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माँ  : स्त्री० [सं० अंबा या माता] जन्म देनेवाली, माता। जननी। पद—माँ-जाया। अव्य०=में। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मा  : स्त्री० [सं०√मा+क्विप्] १. माता। माँ। २. लक्ष्मी। ३. ज्ञान। ४. प्रकाश। रोशनी। ५. चमक। दीप्ति। अव्य, नहीं। मत। (निषेधार्थक)। पुं० [अ० मा०] १. पानी। २. अर्क। जैसे—माउल्लहम।
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माँ-जाया  : पुं० [हिं० माँ+जाया=जात] [स्त्री० माँजायी] माँ से उत्पन्न, अर्थात् सगा भाई। सहोदर।
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माइ  : स्त्री०=माई (माता)। स्त्री०=माया। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माइक  : पुं० [अं०] =ध्वनिवर्धक।
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माइका  : पुं० =मायका।
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माइक्रोफोन  : पुं० [अं०] ध्वनिवर्धक।
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माइट  : पुं० [?] ईख की पत्तियाँ खानेवाला एक तरह का कीड़ा।
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माई  : स्त्री० [सं० मातृ] १. माता। २. देवी। ३. वैवाहिक अवसरों पर मातृपूजन के काम आनेवाली एक तरह की छोटी पूजा। स्त्री०=मामी। स्त्री० [?] बेटी। पुत्री। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माई  : स्त्री० [सं० मातृ] १. माता। जननी। माँ। २. मातातुल्य विशेषतः कोई बूढ़ी स्त्री। ३. औरत। स्त्री। पद—माई का लाल=ऐसा व्यक्ति जो जोखिम त्याग या वीरता प्रदर्शन के लिए प्रस्तुत हो। स्त्री० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष और उसका फल जो माजू से मिलता जुलता होता है।
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माउल्लहम  : पुं० [अ० माउल्लहम्] हकीमी चिकित्सा में दवाओं में गोश्त मिलाकर खींचा हुआ अर्क।
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माँकड़ी  : स्त्री० [हिं० मकड़ी] १. कमखाब बुननेवालों का एक औजार जिसमें डेढ़-डेढ़ बालिश्त की पाँच तीलियाँ होती है। २. पतवार के ऊपरी सिरे पर लगी हुई और दोनों ओर निकली हुई एक लकड़ी। ३. जहाज में रस्से बाँधने के खूंटे आदि का बनाया हुआ ऊपरी भाग। ४. दे० ‘मकड़ी’।
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माकंद  : पुं० [सं०√मा+क्विप्=मा=परिमित कन्द, ब० स०] आम का वृक्ष। पुं० =मानकंद। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माकंदी  : स्त्री० [सं० माकन्द+ङीष्] १. आँवला। २. पीला चन्दन। ३. एक प्राचीन नगरी।
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माकर  : वि० [सं० मकर+अण्] १. मकर संबंधी। २. मकर से उत्पन्न।
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माकरा  : स्त्री० [सं० माकर+टाप्] मरुआ।
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माकरी  : स्त्री० [सं० माकर+ङीष्] माघ शुक्ला सप्तमी।
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माकल  : स्त्री० [देश] इंद्रायन नामक लता।
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माकूल  : वि० [अ० माकूल] १. उचित। ठीक। वाजिब। २. यथेष्ठ। ३. योग्य। लायक। ४. उत्तम। अच्छा। बढ़िया। पद—ना-माकूल (देखें)। ५. जिसने वाद-विवाद में प्रतिपक्षी की बात मान ली हो। जो निरुतर हो गया हो। कायल।
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माकूलियत  : स्त्री० [अ० माकूलीयत] माकूल होने की अवस्था या भाव।
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माक्षिक  : पुं० [सं० मक्षिका+अण्] १. शहद। मधु। २. सोना-मक्खी। ३. रूपा मक्खी। ४. लोहे या ताँबे का एक प्रकार का रासायनिक विकार (पाइराइट)। वि० [सं०] १. मक्षिका संबंधी। २. मक्खियों द्वारा बनाया हुआ।
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माक्षिकज  : पुं० [सं० माक्षिक√जन् (उत्पन्न करना)+ड] मोम।
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माक्षिकाश्रय  : पुं० [सं० माक्षिक-आश्रय, ष० त०] मोम
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माक्षीक  : पुं० [सं० माक्षिका+अण्, नि० दीर्घ]=माक्षिक।
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माँख  : पुं० =माख (अप्रसन्नता)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माख  : पुं० [सं० मक्ष] १. अप्रसन्नता। नाराजगी। २. अभिमान। घमंड। ३. पश्चाताप। पछतावा। ४. अपना अपराध या दोष छिपाने का प्रयत्न। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँखण  : पुं० =मक्खन (राग)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माखता  : पुं० =माख (दे०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माखन  : पुं० =मक्खन। पद—माखनचोर=श्रीकृष्ण। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँखना  : अ०=माखना (क्रोध करना)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माखना  : अ० [हिं० माख] १. मन में अप्रसन्न या दुःखी होना। २. क्षुब्ध होना। ३. पश्चात्ताप करना।
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माँखा  : पुं० [सं० मक्षिका] मच्छर। उदाहरण—तू उँबरी जेहि भीतर माँखा।—जायसी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माखा  : पुं० [हिं० मक्खी] नरमक्खी।
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माँखी  : स्त्री०=मक्खी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माखी  : स्त्री० [सं० माक्षिक] सोनामक्खी। स्त्री०=मक्खी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माखो  : स्त्री० [हिं० मुख] १. लोगों में फैलनेवाली चर्चा। जनरव। स्त्री०=मधुमक्खी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँग  : स्त्री० [हिं० माँगना] १. माँगने की क्रिया या भाव। याचना। २. अर्थशास्त्र में वह स्थिति जिसमें लोग (क्रेता) कोई चीज किसी निश्चित मूल्य पर खरीदना चाहते हों। ३. किसी निश्चित मूल्य पर तथा किसी निश्चित अवधि में क्रेताओं द्वारा किसी चीज की खरीदी या चाही जानेवाली मात्रा। ४. बिक्री या खपत आदि के कारण किसी पदार्थ के लिए लोगों को होनेवाली आवश्यकता या चाह। जैसे—बाजार में देशी कपड़ों की माँग बढ़ रही हैं। ५. किसी से आधिकारिक रूप में या दृढ़तापूर्वक यह कहना कि हमें अमुक-अमुक सुविधाएँ, मिलनी चाहिए। (डिमांड) जैसे—दुकानदारों की माँग, मजदूरों की माँग, राजनीतिक अधिकारों की माँग। स्त्री० [सं० मार्ग] १. सिर के बालों को विभक्त करके बनायी जानेवाली रेखा। सीमांत। पद—माँग-चोटी, माँग-जली, माँग-पट्टी। मुहावरा—माँग उजड़ना=विवाहिता स्त्री का विधवा होना। माँग कोख से सुखी रहना या जुड़ाना=स्त्रियों का सौभाग्यवती और संतानवती रहना (आर्शीवाद) माँग पारना या फारना=केशों को दो और करके बीच में माँग निकालना। माँग बाँधना=कंघी-चोटी या केश-विन्यास करना। माँग सँवारना=कंघी करके वाल सँवारना। २. किसी पदार्थ का ऊपरी भाग। सिरा। (क्व०) ३. सिल का वह ऊपरी भाग जिस पर पिसी हुई चीज रखी जाती है। ४. नाव का अगला भाग। दुम सिरा। ५. दे० ‘मांगी’।
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माँग-चोटी  : स्त्री० [हिं०] स्त्रियों का केश-विन्यास।
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माँग-जली  : स्त्री० [हिं०] विधवा। राँड़।
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माँग-टीका  : पुं० [हिं०] एक प्रकार का माँग-फूल जिसमें मोतियों की लड़ी लगी रहती है।
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माँग-पट्टी  : स्त्री०=माँग-चोटी।
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माँग-पत्र  : पुं० [हिं०+सं०] वह पत्र जिस पर कोई व्यापारी को यह लिखता है कि आप हमें अमुक-अमुक वस्तुएँ भेज दें। (आर्डर फार्म) २. वह पत्र जिसमें किसी से अधिकारपूर्वक यह कहा जाय कि अमुक चीज मुझे दे दो।
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माँग-फूल  : पुं० [हिं०] मांग में लगाया जानेवाला एक प्रकार का टीका।
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माँग-भरी  : वि० स्त्री० [हिं० माँग+भरना] सधवा। सुहागिन।
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मागध  : वि० [सं० मगध+अण्] मगध संबंधी। पुं० १. एक प्राचीन जाति जो मनु के अनुसार वैश्य के वीर्य से क्षत्रिय कन्या के गर्भ से उत्पन्न है। २. मगध के राजा जरासन्ध का एक नाम। ३. जीरा। ४. पिप्पलीमूल।
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मागध-पुर  : पुं० [सं० ष० त०] मगध की पुरानी राजधानी, राजगृह।
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मागधक  : पुं० [सं० मगध+बुञ्-अक] १. मगध देश का निवासी। २. मागध। ३. भाट।
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मागधा  : स्त्री० [सं० मगध+टाप्] १. मगध की राजकुमारी। २. पिप्पली।
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मागधिक  : वि० [सं० मगध+ठक्—इक] मगध-संबंधी। मगध का। पुं० १. मगध का राजा। २.मगध का निवासी।
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मागधी  : स्त्री० [सं० मगध+अण्+ङीष्] १. मगध देश की प्राचीन प्राकृत भाषा। २. जूही। यूथिका। ३. चीनी। शक्कर। ४. छोटी इलायची। ५. पिप्पली।
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माँगन  : पुं० [हिं० माँगना] १. माँगने की क्रिया या भाव। २. मँगता। भिखमंगा। भिक्षुक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगनहार  : पुं० [हिं० माँगना] माँगनेवाला। पुं० =मंगता (भिखमंगा)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगना  : स० [सं० मार्गण=याचना] १. किसी से यह कहना कि आप हमें अमुक वस्तु या कुछ धन दें। याचना करना। जैसे—मैंने उनसे एक पुस्तक माँगी थी। २. खरीदने के उद्देश्य से किसी से कुछ लाकर प्रस्तुत करने या दिखाने के लिए कहना। जैसे—दुकानदार से पुस्तक माँगना। ३. किसी से कोई आकांक्षा पूरी करने के लिए कहना। याचना या प्रार्थना करना। ४. अपनी कन्या या पुत्र के साथ विवाह करने के लिए किसी से उसके पुत्र या कन्या के सम्बन्ध में प्रस्ताव करना। ५. किसी से अधिकारपूर्वक यह कहना कि तुम हमें इतना धन या अमुक वस्तु उधार दो। ६. भिक्षा माँगना। हाथ पसारना। पुं० दी हुई वस्तु वापस देने के लिए किसी से कहना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मागरमाटी  : स्त्री०=मट-मँगरा (विवाह की रस्म)।
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मांगल-गीत  : पुं० [हिं० मांगल्य गीत] वह शुभ गीत जो विवाह आदि मंगल अवसरों पर गाये जाते हैं।
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मांगलिक  : वि० [सं० मंगल+ठक्-इक, वृद्धि] १. मंगल करनेवाला। शुभ। २. मंगल कार्यों से संबंध रखनेवाला। जैसे—मांगलिक कृत्य। पुं० वह जो नाटक आदि विशिष्ट अवसरों पर मंगल पाठ करता हो।
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मांगल्य  : वि० [सं० मंगल+ष्यञ्, वृद्धि] शुभ। मंगलकारक। पुं० ‘मंगल’ की अवस्था या भाव। मंगलता।
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मांगल्य-काया  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] १. दूब। २. हलदी। ३. ऋद्धि नामक औषधि। ४. गोरोचन। ५. हरीतकी। हर्रे।
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मांगल्य-कुसुमा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] शंखपुष्पी।
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मांगल्य-प्रवरा  : स्त्री० [सं० स० त०] बच।
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मांगल्या  : स्त्री० [सं० मांगल्य+टाप्] १. गोरोचन। २. जीवंती। ३. शमी।
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माँगा  : पुं० [हिं० माँगना] माँगने विशेषतः मँगनी माँगने की क्रिया या भाव। वि० [हिं० माँगी] मँगनी, माँगा हुआ। मँगनी का।
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मागि  : पुं० =मार्ग। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगी  : स्त्री० [सं० मार्ग० हिं० माँग] धुनियों की धुनकी में वह लकड़ी जो उसकी उस डाँड़ी के ऊपर लगी रहती है जिस पर ताँत चढ़ाते हैं।
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मागी  : स्त्री० [?] औरत। स्त्री। (पूरब)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँगुर  : स्त्री० [?] एक प्रकार की मछली।
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माघ  : पुं० [सं० माधी+अण्] १. १०वाँ सौर मास और ११वाँ चांद्रमास जो पूस के बाद और फागुन से पहले पड़ता है। २. संस्कृत के एक प्रसिद्ध महाकवि जो ईसवीं १0 वीं शती में हुए थे, और जिनका बनाया ‘शिशुपाल वध’ संस्कृत का एक प्रसिद्ध महाकाव्य है। ३. कुंद का फूल।
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माघी  : वि० [सं० मघा+अण्+ङीष्] माघ संबंधी। स्त्री० माघ मास की पूर्णिमा। कलियुग का आरम्भ इसी तिथि से माना जाता है।
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माँच  : पुं० [देश] १. पाल में हवा लगने के लिए चलते हुए जहाज का रूख कुछ तिरछा करना। (लश०) २. पाल के नीचेवाले कोने में बँधा हुआ वह रस्सा जिसकी सहायता से पाल को आगे बढाकर या पीछे हटाकर हवा के रूख पर करते हैं। (लश०) स्त्री०=माच। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माच  : पुं० [सं० मा√अंच+क] मार्ग। रास्ता। पुं० [सं० मंच या हिं० मचना] मालवा में प्रचलित एक प्रकार का ग्राम्य अभिनय या लोक-नाटक जो खुले मैदान मे खेला जाता है। इसमें प्रायः भाव-संगीत के द्वारा ग्राम्य जीवन की घटनाएं दिखायी जाती है। पुं० =मचान।
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माँचना  : अ० [हिं० मचना] १. प्रसिद्ध होना। २. लीन होना। उदाहरण—स्याम प्रेम रस माँची।—सूर। अ०=मचना। स०=मचाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माचना  : अ०-मचना। स०=मचाना।
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माचल  : पुं० [सं० मा√चल् (चलना)+अच्] १. ग्रह। २. बीमारी। रोग। ३. कैदी। बंदी। ४. चोर। वि० [हिं० मचलना] बहुत अधिक चमलनेवाला फलतः हठी। वि० =मचला।
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माँचा  : पुं० [सं० मंच, संज्ञा] [स्त्री० अल्पा० माँची] १. पलंग। खाट। २. बैठने की पीढ़ी। ३. मचान।
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माचा  : पुं० [सं० मंच] बैठने की पीढ़ी या बड़ी मचिया जो खाट की तरह बुनी होती है। माँचा।
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माचिका  : स्त्री० [सं० मा√अंच् (जाना)+क+कन्+टाप्, इत्व] १. मक्खी। २. अमड़ा या आमड़ा नामक वृक्ष और उसका फल।
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माचिस  : स्त्री० [अं० मैचेस] दीया सलाई।
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माची  : स्त्री० [सं० मंच] १. हल का जुआ। २. बैलगाड़ी में वह स्थान जहाँ गाड़ीवान बैठता है और अपना सामान रखता है। ३. खाट की तरह बुनी हुई बैठने की पीढ़ी। मचिया।
