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की  : विभ० [हिं०] संबंधकारक का चिन्ह का स्त्री रूप। अव्य० १. अथवा। कि। या तो। २. क्या। उदाहरण—बाँको गढ़ भड़ बाँकड़ा हलो किया की होय।—बाँकीदास। स० हिं० भूतकालिक क्रिया ‘किया’ का स्त्री० रूप।
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कीक  : पुं० [अनु०] १. चीत्कार। चिल्लाहट। २. शोर-गुल।
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कीकट  : पुं० [सं० की√कट् (गति)+अच्] [स्त्री० कीकटी०] १. मगधप्रदेश का प्राचीन वैदिक नाम। २. [कीकट+अच्] उक्त देश में बसनेवाली प्राचीन अनार्य जाति। ३. घोड़ा। वि० १. गरीब। निर्धन। २. कृपण। कंजूस। ३. लालची। लोभी।
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कीकना  : अ० [अनु०] १. रोते हुए बच्चों का की-की शब्द करना। २. चीत्कार करना। चिल्लाना।
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कीकर  : पुं० [सं० किकराल]=बबूल (वृक्ष)।
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कीकरी  : स्त्री० [हिं० कीकर] १. एक प्रकार का कीकर या बबूल जिसकी पत्तियाँ बहुत छोटी होती है। २. कपड़ों में सजावट के लिए की जानेवाली एक प्रकार की सिलाई, जिसमें कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर लहरियादार कँगूरे बनाये जाते हैं।
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कीकश  : पुं० [सं० की√कश् (गति)+अच्] चांडाल।
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कीकस  : वि० [सं० की√कस् (गति)+अच्] १. कठिन। २. कठोर। पुं० १. हड्डी। २. एक प्रकार का कीड़ा।
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कीका  : पुं० =कीकान।
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कीकान  : पुं० [सं० केकाण (देश)] १. भारत के पश्चिमोत्तर भाग का एक प्रदेश जो किसी समय घोड़ों के लिए प्रसिद्ध था। २. उक्त प्रदेश का घोड़ा। ३. घोड़ा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीच  : पुं० =कीचड़।
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कीचक  : पुं० [सं० की√चक् (तृप्ति)+अच्] १. खोखला या पोला बाँस। २. राजा विराट का साला जो उसका सेनापति भी था।
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कीचड़  : पुं० [हिं० कीच+ड़ (प्रत्य)] १. किसी स्थल पर पानी, मिट्टी आदि के जमा होने पर बननेवाला गाढ़ा घोल। कर्दम। पंक। मुहावरा—(किसी पर कीचड़ उछालना=किसी को अपमानित करने के लिए उसके संबंध में इधर-उधर की झूठी-सच्ची निंदात्मक बातें कहना। २. किसी तरल वस्तु में का गाढ़ा मल। जैसे—(क) आँख का कीचड़। (ख) तेल का कीचड़। ३. विपत्ति या संकट की स्थिति। मुहावरा—कीचड़ में फसना=विपत्ति या संकट में पड़ना।
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कीचा  : पुं० =कीच (कीचड़)।
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कीट  : पुं० [सं०√कीट् (बनधन)+अच्] जमीन पर रेंगनेवाले बिना हाथ-पैर के छोटे-छोटे जंतु। कीड़े। पद—कीट-पतंग=रेगने और उड़नेवाले कीड़े। पुं० [सं० प्रा० किट्ट, उ० किटकिट, मरा० सिं० कीट, गु० कीटू] किसी चीज पर जमा हुआ मैल।
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कीट-नाशक  : वि० [ष० त०] कीड़ों कीटाणुओं आदि को नष्ट करनेवाला (पदार्थ)।
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कीट-भृंग-न्याय  : पुं० [सं० कीच-भृंग, मय० स० कीटभृंग-न्याय, ष० त०] दो या अधिक वस्तुओं का उसी प्रकार मिलकर एक रूप हो जाना जिस प्रकार भौंरा किसी कीड़े को पकड़कर (लोक प्रवाद के अनुसार) उसे बिलकुल अपनी तरह का बना लेता है।
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कीट-भोजी (जिन्)  : पुं० [सं० कीट√भुज् (खाना)+णिनि, उप० स०] ऐसे जीव-जन्तु या पौधे जो कीड़े-मकोड़ो का भक्षण करते हों। (इन्सेक्टिवोरस)
