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शब्द का अर्थ
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पंगु :
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वि० [सं० √खंज् (लँगड़ा होना)-कु-पंगदेश, नुक्] [भाव० पंगुता, पंगुत्व] १. जो पैर या पैरों के टूटे हुए होने के कारण चल न सकता हो। लँगड़ा। उदा०—जौ संग राखत ही बनै तौ करि डारहु पंगु।—रहीम। २. लाक्षणिक अर्थ में, (व्यक्ति) जो ऐसा स्थिति या स्थान में लाया गया हो, जिसमें या जहाँ वह कुछ काम न कर सके। पुं० १. एक प्रकार का वात रोग जिसमें घुटने जकड़ जाते हैं और आदमी चल-फिर नहीं सकता। २. मध्य युग में एक प्रकार के साधु, जो केवल मल-मूत्र का त्याग करने या भिक्षा माँगने के लिए कुछ दूर तक जाते थे, और शेष सारा समय अपनी जगह पर बैठे-बैठे बिताते थे। ३. शनि ग्रह, जिसकी गति अपेक्षया बहुत मंद होती है। |
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समानार्थी शब्द-
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पंगु-गति :
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स्त्री० [कर्म० स०] वार्णिक छंदों का एक दोष जो उस समय माना जाता है, जब किसी छंद में लघु के स्थान पर गुरु अथवा गुरु के स्थान आ जाता है। जैसे—‘फूटि गये श्रुति ज्ञान के केशव आँखि अनेक विवेक की फूटी।’ में ‘के’ और ‘की’ को लघु होना चाहिए। |
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पंगु-ग्राह :
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पुं० [कर्म० स०] १. मगर। २. मकर राशि। |
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पंगु-पीठ :
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पुं० [ब० स०] वह सरकारी जिसपर किसी पंगु व्यक्ति को बैठाकर कहीं ले जाया जाता है। |
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पंगुक :
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वि०=पंगु या पंगुल। |
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