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माँछ  : स्त्री० [सं० मस्त्य] मछली। पुं० =माँच। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माछ  : पुं० [सं० मत्स्य] मछली। पुं० =मच्छर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछना  : अ० [सं० मध्य] घुसना। पैठना। (लश०)
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माँछर  : स्त्री०=मछली। पुं० =मच्छड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माछरी  : स्त्री०=मछली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछली  : स्त्री०=मछली। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँछी  : स्त्री०=मक्खी।
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माछी  : स्त्री० [सं० मक्षिका] मक्खी। स्त्री०=मछली। स्त्री०=मछिया (बंदूक की)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँज  : स्त्री० [देश] १. दलदली भूमि। २. कछार। तराई। ३. नदी के खिसकने के कारण निकली हुई भूमि। गंग-बरार।
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माज  : पुं० =माँजा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माजन  : पुं० =मज्जन। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँजना  : सं० [सं० मज्जन] १. कोई चीज अच्छी तरह साफ करने के लिए किसी दूसरी चीज से उसे अच्छी तरह मलना या रगड़ना। जैसे—बरतन माँजना। २. जुलाहों का सूत चिकना करने के लिए उस पर सरेस का पानी रगड़ना। ३. डोर या नख पर मांझा लगाना। ४. कुम्हारों का थपुए के तवे पर पानी देकर उसे ठीक करने के लिए किनारे झुकाना। ५. किसी काम या चीज का अभ्यास करना। जैसे—(क) लिखने के लिए हाथ माँजना। (ख) गाने के लिए गीत या राग माँजना।
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माँजर  : पुं० =पंजर (ठठरी)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माजरा  : पुं० [अ०] १. हाल। घटना। २. घटना का विवरण। ३. बोलचाल में कोई विशिष्ट किंतु अज्ञात बात (किसी की दृष्टि से)।
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माजरिगंधा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] मुद् गपर्णी।
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माँजा  : पुं० [देश] पहली वर्षा का फेन जो मछलियों के लिए मादक कहा गया है। पुं० =माँझा।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँजिष्ठ  : वि० [सं० मंजिष्ठा+अण्] १. मजीठ से बना हुआ। २. मजीठ के रंग का। ३. मजीठ सम्बन्धी। मजीठ का। पुं० एक प्रकार का मूत्र-रोग या प्रमेह जिसमें मजीठ के रंग का पेशाब होता है।
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माजी  : वि० [अ० मजी] १. गुजरा या बीता हुआ। गत। २. समय के विचार से भूतकाल सें सम्बद्ध। पुं० व्याकरम में भूतकाल।
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माजू  : पुं० [फा०] १. एक प्रकार की झाड़ी जो यूनान और फारस आदि देशों में बहुतायत से होती है। २. उक्त झाड़ी का फल जो औषधि के काम आता है। (हकीमी)। पुं० [?] ऐसा वर या व्यक्ति जिसकी पहली विवाहिता स्त्री मर चुकी हो। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माजून  : स्त्री० [अ] १. हकीमी में, शहद, शक्कर आदि के योग से बना हुआ दवाओं का अवलेह। २. उक्त प्रकार का अवलेह जिसमें भांग पीस कर मिलायी गयी है।
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माजूफल  : पुं० [फा० माजू+सं० फल] माजू नामक झाड़ी का गोटा या गोंद जो ओषधि तथा रँगाई के काम आता है। मादा-फल।
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माजूल  : वि० [मअजूल] १. अपदस्थ। २. पदच्युत।
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माँझ  : अव्य० [सं० मध्य] में। भीतर। बीच। पुं० १. अन्तर। फर्क। २. नदी के बीच में निकली हुई रेतीली भूमि।
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माझ  : अव्य० पुं० =माँझ (मध्य)। सर्व० [स्त्री० माझी] मेरा।
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माँझा  : पुं० [सं० मध्य] १. नदी के बीच की सूखी जमीन या टापू। २. वृक्ष का तना। ३. वे कपड़े जो वर और कन्या को विवाह से पहले पहनाये जाते हैं। ४. पगड़ी पर लगाया जानेवाला एक तरह का आभूषण। ५. एक प्रकार का ढाँचा जो गोड़ाई के बीच में रहता है और जो पाई को जमीन पर गिरने से रोकता है। (जुलाहे)। पुं० [हिं० माँजना]लेई, शीशे की बुकनी आदि का वह रूप जो डोर या नख पर उसे तेज तथा धारदार करने के लिए चढ़ाया जाता है। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना। पुं० १. =माँझा। (बड़ी खाट) २. =माँजा (फेन)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँझिल  : वि० [सं० मध्य] मध्य का। बीच का। क्रि० वि० बीच या मध्य में।
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माँझी  : पुं० [सं० मध्य, हिं० माँझ] केवट। मल्लाह। पुं० =मध्यस्थ। पुं० [?] बलवान (डिं०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँट  : पुं० [सं० मट्ठक] १. मिट्टी का बड़ा बरतन। मटका। कुंडा। २. घर के ऊपर की कोठरी। अटारी। कोठा।
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माट  : पुं० [हिं० मटका] १. रंगरेजों के रंग घोलने का मिट्टी का बड़ा बरतन। मुहावरा—माट बिगड़ जाना या बिगड़ना= (क) किसी का स्वभाव ऐसा बिगड़ जाना कि उसका सुधार असम्भव हो। (ख) किसी काम या बात का पूरी तरह से बिगड़कर नष्ट-भ्रष्ट हो जाना। २. दही रखने की मटकी। पुं० [देश] एक प्रकार की वनस्पति जिसका व्यवहार तरकारी के रूप में होता है।
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माटा  : पुं० [हिं० मटा] लाल रंग का च्यूँटा जिसके झुंड आम के पेड़ों पर रहते हैं। पुं० =मटका। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माटी  : स्त्री० [हिं० मिट्टी] १. मिट्टी। २. बैलों के संबंध में, साल भर की जोताई या उसकी मेहनत। जैसे—यह बैल चार माटी का चला है। ३. पाँच तत्त्वों में से पृथ्वी नामक तत्त्व। ४. शरीर जो मिट्टी का बना हुआ माना जाता है। ५. मृत। शरीर। लाश। शव।
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माँठ  : पुं० [सं० मट्टक] १. मटका। २. कुंडा। ३. नील घोलने का बड़ा मटका।
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माठ  : पुं० [हिं० मटकी] मटकी। पुं० [?] एक प्रकार की मिठाई। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माठर  : पुं० [सं०√मठ्+अरन्+अण्] १. सूर्य के एक पारिपार्श्वक जो यम माने जाते हैं। २. वेद-व्यास। ३. ब्राह्मण। ४. कताल। कलवार। वि० =मट्ठर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माठा  : वि० [हिं० मीठा] १. मधुर। २. गम्भीर। २. कंजूस। (डिं०) पुं० =मठा या मट्ठा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माठाधूपा  : पुं० [सं० मधुर+ध्रुपद] ध्रुपद का एक भेद
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माँठी  : स्त्री० [देश] फूल नामक धातु की ढली हुई एक प्रकार की चूड़ियाँ जो देहाती स्त्रियाँ पहनती हैं। स्त्री०=मठरी या मठ्ठी (पकवान)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माठी  : स्त्री० [देश] एक तरह की कपास।
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माठू  : पुं० [हिं० मिट्ठू] १. बंदर। वानर। २. तोता। वि० निर्बुद्धि। मूर्ख। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँड़  : पुं० [सं० मण्ड] उबाले या पकाये हुए चावलो में से बाकी बचा हुआ पानी जो गिरा या निकाल दिया जाता है। पसाव। पीच। स्त्री० [हिं० माँड़ना] १. माँड़ने की क्रिया या भाव। २. एक प्रकार का राग जिसका प्रचलन राजस्थान में अधिक है। ३. एक प्रकार की रोटी। उदाहरण—झालर माँड़ आए घिउ पोए।—जायसी।
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माड़  : पुं० [सं०] ताड़ की जाति का एक पेड़। पुं० =माँड़। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँड़ना  : स० [सं० मंडन] १. मर्दन करना। मसलना। २. गूँधना। सानना। जैसे—आटा माँड़ना। ३. लेप करना। पोतना। ४. सजाना या सँवारना। ५. अन्न की बालों में से दाने झाड़ना। ६. ठानना। किसी प्रकार की क्रिया संपन्न करना अथवा उसका आरम्भ करना। जैसे—खाते या बही में कोई रकम माँड़ना, अर्थात् चढ़ाना या लिखना। मुहावरा—पग माँड़ना=पैर रोकना। ठहरना। रुकना। उदाहरण—आयी हूँ पग माँड़ि अहीर।—प्रिथीराज। बाद माँड़ना= (क) हठ करना। (ख) विवाद या बहस करना। उदाहरण—जाणे वाद माँड़ियों जीपण।—प्रिथीराज। ७. दे० ‘मलाना’।
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माड़ना  : स० [सं० मंडन] १. मंडित करना। भूषित करना। २. धारण करना० पहनना। ३. आदर-सम्मान करना। ४. मचाना। ५. माँड़ना। ६. मलना। मसलना। ७. रौंदना। अ० घूमना-फिरना। टहलना। अ० स०=माँड़ना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँड़नी  : स्त्री० [सं० मंडन, हिं० माँड़ना] १. माँडऩे की क्रिया या भाव। २. किनारा। हाशिया। ३. मगजी। गोट। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांडलिक  : पुं० [सं० मंडल+ठक्, ठ=इक, वृद्धि] १. मंडल का प्रधान प्रशासक २. वह छोटा राजा जो किसी चक्रवर्ती या बड़े राजा के अधीन हो और उसे कर देता हो। ३. शासन का कार्य। वि० मंडल संबंधी।
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माँड़व  : पुं० =मंडप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माड़व  : पुं० =मंडप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांडवी  : स्त्री० [सं०] राजा जनक के भाई कुशध्वज की कन्या जिसका विवाह राजा दशरथ के पुत्र भरत से हुआ था।
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मांडव्य  : पुं० [सं०] १. एक प्राचीन ऋषि जिनको बाल्यावस्था के किये हुए अपराध के कारण यमराज ने सूली पर चढ़वा दिया था। २. एक प्राचीन जाति। ३. एक प्राचीन नगर।
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माँड़ा  : पुं० [स० मंड] १. आँख में झिल्ली पड़ने का एक रोग० २. इस प्रकार आँख में पड़नेवाली झिल्ली। पुं० [हिं० माँड़ना=गूँधना] १. एक प्रकार की बहुत पतली पूरी जो मैदे की होती है और घी में पकती हैं। लुच्ची। २. पराठा या पराठा नामक पकवान। ३. उलटा या चीला नामक पकवान। पुं० =मँड़वा (मंडप)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माड़ा  : वि० [सं० मंद] १. खराब। निकम्मा। २. दुर्बल शरीर का। दुबला-पतला। ३. बीमार। रोगी। ४. बहुत थोड़ा।
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माँड़ी  : स्त्री० [सं० मंड] १. भात का पसाव या माँड़ जो प्राय कपड़े या सूत पर कलफ करने के लिए लगाते हैं। २. उक्त काम के लिए बनाया जानेवाला जुलाहों का एक प्रकार का घोल या मिश्रण। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना।—लगाना।
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माड़ी  : स्त्री० १. =मंडप। २. =माँड़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांडूक  : पुं० [सं० मंडूक+अण्] प्राचीन काल के एक प्रकार के ब्राह्मण जो वैदिक मंडूक शाखा के अंतर्गत होते थे।
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मांडूकायनि  : पुं० [सं० मंडूक+फिञ्, फ-आयन] एक वैदिक आचार्य।
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मांडूक्य  : पुं० [सं० मंडूक+यञ्, वृद्धि] एक प्रसिद्ध उपनिषद्। वि० मंडूक सम्बन्धी।
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मांढ़  : पुं० [सं० मंडप] स्त्रियों का पीहर। मायका। दाहरण-नयरी नड़ें माँढ़े बीचई।—नरपतिनाल्ह। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँढ़ा  : पुं० =माँड़व।
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माढ़ा  : पुं० [सं० मंडप] घर के ऊपर का चौबारा जिसकी छत मंडप जैसी होती है। पुं० =मठा या मट्ठा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माढ़ी  : स्त्री० [हिं० मँढ़ी] मचिया। स्त्री०=मढ़ी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माण  : पुं० =मान। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माणक  : पुं० [सं०√मान् (पूजा)+घञ्, +कन्, नि० णत्व] मानकंद।
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माणना  : अ० स० १. =माँड़ना। २. माड़ना।
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माणव  : पुं० [सं० मनु+अण्, न=ण, वृद्धि] १. मनुष्य। २. बालक। लड़का। ३. ऐसा हार जिसमें १६ लड़ें हों।
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माणव-विद्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] जादू-टोना। तंत्र-मंत्र। (कौ)।
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माणवक  : पुं० [सं० माणव+कन्] १. सोलब वर्ष की अवस्थावाला युवक। २. तुच्छ या हीन व्यक्ति। ३. नाटा या बौना व्यक्ति। ४. बालक। लड़का। ५. विद्यार्थी। ६. सोलह लड़ोंवाली मोतियों की माला।
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माणवक-क्रीड़ा  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः नगण, मगण और दो लघु होते हैं।
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माणस  : पुं० =मानुस (मनुष्य)। पुं० =मानस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माणिक  : पुं० =माणिक्य।
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माणिक्य  : पुं० [सं० मणि+कन्+ष्यञ्] १. लाल नामक रत्न। २. एक प्रकार का केला। वि० सब में श्रेष्ठ।
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माणिक्या  : स्त्री० [सं० माणिक्य+टाप्] छिपकली।
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माणिबंध  : पुं० [सं० मणिबन्ध+अण्] सेंधा नमक।
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माणिमंथ  : पुं० [सं० मणिमंथ+अण्] सेंधा नमक।
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माँत  : वि० [सं० मत्त] १. मत्त। मस्त। २. मस्ती आदि के कारण बेसुध। ३. उन्मत्त। पागल। वि० [सं० मन्द] जिसका रंग या शोभा बहुत कम हो गयी हो। फीका। पड़ा हुआ। वि० [फा० मांदः] १. थका हुआ। २. हारा हुआ।
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मात  : वि० [अ] १. जो मर गया हो। मरा हुआ। २. हारा हुआ। पराजित। स्त्री० १. शतरंज के खेल में वह स्थिति जब कोई पक्ष बादशाह की मिलनेवाली शह को न बचा सकता हो और उस प्रकार उसकी हार हो जाती है। मुहावरा—मात करना= (क) शतरंज के खेल में विपक्षी को हराना। (ख) किसी युग, कार्य या बात में किसी से बढ़-चढ़कर होना। मात खाना= (क) शतरंज के खेल में हार होना। (ख) पराजित होना। २. पराजय। वि० [सं० मत्त] मतवाला। उदाहरण—मात निमत सब गरजहिं बाँधे।—जायसी। स्त्री०=माता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मातंग  : पुं० [सं० मतंग+अण्] १. हाथी। २. चांडाल। ३. किरात आदि किसी असभ्य जाति का व्यक्ति। ४. एक ऋषि। ५. अश्वत्थ पीपल। ६. संवर्त्तक मेघ।
