स)
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अनुसारता  : स्त्री० [सं० अनुसार+तल्-टाप्] अनुसार होने की अवस्था या भाव। (एकार्डेन्स)
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अनुसारना  : स० [हिं० अनुसार] १. कोई काम पूरा करना। २. कोई काम या बात छेड़ना। आरंभ करना। उदाहरण—तातें कछुक बात अनुसारी।—तुलसी। ३. (कोई काम) करना।
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अनुसारिता  : स्त्री० [सं० अनुसारिन्+तल्-टाप्] अनुसारी होने की अवस्था या भाव।
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अनुसारी (रिन्)  : वि० [सं० अनु√सृ+णिनि] १. किसी का अनुसरण करने वाला। २. सेवक। ३. (बात) जिसका अनुसरण या पालन करना आवश्यक हो। (एबाइडिंग)
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अनुसाल  : स्त्री० [सं० अनु+हिं० सालना] हृदय में होनेवाली कसक या पीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुसासन  : पुं०=अनुशासन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुसीमा  : स्त्री० [सं० अत्या० स०] किसी क्षेत्र या सीमा रेखा के आस-पास या इधर-उधर पड़नेवाला क्षेत्र या भूमि (एबटृल्स)
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अनुसूचित  : भू० कृ० [सं० अनु√सूच्(सूचित करना)+क्त] १. अनुसूची के रूप में लाया हुआ। २. जिसे अनुसूची में स्थान मिला हो। जैसे—अनुसूचित क्षेत्र या अनुसूचित जन-जाति।
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अनुसूची  : स्त्री० [सं० प्रा० स०] किसी लेख या विवरणात्मक ग्रंथ के अंत में परिशिष्ट के रूप में लगी हुई ऐसी सूचना जिसमें कोष्टकों, स्तभों आदि के रूप में कोई ऐसी सूचना रहती है जिसका उस लेख या ग्रंथ में साधारण उल्लेख मात्र रहता है।
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अनुसूत  : वि० [सं० अनु√सृ(गति)+क्त] जिसका अनुसरण किया गया हो।
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अनुसूति  : स्त्री० [सं० अनु√सृ+क्तिन्] १. अनुसरण। २. कुलटा। स्त्री।
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अनुसेवी (विन्)  : वि० [सं० अनु√सेव्(सेवा करना)+णिनि] अभ्यास या आसंग वश कोई काम करनेवाला।
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अनुस्नान  : पुं० [सं० प्रा० स०] शिव पर चढ़ा हुआ निर्माल्य धारण करना।
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अनुस्मरण  : पुं० [सं० प्रा० स०] पुरानी और भूली हुई बातें फिर से प्रयत्न पूर्वक याद करना। स्मृति। (रि-कलेक्शन)
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अनुस्मारक  : पुं० [सं० प्रा० स०] वह जो स्मरण कराये या दिलाये। (रिमाइंडर)
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अनुस्मृति  : स्त्री० [सं० अनु√स्मृ(स्मरण करना)+क्तिन्]=अनुस्मरण।
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अनुस्यूत  : वि० [सं० अनु√सिव्(सोना)+क्त] १. सिला हुआ। २. गूँथा या पिरोया हुआ। ३. क्रम-बद्ध।
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अनुस्वार  : पुं० [सं० अनु√स्वृ(शब्द)+घञ्] १. स्वर एक बाद उच्चरित होने वाला एक अनुनासिक वर्ण, जिसका चिन्ह (-०) है। २. देवनागिरी लिपि में, अक्षर के ऊपर की बिंदी, जो उक्त वर्ण की सूचक होती है।
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अनुहरण  : पुं० [सं० अनु√हृ (हरण करना)+ल्युट्-अन] १. अनुकरण। नकल। २. समानता। ३. अनुकूल होना।
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अनुहरना  : स० [सं० अनुहरण] १. अनुसरण करना। उदाहरण—स्वारथ सहित सनेह सब, रुचि अनुहरत अचार।—तुलसी। २. नकल करना। ३. अनुकूल करना। उदाहरण—तन अनुहरत सुचंदन खोरी।—तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुहरिया  : वि० [सं० अनुहार] किसी के अनुहार पर होनेवाला समान रूपवाला। स्त्री०=अनुहार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनुहार  : वि० [सं० अत्या० स०] १. सदृश, तुल्य। समान। २. अनुसार। अनुकूल। क्रि० वि० किसी के समान या सदृश। स्त्री० [अनु√हृ (हरण करना)+घञ्] १. भेद। प्रकार। २. चेहरे की बनावट। मुखरी। ३. सादृश्य। ४. किसी चीज की ज्यों की त्यों नकल। प्रतिकृति। ५. रचना। बनावट।
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अनुहारक  : पुं० [सं० अनु√हृ+ण्युल्-अक] वह जो अनुकरण या नकल करे।
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अनुहारना*  : स० [सं० अनुहारण] तुल्य, समान या सदृश करना।
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अनुहारी (रिन्)  : पुं० [सं० अनु√हृ+णिनि] [स्त्री० अनुहारिणी] १. वह जो अनुकरण करे। नकल करनेवाला। २. वह जो किसी के अनुरूप या अनुकरण पर बना हो।
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अनुहार्य  : वि० [सं० अनु√हृ+ण्यत्] जिसका अनुकरण या अनुहार होने को हो या हो सकता हो।
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अनूअर  : अव्य=अनवरत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनूक  : पुं० [सं० अनु√उच् (समूह)+क, नि० कुत्व] १. पूर्व जन्म। २. कुल। वंश। ३. शील। स्वभाव। ४. पीठ में की रीढ़। ५. मेहराव के बीच का पत्थर।
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अनूक्त  : भू० कृ० [सं० अनु-उक्त,प्रा० स०] १. जिसका उच्चारण पीछे या बाद में हुआ हो। पीछे या बाद में कहा हुआ। २. पढ़ा। हुआ।
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अनूक्ति  : स्त्री० [सं० अनु-उक्ति, प्रा० स०] १. किसी की कही हुई बात के बाद कही जानेवाली बात।
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अनूचान  : पुं० [सं० अनु√यच् (बोलना)+कानच्,नि] १. वह स्नातक जो वेद-वेदांग में पारंगत होकर गुरूकुल से निकला हो। २. पंडित। विद्वान। ३. सच्चरित्र। सुशील।
