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कब  : अव्य० [सं० कदा] किस समय ? किस वक्त ? (प्रश्नात्मक) पद—कब का, कब के, कब से=बहुत देर से। जैसे—हम कब के (या कब से) तुम्हारे आसरे बैठे हैं। कब-कब=बहुत कम। प्रायः नहीं। जैसे—हम कब-कब आपके यहाँ आते हैं ? कब ऐसी हो, कब ऐसा करें=ज्योंही ऐसा हो त्योंही ऐसा करे। जैसे—कब वह मरे कब तुम मालिक बनो। विशेष—काकु अलंकार के रूप में प्रयुक्त होने पर ‘कब’ का अर्थ ‘कभी नहीं’ या ‘कदापि नहीं’ हो जाता है। जैसे—बीत गये सूखे में सावन भी भादौं भी, बादल तो आयेंगे, नदियाँ कब उमड़ेंगी।
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कबक  : पुं० [फा०] चकोर।
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कबड्डी  : स्त्री० [देश०] एक प्रसिद्ध भारतीय खेल जिसमें किसी स्थान को दो बराबर हिस्सों में बाँटकर दो दल अपना-अपना क्षेत्र बना लेते हैं। फिर क्रमशः एक क्षेत्र का खिलाड़ी दूसरे क्षेत्र में एक ही साँस में जाता है और विपक्षी दल के किसी खिलाड़ी को छूकर अपने क्षेत्र में लौट आने का प्रयत्न करता है।
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कबंध  : पुं० [सं० क√बंध् (बंधन)+अण्] १. ऐसा खाली धड़ जिसके ऊपर का सिर कट गया हो। रुंड। २. राहु नासक ग्रह जिसका सिर कटकर अलग हो चुका था। ३. पुराणानुसार एक प्रसिद्ध राक्षस जिसका सिर उसके धड़ के ऊपर नहीं, बल्कि उसके पेट के अन्दर था और जिसे रामचन्द्र ने दंडतवन में मारा था। ४. प्राचीन भारत में ऐसा योद्धा जो सिर कट जाने पर खाली धड़ से ही कुछ समय तक तलवार चलाता या लड़ता रहता था। ५. उदर। पेट। ६. बादल। मेघ। ७. जल। पानी। ८. एक प्रकार के केतु जो गिनती में 8 कहे गये हैं। ९. एक प्राचीन मुनि का नाम।
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कबंधज  : पुं० [सं० कबंध√जन् (उत्पन्न होता)+ड] वह व्यक्ति जिसका जन्म ऐसे कुल में हुआ हो जिसके किसी पूर्वज ने सिर कट जाने पर भी धड़ से ही युद्ध किया हो। कबंध के वंशज। जैसे—जोधपुर के राठौर कबंधज हैं।
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कबंधी (धिन्)  : पुं० [सं० कबंध+इनि] १. मरुत्। २. कात्यायन ऋषि।
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कबर  : अव्य० [कब+रे] १. किसी समय। कब। २. दुबारा कब। उदा०—तुमसे हमकूं कबर मिलोगे।—मीराँ। स्त्री० दे० ‘कब्र’।
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कबरा  : वि०=चित-कबरा।
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कबरिस्तान  : पुं० [फा० कब्रिस्तान] वह स्थान जहाँ मृत शरीर या शव गाड़े जाते हैं।
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कबरी  : स्त्री०=कवरी (चोटी)
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कबल  : अव्य० [अ० कब्ल] पहले। पूर्व। पेश्तर।
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कबहुँ  : क्रि० वि०=कभी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबहुँक  : क्रि० वि० १. कभी। २. कभी-कभी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबा  : पुं० [अ०] चोगे की तरह का एक प्रकार का लंबा ढीला पहनावा।
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कबाई  : पुं०=कब। स्त्री०=कब्र। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबाड  : पुं० [सं० कर्पट, प्रा० कप्पट=चिथड़ा] १. टूटी-फूटी या व्यर्थ की वस्तुओं का ढेर। २. अंड-बंड काम या व्यवसाय।
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कबाड़खाना  : पुं० [हिं०+फा०] १. वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार की बहुत-सी टूटी-फूटी तथा व्यर्थ की वस्तुएँ रखी गई हों। २. ऐसा स्थान जहां बहुत-सी चीजें अव्यवस्थित रूप में बिखरी पड़ी हों।
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कबाड़ा  : पुं० [हिं० कबाड] १. कूड़ा-कर्कट। २. झंझट। बखेड़ा। ३. अनुपयोगी या व्यर्थ का काम। उदा०—नहिं जानऊँ कछु अउर कबारू (कबाड़ा)।—तुलसी।
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कबाड़िया  : पुं० [हिं० कबाड़] १. वह जिसका व्यवसाय टूटी-फूटी या पुरानी वस्तुएँ खरीदना तथा बेचना हो। २. तुच्छ या निकृष्ट कार्य अथवा व्यवसाय करनेवाला व्यक्ति। वि० १. झगड़ालू। २. क्षुद्र। नीच।
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कबाड़ी  : पुं०=कबाड़िया।