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मातंगी  : स्त्री० [सं० मांतग+ङीष्] १. पार्वती। २. वसिष्ठ की पत्नी। ३. चांडाल जाति की स्त्री। ४. दस महाविद्याओं में से एक। (तंत्र)।
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मातदिल  : वि० [अ० माउतदिल] १. (पदार्थ) जिसका गुण या तासीर न तो अधिक गरम हो और न अधिक ठंढ़ी। समशीतोष्ण। २. जिसमें कोई बात आवश्यकता से अधिक या कम न हो। मध्यम प्रकृति का। संतुलित।
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माँतना  : अ०=मातना (मत होना)।
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मातना  : अ० [सं० मत्त] १. मस्त या मत्त होना। २. नशे मे चूर होना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मातबर  : वि० [अ० मोतबर] [भाव० मातबरी] जिसका एतबार किया जा सके। विश्वसनीय। विश्वस्त।
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मातबरी  : स्त्री० [अ० मोतबरी] मातबर अर्थात् विश्वसनीय होने की अवस्था या भाव। विश्वसनीयता।
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मातम  : पुं० [फा०] १. मृतक का शोक। मृत्युशोक। २. मृत्युशोक के कारण होनेवाला रोना-पीटना। ३. किसी बहुत बड़ी या अशुभ घटना का दुःख या शोक। क्रि० प्र०—मनाना।
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मातम-पुर्सी  : स्त्री० [फा०] मृतक के संबंधियों के यहाँ जाकर प्रकट की जानेवाली सहानुभूति।
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मातमी  : वि० [फा०] १. मातम संबंधी। २. शोकसूचक। जैसे—मातमी पोशाक। ३. मातम के रूप में होनेवाला। ४. मातम करनेवाला।
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मातमुख  : वि० [डिं] मूर्ख।
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मातरि-पुरुष  : पुं० [सं० स० त० विभक्ति का अलुक] वह जो अपनी मां के सामने अपनी वीरता का बखान करे, पर बाहर कुछ भी न कर सके।
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मातरिश्वा  : पुं० [सं०] १. पवन। वायु। २. एक प्रकार की अग्नि।
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मातलि  : पुं० [सं० मतल+इञ्] इंद्र का सारथी।
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मातहत  : वि० [अ] [भाव० मातहती] जो किसी के अधीन हो। पुं० अधीनस्थ। कर्मचारी।
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मातहतदार  : पुं० [अ+फा०] जमीन का वह मालिक जो दूसरे बड़े मालिक के अधीन हो।
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मातहती  : स्त्री० [अ] मातहत होने की अवस्था या भाव।
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माँता  : वि० =माता (मत्त)।
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माता (तृ)  : स्त्री० [स०√मान् (पूजा)+तृच्, नि, न-लोप] १. जन्म देनेवाली स्त्री। जननी माँ। २. आदरणीय, पूज्य या बड़ी स्त्री। ३. प्राचीन भारत में वेश्याओं की दृष्टि से वब वृद्धा स्त्री जो उनका पालन-पोषण करती थी और नाच-गाना आदि सिखाकर उनसे पेशा कराती थी। खाला। ४. चेचक या शीतला नामक रोग। ५. गौ। ६. जमीन। भूमि। ७. विभूति। ८. लक्ष्मी। ९. इंद्रवारुणी। १॰. जटामासी। वि० [सं० मत्त] [स्त्री० माती] मदमस्त। मतवाला।
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मातामह  : पुं० [सं० मातृ+डामहच्] [स्त्री० मातामहो] किसी कीमाता का पिता। नाना।
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मातिल-सूत  : पुं० [सं० ब० स०] इंद्र।
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मातु  : स्त्री०=माता। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मातुल  : पु० [सं० मातृ+डुलच्] [स्त्री० मातुला, मातुलानी] १. माता का भाई मामा। २. धतूरा। ३. एक प्रकार का धान। ४. एक प्रकार का साँप। ५. मदन नामक वृक्ष।
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मातुला  : स्त्री०=मातुलानी।
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मातुलानी  : स्त्री० [सं० मातुल+ङीष्+आनुक्] १. मामा की स्त्री। मामी। २. भाँग।
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मातुली  : स्त्री० [सं० मातुल+ङीष्] १. मामा की पत्नी। मामी। २. भाँग।
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मातुलुंग  : पुं० [सं० मातुल√गम्+खच्, मुम्, पृषो० सिद्धि] बिजौरा नींबू।
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मातुलेय  : पुं० [सं० मातुली+ठक्-एय] [स्त्री० मातुलेयी] मामा का लडका। ममेरा भाई।
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मातृ  : स्त्री० [सं० दे० ‘माता’] जननी। माता।
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मातृ-गण  : पुं० [ष० त०] सात अथवा आठ मातृकाओं का गण या वर्ग।
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मातृ-चक्र  : पुं० [ष० त०] मातृकाओं का समूह।
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मातृ-तंत्र  : पुं० [ष० त०] कुछ प्राचीन जातियों में वह सामाजिक व्यवस्था जिसमें गृह की स्वामिनी माता मानी जाती थी और वह घरेलू व्यवस्था भी करती थी। (मैट्रिआर्की)।
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मातृ-तीर्थ  : पुं० [मध्य० स०] हथेली में छोटी उँगली के मूल का उभरा हुआ स्थान। (ज्योतिषी)
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मातृ-देश  : पुं० [सं० ष० त०] १. मृतभूमि। २. विशेषतः विदेशों में जाकर बसे हुए लोगों की दृष्टि से उनके पूर्वजों की मातृभूमि।
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मातृ-नंदन  : पुं० [सं० ष० त०] १. कार्तिकेय। २. महाकरंज।
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मातृ-पूजा  : स्त्री० [ष० त०] विवाह के दिन से पहले छोटे-छोटे मीठे पुए बनाकर पितरों का किया जानेवाला पूजन।
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मातृ-प्रणाली  : स्त्री०=मातृ-तंत्र।
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मातृ-बंधु  : पुं० [ष० त०] माता के संबंध का अथवा मातृपक्ष का कोई आत्मीय।
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मातृ-भाषा  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी व्यक्ति की दृष्टि से उसकी माँ द्वारा बोली जानेवाली भाषा जिसे वह माँ की गोद में ही सीखने लगता है। २. किसी व्यक्ति की दृष्टि से वह भाषा जो उसकी राष्ट्रीयता के अन्य लोग बोलते हों।
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मातृ-भूमि  : स्त्री० [ष० त०] वह स्थान या देश जिसमें किसी का जन्म हुआ हो और इसीलिए जो उसे माता के समान प्रिय समझता हो।
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मातृ-मंडल  : पुं० [ष० त०] दोनों आँखों के बीच का स्थान।
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मातृ-माता (तृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. माता की माता। नानी। २. दुर्गा।
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मातृ-मुख  : वि० [ब० स०] हर काम या बात में माता का मुँह ताकनेवाला अर्थात् जड़मति। मूर्ख।
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मातृ-यज्ञ  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का यज्ञ जो मातृकाओं के उद्देश्य से किया जाता है।
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मातृ-रिष्ट  : पुं० [सं० ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार एक दोष जिसके कारण प्रसव के उपरान्त माता पर संकट आता या उसके प्राण जाने का भय होता है।
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मातृ-वत्सल  : पुं० [सं० ष० त०] कार्तिकेय।
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मातृ-शासित  : वि० [सं० तृ० त०] माता के शासन मे ही ठीक तरह से रहनेवाला, अर्थात् मूर्ख।
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मातृ-ष्वसा (सृ)  : स्त्री० [सं० ष० त०] मौसी। माँ की बहन।
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मातृ-सत्रा  : स्त्री० [सं०] =मातृतंत्र।
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मातृ-सपत्नी  : स्त्री० [सं० ष० त०] सौतेली माता। विमाता।
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मातृ-स्तन्य  : पुं० [सं० ष० त०] माँ का दूध।
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मातृ-हत्या  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. माँ को मार डालना। (मैट्रिसाइड)। २. माँ को मार डालने से लगनेवाला पाप।
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मातृक  : वि० [सं० समास में] १. माता-सबंधी। माता का। २. माता के पक्ष से प्राप्त होनेवाला (अधिकार, व्यवहार आदि) ‘पितृक’ का विरुद्धार्थक (मैट्रिआर्कल)। पुं० १. मामा। २. ननिहाल। वि० सं० ‘मात्रिक’ का अशुद्ध रूप। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मातृक-च्छिद  : पुं० [सं० मातृ-क=शिर, ष० त०, मातृक√छिद् (काटना)+क, तुक्] परशुराम।
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मातृक-प्रणाली  : स्त्री० दे० ‘मातृ-तंत्र’।
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मातृका  : पुं० [सं० मातृ+कन्+टाप्] १. जननी। माता। २. गौ। ३. दूध पिलानेवाली दाई। धाय। ४. सौतेली माँ। उपमाता। ५. तांत्रिकों की एक प्रकार की देवियाँ जिनकी संख्या मात कही गयी है। ६. वर्णमाला की बारहखड़ी। ७. ठोढ़ी पर की आठ विशिष्ट नसें। ८. वह स्त्री जो लड़कियों, दाइयों आदि के कामों को देख-रेख करती हो। (मेट्रन)।
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मातृका-क्रम  : पुं० दे० ‘अक्षर क्रम’।
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मातृत्व  : पुं० [सं० मातृ+त्व] मातृ या माता अर्थात् संतानवती होने की अवस्था पद या भाव। (मैटर्निटी)।
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मातृपक्ष  : पुं० [सं० ष० त०] किसी की माता के पूर्वजों का कुल या पक्ष। ननिहाल।
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मातृष्वसेय  : पुं० [सं० मातृष्वस्+ढक्, एय] [स्त्री० मातृष्वसेयी] मौसेरा भाई।
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मांत्र  : वि० [सं० मंत्र+ठक्, ठ-इक] १. वह जो मंत्रों का पाठ करने में पारंगत हो। २. वह जो मंत्र-तंत्र आदि का अच्छा ज्ञाता हो।
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मात्र  : अव्य० [सं०√मा (मान)+त्रण्] इस, इन या इतने से अधिक दूसरा नही। जैसे—(क) मात्र एक रुपया मुझे मिला है। (ख) मात्र १५ आदमी वहाँ पहुँचे। (ग) सब चुप रहे, मात्र बोलनेवाले अधिकारी गण थे।
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मात्रक  : पुं० [सं० मात्र+कन्] १. वह निश्चित मात्रा या मान जिसे एक मानकर उसी के हिसाब से या मेल से अन्य चीजों की संख्या निर्धारित की जाय। इकाई। (यूनिट)। २. किसी समूह की कोई एक वस्तु या अंग। ३. वह जिसकी भिन्न या स्वतन्त्र सत्ता हो। (यूनिट)।
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मात्रा  : स्त्री० [सं० मात्र+टाप्] १. लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई, गहराई दूरी, विस्तार संख्या आदि जानने या निश्चित करने का परिमाण या साधन। २. कोई ऐसा मानक उपकरण या साधन जिससे कोई चीज तौली या नापी-जोखी जाती हो। परिमाण या माप जानने का साधन। ३. किसी वस्तु का ठीक आयतन, तौल या नाप। परिमाण। ४. किसी पूरी या समूची इकाई का उतना अंश या भाग जितना अपेक्षित, आवश्यक या प्रस्तुत हो। जैसे—(क) वहां सभी पदार्थ बहुत अधिक मात्रा में रखे थे। (ख) दाल में नमक कुछ अधिक मात्रा में पड़ गया है। ४. औषधि आदि का उतना अंश या परिमाण जितना एक बार में खाया जाता हो या खाया जाना अपेक्ष्य हो या उचित हो। ६. किसी चीज का नियत या निश्चित छोटा भाग। ७. उतना काल या समय जितना एक ह्रस्व अक्षर का उच्चारण करने में लगता है। ८. उच्चारण, संगीत आदि में काल का उतना अंश जितना किसी विशिष्ट ध्वनि के उच्चारण में लगता है। ९. बारह खड़ी लिखने में वह स्तर-चिन्ह जो किसी अक्षर के ऊपर नीचे या आगे-पीछे लगता है। जैसे—ह्रस्व इ की मात्रा और दीर्घ ऊ का मात्रा। १॰. संगीत में उतना काल जितना एक स्वर के उच्चारण में लगता है। ११. संगीत मे ताल का नियत या निश्चित विभाग। जैसे—तीन मात्राओं का ताल, चार मात्राओं का ताल। १२. इंद्रिय, जिसके द्वारा विषयों का ज्ञान होता है। १३. अंग। अवयव। १४. किस वस्तु का बहुत छोटा कण या अणु। १५. आवृत्ति रूप। १६. बल। शक्ति। १७. राजाओं के वैभव के सूचक घोड़े, हाथी आदि परिच्छद। १८. कान में पहनने का एक प्रकार का घोडा।
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मात्रा-वृत्त  : पुं० [मध्य० स०] मात्रिक छन्द।
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मात्रा-स्पर्श  : पुं० [ष० त०] विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग।
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मात्रासम  : पुं० [स० त०+कन्] एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ मात्राएँ और अन्त में गुरु होता है।
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मात्रिक  : वि० [सं० मात्रा+ठक्-इक] १. मात्रा-संबंधी। २. किसी एक इकाई से सम्बन्ध रखनेवाला। एकात्मक। (युनिटरी)। ३. जिसमें मात्राओं की गणना या विचार होता है। जैसे—मात्रिक छन्द।
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मात्रिक-छंद  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह छंद जिसके चरणों की गठन मात्राओं का ध्यान रखकर की गयी हो।
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मात्सर  : वि० [सं० मत्सर+अण्] मत्सरयुक्त।
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मात्सर्य  : पुं० [सं० मत्सर+ष्यञ्] मत्सर का भाव। ईर्ष्या। डाह।
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मात्स्य  : वि० [सं० मत्स्य+अण्] मछली-संबंधी। मछली का। पुं० एक प्राचीन ऋषि।
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मात्स्य-न्याय  : पुं० [सं० कर्म० स०] ऐसी स्थिति जिसमें बड़ा या शक्तिशाली छोटे या दुर्बल को उसी प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।
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मात्स्यिक  : पुं० [सं० मतस्य+ठक्-इक] मछली मारनेवाला। मछुआ। वि० मत्स्य या मछली से सम्बन्ध रखनेवाला।
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माथ  : पुं० =माथा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माथ-बंधन  : पुं० [हिं० माथा+सं० बंधन] १. सिर पर लपेटने या बाँधने का कपड़ा। जैसे—पगड़ी, साफा आदि। २. स्त्रियों की चोटी बाँधने की डोरी। चोटी। पराँदा।