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अनूजरा  : वि० [सं० अनु-उज्जवल] जो उजला या स्वच्छ न हो। अर्थात् मैला।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनूठा  : वि० [सं० अनुच्छिष्ट] [स्त्री० अनूठी, भाव० अनूठापन] १. जो अपनी विलक्षणता, विशिष्टता आदि के कारण हमें चकित और प्रसन्न कर दे। अनोखा। (सिग्युलर) २. अच्छा। बढ़िया। ३. असाधारण प्रकार का।
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अनूठापन  : पुं० [हिं० अनूठा+पन (प्रत्यय)] अनूठे होने की अवस्था या भाव।
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अनूढ़  : वि० [सं० अनु√वह् (ढोना)+क्त] जो वहन न किया गया हो।
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अनूढ़ा  : स्त्री० [सं० अनुढ़+टाप्] साहित्य में, वह नायिका जिसका अभी विवाह न हुआ हो परन्तु जो किसी पुरुष से प्रेम करती हो तथा उससे विवाह करना चाहती हो। यथा-देहि जौ ब्याह, उछोह सों मोहनै। मात पिताहू के सो मन कीजै। सुंदर साँवरो नंदकुमार, बसै उर जो वर सो वर दीजै।
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अनूदन  : पं० [सं० अनुवदन] [भू० कृ० अनूदित] १. किसी की कही बात फिर से कहना या दोहराना। २. अनुवाद या उत्था करना। तर्जुमा करना। ३.किसी विचार या भावना को क्रियात्मक या मूर्त रूप देना। (ट्रान्सलेशन) जैसे—जीवन की स्फूर्ति का कला या काव्य में अनूदन।
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अनूदित  : भू० कृ० [सं० अनु√वद् (बोलना)+क्त] १. किसी के बाद या उसके अनुरूप कहा हुआ। २. अनुवाद के रूप में किया या लाया हुआ। भाषांतरित। ३.जिससे अनुवाद किया गया हो।
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अनून  : वि० [सं० न-ऊन, न० त०] १. जो न्यून या कम न हो। २. जो किसी से घट कर न हो। ३. अखंड। पूरा। सारा।
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अनूप  : वि० [सं० अनुपम] १. जिसकी कोई उपमा न हो सकती हो। उपमा-रहित। २. अद्वितीय। निराला। ३. अति सुन्दर। वि० [सं० अनु-आप, प्रा० ब० अच्, ऊत्व] १. जल के पास या निकट वाला। २. जिसमें जल की अधिकता हो। ३. दलदलवाला। पुं० १. वह स्थान जहाँ जल अधिक हो। जल-प्राय देश। २. तालाब। ३. दलदल। ४. मेढ़क। ५. किनारा। ६. तीतर की जाति का पक्षी। ७. हाथी। ८. भैंस। ९. नर्मदा घाटी का पुराना नाम।
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अनूप नराच  : पुं० [सं० ] पंच-चामर (छंद) का एक भेद या रूप जिसके प्रत्येक चरण में ज, र, ज, र, ज और गुरु होता है।
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अनूपम  : वि० =अनुपम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनूपान  : पुं०=अनुपान।
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अनूरु  : वि० [सं० न-ऊरू, न० ब०] जिसे उरु या जाँघ न हो। बिना जाँघ का। पुं० १. अरुणोदय। २. सूर्य का सारथी, अरुण।
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अनूर्जित  : वि० [सं० न-ऊर्जित, न० त०] १. जो ऊर्जित अर्थात् बली या शक्ति संपन्न न हो, फलतः असक्त या कमजोर। २. जिसे अभिमान या अहंकार न हो।
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अनूर्ध्व  : वि० [सं० न-ऊर्ध्व, न० त०] जो ऊर्ध्व या ऊँचा न हो, फलतः नीचा।
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अनूर्मि  : वि० [सं० न-ऊह, न० ब०] १. जिसमें ऊर्मि या तरंग न उठती हो। ऊर्मि रहित। २. जिसका उल्लंघन न किया जा सके।
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अनूह  : वि० [सं० न-ऊह, न० ब०] जिसके संबंध में तर्क-वितर्क या विचार न हुआ हो न हो सके। असावधान।
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अनृजु  : वि० [सं० न-ऋजु, न० त०] १. जो ऋजु या सीधा न हो। टेढ़ा। २. चिड़चिड़ा। ३. बेईमान।
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अनृण  : वि० [सं० न-ऋण, न० ब०] जो ऋण ग्रस्त न हो।
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अनृणी (णिन्)  : वि० [सं० न-ऋणिन्, न० त०]=अनृण।
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अनृत  : वि० [सं० न-ऋत,न० त०] १. जो ऋत या सत्य न हो। फलतः झूठा या मिथ्या। २. अन्यथा। विपरीत। पुं० असत्य। झूठ।
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अनृतक  : पुं० [सं० अनृत+कन्] १. असत्य या झूठ बोलनेवाला व्यक्ति। २. ठग। ३. बेईमान।
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अनृतवादी (दिन्)  : पुं० [सं० अनृत√वद् (बोलना)+णिनि] वह जो झूठ बोलता हो। मिथ्यावादी।
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अनृती(तिन्)  : पुं० [सं० अनृत+इनि]=अनृतक।
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अनृतु  : स्त्री० [सं० न-ऋतु, न० त०] १. उचित या उपयुक्त ऋतु का अभाव। २. स्त्री में ऋतु (या रजोधर्म) का न होना। ३. किसी काम के लिए उपयुक्त समय का अभाव। वि० १. जिसके लिए ऋतु उपयुक्त न हो। २. जो अपनी उपयुक्त ऋतु या समय में न होकर उससे पहले या पीछे होता हो। अनरितु।
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अनृशंस  : वि० [सं० अनृशंस+अण्] [भाव० आनृशंस्य] जो नृशंस न हो। (अर्थात् करुण या दयालु)।
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अनेऊ  : वि० [सं० अनिष्ट] बुरा। खराब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनेक  : वि० [सं० न-एक, न० त०] १. (संख्या में) एक नहीं बल्कि उससे अधिक। कई। जैसे—आपको पहले भी कई बार समझाया गया है। २. (संख्या में) बहुत। जैसे—आकाश में अनेक तारागण या नक्षत्र समूह हैं। पद—अनेकानेक=बहुत अधिक।
