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प्राप  : पुं० [सं० प्र√आप् (पाना)+घञ्] १. प्राप्ति। २. पहुँचना। जैसे—दुष्प्राप। ३. जल का प्रचुर होना। वि० १.=प्राप्त। २.=प्राप्य।
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प्रापक  : वि० [सं० प्र√आप्+ण्वुल्—अक] १. प्राप्ति-संबंधी। २. प्राप्त करने या कराने वाला। (रिसीवर) ३. प्राप्त होने या मिलनेवाला। पुं० दे० ‘आदायक’।
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प्रापण  : पुं० [सं० प्र√आप्+ल्युट्—अन] [वि० प्रापणीय, प्राप्य] १. प्राप्त करना या कराना। २. पहुँचाना।
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प्रापणिक  : पुं० [सं० प्रापण्√ठक्—इक्] व्यापारी।
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प्रापणीय  : वि० [सं० प्र√आय+अनीयर] १. जो प्राप्त किया जा सके। प्राप्य। २. पहुँचाने योग्य।
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प्रापत  : वि०=प्राप्त।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रापति  : स्त्री०=प्राप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रापना  : अ० [सं० प्रापण] प्राप्त होना। मिलना। स० प्राप्त करना। पाना।
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प्रापयिता (तृ)  : वि० [सं० प्र√आप्+णिच्+तृच्] प्राप्त करनेवाला।
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प्रापी (पिन्)  : वि० [सं० प्र√आप्+णिनि] १. प्राप्त करनेवाला। २. पहुँचानेवाला। (समासांत में)
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प्राप्त  : भू० कृ० [सं० प्र√आप्+क्त] [भाव० प्राप्ति] १. (अधिकार) गुण, धन, वस्तु आदि जिसे प्रयत्न करके अधिकार में लाया गया हो अथवा जो यों ही या किसी अभिकरण के द्वारा हस्तगत हुआ हो। २. सामने आया हुआ। उपस्थित। जैसे—मृत्यु प्राप्त करना। ३. जो अनुभूत हुआ हो। जैसे- सुख प्राप्त होना।
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प्राप्त बुद्धि  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसने फिर से चेतना या संज्ञा प्राप्त की हो। २. चतुर। ३. बुद्धिमान।
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प्राप्त रूप  : वि० [सं० ब० स०] १. जिसे रूप की प्राप्ति हुई हो; अर्थात् सुन्दर। २. आकर्षक। मनोहर। ३. बुद्धिमान। ४. विद्वान।
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प्राप्त-जीवन  : वि० [ब० स०] जिसे जीवन मिला हो।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्राप्त-दोष  : वि० [ब० स०] १. जिसमें कोई दोष आ गया हो। २. जिसने कोई दोष किया हो।
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प्राप्त-पंचत्व  : वि० [ब० स०] जो पंचतत्त्वों को प्राप्त हुआ हो; अर्थात् मरा हुआ।
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प्राप्त-प्रसवा  : वि० स्त्री० [सं० ब० स०] जो बच्चे को देनेवाली हो। जो प्रसव करने को हो।
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प्राप्त-यौवन  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० प्राप्त-यौवना] जिसमें जवानी आ गई हो।
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प्राप्तकाल  : पुं० [ब० स०] १. कोई काम करने का उपयुक्त समय। २. मरने का समय। अंतिम समय। वि० (काम या बात) जिसका काल या समय आ गया हो।
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प्राप्तघ्य  : वि० [सं० प्र√आप्+तव्यत्] जो प्राप्त किया जा सके अथवा हो सके।
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प्राप्तयाशा  : स्त्री० [सं० प्राप्ति-आशा, ष० त०] १. प्राप्ति की आशा। मिलने की आशा। २. नाट्यशास्त्र में आरब्ध कार्य की वह अवस्था या स्थिति जिसमें उद्देश्य के सिद्ध होने की आशा होने लगती है।
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प्राप्तार्थ  : वि० [सं० प्राप्त-अर्थ, ब० स०] १. जिसे अर्थ की प्राप्ति हुई हो। २. सफल। पुं० मिला हुआ धन या वस्तु।
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प्राप्ति  : स्त्री० [सं० प्र√आप्+क्तिन्] १. प्राप्त होने अर्थात् अपने अधिकार या हाथ में आने या मिलने की क्रिया, अवस्था या भाव। हासिल होना। पाया जाना। मिलना। उपलब्धि। जैसे—धन या पत्र की प्राप्ति। २. कोई अवस्था या स्थिति आकर पहुँचना या प्रत्यक्ष होना। जैसे—दुःख या सुख की प्राप्ति। ३. इस रूप में कोई चीज मिलना या हाथ में आना कि उससे अपना आर्थिक या और किसी प्रकार का लाभ या हित हो। फायदा। लाभ। (गेन, उक्त सभी अर्थों में) जैसे—(क) आज-कल उन्हें व्यापार में अच्छी प्राप्ति हो रही है। (ख) जहाँ उन्हें कुछ प्राप्ति की आशा होती है, वहीं वे जाते हैं। ४. किसी चीज या बात के आकर उपस्थित होने या पास पहुँचने की क्रिया या भाव। जैसे—(क) पत्र या उसके उत्तर की प्राप्ति। (ख) यौवनावस्था की प्राप्ति। ५. कहीं से आनेवाली किसी चीज या बात को ग्रहण करना। (रिसेप्शन) जैसे—ध्वनियों की प्राप्ति हमारे कानों को होती है। ६. योगशास्त्र में, आठ प्रकार की सिद्धियों में से एक जो सभी अभीष्ट उद्देश्य या कामनाएँ पूरी करनेवाली कही गई है। ७. नाट्यशास्त्र में, अभिनय का शुभ और सुखद अंत या उपसंहार। ८. किसी गुण, तत्त्व या बात का अधिगम या अर्जन। ९. फलित ज्योतिष में, चंद्रमा का ग्यारहवाँ स्थान जो किसी चीज या बात की प्राप्ति या लाभ के लिए शुभ माना गया है। १॰. भाग्य। ११. उदय। १२. मेल। संगति। १३. समिति या संघ। १४. प्रवृत्ति। १५. व्याप्ति। १६. कामदेव की एक पत्नी। १७. जरासंध की एक पुत्री जो कंस को ब्याही थी।
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प्राप्तिका  : स्त्री० [सं० प्राप्ति+कन्—टाप्] वह पत्र जिसमें किसी वस्तु की प्राप्ति या पहुँच का नियमित रूप से उल्लेख हो। पावती। रसीद। (रिसीट)
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प्राप्तिसम  : पुं० [सं० वृ० त०] तर्क या न्याय में एक प्रकार की जाति। ऐसी आपत्ति जो प्रस्तुत हेतु और साव्य अवशिष्ट बतलाकर की जाय।
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प्राप्य  : वि० [सं० प्र√आप+ण्यत्] १. जो कहीं से या किसी से प्राप्त हो सकता हो। मिल सकने के योग्य। (एवेलेबुल) २. (बाकी धन या वस्तु) जो किसी की ओर निकलता हो और इसी लिए उससे अधिकारिक और आवश्यक रूप से प्राप्त किया जाने को हो या किया जा सकता हो। (ड्यू) ३. जिस तक पहुँच हो सके। गम्य।
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प्राप्यक  : पुं० [सं०] वह पत्र जिसमें किसी प्राप्त धन का ब्योरा होता है। विपत्र। (बिल)
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प्राप्यक-समाहर्ता (तृ)  : पुं० [ष० त०] वह अधिकारी जो प्राप्यक का बाकी धन उगाहने का काम करता है। (बिल कलक्टर)
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