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माथना  : सं०=मथना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मांथर्य  : पुं० [सं० मंथर+ष्यञ्] १. मंथर होने की अवस्था या भाव। मंथरता। धीमापन। २. सुस्ती।
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माँथा  : पुं० [सं० मस्तक] माथा। सिर।
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माथा  : पुं० [सं० मस्तक] १. सिर का अगला भाग। मस्तक। पद—माथा-पच्ची, माथा-पिट्टन। मुहावरा—(किसी के आगे या सामने) माथा घिसना=बहुत दीनता या नम्रतापूर्वक मिन्नत या खुशामद करना। माथा टेकना=सिर झुकाकर प्रणाम करना। माथा ठनकना= (क) सिर में हलकी धमक या पीड़ा होना। (ख) लाक्षणिक रूप में पहले से ही किसी दुर्घटना या बाधा होने की आसंका होना। माथा रगड़ना=दे० ऊपर माथा घिसना। माथे चढ़ना=शिरोधार्य करना। (किसी के) माथे का टीका होना=कोई ऐसी विशेषता होना जिसके कारण महत्त्व या श्रेष्ठता प्राप्त हो। माथे पर बल पड़ना=आकृति से अप्रसन्नता, रोष आदि प्रकट होना। माथे भाग होना=भाग्यवान् होना। (कोई चीज किसी के) माथे मारना=बहुत उपेक्षापूर्वक या तुच्छ भाव से देना। जैसे—वह रोज तमाशा करता है, उसकी किताब उसके माथे मारो। २. ऐसा अंकन या चित्र जिसमें केवल मुख और मस्तक बना हो, धड आदि शेष अंग न दिखाये गये हों। विशेष—शेष मुहावरों के लिए देखे सिर के मुहावरा। ३. किसी पदार्थ का अगला और ऊपरी भाग। जैसे—नाव का माथा। मुहावरा—माथा मारना=जहाज का वायु के विपरीत जोर मारकर चलना (लश०) पुं० [देश] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा।
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माथा-पच्ची  : स्त्री० [हिं० माथा+पचाना] किसी काम या बात के लिए बहुत अधिक बोलने या समझने-समझाने के लिए होनेवाला ऐसा परिश्रम जिससे जी ऊब जाय या शरीर थक जाय। सिर-पच्ची।
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माथा-पिट्टन  : स्त्री० [सं० माथा+पीटना] १. दुःख आदि के समय अपना सिर पीटने की क्रिया या भाव। २. दे० ‘माथा-पच्ची’।
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माथुर  : पुं० [सं० मथुरा+अण्०] [स्त्री० मथुरानी] १. मथुरा का निवासी। २. मथुरा में रहनेवाले चतुर्वेदी ब्राह्मण। चौबे। २. कायस्थों में एक जाति या वर्ग। ४. वैश्यों में एक जाति या वर्ग। ४. मथुरा और उसके आस-पास का प्रदेश। ब्रज-मंडल। वि० मथुरा-संबंधी। मथुरा का।
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माथे  : क्रि० वि० [हिं० माथा] मस्तक पर। अव्य०=मत्थे।
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माथै  : अव्य०=मत्थे। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँद  : वि० [सं० मंद] १. जो उदास या फीका पड़ गया हो। जिसका रंग उतर गया या हलका पड़ा गया हो। मलिन। २. फीका। श्री-हीन। ३. किसी की तुलना में घटकर या हलका। क्रि० प्र०—पड़ना। ४. दबा या हारा हुआ। पराजित। मात। स्त्री० [देश] १. गोबर का ढेर जो सूख गया हो और जलाने के काम में आता हो। २. जंगलों पहाड़ों आदि में सुरंग की तरह की कोई ऐसी प्राकृतिक स्थान जिसमें कोई हिंसक पशु रहता हो।
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माद  : पुं० [सं०√मद् (मत्त होना)+घञ्] १. अभिमान। २. प्रसन्नता। हर्ष। ३. मद। मत्तता। पुं० [?] छोटा रस्सा। (लश०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादक  : वि, ० [सं०√मद्+ण्वुल्-अक] मद के रूप में होनेवाला। फलतः नशा लानेवाला। नशीला। पुं० १. नशा उत्पन्न करनेवाला पदार्थ। जैसे—अफीम, भाँग, शराब आदि। २. प्राचीन काल का एक प्रकार का असत्र। कहते है कि इसके प्रयोग से शत्रु में प्रमाद उत्पन्न होता था। ३. एक प्रकार का हिरन।
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मादकता  : स्त्री० [सं० मादक+तल्+टाप्] मादक होने की अवस्था या भाव।
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माँदगी  : स्त्री० [पा०] १. माँदा होने की अवस्था या भाव। १. बीमारी। रोग। ३. थकावट।
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मादन  : पुं० [सं०√मद्+णिच्+ल्युट-अन, वृद्धि] १. मदन नामक वृक्ष। २. कामदेव। मदन। ३. लौंग। ४. धतूरा। वि० =मादक। उदाहरण—जैसे असंख्य मकुलों का मादन विकास कर आया।—प्रसाद।
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मादनी  : स्त्री० [सं० मादन+ङीष्] १. भाँग। २. मदिरा। शराब। ३. नशा लानेवाली कोई चीज। उदाहरण—बिना मादनी का जग जीवन बिना चाँदनी का अंबर।
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मादनीय  : वि० [सं०√मद्+णिच्+अनीयर] मादक। नशीला।
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माँदर  : पुं० =मर्दल (बाजा)।
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मादर  : स्त्री० [सं० मातृ से फा०] माँ। माता। पुं० =मादल या मर्दल नामक बाजा। उदाहरण—मंदिर वेगि सँवारा मादर तर उछाह।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादरजाद  : वि० [फ़ा०] १. जन्म का। जैसे—मादरजाद अंधा। २. जैसा जन्म के समय रहा हो, ठीक वैसा। जैसे—मादरजाद नंगा। ३. एक ही माता से उत्पन्न (दो या अधिक)। सगा सहोदर।
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मादरिया  : स्त्री०=मादर। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मादरी  : वि० [फा०] माता-संबंधी। माता का।
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मादल  : पुं० [सं० मर्दल] पखावज की तरह का एक बाजा।
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माँदा  : वि० [फा० मांदः] १. बीमार। रोग आदि से ग्रस्त। पद—थका-मांदा। २. छोड़ा हुआ। बचा हुआ।
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मादा  : पुं० [फा० मादः] स्त्री जाति की जीव या प्राणी। जैसे—साँड़ की मादा गाय कहलाती है। पुं० =माद्दा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांदार  : वि० [सं० मंदार+अण्] मंदार (मदार) संबंधी।
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मादिक  : वि० =मादक। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादिकता  : स्त्री०=मादकता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादिन  : स्त्री०=मादा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मादी  : स्त्री०=मादा।
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मादीन  : स्त्री०=मादा।
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माद्दा  : पुं० [अ० माद्दः] १. वह मूल तत्त्व या द्रव्य जिससे सारे संसार की सृष्टि हुई है। २. वह मूल पदार्थ जिससे कोई दूसरा पदार्थ बना हो। ३. व्याकरण में शब्द का मूल या व्युत्पत्ति। ४. वह गुण, तत्त्व, योग्यता अथवा पात्रता जिससे मनुष्य कुछ करने-धरने या समझने-भूझने के योग्य होता है। ५. फोड़े में से निकलनेवाली पीब। मवाद। ६. किसी चीज के अन्दर भरा हुआ कोई दोष या विकार।
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माद्दी  : वि० [अ०] १. माद संबंधी। मादा का। २. भौतिक। जड़। ३. पैदाइशी।
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मांद्य  : पुं० [सं० मंद+ष्यञ्] १. मंद होने की अवस्था या भाव। मंदता जैसे—अग्नि मांद्य। २. दुर्बलता। ३. कमी। न्यूनता। ४. बीमारी। रोग। ५. मूर्खता।
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माद्रवती  : स्त्री० [सं०] १. राजा परीक्षित की स्त्री का नाम। २. पांडु की दूसरी पत्नी का नाम। माद्री।
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माद्री  : स्त्री० [सं० मद्र+अण्+ङीप्] मद्र देश के राजा की कन्या जो राजा पांडु से ब्याही गयी थी। नकुल और सहदेव इसी के पुत्र थे।
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माद्रेय  : पुं० [सं० माद्री+ढक्, ढ-एय] माद्री के पुत्र नकुल और सहदेव।
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माधव  : वि० [सं० मधु+अण्] १. मधु संबंधी। २. मधु ऋतु सम्बन्धी। ३. मधु राक्षस का (वंशज)। पुं० [सं० ष० त०] १. कृष्ण। २. वैशाख मास। ३. बसंत ऋतु। ४. महुआ। ५. काला उड़द। ६. एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में ८ जगण होते हैं। ७. एक प्रकार का राग जो भैरव राग के आठ पुत्रों में से एक माना गया है ८. एक प्रकार का संकर राग जो मल्लाह, बिलावल और नट-नारायण के योग से बना है।
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माधवक  : पुं० [सं० माधव+वुञ्-अक] महुए की शराब।
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माधविका  : स्त्री० [माधवी+कन्+टाप्, ह्रस्व] माधवी लता।
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माधवी  : स्त्री० [सं० माधव+ङीप्] १. एक तरह का प्राचीन पेय पदार्थ जो मधु से बनाया जाता था। २. एक प्रसिद्ध लता जिसमें सुगंधित फूल लगते हैं। ३. उक्त लता के फूल। ४. संगीत में, ओडव जाति की एक रागिनी जिसमें गांधार और धैवत वर्जित है। ५. वाम नामक सवैया छन्द का एक भेद। ६. तुलसी। ७. दुर्गा। ८. कुटनी। दूती। ९. शहद की चीनी।
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माधवी-लता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] माधवी नामक सुगंधित फूलों की लता।
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माधवोद्भव  : पुं० [सं० माधव-उद्भव, ब० स०] खिरनी का पेड़।
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मांधाता (तृ)  : पुं० [सं० माम्√धे (पाना)+तृच्] अयोध्या का एक प्राचीन सूर्यवंशी राजा जो दिलीप के पूर्वजों में से था।
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माधी  : पुं० [देश] एक प्रकार का राग।
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माधुक  : पुं० [सं० मधुक+अण्] १. मैत्रेयक नाम की वर्णसंकर जाति। २. महुए की शराब।
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माधुकर  : वि० स्त्री० [स० मधुकर+अण्] [स्त्री० माधुकरी] मधुकर या भौंरे की तरह का।
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माधुपार्किक  : पुं० [स० मधुपर्क+ठक्-इक] वह पदार्थ जो मधुपर्क देने के समय दिया जाता है। वि० १. मधुपर्क सम्बन्धी। मधुपर्क का। २. अतिथि को आदपूर्वक दिया जानेवाला।
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माधुर  : पुं० [सं० मधुर+अण्] मल्लिका। चमेली।
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माधुरई  : स्त्री०=मधुरता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माधुरता  : स्त्री०=मधुरता। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माधुरी  : स्त्री० [सं० माधुर्य+ङीष्, य लोप] १. मधुर होने की अवस्था या भाव। मधुरता। २. मिठास। ३. मिठाई। ४. शराब।
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माधुर्य  : पुं० [सं० मधुर+ष्यञ्] १. मधुर होने की अवस्था या भाव। मधुरता। २. शोभा से युक्त सुन्दरता। ३. मिठास। ४. पांचाली रीति के अन्तर्गत काव्य का एक गुण। ५. संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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माधैया  : पुं० =माधव। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माधो  : पुं० =माधव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माधौ  : पुं० =माधव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माध्य  : पुं० [सं० माघ+यत्] कुंद का फूल।
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माध्य  : वि० [सं० मध्य+अण्] मध्य का। बिचला। पुं० १. कई संख्याओं आदि के जोड़ को गिनती की उन संख्याओं से भाग देने पर निकलनेवाला भाग-फल जो उन सब संख्याओं का औसत या मध्यमान सूचित करता है। बराबर का पड़ता। औसत। (एवरेज)। उदाहरणार्थ यदि किसी विद्यालय की पहली कक्षा में ३॰, दूसरी कक्षा में २५, तीसरी कक्षा में २॰, चौथी कक्षा में १५ और पाँचवी कक्षा में १॰ विद्यार्थी हों तो सब मिलाकर १॰॰ विद्यार्थी हुए। कक्षाएँ कुल ५ हैं, अतः १॰॰ को ५ से भाग देने पर भाग-फल २॰ होगा। इस आधार पर कहा गया कि विद्यालय की प्रत्येक कक्षा में विद्यार्थियों का माध्य २॰ है। २. दे० ‘मध्यमान’।
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माध्यकर्षण  : पुं० [सं० माध्य-आकर्षण, कर्म० स०] भौतिक विज्ञान में यह तत्त्व या सिद्धान्त कि पृथ्वी और उसके चारों ओर के आकाश या वातावरण में जितने पदार्थ हैं, वे सब पृथ्वी के केन्द्र की ओर आकृष्ट होते हैं—पृथ्वी का मध्यभाग या केन्द्र उन्हें अपनी ओर आकृष्ट करता हैं। प्रत्येक पदार्थ गिरने पर पृथ्वी की ओर आकृष्ट होता है, वह इसी माध्याकर्षण का परिणाम है। (ग्रैविटी)।
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माध्यंदिन  : पुं० [सं० मध्य+दिनण्, पृषो० नुम्] मध्याह्न। दोपहर।
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माध्यंदिनी  : स्त्री० [सं० माध्यंदिन+ङीष्] शुक्ल यजुर्वेद की एक शाखा।
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माध्यंदिनीय  : पुं० [सं० माध्यंदिन+छ-ईय] नारायण। परमेश्वर।
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माध्यम  : वि० [सं० मध्यम+अण् या मध्य+मण्] मध्य का। बीचवाला। पुं० १. वह तत्त्व जिसके द्वारा कोई क्रिया संपन्न होती है, कोई परिणाम या फल निकलता हो अथवा किसी प्रकार का प्रभाव उत्पन्न होता हो। किसी क्रिया का मध्यवर्ती उपाय या साधन २. वह भाषा जिसके द्वारा शिक्षा दी जाय। ३. (कला के क्षेत्र में) वह पदार्थ जिसके आधार या सहायता से कोई कृति प्रस्तुत की जाय। ४. वह व्यक्ति जिसमें किसी अन्य व्यक्ति की आत्मा पाकर कुछ समय के लिए ठहरती और अपनी बातें, उत्तर आदि उसी व्यक्ति के द्वारा प्रकट करती या कहती हो।
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माध्यमिक  : वि०=माध्यमिक।
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माध्यमिक  : पुं० [सं० मध्यम+ठक्-इक] १. बौद्धों के महायान की दो शाखाओं में से एक शाखा (दूसरी शाखा योगाचार) है जिसका मत है कि सब पदार्थ शून्य से उत्पन्न होते है और अंत में शून्य हो जाते हैं। २. मध्य देश। ३. मध्य देश का निवासी। वि० =माध्य।
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माध्यमिक शिक्षा  : स्त्री० [कर्म० स०] प्रारम्भिक शिक्षा के उपरांत और उच्च शिक्षा के पहले दी जानेवाली शिक्षा (सेकेंडरी एजुकेशन) विशेष—मुख्यतः पाँचवी कक्षा से १0वीं या ११वीं कक्षाओं तक दी जानेवाली शिक्षा।
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माध्यस्थ  : पुं० [सं० मध्य√स्था (ठहरना)+क+अण्] १. मध्यस्थ। बिचवई। २. मध्यस्थता। ३. दलाल। ४. प्रेमी और प्रेमिका का दूतत्व करनेवाला व्यक्ति। कुटना। ५. विवाह करानेवाला ब्राह्मण। बरेखी।
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माध्याह्निक  : पुं० [सं० मध्याह्न+ठक्-इक] ठीक मध्याह्न के समय किया जानेवाला धार्मिक कृत्य।
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माध्यिक  : वि० [सं०] १. मध्य-सम्बन्धी। मध्य का। २. बीच में रहने या होनेवाला। पुं० १. किसी क्रम या श्रृंखला के ठीक बीच का वह बिन्दु जिसके ऊपर और नीचे दोनो ओर गिनती के विचार से बराबर इकाइयाँ हों। (मीडियन)। जैसे—१, २, ३, ४ और ५ में ३ माध्यिक है।