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अनेक-चर  : वि० [सं० अनेक√चर् (गति, भक्षण)+ट] झुंड या समूह बनाकर रहनेवाला। (जीव या जंतु)।
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अनेक-चित्त  : वि० [ब० सं० ] १. जिसका मन किसी एक स्थान, मत, विचार-आदि पर न टिकता हो। चंचल चित्तवाला। २. अनेक मनोरथ। बहु-संकल्प।
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अनेक-भार्य  : पुं० [ब० सं० ] वह जिसकी कई भार्याएँ (पत्नियाँ) हों।
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अनेक-मुख  : पुं० [ब० सं० ] १. वह जिसके कई मुख हों। २. वह जिसके कई मुख या प्रवृत्तियाँ कई ओर हों।
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अनेक-रूप  : पुं० [ब० सं० ] वह जिसके कई आकार, प्रकार, भेद या रूप हों। अनेक रूप धारण करनेवाला, परमेश्वर। वि० १. परिवर्तनशील। २. अस्थिर।
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अनेक-लोचन  : पुं० [ब० सं० ] १. वह जिसके कई नेत्र हों। जैसे—इंद्र, शिव। २. विराट् पुरुष।
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अनेक-वचन  : पुं० [कर्म० स०] बहुवचन। (व्या०)
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अनेक-वर्ण  : वि० [ब० सं० ] जिसके कई रंग या वर्ण हों। पुं० बीजगणित में ऐसे कई वर्णों या अक्षरों का वर्ग जो अज्ञात राशियों के सूचक हों। जैसे—क+ख-ग=घ।
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अनेक-विध  : वि० [ब० सं० ] जिसमें या जिसके कई प्रकार हों। कई तरह का।
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अनेक-साधारण  : वि० [सं० त०] जो कइयों या बहुतों में समान या साधारण रूप में पाया जाए।
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अनेकज  : वि० [सं० अनेक√जन् (उत्पन्न करना)+ड] जिसका कई बार जन्म हुआ हो। पुं० पक्षी।
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अनेकत्र  : अव्य० [सं० अनेक+त्रल्] कई स्थानों पर। कई जगह।
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अनेकप  : पुं० [सं० अनेक√पा(पीना)+क] हाथी।
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अनेकाकार  : वि० [सं० अनेक-आकार, ब० स०] जिसके कई रूप हों।
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अनेकाकी (किन्)  : वि० [सं० न-एकाकी, न० त०] जो अकेला न हो। अनेकों से युक्त।
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अनेकाक्षर  : वि० [सं० अनेक-अक्षर, ब० स०] कई अक्षरोंवाला (शब्द)।
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अनेकांगी (गिन्)  : पुं० [सं० अनेक-अंग, कर्म० स०+इनि] वह जिसके कई या बहुत से अंग, खंड या भाग हों।
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अनेकाग्र  : वि० [सं० न-एकाग्र, न० त०] कई कामों में लगा हुआ।
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अनेकांत  : वि० [सं० न-एकान्त, न० ब०] (स्थान) जहाँ एकान्त न हों। ‘एकान्त’ का विपर्याय। वि० [सं० न-अन्त,ब० स०] १. जिसके अंत में अनेक हों। अनेक अंतोंवाला। २. जिसका अंत अनेक रूपों में हों। ३. अस्थिर। चंचल।
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अनेकांत-वाद  : पुं० [सं० ष०त०] [वि०, कर्त्ता अनेकांतवादी] जैनदर्शन में स्याद्वाद।
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अनेकार्थ  : वि० [सं० अनेक-अर्थ, ब० स० कप्] जिसके अनेक अर्थ हों। अनेक अर्थोंवाला (शब्द या वाक्य)
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अनेकार्थक  : वि० [सं० अनेक-अर्थ, ब० स० कप्]=अनेकार्थ।
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अनेकाश्रय  : वि० [सं० अनेक-आश्रय, ब० स०] कइयों के आश्रय में रहनेवाला।
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अनेग  : वि० =अनेक।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनेड  : वि० [सं० न-एड, न० त०] १. मूर्ख। २. बुरा। खराब। उदाहरण— पिय का मारग सुगम है, तेरा चलन अनेड़।—कबीर। वि० [सं० अनृत] १. असत्य। मिथ्या। २. मिथ्याभाषी।
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अनेता  : पुं० [देश] मालती नामक लता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अनेरा  : वि० [सं० अनृत] [स्त्री० अनेरी] १. झूठ। २. झूठा। मिथ्याभाषी। ३.यों ही। व्यर्थ। निष्प्रयोजन। उदाहरण—चरन सरोज बिसारि तुम्हारी, निशदिन फिरत अनेरो।—तुलसी। ४. निकम्मा। ५. अन्यायी। अत्याचारी। ६. दुष्ट। पाजी। क्रि० वि० व्यर्थ। फजूल।
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अनेला  : वि० =अलबेला।
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अनेस  : वि० [सं० अनिष्ट]=अनेक। उदाहरण—मीराँ के प्रभु राम मिलण कूँ जीवनि जनम अनेस।—मीराँ। पुं० [फा० अन्देशः] आशंका। डर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनेह  : पुं० [सं० अ+स्नेह] [वि० अनेही] १. स्नेह या प्रेम का अभाव। २. विरक्ति। पुं० [सं० अनेहस्] समय। उदाहरण—अमावसि सावन मास अनेह। मच्यो इम बुंदिय खग्गन मेह।—कविराजा सूर्यमल।
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अनेहा (हस्)  : पुं० [सं० √हन् (हिंसा)+असि, इहादेश, न० त०] काल। समय।
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अनेही  : वि० [हिं० अनेह] स्नेह न करनेवाला।
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अनै  : स्त्री० [सं० अ-नय] १. नीति-विरुद्ध आचरण या बात। २. उपद्रव। उत्पात। उदाहरण—जा कारन सुन सुत सुंदरवर कीन्हीं इतीं अनैहो।—सूर। वि० [सं० अन्य] अन्य। दूसरा। उदाहरण—त्रिया अनै प्रेम आतुरी।—प्रिथीराज।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनैकांतिकहेतु  : पुं० [सं० एकान्त+ठक्-इक, वृद्धि, न० त० अनैकांतिक-हेतु, कर्म० स०] न्याय के पाँच हेत्वाभासों में से वह हेतु जो साध्य का एकमात्र साधन भूत न हो।