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कबाब  : पुं० [अ०] सीकों पर भूनकर पकाया हुआ मांस। मुहा०—कबाब करना=बहुत कष्ट या दुःख देना। संतप्त करना। जलाना। कबाब होना=क्रोध से जल-भुन जाना। जैसे—मेरी बात सुनते ही वह कबाब हो गये।
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कबाब-चीनी  : स्त्री० [अ० कबाबा+हिं० चीनी] एक प्रकार की झाड़ी और उसके गोल छोटे दाने जो दवा के काम आते हैं।
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कबाबी  : वि० [अ० कबाब] १. कबाब बनाने तथा बेचनेवाला। २. कबाब खानेवाला। मांसभक्षी। जैसे—शराबी, कबाबी।
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कबाय  : =कबा (पहनावा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबायली  : पुं० [अ०] १. काबुल का रहनेवाला व्यक्ति। (काबुली)। २. पश्चिमी पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम में कुछ फिरकों के व्यक्ति। ३. किसी कबीले का आदमी। (दे० ‘कबीला’)
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कबार  : पुं० १.=कबाड़। २. दे० ‘कारोबार’। पुं० [देश०] एक प्रकार की झाड़ी या छोटा-पेड़।
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कबारना  : स०=उखाड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबारा  : पुं०=कबाड़ा।
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कबाल  : स्त्री० [देश०] खजूर का रेशा जिससे रस्से आदि बनते हैं।
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कबाहट  : स्त्री० दे० ‘कबाहत’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबाहत  : स्त्री० [अ०] १. बुराई। खराबी। २. कठिनता। मुश्किल। ३. अड़चन। बाधा। ४. झंझट। बखेड़ा।
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कबि  : पुं०=कवि।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबिका  : स्त्री०=कविका (लगाम)।
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कबित  : पुं०=कवित्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबिलनवी  : स्त्री०=किबलानुमा (दिग्दर्शक यंत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कबिलास  : पुं० [सं० क=स्वर्ग+विलास=ऐश्वर्य] १. स्वर्ग। उदा०—सात सहस हस्ती सिंहली। जिमि कबिलास एरापति बली।—जायसी। २. राजमहल के सब से ऊपरी भाग का वह विशिष्ट स्थान जहाँ राजा-रानी रहते थे। उदा०—सात खंड ऊप कबिलासू।—जायसी।
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कबीठ  : पुं० [सं० कपित्थ, प्रा० कविट्ठ] कैथ (पेड़ और फल)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबीर  : वि० [अ०] १. महान्। श्रेष्ठ। २. वयोवृद्ध। पुं० १. आचार्य रामानंद के एक प्रसिद्ध शिष्य जो ज्ञानमार्गी और संत कवि थे। इन्हीं के नाम से कबीर-पंथ नामक सम्प्रदाय चला। २. होली के समय गाया जानेवाला एक प्रकार का अश्लील गाना।
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कबीर-पंथी  : वि० [हिं० कबीर+पंथ] १. महात्मा कबीर के सिद्धांतों को माननेवाला। २. कबीर-पंथ का सदस्य।
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कबील  : पुं० [अ०] १. मनुष्य। २. समुदाय।
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कबीला  : पुं० [अ० कबीलः] १. झुंड। समूह। २. किसी एक कुल के सब लोग। जन। ३. पश्चिमी पाकिस्तान में रहनेवाली जातियाँ जो उक्त प्रकार के कुलों या जनों में बँटी हुई हैं। ४. कुटुंब। परिवार। स्त्री०=पत्नी। स्त्री।
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कबुलवाना  : स० [हिं० कबूलना का प्रे० रूप] १. किसी को कोई बात कबूल या स्वीकार करने में प्रवृत्त करना। २. दबाव डालकर किसी से कोई बात कहलवाना।
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कबुलाना  : स०=कबुलवाना।
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कबूतर  : पुं० [फा० सं० कपोतः] [स्त्री० कबूतरी] मझोले आकार का एक प्रसिद्ध पक्षी जो कई जातियों और रंगों का होता है। मुहा०—कबूतर की तरह लोटना=बहुत व्याकुल होना। तड़पना।
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कबूतर-झाड़  : पुं० [हिं० कबूतर+झाड़] पितपापड़े की तरह की एक झाड़ी।