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माध्व  : वि० [सं० मध्व+अण्] १. मधुनिर्मित। २. बसंत सम्बन्धी। पुं० १. विष्णु। २. कृष्ण। ३. बसंत। ४. वैशाख। ५. मध्वाचार्य द्वारा चलाया हुआ एक वैष्णव संप्रदाय। ६. महुए का पेड़। ७. काला मूँग।
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माध्वक  : पुं० [सं० माध्वीक, पृषो, ई-अ] महुए की शाखा।
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माध्विक  : पुं० [सं० मधु+ठक्-इक, वृद्धि] वह जो मधु-मक्खियों के छत्तों में से शहद इकट्ठा करने का काम करता हो।
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माध्वी  : स्त्री० [सं० मधु+अण्+ङीष्] १. एक तरह की लता जिसमें सुगंधित फूल लगते हैं। माधवी लता। २. महुए की शराब। ३. मदिरा। शराब। ४. पुराणानुसार एक नदी का नाम। ५. मधुर-कंटक नामक मछली। ६. वाम नामक छंद।
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माध्वीक  : पुं० [सं० माध्वी+कन्] १. महुए की शराब। २. दाख की शराब। ३. मकरंद। ४. सेम।
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माध्वीका  : स्त्री० [सं० माध्वीक+टाप्] सेम।
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मान  : पुं० [सं०√मान् (पूजा)+घञ्] १. प्रतिष्ठा। सम्मान। इज्जत। पद—मान-महत, मान-हानि। मुहावरा—(किसी का) मान रखना=ऐसा काम करना जिससे किसी की प्रतिष्ठा बनी रहे। २. अपनी प्रतिष्ठा या सम्मान अथवा गौरव का उचित अभिमान या ध्यान। आत्म-गौरव या आत्मप्रतिष्ठा का मन में रहनेवाला भाव या विचार। ३. अनुचित और निंदनीय रूप में होनेवाला अभिमान। घमंड। शेखी। मुहावरा—(किसी का) मान मथना= अच्छी तरह दबाकर या पीड़ित करके अभिमान और प्रतिष्ठा नष्ट करना। ४. मन में होनेवाला विकार जो अपने प्रिय व्यक्ति को अनुचित तथा फलस्वरूप उस व्यक्ति के प्रति उदासीनता होने लगती है रूठने की क्रिया या भाव। विशेष—स्त्रियाँ प्रायः ईर्ष्यावश अपने पति या प्रेमी के प्रति रूठे हुए होने का जो भाव व्यक्त करती हैं, साहित्य में विशिष्ट रूप से वही मान कहलाता है। पद—मान-मोचन। मुहावरा—मान मनाना=रूठे हुए व्यक्ति का मान दूर करके उसको मनाना। मान मोड़ना=मान का त्याग करना। रूठा न रहना। पुं० [सं०√मा (मापना)+ल्युट-अन] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। २. मापने या नापने पर ज्ञात होनेवाला परिमाण। मापफल। ३. वह मानक दंड या पात्र जिसके द्वारा कोई चीज तौली या नापी जाती है। तौल, नाप आदि जानने का साधन। जैसे—गज, सेर आदि। ४. ऐसा काम या बात जिससे कोई चीज या बात प्रमाणिक अथवा सिद्ध हो जाती है। ५. तुल्यता। समानता। ६. किसी काम या बात के संबंध में ऐसी योग्यता या शक्ति जिससे वह काम या बात पूरी उतर सके या उस पर ठीक तरह से वश चल सके। जैसे—यह काम उनके मान का नहीं हैं, अर्थात् इस काम के लिए जिस योग्यता या शक्ति की अपेक्षा है उसका उनमें अभाव है। मुहावरा—(किसी के) मान रहना=किसी के आश्रय या भरोसे में रहना। किसी के बल या सहारे पर अच्छी तरह जीवन-निर्वाह करना या समय बिताना। जैसे—यदि आज उन्हें कुछ हो जाता तो मैं किसके मान दिन बिताती। (स्त्रियाँ)। ७. पुष्कर द्वीप का एक पर्वत। ८. उत्तर दिशा का एक देश। ९. ग्रह। १॰. मंत्र। ११. संगीत शास्त्र के अनुसार ताल में का विराम जो सम, विषम, अतीत और अनागत चार प्रकार का होता है।
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मान कच्चू  : पुं० =मानकंद।
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मान-चित्र  : पुं० [सं० ष० त०] किसी चिपटे तल पर किया हुआ रेखाओं का ऐसा अंकन जिसमें किसी भू-भाग की नदियों, पहाड़ों, नगरों आदि के स्थान, विस्तार आदि दिखाये गये हों। किसी स्थान का बना हुआ नक्शा (मैप)। जैसे—एशिया का मानचित्र।
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मान-चित्रक  : पुं० [सं०] वह जो मानचित्र बनाता या मान-चित्रण करता हो।
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मान-चित्रण  : पुं० [सं०] मानचित्र अर्थात् नक्शे बनाने की कला या विद्या (मैपिंग)।
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मान-दंड  : पुं० [सं० ष० त०] १. मान नापने का कोई उपकरण। २. लाक्षणिक रूप में कोई ऐसा कल्पित परिमाण जिससे दूसरी बातों का महत्त्व या मूल्य आँका जाता हो।
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मान-देय  : पुं० [सुप्सुपा स०] किसी काम या सेवा के बदले में आदरपूर्वक दिया जानेवाला धन। (आनरेरियम)।
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मान-धन  : पुं० [ब० स०] १. वह जो अपने मान या प्रतिष्ठा को सबसे अधिक मूल्यवान समझता हो। आत्म-सम्मान या ध्यान रखनेवाला। २. अभिमानी। घमंडी।
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मान-भाव  : पुं० [ष० त०] १. वह अवस्था जिसमें कोई मान करके या रूठकर बैठा हो। २. चोंचला। नखरा।
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मान-मंदिर  : पुं० [स० त०] १. दे० ‘मानगृह’। २. वह स्थान, जिसमें ग्रहों आदि का वेध करने के यंत्र तथा सामग्री हों। वेधशाला। विशेष—जयपुर के महाराज मानसिंह ने काशी, दिल्ली, उज्जैन आदि में अपने नाम पर कुछ वेधशालाएँ बनवायी थी, उन्हीं के आधार पर अब वेधसाला मात्र को मान-मंदिर कहने लगे हैं।
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मान-मनौअल  : स्त्री० [हिं० मान=अभिमान+मनाना] रूठकर बैठनेवाले या रूठे हुए को मनाने की क्रिया या भाव।
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मान-मनौती  : स्त्री०[हिं० मान+मनौती] १. मानता। मनौती। २. पारस्परिक प्रेमपूर्वक सम्बन्ध। ३. दे० ‘मान-मनौअल’।
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मान-मरोर  : स्त्री० दे० ‘मन-मुटाव’।
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मान-महत  : पुं० [सं० मान-महत्व] प्रतिष्ठा और बड़प्पन।
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मान-महत्  : वि० [ब० स०] बहुत बड़ा अभिमानी या घमंडी।
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मान-मोचन  : पुं० [ष० त०] (साहित्य में) मान करनेवाले प्रिय को मनाकर समझा-बुझाकर उसका मान छुड़ाना और उसे अपने प्रति प्रसन्न करना।
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मान-रंध्रा  : स्त्री० [सं० ब० स+टाप्] प्राचीन काल की जल-घड़ी जिसका व्यवहार समय जानने के लिए होता था।
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मान-हंस  : पुं० [सं० ष० त०] एक प्रकार का वर्ण वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में स, ज, ज, भ, र होते हैं।
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मान-हानि  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. कोई ऐसा काम या बात जिसमें किसी का अपमान या अप्रतिष्ठा होती हो और जो सामाजिक आदि दृष्टियों से अनुचित और निन्दनीय हो। २. इस प्रकार होनेवाली मानहानि। (डिफेमेशन)।
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मानक  : पुं० [स० मान+कप्] मानकच्चू। मानकंद। पुं० [सं० मान से] विशिष्ट वस्तुओं के आकार, प्रकार महत्त्व आदि जाँचने का कोई आधिकारिक आदर्श, मानदंड या रूप। (स्टैन्डर्ड)।
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मानक समय  : पुं० [सं०] दिन-रात आदि के समय का वह विभाजन जो किसी क्षेत्र या देश में आधिकारिक रूप से मानक माना जाता हो। (स्टैंडर्ड टाइम)।
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मानक-काल  : पुं० [सं०] दे० ‘मानक समय’।
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मानकंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. एक तरह का कंद। मानकच्चू। २. सालिब मिश्री नामक कंद।
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मानकित  : भू० कृ० [हिं० मानक से] मानक के रूप में किया या लाया हुआ। (स्टैंडर्डाइज़ड)।
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मानकीकरण  : पुं० [सं०] एक ही प्रकार या वर्ग की बहुत सी वस्तुओं के गुण, महत्त्व आदि का मानक रूप स्थिर करने की क्रिया या भाव। (स्टैण्डर्डाइजेशन)। जैसे—बटखरों का मानकीकरण, जजों का मानकीकरण।
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मानगृह  : पुं० [सं० ष० त०] १. प्राचीन राजमहलों में वह कमरा जिसमे राजा से रूठी हुई रानी मान करके बैठती थी। २. साहित्य में वह स्थान जहाँ पर नायिका मान करके बैठी हुई हो।
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मानचित्रांकन  : पुं० [सं० मानचित्र-अंकन, ष० त०] मानचित्र बनाने और रेखाचित्र अंकित करने की कला या विद्या।
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मानचित्रावली  : स्त्री० [सं० मानचित्रा-अवली, ष० त०] पृथ्वी, भीखण्डों, देशों, प्रांतो आदि के भौगोलिक चित्रों का पुस्तकाकार समूह। मानचित्रों का संकलन या संग्रह। (एटलस)।
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मानज  : पुं० [सं० मान√जन् (उत्पत्ति)+ड] क्रोध। वि० मान से उत्पन्न।
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मानतरू  : पुं० [सं० मध्यम०स०] खेतपापड़ा।
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मानता  : स्त्री०=मनौती। क्रि० प्र०—उतारना।—चढ़ाना।—मानना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मानद  : पुं० [सं० मान√दा (देना)+क] विष्णु। वि० मान या प्रतिष्ठा देने या बढ़ानेवाला।
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मानधाता  : पुं० =मांघाता (एक सूर्यवंशी राजा)।
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मानन  : पुं० [सं०√मान्+ल्युट-अन] १. मान करने की क्रिया या भाव। २. आदर या सम्मान करना।
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मानना  : अ० [सं० मानन] १. मन से यह समझ लेना कि जो कुछ कहा या किया गया है, अथवा जो कुछ प्रस्तुत है वह उचित है ठीक समझकर अंगीकृत या गृहीत करना। जैसे—मैं मानता हूँ कि इसमें आपका की दोष नहीं है। २. मन में किसी प्रकार की धारणा या विचार स्थिर करना। जैसे—आप तो जरा सी बात में बुरा मान गये। ३. किसी प्रकार की आज्ञा, आदेश, विधान आदि को ठीक समझकर उसके अनुकूल आचरण या व्यवहार करना। जैसे—वह सीधी तरह से नहीं मानेगा। स० १. किसी बात को अंगीकृत, ग्रहण या स्वीकार करना। जैसे—किसी की बात मानना। २. किसी काम बात या विषय के संबंध में तर्क के निर्वाह के लिए कुछ समय के लिए वस्तु-स्थिति के विपरीत कामना करना। जैसे—मान लीजिए कि उसने आकर आपसे क्षमा माँग ली, तो फिर क्या होगा। ३. किसी को पूज्य या श्रेष्ठ समझकर उसके प्रति मन में आदर, श्रद्धा या विश्वास रखना। जैसे—आर्य-समाजी हो जाने पर भी वे सनातन धर्म की बहुत सी बातें मानते थे। ४. किसी को विशिष्ट रूप से गुणी, योग्य या समर्थ समझना। जैसे—(क) मैं तो उसे बहादुर मानूँगा जो यह काम पूरा कर दिखलाये। (पूरब)। (ख) ऐसे गैरे लोगों को मैं कुछ नही मानता। ५. किसी प्रकार के आचरण, विधान आदि को निर्वाह या पालन के योग्य समझना और उसका अनुसरण करना। जैसे—(क) किसी का अनुरोध या आग्रह मानना। (ख) जन्माष्टमी या शिवरात्रि मानना। ६. मनौती या मन्नत के रूप में प्रतिज्ञा या संकल्प करना। जैसे—(क) काली जी को बकरा मानो तो लड़का जल्दी अच्छा हो जायेगा। (ख) मैंने हनुमान जी को सवा सेर लड्डू माना है, अर्थात् यह संकल्प किया है कि अमुक काम हो जाने पर सवा सेर लड्डू चढ़ाऊँगा। ७. श्रृंगारिक क्षेत्र में, किसी के प्रति यथेष्ट अनुराग या प्रेम रखना। किसी पर आसक्त होना। जैसे—दुश्चरित्रा स्त्रियाँ कभी एक को मानती है तो कही दूसरे को मानने लगती हैं। (बाजारू)। ८. सहन करना। सहना। उदाहरण—उपजत दोष नैन नहिं सूझत, रवि की किरन उलूक न मानत।—सूर। ९. किसी बात या स्थिति को अपने लिए अनुकूल, ठीक या हितकर समझते हुए शांति और सुखपूर्वक रहना। जैसे—कुत्ते या बिल्ली का पोस मानना। उदाहरण—कबहूँ मन विश्राम न मान्यो।—तुलसी।
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माननीय  : वि० [सं०√मान्+अनीयर] जिसका मान सम्मान करना आवश्यक या उचित हो। आदरणीय। पुं० बड़े लोगों के नाम या पद के पहले उपाधि के रूप में प्रयुक्त पद। (आँनरेबुल) जैसे—माननीय मंत्री महोदय।
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मानपत्र  : पुं० [ष० त०] वह पत्र जो किसी का आदर या सम्मान करने के लिए उसे भेट किया जाता है और जिसमें उसके सत्कार्यों, सद्गुणों आदि की स्तुति रहती है। अभिनन्दन पत्र।
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मानपात  : पुं० =मानकंद।
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मानव  : वि० [सं० मनु+अण्] मनु से संबंधित अथवा उससे उत्पन्न। पुं० १. मनुष्य। २. मनुष्य जाति। ३. १४ मात्राओं के छंदों की संज्ञा। इनके ६१० भेद हैं।
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मानव-देव  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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मानव-पति  : पुं० [सं० ष० त०] राजा।
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मानव-भूगोल  : पुं० [सं० ] भूगोल शास्त्र का वह अंग जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि प्राकृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का मानव जाति पर क्या प्रभाव पड़ता है। (एन्थ्रोपोजिएग्रेफी)।
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मानव-वर्जित  : वि० [सं० तृ० त०] जिसका कुछ भी मान या प्रतिष्ठा न हो अर्थात् तुच्छ या नीच।
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मानव-विज्ञान  : पुं० =मानव-शास्त्र।
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मानव-व्यापार  : पुं० [ष० त०] मनुष्यों को बेचने-खरीदने का काम।
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मानव-शास्त्र  : पुं० [ष० त०] १. मनुष्यों की उत्पत्ति, उनकी जातियों उनके स्वाभावों आदि का विवेचन करनेवाला शास्त्र। (एन्थ्रोपालोजी) २. अर्थशास्त्र, इतिहास, दर्शन, पुरातत्व, मनोविज्ञान, राजनीति, संगीत, संस्कृति, साहित्य आदि से संबंध रखनेवाले वे सभी शास्त्र जो मुख्यतः मानव-जाति की उन्नति, विकास आदि में सहायक होते हैं। (ह्यू-मैनिटिक्स)।
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मानव-शास्त्री (स्त्रिन्)  : पुं० [सं० मानवशास्त्र+इनि] मानव शास्त्र का ज्ञाता या पंडित। (एन्थ्रोपालोजिस्ट)।
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मानव-शास्त्रीय  : वि० [सं० मानवशास्त्र+छ-ईय] मानव-शास्त्रपर्वत।
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मानवक  : पुं० =माणवक।
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मानवता  : स्त्री० [सं० मानव+तल्+टाप्] १. मनुष्य जाति। २. मानव होने की अवस्था या भवा। ३. मनुष्य के आदर्श तथा स्वाभाविक गुणो, भावनाओं आदि का प्रतीक या समूह।
