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पतत्प्रकर्ष :
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वि० [सं० पतत्-प्रकर्ष, ब० स०] जो प्रकर्ष से गिर चुका हो। पुं० साहित्यिक रचना का एक दोष जो उस समय माना जाता है जब कोई बात आरंभ में तो उत्कृष्ट रूप में कही जाती है परन्तु आगे चलकर वह उत्कृष्टता कुछ घट या नष्टप्राय हो जाती है। जैसे—पहले तो किसी को चन्द्रमा कहना और बाद में जुगनूँ कहना। (एन्टीक्लाइमैक्स) |
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समानार्थी शब्द-
उपलब्ध नहीं |
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