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अनैक्य  : पुं० [सं० न-ऐक्य, न० त०] १. एकता या एका न होना। २. मतभेद। फूट।
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अनैच्छिक  : वि० [सं० न-ऐच्छिक, न० त०] जो इच्छापूर्वक या जानबूझ कर न किया गया हो, बल्कि दूसरें की इच्छा से या परिस्थितियों आदि से विवश होने पर किया गया हो। (अन-वालेन्टरी)
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अनैठ  : पुं० [सं० अन्=नहीं+पण्यस्थ, पा० पञ्ञट्ठ, हिं० पैठ] बाजार न लगने का दिन। वह दिन जिस में दिन पैंठ या बाजार न लगता हो।
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अनैतिक  : वि० [सं० न० त०] जो नीति संगत न हो। नीति-विरुद्ध।
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अनैतिकता  : स्त्री० [सं० अनैतिक+तल्-टाप्] नैतिकता, सदाचार का अभाव। अनाचार। (इम्माँरैलिटी)
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अनैतिहासिक  : वि० [सं० न-ऐतिहासिक,न० त०] जो इतिहास से सिद्ध न हो अथवा उसके अनुरूप न हो या उसमें न आया हो।
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अनैश्वर्य  : पुं० [सं० न-ऐश्वर्य, न० त०] १. ऐश्वर्य या बड़प्पन का अभाव। अप्रभुत्व। २. संपत्ति का न होना। ३. योग में, ऐश्वर्य आदि सिद्धियाँ प्राप्त न होना।
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अनैस  : वि० [स्त्री० अनैसी]=अनेस।
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अनैसना  : अ० [हिं० अनैस] १. बुरा मानना। २. रूठना।
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अनैसर्गिक  : वि० [सं० न० त०] १. निसर्ग या प्रकृति के विरुद्ध या उससे अलग। अप्राकृतिक। २. प्रकृति या स्वभाव के विरुद्ध। अस्वाभाविक। (अन्नैचुरल)
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अनैसा  : वि० =अनेस। पुं०=अंदेशा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनैसी  : स्त्री० [हिं० अनैस] अनिष्ट या बुरा होने की अवस्था या भाव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनैसे  : क्रि० वि० [हिं० अनैस] १. बुरे भाव या विचार से। २. बुरी तरह से।
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अनैहा  : पुं० [हिं० अनैस] १. उत्पात। उपद्रव। २. दुष्टता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनोखा  : वि० [सं० अन्+ईश्=देखना] [स्त्री० अनोखी] १. जिसे पहले कभी देखा न हो। २. जो सहसा देखने में न आता हो। ३. जो अपनी विलक्षणता या अप्रसमता के कारण आश्चर्य-चकित करे। ४. अज्ञात। अपरिचित। ५. विशिष्ट।
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अनोखापन  : पुं० [हिं० अनोखा+पन (प्रत्यय)] अनोखे होने की अवस्था या भाव। अनूठापन। विचित्रता। विलक्षणता।
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अनोय  : पुं० [सं० अन्वेषण] खोज।
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अनोसर  : पुं० [हिं० अन+सं० अवसर] वैष्णव-मंदिरों में, देव मूर्ति के समय की वह स्थिति जब मूर्ति के सामने परदा गिरा या द्वार बंद रहता है। २. देव-मूर्ति के दर्शनों के लिए अनुपयुक्त समय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनौचित्य  : पुं० [सं० न-औचित्य, न० त०] अनुचित होने का भाव। नामुनासिब होना।
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अनौट  : स्त्री०=अनवट।
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अनौद्वत्य  : पुं० [सं० न-औद्वत्य, न० त०] उद्वत होने की अवस्था या भाव।
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अनौधि  : अव्य [हिं० अन+सं० अवधि] बिना विलंब किए। तुरंत। शीघ्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अनौपचारिक  : वि० [सं० न-औपचारिक, न० त०] [भाव० अनौपचारिकता] जो उपचार के रूप में या औपचारिक न हो। औपचारिक का विपर्याय। (इन-फारमल)
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अनौपम्य  : वि० [सं० न-औपम्य, न० ब०] जिसकी उपमा न दी जा सके। अनुपम। पुं० अनुपम होने की दशा या भाव।
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अनौरस  : वि० [सं० न-औरस, न० त०] १. जो औरस (विवाहित पत्नी) से उत्पन्न हुआ हो। २. अवैध या गोद लिया हुआ (पुत्र)।
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अनौहैं  : क्रि० वि० [सं० अग्रमुख) १. आगे। सामने। २. आगे से। सामने से।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्न  : पुं० [सं०√अन् (जीना)+नन् या√यद्(खाना)+क्त] १. कुछ पौधों के वे विशिष्ट दाने जो मनुष्य के भोजन के काम आते हैं। (ग्रेन) जैसे—गेहूँ, चावल, दाल आदि। २. पकाया हुआ अन्न। ३. भात। ४. सूर्य। ५. विष्णु। ६. प्राण। ७. पृथ्वी। ८. जल। वि० [सं० अन्य] १. अन्य। दूसरा। २. विरुद्ध।
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अन्न-कूट  : पुं० [ष० त०] १. अन्न का ढेर या राशि। २. कार्त्तिक शुक्ल प्रतिपदा को होने वाला एक पर्व जिसमें अनेक प्रकार के भोजन व पकवान बनाकर देवता के सामने राशियों के रूप में रखे जाते हैं। विशेष—यह पर्व कार्त्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक किसी दिन मनाया जा सकता है।
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अन्न-कोष्ठ  : पुं० [ष० त०] १. अन्न रखने का स्थान या कोठरी। धान्यागार। २. कोठिला। बखार। ३. गंज। गोला।
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अन्न-गंधि  : स्त्री० [ब० स] अतिसार (रोग)।
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अन्न-चोर  : पुं० [ष० त०] वह व्यक्ति जो अन्न छुपाकर रखता हो, तथा चोर बाजार में मँहगे भाव बेचता हो।