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मानवतावाद  : पुं० [ष० त०] [वि० मानवतावादी] वह लौकिक सिद्धान्त जिसमे यह माना जाता है कि संसार के सभी मनुष्यों का समान रूप में कल्याण होना चाहिए और सबको उन्नत करके संतुष्ट तथा सुखी रखने की व्यवस्था होनी चाहिए। (ह्यू-मैनिज़्म)
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मानवतावादी (दिन्)  : वि० [सं० मानवतावाद+इनि] मानवतावाद संबंधी। (ह्यू मैनिस्ट)। पुं० वह जो मानवतावाद के सिद्धान्तों का अनुयायी और पोषक या समर्थक हो। (ह्यू मैनिटेरियन)।
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मानवती  : स्त्री० [मानवत्+ङीष्] साहित्य में वह नायिका जो नायक से रुष्ट या असंतुष्ट होने पर मान करती हो या मान करके बैठी हो।
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मानवत्  : पुं० [सं० मान+मतुप्, म-व] [स्त्री० मानवती] रूठा हुआ।
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मानवाचल  : पुं० [सं० मानव-अचल, मध्य, स०] पुराणानुसार एक पर्वत।
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मानवी  : स्त्री० [सं० मानव+ङीष्] १. मानव-जाति की स्त्री। नारी। २. पुराणानुसार स्वयंभुव मनु की कन्या का नाम। वि० =मानवीय।
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मानवीकरण  : पुं० [सं० मानव+च्वि, इत्व, दीर्घ√कृ+ल्युट—अन] १. किसी वस्तु को मानव अर्थात् मनुष्य का रूप देने की क्रिया या भाव। मानुषीकरण। (ह्यूमेनिजेशन)। जैसे—कथा-कहानियों में पशु-पक्षियों आदि का होनेवाला मानवीकरण। २. कला, धर्म आदि के क्षेत्र में यह मानकर कि पदार्थों में राग-द्वेष आदि मानव-गुण होते हैं, उन्हें मानव के रूप में कल्पित और प्रस्थापित करना।
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मानवीय  : वि० [सं० मानव+छ—ईय] १. मानव-संबंधी। मानव या मनुष्य का। २. मनुष्योचित (ह्यू मेन)।
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मानवेंद्र, मानवेश  : पुं० [सं० मानव-इंद्र, मानव-ईश, ष० त०] राजा।
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मानःशिल  : वि० [सं० मनःशिल+अण्] १. मनःशिला या मैनसिल सम्बन्धी। २. मैनसिल के रंग में रँगा हुआ।
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मानस  : वि० [सं० मानस+छ-ईय] १. मन से उत्पन्न। मनोभव। २. मन में सोचा या विचारा हुआ। जैसे—मानस चित्र। क्रि० वि० मन के द्वारा। मन से। पुं० १. आधुनिक मनोविज्ञान में, मनुष्य की वह आंतरिक सत्ता जिसमें अनुभूतियाँ, विचार और संवेदनाएँ होती है। इसी का सबसे अधिक चेतन, परिचित तथा प्रत्यक्ष रूप चेतना कहलाता हैं। मन। (माइंड) विशेष—इसके चेतन, अवचेतन, अतिचेतन आदि कुछ और अंग या पक्ष भी माने गये हैं। २. मन में होनेवाला संकल्प-विकल्प। ३. मानसरोवर। ४. कामदेव। ५. संगीत में एक प्रकार का राग। ६. आदमी। मनुष्य। ७. चर। दूत। ८. शाल्मली द्वीप का एक वर्ष। ९. पुष्कर द्वीप का एक पर्वत।
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मानस-तीर्थ  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा मन जो राग, द्वेष आदि से बिलकुल रहित हो गया हो।
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मानस-पुत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह संतान जिसकी उत्पत्ति मात्र इच्छा से हुई हो, शारीरिक सम्भोग से न हुई हो। जैसे—सनक आदि ब्रह्मा के मानस-पुत्र कहे जाते हैं।
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मानस-पूजा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] पूजा के दो प्रकारों में से वह जिसमें मन से ही सब कृत्य किये जाते हैं, लौकिक उपचारों या साधनों का साहार नहीं लिया जाता है।
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मानस-विज्ञान  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह विज्ञान या शास्त्र, जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि मनुष्य का मन किस प्रकार अपने काम करता है। (मेन्टल साइन्स)।
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मानस-व्रत  : पुं० [सं० मध्य० स०] अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि व्रत जिनका पालन मन से ही होता है।
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मानस-शास्त्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] मनोविज्ञान।
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मानस-संन्यासी (सिन्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] दशनामी संन्यासियों का एक उपभेद।
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मानस-सर (स्)  : पुं० [सं० कर्म० स०] मानसरोवर।
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मानस-हंस  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में स, ज, ज, भ, र होता है। इसे मानहंस तथा रणहंस भी कहते हैं।
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मानसचारी (रिन्)  : पुं० [सं० मानस√चर् (गति)+णिनि] मानसरोवर के आसपास रहनेवाला हंस।
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मानसता  : स्त्री० [सं०] १. मन का भाव या स्थिति। २. वह विशेष स्थिति या वृत्ति जिसके वशवर्ती होकर मनुष्य किसी कार्य या विचार में प्रवृत्त होता है। मनोवृत्ति। (मेन्टैलिटी)।
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मानसर  : पुं० =मानसरोवर।
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मानसरोवर  : पुं० [सं० मानस-सरोवर] १. तिब्बत के क्षेत्र में एक प्रसिद्ध झील जो कैलास पर्वत के नीचे हैं और जो बहुत पवित्र तथा बड़े तीर्थों में मानी जाती है। २. हठयोग में सहस्रार चक्र जिसे कैलास भी कहते हैं और इसी दृष्टि से जिसमें उस भाव सरोवर की भी कल्पना की गयी जिसमें निर्लिप्त चित्तरूपी हंस विहार करता है।
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मानसालय  : पुं० [सं० मानस-आलय, ब० स०] हंस।
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मानसिक  : वि० [सं० मानस+ठक्—इक] १. मन की कल्पना से उत्पन्न। २. मन में होने या मन से संबंध रखनेवाला। जैसे—मानसिक रोगी, मानसिक कष्ट। ३. जिसमें सोच-विचार तथा मनन की अधिक अपेक्षा हो। (शारीरिक से भिन्न)। जैसे—मानसिक कार्य। पुं० विष्णु का एक नाम।
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मानसिक-चिकित्सालय  : पुं० [सं० कर्म० स०] वह चिकित्सालय जहाँ पर मानसिक रोगियों का उपचार किया जाता है। (मेन्टल हॉस्पिटल)।
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मानसिकी  : स्त्री०=मानस-विज्ञान। (मनोविज्ञान)।
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मानसी  : स्त्री० [सं० मानस+ङीप्] १. वह पूजा जो मन ही मन की जाय। मानसपूजा। २. एक विद्या देवी का नाम। वि० =मानसिक।
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मानसी-गंगा  : स्त्री० [सं०] ब्रज में गोवर्धन पर्वत के पास का एक सरोवर।
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मानसूत्र  : पुं० [सं० कर्म० स०] करघनी।
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मानसून  : पुं० दे० ‘मानसून’।
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मानहुं  : अव्य० =मानो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माना  : पुं० [इब] कुछ विशिष्ट प्रकार के वृक्षों बांसों आदि का गोंद या निर्यास जो चिकित्सा के काम आता है। मन्ना। स० [सं० मान] १. नापना, मापना या तौलना। २. जाँचना। पुं० अन्न आदि नापने का पात्र। अ०=अमाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माना-मथ  : पुं० =महना-मथन।
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मानांकन  : पुं० दे० ‘मूल्यांकन’।
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मानाथ  : पुं० [सं० कर्म० स०] लक्ष्मी के पति। विष्णु।
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मानाभिषेक  : पुं० [सं०] किसी बड़े अधिकारी या प्रधान व्यक्ति के अधिकारारूढ़ होने की क्रिया अथवा उससे संबंध रखनेवाला सामारोह। (इन्वेस्टिचर)।
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मानिक  : पुं० [सं० माणिक्य] १. लाल रंग के एक मणि के नाम। कुरुविंद। पदमराग। ३. आठ पल की एक पुरानी तौल।
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मानिक-खंभ  : पुं० [हिं० मानिक+खम्भा] १. वह खूँटा जो कांतर के किनारे गड़ा रहता है। मरखम। २. विवाह के समय मंडप के बीच में गाड़ा जानेवाला खम्भा। ३. दे० ‘मालखंभ’।
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मानिक-जोड़  : पुं० [हिं० मानिक+जोड़] एक प्रकार का बगुला जिसकी चोंच और टाँगे अधिक लम्बी होती हैं।
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मानिक-रेत  : स्त्री० [हिं० मानिक+रेत] मानिक का चूरा, जिससे गहने साफ किये जाते हैं।
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मानिकचंदी  : स्त्री० [सं० मानिकचंद] एक तरह की छोटी सुपारी।
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मानिका  : स्त्री० [सं०√मन् (गर्व करना)+णिच्+ण्वुल्-अक+टाप्, इत्व] १. मद्य। शराब। २. आठ पल या साठ तोले की एक पुरानी तौल।
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मानित  : भू० कृ० [सं० मान+इतच्] जिसका मान होता हो। प्रतिष्ठित। सम्मानित।
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मानिता  : स्त्री० [सं० मानित+टाप्] १. मानित्व। सम्मान। २. गौरव ३. अहंकार। घमंड।
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मानिंद  : वि० [फा०] सदृश। वि० =माननीय या मान्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मानिनी  : वि० स्त्री० [सं० मान+इनि+ङीष्] सं० ‘मानी’ का स्त्री। मान (अभिमान या गर्व) करनेवाली। स्त्री० साहित्य में वह नायिका जो नायक का दोष देखकर उससे रूठ गयी हो या मान कर रही हो।
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मानी (निन्)  : वि० [सं० मान+इनि] [स्त्री० मानिनी] १. जिसमें मान हो। मानवाला। २. अपने मान या प्रतिष्ठा का अधिक या यथेष्ठ ध्यान रखनेवाला ३. किसी गुण या बात का अभिमान करनेवाला। अभिमानी। घमंडी। ४. मान करने या रूठनेवाला। ५. जिसका लोग मान या सम्मान करते हों माननीय। जैसे—शहर के सभी धनी-मानी वहाँ आये थे। ६. मन लगाकर काम करनेवाला। मनोयोगी। पुं० [सं०] साहित्य में श्रृंगार रस का आलम्बन वह नायक जो बहुत बड़ा अभिमानी हो। स्त्री० [सं०] १. घड़ा। २. चक्की के नीचेवाले पाट के बीचो-बीच लगी रहनेवाली वह लकड़ी जिसके चारों ओर ऊपरवाला पाट घूमता है। ३. कुदाल, वसूले आदि का वह छेद जिसमें बेंट लगायी जाती है। ४. किसी चीज में बनाया हुआ वह छेद जिसमें कुछ जड़ा जाय। ५. किसी तरह का छेद या सूराख। ६. अन्न नापे का एक मान या तौल जो सोलह सेर की होती थी। पुं० [अ० मानो] १. पद, वाक्य, शब्द आदि का अभिप्राय या आशय। अर्थ। माने। २. भेद या रहस्यमूलक तत्त्व का आशय। तात्पर्य। मतलब। ३. उद्देश्य। प्रयोजन।
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मानुख  : पुं० =मनुष्य। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मानुष  : वि० [सं० मनु+अञ्, षुक्] [स्त्री० मानुषी] मनुष्य संबंधी। मनुष्य का। पुं० १. आदमी। मनुष्य। २. प्रमाण के तीन भेदों में से एक।
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मानुषक  : वि० [सं० मनुष्य+वुञ्-अक] मनुष्य-संबंधी। मनुष्य का।
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मानुषता  : स्त्री० [सं० मानुष+तल्+टाप्] मनुष्य होने की अवस्था या भाव। आदमीयत। मनुष्यत्व।
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मानुषिक  : वि० [सं० मनुष्य+ठञ्, बुद्धि, य-लोप] १. मनुष्य सम्बन्धी। २. मनुष्यों का। (असुरों, देवताओं आदि की तरह का नहीं)।
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मानुषी  : स्त्री० [सं० मानुष+ङीष्] स्त्री। औरत। वि० =मानुषीय। जैसे—मानुषी चिकित्सा।
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मानुषी-चिकित्सा  : स्त्री० [सं० न्यस्तपद] वैद्यक में तीन प्रकार की चिकित्साओं में से एक। मनुष्यों के उपयुक्त चिकित्सा।
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मानुषीकरण  : पुं० =मानवीकरण।
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मानुषीय  : वि० [सं० मानुष+छ-ईय] मनुष्य-संबंधी।
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मानुष्य  : वि० [सं० मनुष्य+अण्, वृद्धि] १. मनुष्य-संबंधी। २. मनुष्य या मनुष्यों में पाया जाने या होनेवाला।
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मानुष्यक  : वि० [सं० मनुष्य+वुञ्-अक] मनुष्य-संबंधी।
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मानुस  : पुं० =मनुष्य। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माने  : पुं० [अ० मानी] अर्थ। आशय।
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मानो  : अव्य० [हिं० मानना] एक अव्यय जिसका प्रयोग नीचे लिखे अर्थ या भाव सूचित करने के लिए होता है। (क) अनुरूपता या तुल्यता के विचार से यह समझ लो कि। जैसे—वह मनुष्य क्या था मानों देवता था (ख) स्थिति आदि के विचार से कल्पना करो या मान लो कि। जैसे—हम लोग समझ लें कि मानो हम वही बैठे हैं।
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मानोखी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार की चिड़िया।
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मानोपाधि  : स्त्री० [सं० मान+उपाधि] वह उपाधि या खिताब जो किसी का मान बढ़ाकर उसे सम्मानित करने के लिए दिया जाय। (टाइटिल ऑफ आनर)।
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मानौ  : अव्य० =मानो। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मान्य  : वि० [सं०√मान्+ण्यत्] [स्त्री० मान्या] १. (बात) जिसे मान सकें। माने जाने के योग्य। २. (व्यक्ति) जिसका मान या सम्मान करना आवश्यक या उचित हो। मान या सम्मान का अधिकारी या पात्र। ३. प्रार्थना के रूप में उपस्थित किये जाने के योग्य। प्रार्थनीय। पुं० १. विष्णु २. शिव। ३. मैत्रावरुण।
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मान्य औषध कोश  : पुं० [सं०] दे० ‘भेषज संग्रह’।
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मान्य-व्यक्ति  : पुं० दे० ‘ग्राह्य-व्यक्ति’।
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मान्य-स्थान  : पुं० [सं० ष० त०] आदर या मान्य का कारण।
