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गुप्त  : वि० [सं०√गुप् (छिपाना, रक्षा करना)+क्त] १. (कार्य या व्यवहार) जो दूसरों की जानकारी से छिपाकर किया जाय। जैसे–गुप्त दान, गुप्त मंत्रणा। २. (गुण, वस्तु आदि) जिसके संबंध में लोग परिचित न हों। जैसे–गुप्त मार्ग। ३. जिसे जानना कठिन हो। गूढ़। दुरूह। ४. जिसका पता ऊपर से देखने पर न चले। जैसे–गुप्त भार। ५. छिपाकर रखा हुआ। रक्षित। पुं० १. मगध का एक प्राचीन राजवंश जिसने सारे उत्तरीय भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया था। (ई० चौथी-पाँचवी शताब्दी) २. वैश्यों के नाम के साथ लगनेवाला अल्ल। जैसे–कृष्णदास गुप्त।
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गुप्त-काशी  : स्त्री० [कर्म० स०] हरिद्वार और बद्रीनाथ के बीच में पड़नेवाला एक तीर्थ।
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गुप्त-चर  : पुं० [कर्म० स०] १. प्राचीन भारत में वह व्यक्ति जो गुप्त रूप से दूसरे राज्यों के भेद जानने के लिए इधर-उधर भेजा जाता था। २. जासूस। भेदिया।
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गुप्त-दान  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा दान जो अपना नाम, पता और दान की वस्तु का मूल्य,स्वरूप आदि बिना किसी पर प्रकट किये हुए दिया जाय।
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गुप्तक  : वि० [सं० गुप्त से] किसी चीज को छिपा तथा सँभालकर रखनेवाला रक्षक।
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गुप्ता  : स्त्री० [सं० गुप्त+टाप्] १. साहित्य में, वह परकीया नायिका जो पर-पुरुष से अपना संबंध या संभोग छिपाने का प्रयत्न करती हो। २. रखी हुई स्त्री० रखेली।
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गुप्ति  : स्त्री० [सं०√गुप्+क्तिन्] १. गुप्त रखने अर्थात् छिपाने की क्रिया या भाव। २. रक्षा करने या रक्षित करने की क्रिया या भाव। ३. तंत्र में गुरु से मंत्र लेने के समय का एक संस्कार जो मंत्र को गुप्त रखने के उद्देश्य से किया जाता है। ४. कारागार। ५. गुफा। ६. योग का यम नामक अंग।
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गुप्ती  : स्त्री० [सं० गुप्त] १. कुछ अस्त्रों में रहनेवाली वह अवस्था जिसमें आघात करने वाली चीज किसी आवरण में छिपी रहती है और खटका दबाने पर बाहर निकल आती है। २. वह छड़ी जिसके अंदर गुप्त रूप से किरच या पतली तलवार छिपी रहती है।
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गुप्तीदार  : वि० [हिं० गुप्ती+फा० दार (प्रत्य)] (अस्त्र) जो गुप्तीवाली प्रक्रिया से बना हो। जैसे–गुप्तीदार कुलंग, छड़ी या फरसा।
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गुप्तोत्प्रेक्षा  : स्त्री० [सं० गुप्त-उत्प्रेक्षा, कर्म० स०] उत्प्रेक्षा अलंकार का एक भेद जिसमें ‘मानों’ जानो आदि सादृश्यवाचक शब्द नहीं होते। प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा।
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