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कीट-मणि  : पुं० [अपमि० स०] खद्योत। जुँगनू।
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कीट-विज्ञान  : पुं० [मध्य० स०] वह विज्ञान जिसमें कीड़ो मकोड़ो की नसलों आदि के संबंध में अध्ययन किया जाता है। (एन्टामालोजी।
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कीटक  : पुं० [सं० कीट+कन्] १. कीड़ा। २. मगध की एक प्राचीन जन-जाति।
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कीटज  : वि० [सं० कीट√जन् (उत्पन्न होना)+ड] १. कीड़ों से निकला या बना हुआ। २. कीड़ो द्वारा बनाया हुआ। पुं० रेशमी कपड़ा।
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कीटाण  : पुं० [सं० कीट-अणु, स० त०] ऐसे सूक्ष्म कीड़े जो कई प्रकार के रोगों के मूल कारण माने जाते हैं। (जर्म्स)।
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कीटिका  : स्त्री० [सं० कीट+कन्, टाप्, इत्व] १. छोटा कीड़ा। २. तुच्छ या हीन प्राणी।
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कीड़ना  : अ० [सं० कीड़न] कीड़ा करना। खेलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कीड़ा  : पुं० [सं० कीट, प्रा० कीड़] [स्त्री० कीड़ी] १. ऐसे छोटे-छोटे जन्तु जो जमीन पर रेगते और पंख होने पर आकाश में उड़ते हैं। ये प्रायः वनस्पतियों, कपड़ों आदि को खा जाते हैं। मुहावरा—(किसी चीज में) कीड़े पड़ना=किसी पदार्थ अथवा शरीर के किसी अंग का सड़-गल कर इतनी बुरी दशा में होना कि उसमें कीड़े उत्पन्न होने लगे। २. साँप। ३. लाक्षणिक अर्थ में किसी वस्तु का बिलकुल आरंभिक और बहुत छोटा रूप।
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कीड़ी  : स्त्री० [हिं० कीड़ा] १. छोटा कीड़ा। २. च्यूँटी।
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कीता  : भू० कृ० [सं० कृत] किया हुआ। स० हिं० ‘करना’ क्रिया का पुराना भूतकालिक रूप। किया। (पश्चिमी हिंदी)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीती  : स्त्री० १. कृति। उदाहरण—जासु सकल मंगलमय कीती।—तुलसी। २. कीर्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कीदहुँ  : अव्य०=किधौं।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीनखाब  : पुं० =कमखाब। (कपड़ा)।
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कीनना  : स० [सं० कीणन] क्रय करना। खरीदना।
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कीना  : पुं० [फा० कीनः] मन में किसी के प्रति होनेवाला दुर्भाव। द्वेष। दुश्मनी।
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कीनाश  : पुं० [सं०√क्लिश् (कष्ट दोना)+कन्, ईत्व, ‘ल’ का लोप, ‘ना’ का आगम] १. यमराज की एक उपाधि। २. एक प्रकार का बन्दर। ३. किसान। खेतिहर। ४. कसाई। बधिक।
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कीनास  : पुं०=कीनाश।
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कीनिया  : वि० [फा० कीना] १. जिसके मन में किसी के प्रति कीना या द्वेष हो। २. कपटी। धोखेबाज। छली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीप  : स्त्री० [अ, कीफ] १. वह गावदुम चोंगी जिसकी सहायता से किसी तंग मुंहवाले बरतन में कोई तरल पदार्थ ढाला या भरा जाता है। २. इंजन या कल-कारखाने की चिमनी, जो उक्त आकार की होती है।
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कीमत  : वि० [अ०] [वि० कामती] १. किसी वस्तु को क्रय करने के लिए दिया जानेवाला धन। दाम। मूल्य। महत्त्व।
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कीमती  : वि० [अ०] १. अधिक कीमत या मूल्य का। मूल्यवान्। २. महत्त्वपूर्ण। जैसे—कीमती दस्तावेज।