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कबूतरखाना  : पुं० [फा०] एक प्रकार की खानेदार अलमारी जिसमें बहुत-से पालतू कबूतर रखे जाते हों। बड़ा दरबा।
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कबूतरबाज  : वि० [फा०] कबूतर पालने का शौकीन। कबूतर पालने तथ उड़ानेवाला।
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कबूतरबाजी  : स्त्री० [फा०] कबूतर पालने तथा उड़ाने की लत या शौक।
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कबूतरी  : स्त्री० [फा० कबूतर] १. कबूतर की मादा। २. नाचनेवाली स्त्री। नर्तकी। ३. सुंदर स्त्री। (बाजारू)
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कबूद  : वि० [फा०] नीला। कासनी। पुं० ऐसा बंसलोचन जो नीले रंग का हो। नीलकंठी।
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कबूदी  : वि० [फा०] नीलेरंग का। आसमानी।
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कबूल  : पुं० [अ०] कबूलने अर्थात् मानने या स्वीकार करने की क्रिया या भाव।
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कबूलना  : स० [अ० कबूल+ना (प्रत्य०)] स्वीकार करना। कही, देखी या सुनी हुई बात को मानना। यह कहना कि हाँ ऐसा हुआ था। स्वीकार करना।
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कबूलियत  : स्त्री० [अ० कुबुलियत] वह स्वीकृति-पत्र जो खेत का पट्टा लेनेवाला व्यक्ति लिखकर उस व्यक्ति को देता है जिससे वह खेत का पट्टा लिखाता है।
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कबूली  : स्त्री० [फा०] चने की दाल और चावल के योग से बनाई खिचड़ी।
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कबै  : क्रि० वि०=कभी। (व्रज) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कबौ  : क्रि० वि०=कभी। (पूरब) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कब्ज  : पुं० [अ०] १. पकड़कर अधिकार में करने की क्रिया या भाव। मुहा०—रूह कब्ज होना=होश गुम होना। रूह कब्ज करना=पकड़कर खींचना। ले जाना। २. पेट का वह विकार जिसके कारण पाखाना साफ नहीं होता। कोष्ठबद्धता। ३. मुसलमानी शासनकाल का एक सरकारी नियम, जिसके अनुसार कोई फौजी अफसर फौज के लिए किसी ज़मींदार से लगान वसूल करता था। ४. वह राजाज्ञा जिसके अनुसार फौजी अफसर को उक्त प्रकार से रुपया वसूल करने का अधिकार मिलता था।
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कब्जा  : पुं० [अ० कब्ज] १. किसी वस्तु पर होनेवाला ऐसा अधिकार जिसके अनुसार उस वस्तु का उपभोग किया जाता है। (पजेशन) जैसे—खेत या मकान पर होनेवाला कब्जा। २. औजार या हथियार का वह भाग जो हाथ या मुट्ठी में पकड़ा जाता है। मूठ। जैसे—कटार या तलवार का कब्जा। मुहा०—कब्जे पर हाथ डालना या रखना=कटार, तलवार आदि खींचने के लिए मूठ पर हाथ रखना। ३. लोहे पीतल आदि का बना हुआ एक प्रसिद्ध उपकरण जिससे चौखट के साथ पल्ले को कजा साजा है तथा जिसके कारण पल्ला घूमता है। कोंढा। ४. उक्त प्रकार का काम देनेवाला कोई उपकरण। ५. भुजदंड। मुश्क। ६. कुश्ती का एक पेच।
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कब्जादार  : पुं० [फा०] १. वह अधिकारी जिसका किसी चीज पर कब्जा हो। २. दखीलकार असामी। (अवध)। वि० (वस्तु) जिसमें कोई पल्ला खोलने और बंद करने के लिए कब्जा (कोढ़ा) लगा हो।
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कब्जियत  : स्त्री० [अ०] पेट में होनेवाला वह विकार जिसके कारण ठीक तरह से मल नहीं उतरता। कोष्ठबद्धता।
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कब्जुल वसूल  : पुं० [फा०] वह कागज जिस पर वसूल की हुई रकम लिखकर दी जाती है। भरपाई की रसीद।
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कब्र  : स्त्री० [अ०] १. शव को गाड़ने या दफनाने के लिए खोदा जाने वाला गढ्डा। मुहा०—कब्र का मुँह झाँकना या झाँक आना=मरते-मरते बचना। २. उक्त गड्ढें के ऊपर स्मृति के लिए बनाया हुआ चबूतरा। मुहा०—कब्र में पैर या पाँव लटकाना=(क) बहुत बुड्ढे होना। (ख) मरण समय निकट आना। कब्र से उठ कर आना=मरते मरते बचना। नया जीवन पाना।
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कब्रिस्तान  : पुं० [फा०] शव गाड़ने या दफनाने के लिए नियत स्थान।
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कब्ल  : अव्य [अ०] १. पहले। पेश्तर। २. आगे। पूर्व।
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