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अन्न-छेत्र  : पुं० दे० ‘अन्न-सत्र’।
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अन्न-जल  : पुं० [द्व० स०] १. खाने-पीने की सामग्री। २. जीविका। ३. कहीं रहकर वहाँ खाने-पीने की स्थिति। मुहावरा—अन्न-जल उठना=एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान पर जाना। जैसे—हमारा यहाँ से अन्न-जल उठ गया है। अन्न-जल छोड़ना या त्यागना=उपवास करना।
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अन्न-जीवी (विन्)  : पुं० [सं० अन्न√जीव् (जीना)+णिनि] वह जो केवल अन्न खाकर जीवन निर्वाह करता हो।
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अन्न-दाता (तृ)  : पुं० [ष० त०] १. अन्न दान करनेवाला। २. अन्न देकर पालने-पोसनेवाला।
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अन्न-दास  : पुं० [मध्य० स०] भोजन-मात्र लेकर काम करनेवाला नौकर।
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अन्न-दोष  : पुं० [ष० त०] १. अन्न का सेवन करने से उत्पन्न होनेवाला शारीरिक विकार। २. वह दोष या दुर्गुण जो निषिद्ध स्थान या व्यक्ति का अन्न खाने से होता हैं।
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अन्न-द्वेष  : पुं० [तृ० त०] १. अन्न से अरुचि होना। २. भूख न लगना।
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अन्न-पति  : पुं० [ष० त०] १. अन्न का स्वामी। २. सूर्य। ३. अग्नि। ४. शिव।
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अन्न-पाक  : पुं० [ष० त०] १. अन्न पकाने की क्रिया या भाव। २. पेट में अन्न-पाचन होने की क्रिया या भाव।
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अन्न-पूर्णा  : स्त्री० [तृ० त०] शिव की पत्नी जो सबको भोजन देनेवाली मानी जाती है।
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अन्न-प्राशन  : पुं० [ष० त०] वह संस्कार जिसमें छोटे बच्चों के मुँह अन्न पहले-पहल लगाया जाता है।
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अन्न-मेल  : पुं० [ष० त०] १. निष्ठा। २. यव आदि से बनी हुई मदिरा। शराब।
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अन्न-वस्त्र  : पुं० [द्व० स०] खाने-पीने, कपड़े पहनने और रहने-सहने की सामग्री अथवा व्यय। रोटी-कपड़ा।
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अन्न-शाला  : स्त्री० [ष० त०] १. अनाज रखने का स्थान। अन्न का भंडार। २. किसी देश का वह क्षेत्र जिसमें बहुत अधिक अनाज होता हो और जहाँ से दूसरों स्थानों को भेजा जाता हो। (ग्रेनरी)
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अन्न-शेष  : पुं० [ष० त०] १. जूठन। २. भूसी, चोकर आदि।
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अन्न-सत्र  : पुं० [ष० त०] वह स्थान जहाँ दरिद्रों को पका हुआ भोजन दिया या खिलाया जाता है।
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अन्नथा  : अव्य=अन्यथा।
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अन्नद  : वि० [सं० अन्न√दा (देना)+क] अन्न देनेवाला।
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अन्नदा  : स्त्री० [सं० अन्नद+टाप्] १. अन्न देनेवाली स्त्री। २. अन्नपूर्णा। ३. दुर्गा।
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अन्नपूर्णश्वरी  : स्त्री० [अन्नपूर्णा-ईश्वरी, कर्म० स०] १. अन्नपूर्णा। २. एक भैरवी का नाम। (तंत्र)
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अन्नमयकोश  : पुं० [सं० अन्नमय,अन्न+मयट्, अन्नमय-कोश, कर्म० स०] वेदान्त में, आत्मा को आवृत्त करनेवाले पाँच कोषों में से एक जो स्थूल शरीर के रूप में माना गया है। विशेष—स्थूल शरीर माता-पिता के खाये हुए अन्न और उससे बने हुए रजवीर्य से बनता हैं।
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अन्ना  : स्त्री० [सं० अग्नि] वह अँगीठी जिसमें चाँदी, सोना आदि धातुएँ तपाई जाती हैं। स्त्री० [सं० अम्ब] दाई। धाय।
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अन्नाद  : पुं० [सं० अन्न√अद् (खाना)+अण्] १. वह जो सबको ग्रहण करे, ईश्वर। २. विष्णु। वि० अन्न खानेवाला। अन्न भोजी।
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अन्नियाय  : वि० =अन्याय। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्नोदक  : पुं० [सं० अन्न-उदक, द्व० स०]=अन्न जल।
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अन्य  : वि० [सं०√अन् (जीना)+य] १. उद्दिष्टि या प्रस्तुत को छोड़कर। और कोई। दूसरा। इतर। भिन्न। २. बादवाला। ३.अवशिष्ट। बचा हुआ।
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अन्य-चित्त  : वि० [ब० स०]=अन्यमनस्क।
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अन्य-जात  : वि० [ष० त०] (वस्तु) जो खो या नष्ट हो चुकी हो।
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अन्य-पुरुष  : पुं० [कर्म० स०] व्याकरण में (वक्ता और श्रोता से भिन्न) वह व्यक्ति या वस्तु जिसके विषय में कुछ कहा जाए। (थर्डपरसन)।
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अन्य-पुष्ट  : वि० [तृ० त०] जिसका पोषण किसी और के द्वारा हुआ हो। पुं० कोकिल। कोयल।
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अन्य-पूर्वा  : स्त्री० [ब० स० टाप्] १. एक को ब्याही जाकर या वास्तव होकर फिर दूसरी से ब्याही जाने वाली कन्या। २. पुनर्विवाह करने वाली स्त्री। पुनर्भू।
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अन्य-भृत  : वि० [सं० अन्य√भू० (पोषण करना)+क्विप्] दूसरे का पालन करनेवाला। पुं० काक। कौआ।
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अन्य-मना (नस्)  : वि०=अन्यमनस्क।