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मान्यता  : स्त्री० [सं० मान्य+तल्+टाप्] १. मान्य होने की अवस्था या भाव। २. किसी विषय में माने और स्थिर किये हुए तत्त्व या सिद्धांत। जैसे—कविता के स्वरूप के सम्बन्ध में उनकी कुछ मान्यताएँ बहुत ही अनोखी (या नयी) हैं। ३. सिद्धांत प्रथा आदि के रूप में मानने योग्य कोई तत्व, तथ्य या बात। ४. किसी बड़ी संस्था द्वारा किसी दूसरी छोटी संस्था के संबंध में यह मान लिया जाना कि वह प्रामाणिक है और उसके किये हुए कार्य ठीक समझे जायँगे। ५. वह अवस्था जिसमें उक्त प्रकार की बातें मान ली जाती है और उसके अनुसार छोटी संस्था को बड़ी संस्था के अंग के रूप में काम करने का अधिकार मिल जाता है। (रिकाग्निशन)।
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मान्सून  : पुं० [अ० मौसिम] १. भारतीय महासागर और दक्षिणी एशिया में चलनेवाली एक हवा जो अप्रैल से अक्तूबर तक दक्षिण-पश्चिम की ओर से तथा अक्तूबर से अप्रैल तक उत्तर-पश्चिम की ओर से बहती है। २. वह समय जब यह हवा दक्षिण-पश्चिम की ओर से बहती है और जिसके फलस्वरूप पृथ्वी के अधिकतर भागों में खूब वर्षा होती है। पावस।
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माप  : स्त्री० [हिं० मापना] १. मापने या नापने की क्रिया या भाव। नाप। पद—माप-तौल। २. मापने या तौलने पर ज्ञात होनेवाला परिमाण, मात्रा या मान। ३. वह मान जिससे कोई पदार्थ मापा जाय। मान।
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माप-तौल  : स्त्री० [सं० +हिं०] १. मापने, तौलने आदि की क्रिया या भाव। २. अच्छी तरह जाँच या परखकर चीज का महत्त्व, मान, मूल्य आदि जानने या निर्धारित करने की क्रिया या भाव।
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मापक  : वि० [सं०√मा+णिच्, पुक्, +ण्वुल्-अक] माप करने या नापनेवाला। जैसे—दुग्ध-मापक। पुं० १. वह जो मापने या नापने का काम करता हो। २. वह जो तौलने का काम करता हो। ३. वह पात्र जिसमें भरकर कोई चीज नापी-जोखी जाती हो। ३. वह यंत्र जिसके द्वारा किसी प्रवाहित होनेवाले तत्त्व या पदार्थ की मात्रा, मान, वेग आदि की नाप होती हो। (मीटर) जैसे—विद्युत-मापक।
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माँपना  : अ० [हिं० माँतना] नशे में चूर होना। मत्त होना। मातना। स०=मापना (नापना)।
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मापना  : स० [सं० मापन] १. किसी पदार्थ के विस्तार, आयत या वर्गत्व और घनत्व का किसी नियत मान के आधार पर परिमाण जानना या जानने के लिए कोई क्रिया करना। नापना। २. किसी मान या पैमाने में भरकर द्रव, चूर्ण या आन्नादि पदार्थों को नापना। जैसे—दूध मापना, चूना मापना। अ० मातना (मत्त होना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मापनी  : स्त्री० [सं० मापन से०] मापने अर्थात् नापने-जोखने, तौलने आदि की क्रिया या भाव। (मेज़रमेन्ट)।
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मापांक  : पुं० [सं०] आज-कल भौतिक विज्ञान में, वह परिमाण या मान जो किसी अमूर्त परिणाम, प्रभाव या शक्ति (लचीलापन, तन्यता) की किसी निश्चित इकाई या माप के आधार पर जाना या स्थिर किया जाता है। (माँडयूलस)
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माफ  : वि० [अ० माफ] जिसे क्षमा किया गया हो या माफी दी गई हो।
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माफकत  : स्त्री० [अ० मुवाफिकत] १. अनुकूलता। २. मेल। मैत्री। पद—मेल-माफकत।
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माफिक  : वि० [अ० मुवाफिक] १. अनुकूल। अनुसार। २. उपयुक्त। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।—होना।
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माफिकत  : स्त्री०=माफकत।
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माफिल  : पुं० [?] एक प्रकार का खट्टा नींबू।
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माफी  : स्त्री० [अ० माफी] १. माफ करने की क्रिया या भाव। क्षमा। क्रि० प्र०—चाहना।—माँगना।—मिलना। २. ऐसी भूमि जिसका कर लेना जमींदार, राजाया सरकार ने छोड़ दिया या माफ कर दिया हो। पद—माफीदार। (देखें)।
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माफीदार  : पुं० [अ०+फा०] वह जिसे ऐसी जमीन मिली हो जिसका कर शासन ने माफ कर दिया हो।
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माम  : पुं० [सं० माम्] १. ममता। ममत्व। २. अहंकार। ३. अधिकार। ४. बल। शक्ति। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मामता  : स्त्री० [सं० ममता] १. आत्मीयता। अपनापन। २. आत्मीयता के कारण होनेवाला प्रेम या स्नेह। ममता। ममत्व। जैसे—माँ की ममता बच्चे पर होती है।
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मामरी  : स्त्री० [देश] एक प्रकार का पेड़ जो हिमालय की तराई में राबी नदी से पूर्व की ओर, मद्रास तथा मध्यभारत में होता है। रूही।
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मामलत, मामलति  : स्त्री० [अ० मुआमितल] १. बात। मामला। २. विवादास्पद बात या विषय जो विचार के लिए उपस्थित हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मामला  : पुं० [अ० मुआमिलः] १. आपस में मिलकर तै या निश्चित की हुई कोई ऐसी बात जिस पर अमल करना पड़े या जिसे कार्य-रूप में परिणत करना हो। २. आपस में होनेवाले काम, व्यवहार या व्यापार। जैसे—क्रय-विक्रय, लेन-देन आदि। मुहावरा—मामला बनाना=ऐसी स्थिति लाना जिसमें कोई काम पूरी तरह हो जाय। कार्य-सिद्धि की व्यवस्था करना। ३. उलझन या झगड़े का कोई ऐसा काम या बात जिसके संबंध में किसी प्रकार का आचरण, विचार या व्यवहार होने को हो या होना आवश्यक हो। प्रधान अथवा मुख्य बात या विषय। जैसे—आज-कल उनके सामने एक बहुत बड़ा मामला आ गया है। मुहावरा—मामला तै करना=उक्त प्रकार के काम के सम्बन्ध में बात-चीत करके निपटारा या निश्चय करना। मामला बनाना या साधना=विकट और विचारणीय विषय का संतोषजनक रूप मे निकाकरण करना। ४. आपस में पक्की या तै की हुई बात। निर्णीत और निश्चय किया हुआ तथ्य। ५. ऐसी विवादास्पद जिसके संबंध में विचार हो रहा हो या होने को हो। मुकदमा व्यवहार। जैसे—इधर वकील साहब ने कई बड़े-बड़े मामले जीते हैं। (मुहाव० के लिए दे० मुकदमा के मुहावरा) ६. युवती और सुन्दरी स्त्री। (बाजारू)। ७. स्त्री०-प्रसंग। मैथुन। सम्भोग। मुहावरा—मामला बनाना=पर-स्त्री के साथ मैथुन या सम्भोग करना।
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मामा  : पुं० [सं० माम, मामका, पा० मामको, प्रा० मामअ] [स्त्री० मामी] संबंध के विचार से माँ का भाई। स्त्री० [फा०] घर की नौकरानी। परिचायिका। दासी।
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मामागीरी  : स्त्री० [फा०] १. मामा अर्थात् दूसरों की रोटी पकानेवाली स्त्री का काम या पद। २. बुढ़िया स्त्री। बूढ़ी।
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मामिला  : पुं० =मामला।
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मामी  : स्त्री० [सं० मा, निषेधार्थक] अपने ऊपर लगाया हुआ आरोप या दोष न मानने की अवस्था, क्रिया या भाव। मुहावरा—मामी पीना=अपने ऊपर लगाये हुए आरोप या दोष पर ध्यान न देकर चुप रह जाना अथवा मुकर जाना। स्त्री० हिं० मामा का स्त्री० रुप। संबंध के विचार से मामा की पत्नी।
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मामू  : पुं० =मामा। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मामूर  : वि० [अ०] १. जिसे आदेश दिया गया हो। २. नियुक्त किया हुआ। ३. पूरी तरह से भरा हुआ। ४. आबाद। ५. समृद्ध।
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मामूल  : पुं० [अ०] १. नित्य-नियम। २. ऐसा काम या बात जो साधारणतः सभी अवसरों पर अमल अर्थात् व्यवहार में लायी जाती है। सभी अवसरों पर साधारण रूप में होती रहनेवाली बात या व्यवहार। दस्तूर। पद—मामूल के दिन=स्त्रियों के रजोधर्म के या रजस्वला होने के दिन। (मुसल० स्त्रियाँ) उदाहरण—हर महीने में कुढ़ाते थे, मुझे फूल के दिन, बारे अबकी तो मेरे टल गये मामूल के दिन।—रंगीन। ३. रीति-रिवाज। परिपाटी। प्रथा। ४. वह धन जो किसी को परिपाटी, प्रथा, रिवाज आदि के अनुसार मिलता हो। ५. अभिचार आदि द्वारा बेसुध किया हुआ व्यक्ति।
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मामूली  : वि० [अ०] १. नित्य-नियम-संबंधी। २. प्रायः होता रहनेवाला। ३. जिसमें कोई महत्त्व की विशेषता न हो। औसत दरजे का। साधारण।
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मामोला  : पुं० [?] वीरबघूटी। (राज०) उदाहरण—मामोली बिदलौ कुँकूँमै।—प्रिथीराज।
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मायँ  : अ०=महिं (बीच)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माय  : पुं० [सं० माया+अच्] १. पीताम्बर। २. असुर। स्त्री० [सं० माता] १. माता। माँ। २. बड़ीया आदरणीय स्त्री के लिए सम्बोधन का शब्द। स्त्री०=मादा। अव्य०=माहिं (बीच में)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मायक  : पुं० [सं० माय+कन्] मायावी। पुं० =मायका।
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मायका  : पुं० [सं० मातृ+क (प्रत्यय)] विवाहिता स्त्री की दृष्टि से उसके माता-पिता का घर और परिवार। नैहर। पीहर।
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मायण  : पुं० [सं० माया++युच्—अन] वेद का भाष्य करनेवाले सायण के पिता का नाम।
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मायन  : पुं० [सं० मातृका] १. मातृका-पूजन और पितृ-निमंत्रण संबंधी एक कृत्य जो विवाह से पहले किया जाता है। २. उक्त दिन होनेवाला कृत्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मायनी  : स्त्री० दे० ‘मायाविनी’। पुं० =माने (अर्थ)।
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मायल  : वि० [अ० माइल] १. जो किसी ओर प्रवृत्त हुआ हो। जैसे—किसी पर दिल मायल होना, अर्थात् किसी की ओर अनुरक्त होना। २. आसक्त। ३. किसी प्रकार के झुकाव या प्रवृत्ति से युक्त। जैसे—सुरखी मायल काला रंग अर्थात ऐसा काला जिसमें लाल रंग की भी कुछ झलक हो।
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माया  : स्त्री० [सं०√मा+य+टाप्] १. कोई काम करने या कोई चीज बनाने की अलौकिक अथवा असाधारण कला या शक्ति। जैसे—इन्द्र अपनी माया अनेक रूप धारण करता है। २. बहुत ही उत्कृष्ट या प्रखर बुद्धि। प्रज्ञा। ३. कोई ऐसी कृति, रचना या रूप जिससे लोग धोखे या भ्रम में पड़ते हों। छलपूर्ण तथ्य या बात। जैसे—इंद्रजाल या जादूगीरी। ४. वेदांत में वह ईश्वरीय शक्ति जिससे इस नामरूपात्मक सारे दृश्य जगत् की सृष्टि हुई है। विशेष—वेदांत दर्शन का सिद्धांत है कि यह सारी सृष्टि अमूर्त और नित्य ब्रह्मा से उत्पन्न हुई है, फिर भी यह वास्तविक नहीं हैं। उस ब्रह्मा की अलौकिक शक्ति से ही यह हमें दृश्य जगत् के रूप में दिखायी देती हैं। पुराणों में इसी माया पर चेतन धर्म का आरोप करके इसे स्त्री के रूप में माना और ब्रह्मा की सहधर्मचारिणी कहा है। इसी कारण लोग मोहवश अवस्तु को वस्तु और अवास्तविक को वास्तविक और मिथ्या को सत्य समझने लगते हैं। वह वस्तुतः भ्रम मात्र है। सांख्याकार ने इसी को प्रकृति या प्रधान कहा है। शैव दर्शन में इसे आत्मा को बंधन में रखनेवाले चार पाशो (जालों या फंदो) मे से एक पाश माना है, और वैष्णवों ने इसे विष्णु की नौ शक्तियों के अंतर्गत एक शक्ति कहा है। परवर्ती काल मे कुछ लोग इसे अनृत की और कुछ लोग अधर्म की कन्या कहने लगे थे और मृत्यु की जननी या माता मानने लगे थे। बौद्ध इसे २४ दुष्ट मनोविकारों मे से एक मनोविकार या वासना मानते हैं। पर सब बातों का सारांश यही है कि यह मूर्तिमान भ्रम है और लोगों को धोखे में रखकर ईश्वर या मुक्ति से विमुख रखनेवाली है। इसीलिए जितने काम, चीजें या बातें वास्तव में कुछ और होती है, पर देखने में कुछ और, उन सबका अन्तर्भाव माया में ही होता है। हिंदू धर्म मे देवी-देवताओं की इच्छा, प्रेरणा या शक्ति से जो अद्भुत अलौकिक या विलक्षण लीला-पूर्ण कृत्य होते हैं, उन सबकी गिनती उन देवी-देवताओं की माया में ही होती है। ५. उक्त के आधार पर अज्ञान या अविद्या। ६. उक्त के फलस्वरूप और भ्रम या मोह-वश किसी के प्रति होनेवाला अनुराग, प्रेम या स्नेह। ममता। ममत्व। ७. किसी प्रकार की अवास्तविक और मिथ्या धारणा या विचार। (इल्यूजन) ८. उक्त के कारण किसी के प्रति मन में उत्पन्न होनेवाला अनुग्रह या दया का भाव। उदाहरण—भलेहि आई अब माया की जै।—जायसी। ९. कपट। छल। फरेब। जैसे—माया-मृग। १॰. धोखा। भ्रम। ११. ऐसी गूढ़ और विलक्षण बात जो जल्दी समझ में न आये अथवा जिसे समझने के लिए बहुत मानसिक परिश्रम करना पड़े। जैसे—माया-वर्ग। १२. इंद्रजाल। जादूगीरी। पद—मायाकार, मायाजीवी। १३. राजनीतिक चाल या दाँव-पेंच। १४. अनुग्रह। कृपा। १५. दया। मेहरबानी। १६. लक्ष्मी देवी। १७. धन-संपत्ति। दौलत। जैसे—उनके पास लाखों रुपयों की माया है। १८. कोई आदरणीय और पूज्य स्त्री। १९. मय दानव की कन्या जो विश्रवा को ब्याही थी। २॰.गौतम बुद्ध की माता मायादेवी। २१. गया नामक नगरी। २२. इंद्रवज्रा नामक वर्णवृत्त का एक उपभेद जो इंद्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा के मेल से बनता है। इसके दूसरे तथा तीसरे चरण में प्रथम वर्ण लघु होता है। २३. एक प्रकार का वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः भगण, तगण, मगण, भगण और एक गुरु वर्ण होता है। स्त्री० [हिं० माता] माता। माँ। जननी। उदाहरण—बिनवै रतनसेन की माया।—जायसी।
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माया-क्षेत्र  : पुं० [सं० ष० त०] दक्षिण भारत का एक तीर्थ।
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माया-धर  : पुं० [ष० त०] मायाबी।
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माया-पति  : पुं० [ष० त०] ईश्वर। परमेश्वर।
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माया-पात्र  : पुं० [हिं० माया=धन+सं० पात्र] धनवान्। अमीर।
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माया-फल  : पुं० [ष० त०] माजूफल।
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माया-मंत्र  : पुं० [ष० त०] सम्मोहन क्रिया।
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माया-मोह  : पुं० [सं० माया√मुह्+णिच्+अच्] शरीर से निकला हुआ एक कल्पित पुरुष जिसने असुरों का दमन किया था। (पुराण०)
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माया-वर्ग  : पुं० [सं० ष० त०] गणित में वह बड़ा वर्ग जिसमें कई छोटे-छोटे वर्ग होते हैं, और उन छोटे-छोटे वर्गों मे से हर एक में कुछ अंक या संख्याएँ किसी ऐसे विशिष्ट क्रम से रखी होती हैं कि हर ओर से अर्थात् खड़े बेड़े तथा तिरछे वर्गों की संख्याओं का जोड़ एक ही आता है। (मैजिक स्क्वेयर)।
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माया-वाद  : पुं० [सं० ष० त०] ब्रह्म को सत्य और जगत् को मिथ्या मानने का सिद्धांत।
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माया-वादी (दिन्)  : पुं० [सं० माय-वाद+इनि] मायावाद का सिद्धान्त माननेवाला व्यक्ति। वि० मायावाद-सम्बन्धी।
