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पराग  : पुं० [सं० परा√गम् (जाना)+ड] १. वह रज या धूल जो फूलों के बीच लम्बे केसरों पर जमी रहती है। पुष्पराज। (पोलेन) २. धूलि। रज। ६. चन्दन। ४. कपूर के छोटे कण। ५. एक प्राचीन पर्वत। ६. उपराग। स्वछन्द रूप में होनेवाली गति। ८. प्राचीन भारत में नहाने से पहले शरीर पर लगाने का एक सुगंधित चूर्ण।
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पराग-केसर  : सं० [मध्य० स०] फूलों के बीच का वह केसर (गर्भ केसर से भिन्न) या सींगा जो उसका पुंर्लिंग अंग माना जाता है। (स्टैमेन)
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परागजज्वर  : पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जो कुछ घासों और वृक्षों का पराग शरीर में पहुँचने से उत्पन्न होता है। इसमें आँखें और ऊपरी स्वास संस्थान में सूजन होती है जिससे छींकें आने लगती हैं और कभी-कभी ज्वर तथा दमा भी हो जाता है।
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परागण  : पुं० [सं० परागकरण] पेड़-पौधों का पराग या पुष्परज से युक्त होना या किया जाना। (पोलिनेशन)
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परागत  : भू० कृ० [सं० परा√गम् (जाना)+क्त] १. दूर गया हुआ। २. मरा हुआ। मृत। ३. घिरा हुआ। ४. फैला हुआ। विस्तृत।
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परागति  : स्त्री० [सं० परा√गम्+क्तिन्] गायत्री।
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परागना  : अ० [सं० उपराग=विषयाशक्ति] आसक्त होना। अ० [सं० पराग+हिं ना (प्रत्य०)] पराग से युक्त होना। स० पराग से युक्त करना।
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