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अन्य-मानस  : वि०=अन्यमनस्क।
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अन्य-वाप  : पुं० [ब० स०] कोयल।
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अन्य-संगम  : पुं० [तृ० त०] अपनी पत्नी या पति को छोड़कर किसी दूसरे के साथ होनेवाला अवैध लैगिंक संबंध।
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अन्य-संभोग-दुःखिता  : स्त्री० [सं० अन्य-संभोग, तृ० त० अन्य संभोग-दुःखिता, तृ० त०] साहित्य में, वह नायिका जो किसी दूसरी स्त्री के लक्षणों से यह जान ले कि इसने मेरे पति के साथ संभोग किया है और इस कारण से दुःखी हो।
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अन्य-साधारण  : वि० [सं० त०] बहुतों में होने या पाया जानेवाला।
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अन्य-सुरति-दुःखिता  : स्त्री० [अन्य-सुरति, तृ० त०, अन्य-सुरति-दुःखिता, तृ० त०] दे० ‘अन्य-संभोग-दुःखिता’।
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अन्यग  : पुं० [सं० अन्य√गम् (जाना)+ड] [स्त्री० अन्यगा] अन्य स्त्री के पास जाने या उससे संबंध रखनेवाला व्यक्ति। व्यभिचारी।
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अन्यगामी (मिन्)  : पुं० [सं० अन्य√गम् (जाना)+णिनि] [स्त्री० अन्यगामिनी] दे० ‘अन्यग’।
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अन्यच्च  : अव्य० [सं० अन्यत्-च, द्व० स०] १. और भी। २. इसके सिवा।
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अन्यतः  : क्रि० वि० [सं० अन्य+तमप्] १. किसी और के द्वारा। दूसरे से। २. किसी और स्थान से।
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अन्यतम  : क्रि० वि० [सं० अन्य+तमप्] जो किसी की तुलना में अन्य या दूसरा न ठहरे, अर्थात् सर्वश्रेष्ठ। पहला और श्रेष्ठ।
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अन्यतर  : वि० [सं० अन्य+तरप्] १. दो में से कोई एक। २. दूसरा। अलग, भिन्न।
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अन्यत्र  : अव्य० [सं० अन्य+वल्] किसी और स्थान पर। किसी दूसरी जगह।
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अन्यत्व  : पुं० [सं० अन्य+त्व] अन्य या दूसरा होने की अवस्था या भाव।
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अन्यत्व-भावना  : स्त्री० [ष० त०] जीवात्मा को शरीर से भिन्न समझना। (जैन)
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अन्यथा  : अव्य० [सं० अन्य+थाच्] दूसरी या विपरीत अवस्था में। नहीं तो। (अदरवाइज) वि० १. विपरीत। उलटा। २. सत्य या वास्तविक से विपरीत। मिथ्या। झूठ। मुहावरा—अन्यथा करना=पहले की आज्ञा या निश्चय रद्द करना या उलटना। (सेट एसाइड)।
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अन्यथा-भाव  : पुं० [तृ० त०] अन्य, दूसरे या भिन्न रूप में होना।
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अन्यथा-सिद्धि  : स्त्री० [तृ० त०] न्याय या तर्क में, किसी अ-यथार्थ या अ-प्रत्यक्ष कारण के आधार पर कोई बात सिद्ध करना, जो दोष माना गया है।
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अन्यदीय  : वि० [सं० अन्य+छ-ईय० दुक्] अन्य या दूसरे का। पराया।
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अन्यबीजज  : पुं० [अन्य-बीज, ष० त० अन्यबीज√जन् (उत्पन्न होना)+ड] दत्तक पुत्र।
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अन्यमनस्क  : वि० [ब० स० कप्] जिसका ध्यान और मन किसी दूसरी तरफ हो। अन-मना।
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अन्यमातृज  : वि० [वि० -मातृ, कर्म० स० अन्यमातृ√जन् (उत्पन्न होना)+ड] दूसरी या सौतेली माता से उत्पन्न।
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अन्यवादी (दिन्)  : वि० [सं० अन्य√वद् (बोलना)+णिनि] झूठी गवाही देनेवाला। पुं० प्रतिवादी।
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अन्यस  : अव्य०=अन्य को। उदाहरण—भजिए कान मूँदकर अन्यस।—निराला।
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अन्याई  : वि० =अन्यायी। उदाहरण—बहुत करी अन्याई।—सूर। स्त्री०=अन्याय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्यापदेश  : पुं० [अन्य-अपदेश, ष० त०] दे०‘अन्योक्ति’ (अलंकार)।
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अन्याय  : पुं० [सं० न० त०] १. न्याय न करने या होने की क्रिया या भाव। २. ऐसा आचरण या कार्य जो न्याय संगत न हो। ३. दूसरे के साथ किया जानेवाला अति अनुचित व्यवहार।
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अन्यायी (यिन्)  : वि० [सं० अन्याय+इनि] १. जो न्याय न करता हो। अन्याय करनेवाला। २. दूसरों के प्रति अनुचित व्यवहार करनेवाला।
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अन्याय्य  : वि० [सं० न० त०] जो न्याय-संगत न हो। न्याय-विरुद्ध।
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अन्यारा  : वि० [हिं० अ=नहीं+न्यारा] १. जो न्यारा या अलग न हो। मिला हुआ। २. अनोखा। विलक्षण। वि० [स्त्री० अन्यारी०] दे० ‘अनियारा’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)क्रि० वि० [१] बहुत। अधिक। उदाहरण— बढ़े बंस जग मँह अन्यारा। छत्र धर्मपुर को रखवारा।
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अन्यार्थ  : वि० [सं० अन्य+अर्थ, ब० स०] उद्दिष्ट अर्थ से भिन्न अर्थ भी प्रकट करने वाला। जिसका अर्थ कुछ और हो। पुं० उद्दिष्ट से भिन्न अर्थ।
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अन्याश्रित  : वि० [सं० अन्य-आश्रित, ष० त०] दूसरे पर आश्रित या अवलंबित।
