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दृग  : पुं० [सं०] १. आँख। नेत्र। (मुहा० के लिए देखो ‘आँख’ के मुहा०) २. देखने की शक्ति। दृष्टि। ३. दो आँखों के आधार पर, दो की संख्या।
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दृग-मिचाव  : पुं० [सं० दृश्-मीचना] आँख-मीचौली नाम का खेल।
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दृगंचल  : पुं० [सं० दृश्-अंचल ष० त०] १. पलक। २. चितवन। उदा०—चंचल चारु दृगंचल सों।—केशव।
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दृगध्यक्ष  : पुं० [सं० दृश-अध्यक्ष ष० त०] सूर्य।
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दृगंबु  : पुं० [सं० दृश्-अंबु ष० त०] आँखों से निकलने वाला पानी। २. अश्रु। आँसू।
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दृग्गणित  : पुं० [सं० दृश्-गणित मध्य० सं०] जयोतिष में गणित की वह क्रिया जो ग्रहों का वेध करके उनकी यथार्थ या वास्तविक स्थिति के आधार पर की जाती है।
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दृग्गणितैक्य  : पुं० [सं० दृंग्यगणित्-ऐक्य ष० त०] ग्रहों को किसी समय पर गणित से स्पष्ट करके फिर उसे वेधकर णिलाना और न्यूनता या अधिकता जान पड़ने पर उसमें ऐसा संस्कार करना जिससे ग्रहों के वेध और स्पष्ट स्थिति में फिर अंतर न पड़े।
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दृग्गति  : स्त्री० [सं० दृश्-गति ष० त०] १. दृष्टि की गति या पहुँच २. दशम लग्न के नतांश की कोटि-ज्या।
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दृग्गोचर  : वि० [सं० दृश्-गोचर ष० त०] जो आँखों से दिखाई देता हो।
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दृग्गोल  : पुं० [सं० दृश्-गोल मध्य० स०] गणित ज्योतिष में, वह कल्पित व्रत जो ऊर्ध्व स्वस्तिक और अधः स्वास्तिक में होता हुआ माना जाता है और जिसे ग्रहों के उदित होने की दिशा में रखकर उनकी यथार्थ स्थिति का पता लगाया जाता है।
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दृग्ज्या  : स्त्री० [सं० दृश्-ज्या मध्य० स०] दृक्-मंडल या दृग्गोल के खस्वस्तिक से किसी ग्रह के नतांश की ज्या। (देखें ‘नतांश’)
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दृग्भू  : स्त्री० [सं० दृश्√भू (होना)+क्विप्] १. वज्र। २. सूर्य। ३. साँप।
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दृग्लंबन  : पुं० [सं० दृश्-लंबन ब० स०] वह पूर्वापर संस्कार जो ग्रहण स्पष्ट करनें में सूर्यचंद्र गर्भाभिप्राय के एक सूत्र में आ जाने पर उन्हें पृष्ठाभिप्राय से एक सूत्र में लाने के लिए किया जाता है।
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दृग्विष  : पुं०[सं० दृश्-विष ब० स०] ऐसा साँप जिसकी आँखों में विष होता हो, अर्थात जिसके देखने मात्र से छोटे-मोटे जीव मर जाते या मूर्च्छित हो जाते हों।
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दृग्व्रत्त  : पुं० [सं० दृश्-व्रत्त ष० त०] क्षितिज।
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