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कीमा  : पुं० [अ० कीमा] १. खाने या पकाने के लिए मांस के काट-काट कर बहुत छोटे किये हुए टुकड़े। २. उक्त कटे हुए मांस को पकाकर बनाया हुआ व्यंजन।
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कीमिया  : स्त्री० [अ०] १. मध्ययुग में पश्चिमी एशिया और पूर्वी यूरोप में प्रचलित वह रासायनिक प्रक्रिया जो लोहे ताँवे आदि सस्ती धातुओं को सोने के रूप में परिवर्तित करनेवाले तत्त्व या पदार्थ की खोज के लिए की जाती थी। २. रसायन। ३. कोई ऐसी युक्ति जिसे कोई बड़ा उद्देश्य बहुत सहज में सिद्ध हो जाय। रामबाण।
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कीमियागर  : पुं० [अ०+फा] १. कीमिया या रसायन तैयार करनेवाला व्यक्ति। २. ताँबे,लोहे आदि को सोने में परिवर्तन करनेवाला व्यक्ति।
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कीमुख्त  : पुं० [अ०] गधे या घोड़े का चमड़ा,जो सिझाने पर कुछ हरे रंग का और दानेदार होता है।
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कीर  : पुं० [सं० की√ईर् (गति)+णिच्+अच्] १. तोता। शुक। २. बहेलिया। व्याध। ३. कश्मीर देश का एक नाम। ४. कश्मीर का निवासी।
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कीरतन  : पु०=कीर्तन।
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कीरतनिया  : पुं० [हिं० कीरतन-कीर्तन] वह जो प्रायः बजन आदि करता रहता हो, अथवा कीर्तन करने का व्यवसाय करता हो। कीर्त्तनकार।
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कीरति  : स्त्री०=कीर्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कीरति-कुमारी  : स्त्री०=राधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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कीरा  : पुं० [स्त्री० कीरी]=कीड़ा।
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कीरात  : पुं० [अ०] चार जौ की एक तौल, जो प्रायः हीरे, जवाहरात और सोना तौलने के काम आती है। किरात। (कैरट)।
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कीरी  : स्त्री० कीर (व्याध) जाति की स्त्री। स्त्री०=कीड़ी (छोटा कीड़ा)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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कीर्ण  : वि० [सं०√कृ (विक्षेप)+क्त] १. फैला या बिखेरा हुआ। २. ढका हुआ। ३. धरा या पकड़ा हुआ। ४. ठहरा हुआ। स्थित। ५. चोट खाया हुआ। आहत।
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कीर्तिदा  : स्त्री०=यशोदा (कृष्ण की माता)।
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कीर्तिवंत  : वि०=कीर्त्तिमान्।
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कीर्त्तन  : पु० [सं०√कृत्+ल्युट-अन, इत्व, दीर्घ] १. किसी के गुण, यश आदि का बार-बार या बराबर किया जानेवाला कथन या बखान। यशोवर्णन। गुण-कथन। २. ईश्वर या देवता के नाम और यश का बार-बार विशेषतः गाते-बजाते हुए किया जानेवाला कथन।
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कीर्त्तनकार  : पुं० [सं० कीर्त्तन√कृ (करना)+अण्] वह जो गा-बजाकर ईश्वर या देवताओं का कीर्त्तन करता हो। कीरतनिया।
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कीर्त्तनिया  : पुं०=कीरतनिया (कीर्त्तनकार)।
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कीर्त्ति  : स्त्री० [सं०√कृत्+इन् वा क्तिन्, इत्व, दीर्घ] १. पुण्य। २. किसी की वह ख्याति बड़ाई या यश जो उसे बहुत अच्छे और बड़े-बड़े काम करने पर प्राप्त होता है, और प्रायः अधिक समय तक बना रहता है। ३. वह अच्छा या बड़ा काम जिससे किसी के बाद उसका नाम हो। ४. दक्ष की एक कन्या, जो धर्म को ब्याही थी। ५. एक मातृका का नाम। ६. राधा की माता का नाम। ७. छन्द। ८. चमक, दीप्ति। ९. विस्तार। १॰. प्रसाद। ११. आर्या छन्द का एक भेद। १२. एक दस अक्षरों का वृत्त, जिसके प्रत्येक चरण में तीन सगण और एक गुरु होता है। १३. संगीत में एक प्रकार का ताल।