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अन्यास  : अव्य=अनायास।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्यासाधारण  : वि० [अन्य-असाधारण, स० त०] १. जो बहुतों में न हो। असाधारण। २. विचित्र।
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अन्यून  : वि० [सं० न० त०] जो न्यून या कम न हो, फलतः यथेष्ट।
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अन्योक्ति  : स्त्री० [अन्य-उक्ति, च० त०] ऐसी व्यंग्यपूर्ण उक्ति जो कही तो किसी और के संबंध में जाए, पर इस ढ़ंग से कही जाए किसी दूसरे पर भी वह ठीक-ठाक घट जाए। अ-प्रत्यक्ष कथन। जैसे—(किसी दुष्ट वाचाल को सुनाकर) तोते से यह कहना कि तुम हरदम टे-टे करते रहते हों, कभी ‘राम’ का नाम नहीं लेते।
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अन्योन्य  : वि० [सं० अन्य, द्वित्व, सु का आगम, रूत्व उत्व, गुण] [भाव० अन्योन्यता] आपस में या एक-दूसरे से लिया दिया जानेवाला। (रेसिप्रोकल) पुं० साहित्य में, एक अलंकार जिसमें दो कार्यों, वस्तुओं आदि के एक दूसरे के कारण कार्य का संबंध बतालाया जाता है अथवा दोनों के एक दूसरे के प्रति समान रूप से कार्य करने का उल्लेख होता हैं। जैसे—(क) बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज होता है। (ख) चंद्रमा के बिना रात और रात के बिना चंद्रमा की शोभा नहीं होती।
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अन्योन्य-प्रजनन  : पुं० [ब० स०] विभिन्न जाति के पशुओं या पौधों के पारस्परिक संसर्ग द्वारा उत्पन्न पशु या पौधे। (क्रास-ब्रीडिंग)
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अन्योन्य-विभाग  : पुं० [स० त०] पैतृक संपत्ति का बँटवारा करने की क्रिया या भाव।
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अन्योन्यता  : स्त्री० [सं० अन्योन्य+तल्-टाप्] अन्योन्य होने या आपस में एक-दूसरे के साथ किए या लिये दिये जाने की अवस्था या भाव। (रेसिप्रोसिटी)
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अन्योन्याभाव  : पुं० [सं० अन्योन्य-अभाव, ष० त०] तर्कशास्त्र में इस बात का सूचक स्थिति कि जो कुछ एक वस्तु है वह दूसरी वस्तु नहीं हो सकती।
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अन्योन्याश्रय  : पुं० [अन्योन्य-आश्रय, ष० त०] १. दो वस्तुओं का आपस में या एक-दूसरे पर आश्रित होना। २. न्याय में, एक वस्तु के ज्ञान से दूसरी वस्तु का होनेवाला ज्ञान। सापेक्ष ज्ञान।
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अन्योन्याश्रयी (यिन्)  : वि० [अन्योन्य-आश्रित, ष० त०] दे० ‘अन्योन्याश्रयी’।
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अन्योवर्य  : वि० [सं० अन्य-उदर, कर्म० स० अन्योदर+यत्] दूसरे के पेट से उत्पन्न। सहोदर का विपर्याय।
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अन्वक्ष  : वि० [सं० अनु-अक्ष, गतिस० अच्] १. दृश्य। प्रत्यक्ष। २. अनुभवगम्य। ३. बाद का। पीछेवाला। क्रि० वि० [अव्य० स०] १. सामने। २. उपरांत। पीछे। बाद।
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अन्वय  : पुं० [सं० अनु√इ (गति)+अच्] [भू० कृ० अन्वित] १. दो वस्तुओं के आपस का संबंध या उनमें होनेवाली अनुरूपता। २. पद्य या कविता की वाक्य-रचना को गद्य की वाक्य-रचना के अनुसार बैठाने या ठीक करने की क्रिया। ३. किसी वाक्य की शब्दावली के अनुसार उसका ठीक और संगत अर्थ लगाना। ४. कार्य और कारण का पारस्परिक संबंध। ५. एक बात सिद्ध करने के लिए दूसरी बात की सिद्धि या उससे संबंध स्थापित करना। ६. अवकाश। ७. कुल। ८. वाक्य के शब्दों का पारस्परिक संबंध। (व्याकरण)
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अन्वय-व्यतिरेक  : पुं० [द्व० स०] १. नियम और अपवाद। २. संगति और असंगति।
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अन्वय-व्याप्ति  : स्त्री० [तृ० त०] निश्चयात्मक या स्वीकारात्मक तर्क।
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अन्वयागत  : वि० [अन्वय-आगत, प० त०]जो वंश-परंपरा से चला आ रहा हो। वंशानुक्रमिक।
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अन्वयार्थ  : पुं० [अन्वय-अर्थ, मध्य० स०] (पद या वाक्य का) अन्वय से निकलनेवाला अर्थ।
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अन्वयी (सिन्)  : वि० [सं० अन्वय+इनि] १. अन्वययुक्त। संबंद्ध। २. (वे कई) जो एक ही वंश से उत्पन्न हों।
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अन्वर्थ  : वि० [सं० अनु+अर्थ, अत्या० स०] १. (शब्द या पद) जो अर्थ का अनुगमन या अनुसरण करता हो। ठीक अर्थ में प्रयुक्त होनेवाला। यथार्थ और स्पष्ट। २. सार्थक।
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अन्वर्थता  : स्त्री० [सं० अन्वर्थ+तल्-टाप्] अन्वर्थ होने की अवस्था या भाव।
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अन्वष्टका  : स्त्री० [सं० अनु-अष्टका, अत्या० स०] एक मातृक श्राद्ध जो अष्टका के अनंतर पूस माघ, और फागुन की कृष्ण नवमी को किया जाता हैं।
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अन्वाख्यान  : पुं० [सं० अनु-आ√ख्या(प्रकथन)+ल्युट्-अन] १. मूल के अनुसार की हुई व्याख्या। २. सूक्ष्म लेखा। ३. पर्व। ४. अध्याय।
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अन्वादिष्ट  : वि० [सं० अनु-आ√दिश् (बताना)+क्त] जिसमें पहले किसी नियम की ओर संकेत किया गया हो।
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अन्वादेश  : पुं० [सं० अनु-आ√दिश्+घञ्] पहले के किसी नियम की ओर संकेत करना।
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अन्वाधान  : पुं० [सं० अनु-आ√धा (धारण)+ल्युट्-अन] अग्निहोत्र की अग्नि की स्थापना के बाद उसे बनाये रखने के लिए उसमें ईधन डालना।
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अन्वाधेय  : पुं० [सं० अनु-आ√धा+यत्] वह धन जो विवाह के पश्चात् नव वधू को उसके पति के घर से मिला हो।
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अन्वाय  : पुं० [सं० अनु√अय् (गति)+घञ्] सेना के किसी एक अंग की अधिकता। (अर्थशास्त्र)
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अन्वायन  : पुं० [सं० अनु-आ√अय्+ल्युट्-अन]=अन्वाधेय।
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अन्वारोहण  : पुं० [सं० अनु-आ√रूह(चढ़ना)+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे चलना या चढना। २. पति की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर की चिता पर चढ़ना।
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अन्वासन  : पुं० [सं० अनु-आ√आस्(बैठना)+ल्युट्-अन] १. किसी के पीछे आसन ग्रहण करना। पीछे बैठना। २. आराधना या सेवा करने का भाव। ३. धार्मिक कार्यो में रत या लगे रहना।
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अन्वाहार्य  : पुं० [सं० अनु-आ√हृ (हरण करना)+ण्यत्] १. यज्ञ में पुरोहित को दी जाने वाली दक्षिणा या भोजन। २. मासिक श्राद्ध।
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अन्वाहार्य-श्राद्ध  : पुं० [कर्म० स०] वह सपिंड श्राद्ध जो अमावस्या के लगभग किया जाता है। मासिक श्राद्ध।
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अन्वाहिक  : वि० [सं० आन्वाहिक] दैनिक।
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अन्वाहित  : वि० [सं० अनु-आ√धा (धारण करना)+क्त] वह द्रव्य जो उसके मालिक को देने के लिए दूसरे को सौंपा गया हो।
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अन्वित  : वि० [सं० अनु√इ (गति)+क्त] [भाव० अन्विति] १. जिसका अन्वय हुआ हो। २. मिला हुआ। युक्त। ३. किसी के साथ जुड़ा हुआ या पीछे लगा हुआ। ४. किसी तत्त्व या भाव से भरा या दबा हुआ अथवा अभिभूत। जैसे—विस्मयान्वित।
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अन्वितार्थ  : पुं० [अन्वित-अर्थ, कर्म० स०] १. अन्वय करने पर निकलने वाला अर्थ। २. अन्दर छिपा हुआ अर्थ। गूढ़ आशय।
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अन्विति  : स्त्री० [सं० अनु√इ+क्तिन्] १. अन्वित होने की अवस्था या भाव। २. किसी प्रकार की कृति, प्रभाव, फल आदि के रूप में दिखाई पड़ने वाली एकता, जिसके कारण वह खंडित या विकलांग न जान पड़े। ३. नाटक रचना शैली का एक सिद्धान्त, जिसके अनुसार नाटक का स्वरूप ऐसा समन्वित रखा जाता है कि वह कहीं से बेढ़ंगा, बोदा या भद्दा न जान पड़े। (यूनिटी) विशेष—अरस्तू ने नाटकों के लिए कथा-वस्तु, काल और देश की तीन अन्वितियाँ बतलाई हैं। इनका आशय यह है कि सारे नाटक की कथा-वस्तु ऐसी एक घटना जान पड़े जो एक ही काल और एक ही देश में घटित हुई हो।
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अन्विष्ट  : वि० [सं० अनु√इष् (इच्छा)+क्त] १. चाहा हुआ। इच्छित। २. जिसकी खोज हुई हो।
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अन्वीकृत  : वि० =‘अन्वित’।
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अन्वीक्षण  : पुं० [सं० अनु√ईक्ष् (देखना)+ल्युट्-अन] [कर्त्ता अन्वीक्षक] १. भली-भाँति देखना या सोचना समझना। २. किसी विषय या वस्तु के संबंध में होने वाली एक खोज। तलाश।
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अन्वीक्षा  : पुं० [सं० अनु√ईक्ष्+अङ-टाप्]=अन्वीक्षण।
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अन्वीक्ष्य  : वि० [सं० अनु√ईक्ष्+ण्यत्] १. जिसका अन्वीक्षण होने को हो या हो रहा हो। २. अन्वीक्षा किये जाने के योग्य।
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अन्वेष  : पुं० [सं० अनु√ईक्ष्(इच्छा)+घञ्] दे० ‘अन्वेषण’।
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अन्वेषक  : वि० [सं० अनु√इष्+ण्वुल्-अक] अनसंधान, अन्वेषण या छान-बीन करनेवाला।
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अन्वेषक-प्रकाश  : पुं० [सं० ] दे०‘विचयन प्रकाश’। (सर्चलाइट)
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अन्वेषण  : पुं० [सं० अनु√इष्+ल्युट्-अन] [कर्ता अन्वेषक, अन्वेषी] १. खोजना। ढूढ़ना। २. ऐसी अज्ञात अथवा दूर की बातों वस्तुओं स्थानों आदि का पता लगाना जो अब तक सामने न आई हों। (एक्सप्लोरेशन) ३. दे० ‘अनुसंधान’।
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अन्वेषणा  : स्त्री० [सं० अनु√इष्+युच्, अन-टाप्]=अन्वेषण।
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अन्वेषित  : भू० कृ० [सं० अनु√इष्+क्त] जिसका अन्वेषण हुआ हो।
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अन्वेषी (षिन्)  : वि० [सं० अनु√इष्+णिनि] अन्वेषण करनेवाला। अन्वेषक।
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अन्वेष्टव्य  : वि० [सं० अनु√इष्+तव्यम्] जिसका अन्वेषण होने को हो या किया जा सकता हो।
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अन्वेष्टा (ष्ट्र)  : वि० [सं० अनु√इष्+तृच्]=अन्वेषक।
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अन्वेष्य  : वि० [सं० अनु√इष्+ण्यत्]=अन्वेष्टव्य।
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अन्हरा  : वि० [सं० अंध] अंधा। नेत्रहीन। पुं० =अँधेरा (अंधकार)।
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अन्हवाना  : स०=नहलाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्हाना  : अ०=नहाना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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अन्हियारी  : स्त्री०=अँधियारी।
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