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कीर्त्ति-शेष  : वि० [ब० स०] इस संसार में अब जिसकी कीर्ति ही शेष रह गयी हो और कुछ न रह गया हो। जो कीर्ति छोड़कर नष्ट या समाप्त हो चुका हो।
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कीर्त्ति-स्तंभ  : पुं० [मध्य० स०] १. वह स्तंभ या वास्तु-रचना जो किसी की कीर्ति का स्मरण कराने और उसे स्थायी रखने के लिए बनाई गई हो। २. वह कृति जिससे किसी की कीर्ति बहुत दिनों तक बनी रहे। (मॉन्यूमेन्ट)।
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कीर्त्तित  : भू० कृ० [सं०√कृत्+क्त, इत्व, दीर्घ] १. जो कहा गया हो या जिसका वर्णन हुआ हो। कथित। वर्णित। २. जिसका या जिसके संबंध में कीर्त्तन हुआ हो। ३. प्रशंसित और प्रसिद्ध।
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कीर्त्तिमंत  : वि०=कीर्त्तिमान्।
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कीर्त्तिमान् (मत्)  : वि० [सं० कीर्ति+मतुप्] १. जिसकी बहुत अधिक कीर्ति या यश हो। यशस्वी। २. जिसकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली हो। प्रसिद्ध। मशहूर।
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कीर्त्तिवान्  : वि०=कीर्त्तिमान्।
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कीर्त्तिशाली (लिन्)  : वि० [सं० कीर्ति√शल् (गति)+णिनि] जिसकी विशेष कीर्त्ति हो। कीर्त्तिमान्।
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कील  : स्त्री० [सं०√कील् (ठोंकना, बाँधना आदि)+घञ्] १. लकड़ी, लोहे आदि का कोई ऐसा गोलाकार, लंबोतरा नुकीला टुकड़ा जो गाड़ने, फँसाने आदि के लिए बनाया गया हो। मेख। पद—कील-काँटा=किसी कार्य के संपादन के लिए आवश्यक उपकरण या उपयोगी सामग्री। जैसे—अब चट पट कील काँटे से लैस होकर चल पड़ो। २. कोई गोलाकार लंबोतर नुकीली चीज। जैसे—(क) कान या नाम में पहनने की कील या फूल। (ख) फुंसी या फोड़े के मुँह पर अड़ी हुई पीब की कील। (ग) मुहासे की मांस-कील। (घ) चक्की या जांते के बीच में लगी हुई कील या खूँटी। (ङ) कुम्हार के चाक में की कील आदि। ३. वैद्यक में, वह मूढ़-गर्भ जो योनि के मुँह पर आकर अटक गया हो। ४. कामशास्त्र में, स्त्री-प्रसंग का एक प्रकार का आसन। कीलासन। ५. आग की लपट। अग्नि-शिखा। ६. माला। ७. खंभा। ८. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ९. शिव का एक नाम। १॰. हाथ की कोहनी या उससे किया जानेवाला आघात। स्त्री० [देश] असम देश में होनेवाली एक प्रकार की देव-कपास। खुंगी।
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कील-मुद्रा  : स्त्री० [सं० मध्य० स०]=कीलाक्षर। (लिपि)।
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कीलक  : वि० [सं०√कील्+ण्वुल-अक] १. कीलन करनेवाला। २. कीलनेवाला। पुं० १. बड़ी कील या काँटा। २. गौएँ आदि बाँधने का खूँटा। ३. ऐसा यंत्र या साधन, जो किसी का प्रभाव या शक्ति रोककर उसे व्यर्थ कर दे। ४. ज्योतिष में ६॰ संवत्सरों में से बयालीसवाँ संवत्सर। ५. मंच का मध्य भाग। ६. एक तांत्रिक देवता। ७. दुर्गा सप्तशती का पाठ करने के समय पढ़ा जानेवाला एक स्तव या स्त्रोत। ८. एक प्रकार के केतु या पुच्छल तारे।
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कीलन  : पुं० [सं०√कील्+ल्युट-अन] १. कील लगाकर बाँधने या रोकने की क्रिया या भाव। २. किसी क्रिया, गति या शक्ति को पूरी तरह से निष्फल या व्यर्थ करना। ३. वह उपचार जिससे किसी मंत्र की शक्ति रोककर व्यर्थ कर दी जाती है।
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कीलना  : स० [सं० कीलन] १. किसी चीज में कील अथवा कील जैसी कोई नुकीली वस्तु गाड़ना या ठोंकना। २. दो वस्तुओं को जोड़ने के लिए उसमें कील आदि ठोंकना। ३. कील आदि ठोंककर किसी चीज का मुँह बन्द करना। जैसे—तोप में कुंदा कीलना, बोतल में काग कीलना। ४. किसी की आगे बढ़ती हुई गति या शक्ति को बीच में रोकना। जैसे—मंत्र-बल से साँप को कीलना। उदाहरण—जानत हौं कलि तेरेऊ मनु-गन कीले।—तुलसी। ५. बहुत सी चीजों को एक में बाँधना, मिलाना या लगाना। उदाहरण—आधा बाजा, आधा गोला। सब को लेकर एक में कीला।—‘दफ्तर’ की पहेली।
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कीला  : पुं० [सं० कील] [स्त्री० अल्पा० कीली] १. बड़ी और मोटी। कील। जैसे—चक्की या चाक में का कीला। २. अर्गल। ब्योंड़ा।
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कीलाक्षर  : पुं० [सं० कील-अक्षर, मध्य० स०] एक प्रकार की बहुत पुरानी लिपि, जिसके अक्षर देखने में कील या काँटे के आकार-प्रकार के होते थे और जो किसी समय अक्कड़, असुरिया, ईरान बैबिलोन आदि देशों में प्रचलित थी। (क्यूनिफार्म)।
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कीलाल  : पुं० [सं० कील√अल् (गति)+अण्] १. पुराणानुसार देवताओं का एक पेय पदार्थ जो अमृत की तरह का कहा गया है। २. अमृत। ३. जल। पानी। ४. मधु। शहद। ५. खून। रक्त। ६. जानवर। पशु। वि० बन्धन काटने या दूर करनेवाला।
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कीलालप  : पुं० [सं० कीलाल√पा (पीना)+अण्] १. राक्षस। २. भ्रमर। भौंरा।
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कीलिका  : स्त्री० [सं० कील+कन्, टाप्, इत्व] १. वैद्यक में मनुष्य के शरीर की कुछ विशिष्ट हड्डियों, जो ऋषभ और नाराच से भिन्न प्रकार के स्नायुओं में बँधी हुई कही गई हैं। २. एक प्रकार का तीर या बाण।
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कीलित  : भू० कृ० [सं०√कील्+क्त] १. जिसमें कीलें जड़ी या लगी हो। २. जिसका प्रभाव या शक्ति किसी युक्ति से बाँध या रोक दी गई हो। जैसे—मंत्र-बल से कीलित सर्प।
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कीलिया  : पुं० [हि० कील] वह जो पुर या मोट चलाने के समय बैलों को हाँकता हो। पैरहा।
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कीली  : स्त्री० [सं० कील] १. छोटा कीला या खूँटा। २. किसी चक्र के बीच वाले छेद में लगी हुई कील या डंडा जिसके सहारे या चारों ओर वह चक्र घूमता है। ३. किसी प्रकार की वह केन्द्रीय शक्ति, जिसके बल पर उसके ऊपर बनी या लगी हुई चीज गोलाकार घूमती हो। धुरी। (एक्सिम) जैसे—पृथ्वी रात-दिन में एक बार अपनी कीली पर घूमती है। ४. छोटी अर्गला या ब्योंड़ा। ५. किसी चीज को बाँध या रोक रखनेवाली कोई चीज। उदाहरण—सुठि बँदि गाढ़ न निकसै कीली।—जायसी।
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कीश  : पुं० [सं० की√ईश् (समर्थ होना)+क] १. बंदर। २. चिड़िया। पक्षी। ३. सूर्य। वि० नंगा। नग्न।
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कीश-केतु  : पुं० [ब० स०] अर्जुन (पांडव)।
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कीश-ध्वज  : पुं०=कीश-केतु।
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कीश-नाथ  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. सुग्रीव।
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कीस  : पुं० [फा० कीसः] वह थैली जिसमें गर्भ-स्थित होता है।
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कीसा  : पुं० [फा० कीसः] १. थैली। २. खरीता। ३. जेब।
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