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माया-वीज  : पुं० [सं० ष० त०] ‘ह्री’ नामक तांत्रिक मंत्र।
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माया-सीता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] सीता-हरण से पूर्व सीता द्वारा राम की आज्ञा से धारण किया गया मायावी रूप।
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माया-सुत  : पुं० [सं० ष० त०] माया देवी के पुत्र गौतम बुद्ध।
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मायाकार  : पुं० [सं० माया√कृ+अण्] =मायाजीवी।
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मायाचार  : पुं० [सं० माया√चर् (गति)+अण्] मायावी।
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मायाजीवी (विन्)  : पुं० [सं० माया√जीव् (जीना)+णिनि] ऐँद्रजालिक। जादूगर।
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मायाति  : स्त्री० [सं० मया√अत् (निरन्तर गमन)+इण्] तांत्रिकों की वह नर-बलि जो अष्टमी या नवमी के दिन दुर्गा को प्रसन्न तथा संतुष्ट करने के उद्देश्य से दी जाती थी। (तांत्रिक)
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मायादेवी  : स्त्री० [सं०] गौतम बुद्ध की माता का नाम।
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मायावती  : स्त्री० [सं० मायावत्+ङीष्] कामदेव की स्त्री, रति।
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मायावत्  : पुं० [सं० माया+मतुप्+वत्व] १. मायावी। २. राक्षस। ३. कंस का एक नाम।
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मायावर  : वि० [ष० त०] माया करनेवाला। उदाहरण—अभिनय करते विश्वमंच पर तुम मायावर।—पंत। पुं० १. ईश्वर। २. ऐंद्रजालिक। जादूगर।
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मायावान् (वत्)  : वि० =मायावी।
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मायाविनी  : स्त्री० [सं० माया+विनि+ङीप्] छल या कपट करनेवाली स्त्री० ठगिनी।
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मायावी (विन्)  : वि० [सं० माया+विनि] [स्त्री० मायाविनी] १. माया-सम्बन्धी। २. माया के रूप मे होनेवाला। ३. जादू आदि से संबंध रखनेवाला। पुं० १. वह जो अनेक प्रकार की मायाएँ रचने अर्थात् तरह-तरह के रहस्यमय कृत्य करके लोगों को चकित करने तथा धोखे में रखने में कुशल या दक्ष हो। ३. बहुत बड़ा कपटी या धोखेबाज। ३. बिड़ाव। बिल्ला। ४. ईश्वर या परमात्मा का एक नाम। ५. मय दानव के पुत्र के नाम।
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मायाशय  : वि० [सं० माया+आशय, ष० त०] माया से अभिभूत। उदाहरण—सुरभिति दिशि-दिशि कवि हुआ धन्य मायाशय।—निराला।
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मायिक  : वि० [सं० माया+ठन्-इक] १. माया-संबंधी। २. मायावी। अवास्तिवक पर वास्तविक-सा दिखायी पड़नेवाला। ३. माया करने या दिखानेवाला। मायावी। पुं० माजूफल।
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मायी (यिन्)  : पुं० [सं० माया+इनि] १. माया का अधिष्ठाता। परब्रह्म। ईश्वर। २. माया दिखानेवला। मायावी। ३. जादूगर। स्त्री०=माई (माता)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मायु  : पुं० [सं०√मि (फेंकना)+उण्, आत्व, युक्] १. पित्त। २. आवाज। शब्द। ३. वाक्य।
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मायुक  : वि० [सं० मायु+कन्] शब्द करनेवाला।
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मायूर  : पुं० [सं० मयूर+अञ्, वृद्धि] १. मयूर। मोर। २. वह रथ जिसे मयूर खींचकर ले चलते हों। वि० मयूर संबंधी। मोर का।
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मायूरक  : पुं० [सं० मायूर+कन्] मोर पकड़नेवाला बहेलिया।
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मायूरा  : स्त्री० [सं० मायूर+टाप्] कटूमर।
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मायूरी  : स्त्री० [सं० मायूर+ङीष्] अजमोदा।
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मायूस  : वि० [अ०] [भाव० मायूसी] निराश। हताश।
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मायूसी  : स्त्री० [अ०] मायूस होने की अवस्था या भाव। निराशा।
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मार  : पुं० [सं०√मृ (मरना)+घञ्] १. कामदेव। २. जहर। विष। ३. धतूरा। ४. बाधा। विघ्न। स्त्री० [हिं० मारना] १. मारने अर्थात् चोट पहुँचाने या पीटने की क्रिया या भाव। जैसे—मार के आगे भूत भागता है। पद—मार-काट, मारधाड़, मार-पीट, मार-मार। (दे० स्वतन्त्र पद)। क्रि० प्र०—खाना।—पड़ना।—पिटना। २. किसी प्रकार अथवा किसी रूप में होनेवाला आघात या प्रहार। कोई ऐसा काम या बात जो कष्ट पहुँचानेवाला अथवा नाशया हानि करनेवाला हो। जैसे—गरीबी कीमार, रोटी की मार। उदाहरण—बड़ी मार कबीर की चित्त से दिया उतार।—कबीर। विशेष—ऐसा अवसरों पर मार का आशय यही होती है कि उसके फलस्वरुप मनुष्य की दशा बहुत ही दीन-हीन तथा शोचनीय हो जाती है अक्ल की मार, शामत की मार सरीखे प्र्योगों में मार का आशय यही होती है कि चाहे किसी चीज या बात के अभाव से हो, चाहे आधिक्य से मनुष्य की दशा बहुत बुरी हो जाती है। गरीबी की मार में गरीबों के आधिक्य का भाव है, और रोटी की मार मे रोटी के अबाव का ईश्वर या खुदा की मार में कोप या प्रकोप का भाव प्रधान है। ३. उतनी दूरी जहाँ तक कोई चलाया या फेंका हुआ अस्त्र जाकर पहुंचता और अपना काम करता या प्रभाव दिखलाता है। (रेंज) जैसे—इस बदूक की मार एक हजार गज है। ४. निशाना। लक्ष्य। ५. दे० मार-पीट। जैसे—गाँववालों में अकसर मारपीट होती रहती है। ६. किसी प्रकार का प्रभाव या फल नष्ट करनेवाली चीज या बात। मारक तत्त्व। जैसे—खुजली की मार घी हैं अर्थात् घी से खुजली दब या मिट जाती है। अव्य० १. बहुत अधिकता से। अत्यन्त। जैसे—तुमने तो सबेरे से मार आफत मचा रखी हैं। स्त्री० [देश] काली मिट्टी की जमीन। स्त्री०=माला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मार-काट  : स्त्री० [हिं० मारना+काटना] १. एक-दूसरे को मारने और काटने की क्रिया या भाव। २. युद्ध या लड़ाई जिसमें आदमी मारे और काटे जाते हैं।
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मार-धाड़  : स्त्री० [हिं०] १. बहुत से लोगों के तेजी से आगे बढ़कर किसी पर आक्रमण करना। जैसे—मुगल सेना मार-धाड़ करती हुई बढ़ती चली आ रही थी। २. गड़बड़ी की वह स्थिति जिसमें लोग बहुत जल्दी अपने काम मे या इधर-उधर दौड़ने-धूपने मे लगे हों।
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मार-पीट  : स्त्री० [हिं० मारना+पीटना] वह लड़ाई जिसमें लड़नेवाले एक-दूसरे को मारते-पीटते हैं।
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मार-पेंच  : पुं० [हिं० मारना+पेंच] धूर्त्तता। चाल-बाजी।
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मारक  : वि० [सं०√मृ+णिच्+ण्वुल्-अक] १. जान से मार डालनेवाला। २. पीड़क। ३. प्रभाव, वेग विष आदि को दबाने या नष्ट करनेवाला। (एन्टीडोट)।
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मारकंडेय  : पुं० =मार्कंडेय।
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मारका  : पुं० [अं० मार्क] १. चिन्ह। निशान। २. किसी प्रकार की पहचान के लिए लगाया जानेवाला चिन्ह या निशान। ३. वह विशिष्ट चिन्ह या निशान जो बड़े व्यापारी अपने बनवाये हुए पदार्थों पर उसकी विशिष्टता की पहचान के लिए लगाते हैं। छाप। पुं० [अ० मारिकः] १. युद्ध। लड़ाई। कोई बहुत बड़ी और महत्त्व पूर्ण घटना। ३. कोई बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण काम। पद—मारके का=बहुत बड़ा और महत्त्वपूर्ण।
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मारकीन  : स्त्री० [अं० नैनकिन्] एक तरह का साधारण कपड़ा।
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मारकुवा  : वि० =मरकहा (मारनेवाला)।
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मारकेश  : पुं० [सं० मारक-ईश, कर्म० स०] किसी की जन्म-कुंडली में पड़नेवाला ग्रहों का एक योग जो व्यक्ति के लिए घातक होता है। (ज्यों०)।
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मारखोर  : पुं० [फा०] बहुत बड़े सीगोंवाली एक प्रकार की बहुत सुन्दर जंगली बकरी जो काश्मीर और अफगानिस्तान में होती है। इसके नर के शरीर से बहुत तेज गन्ध निकलती है।
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मारग  : पुं० [सं० मार्ग] मार्ग। रास्ता।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहावरा—मारग मारना=किसी राह चलते आदमी को लूटना। मारग लगना या लेना=(क) रास्ते पर चलना। (ख) चले जाना। दूर हो जाना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मारगन  : पुं० [सं० मार्गण] १. बाण। तीर। २. भिक्षुक। याचक। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मारगी  : स्त्री० [सं० मार्ग] राह चलतों को लूटने की क्रिया। बटमारी। उदाहरण—चोरी कराँ न मारगी।—मीराँ। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारजन  : पुं० =मार्जन।
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मारजनी  : स्त्री०=मार्जनी।
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मारजार  : पुं० =मार्जार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारजित्  : पुं० [सं० मार√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] १. वह जिसने कामदेव को जीत लिया हो। २. शिव। ३. बुद्ध।
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मारण  : पुं० [सं०√मृ (मारना)+णिच्+ल्युन—अन] १. मार डालने अर्थात प्राण लेने की क्रिया या भाव। २. वह तांत्रिक प्रयोग जो किसी के प्राण लेने या मार डालने के उद्देश्य से किया जाता है।
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मारतंड  : पुं० =मार्तड।
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मारते खाँ  : पुं० [हिं० मारना+फा० खान] वह जो अपने बल के गर्व मे दूसरों को जरा-सी बात पर मार बैठता हो।
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मारतौल  : पुं० [पुं० मार्टेली] एक प्रकार का बड़ा हथौड़ा।
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मारना  : स० [सं० मारण] १. ऐसा आघात या क्रिया करना जिससे किसी के प्राण निकल जायँ। आयु या जीवन का अंत करना। जैसे—(क) यह दवा कई तरह के जहरीले कीड़े मारती है। (ख) इसने कल एक सांप मारा था। मुहावरा—(किसी को) मार गिराना=आघात या प्रहार करके प्राण लेकर अथवा मृतप्राय करके जमीन पर गिराना जैसे—सिपाहियों ने चार डाकू मार गिराये। संयो० क्रि०—डालना।—देना। २. क्रोध में आकर दंड देने या बदला चुकाने के लिए किसी के शरीर पर थप्पड़, मुक्का, लात आदि से या छड़ी, बेंत आदि से बार-बार आघात या प्रहार करना। जैसे—उसने नौकर को मारते-मारते बेहोश कर दिया। पद—मारना-पीटना। ३. कोई चीज किसी दूसरी चीज पर इस प्रकार जोर से गिराना या फेकना कि वह जाकर टकरा जायँ और स्वयं क्षतिग्रस्त हो अथवा दूसरी चीज को क्षतिग्रस्त करे। जैसे—चिड़ियों को ढेले-पत्थर मारना। मुहावरा—किसी के दे मारना=उठाकर जोर से गिराना, पटकना या फेंकना। उदाहरण—मेरा दिल लेके शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा।—कोई शायर। ४. साधारण रूप से कोई चीज किसी दूसरी चीज पर पटकना। जैसे—यही बात पक्की रही, लाओ मारो हाथ। (अर्थात् पक्का वचन दो) ५. आखेट में किसी जीव या जंतु के प्राण लेना। शिकार करना। जैसे—कबूतर, मछली, शेर या हिरन मारना। ६. जीव-जंतुओं के अपने किसी अंग से किसी पर आघात या प्रहार करना अथवा घाव या जख्म करना। जैसे—बर्रे या बिच्छू डंक मारता है, घोड़ा लात मारता है, बैल सींग मारता है, कुत्ता दाँत मारता है आदि। ७. किसी क्रिया से किसी चीज का आगे बढ़ा हुआ अंश या अंग काटना, निकालना या मोड़ना। जैसे—(क) बढ़ई ने रंदे से इसका किनारा मार दिया है। (ख) तुमने कागज काटते-काटते कैंची (या चाकू) की धार मार दी। ८. किसी प्रकार का परिणाम या फल उत्पन्न करने के लिए कोई अंग इधर-उधर या ऊपर-नीचे हिलाना। जैसे—(क) चिड़ियों के उड़ने के लिए पर मारना। (ख) बंधन से छूटने के लिए हाथ-पैर मारना अर्थात् यथा-साध्य प्रयत्न करना। ९. किसी पदार्थ के तत्त्व का सार-भाग कम या नष्ट करके उसे निरर्धक या निर्बल करना। जैसे—यह दवा कई तरह के जहर मारती है। १॰. वैद्यक में रासायनिक प्रक्रियाओं से धातु आदि का भस्म तैयार करना। जैसे—पारा मारना, सोना मारना। ११. किसी को किसी प्रकार से या किसी रूप में अक्रिय, अयोग्य या निकम्मा करके किसी काम या बात के योग्य न रहने देना। बुरी तरह से नष्ट या बरबाद करना। जैसे—(क) हमें तो रात-दिन की चिंता ने मारा है। (ख) उन्हें तो ऐयाशी (या शराबखोरी) ने मारा है। १२. बहुत अधिक मानसिक या शारीरिक कष्ट देकर तंग, दुःखी या परेशान करना। (प्रायः किसी दूसरी क्रिया के साथ संयोज्य क्रिया के रूप में) जैसे—(क) इस लड़के की नायालकी ने तो हमें जला मारा (या सता मारा) है। (ख) आज तो तुमने नौकर को दिन भर दौड़ा मारा। पद—किसी चीज या बात का मारा=किसी चीज या बात के कारण बहुत अधिक त्रस्त या दुःखी। जैसे—आफत का मारा, भूख का मारा, रोटियों का मारा आदि। १३. द्वेष या वैरमूलक लड़ाई-झगड़ा, विवाद आदि के प्रसंग में विपक्षी या विरोधी को परास्त करते हुए नीचा दिखाना या वश में करना। जैसे—इस चुनाव में इन्होंने उसे ऐसा मारा है कि अब वह कभी इनके मुकाबले में खड़ा होने का नाम न लेगा। पद—वह मारा=बस अब परास्त करके वश में कर लिया। पूरी तरह से जीत लिया और हरा दिया। उदाहरण—वह मारा अब कहाँ जाती है। आज का शिकार तो बहुत नफीस है।—राधाकृष्णदास। १४. खेल, प्रतियोगिता आदि के प्रसंग में विपक्षी को हराकर विजय प्राप्त करना। (स्वयं खेल के सम्बन्ध में भी और खेलाड़ी के सम्बन्ध में भी। जैसे—(क) कुश्ती या बाजी मारना=जीतना। (ख) एक पहलवान को दूसरे पहलवान का मारना=पछाड़ना। १५. गंजीफे, ताश, शतरंज आदि खेलों में विपक्षी के पत्ते, गोट आदि जीतना। जैसे—(क) प्यादे से हाथी मारना। (ख) दहले से नहला मारना। १६. किसी प्रकार का मानसिक या शारीरिक वेग दबाना या रोकना। जैसे—(क) मन मारना=मन में होनेवाली इच्छाएँ दबाना। (ख) प्यास या भूख मारना=प्यास या भूख लगने पर भी पानी भी न पीना या भोजन न करना। उदाहरण—रिस उर मारि रंक जिमि राजा।—तुलसी। १७. अनुचित रूप से, चालबाजी से या बलपूर्वक किसी का धन, संपत्ति या कोई चीज प्राप्त करके अपने अधिकार में करना। जैसे—(क) किसी को गठरी मारना। (ख) किसी का माल या रुपया मारना। मुहावरा—मार खाना=उक्त प्रकार से प्राप्त करके अधिकार मे कर लेना। जैसे—स सौदे में उसने सौ रुपये मार खाये। मार रखना= अनुचित रूप से दबाकर अपने पास रख लेना। जैसे—अभी तो यह किताब मार रखो, फिर देखा जायगा। मार लेना=अनुचित रूप से प्राप्त करके अपने अधिकार में कर लेना। जैसे—इस सौदे में उसने भी सौ रूपये मार लिये। १८. कुछ विशिष्ट क्रियाओं के संबंध मेंपूरा या सम्पन्न करना। जैसे—पानी मे गोता मारना, किसी के चारों ओर चक्कर मारना। सिलाई करने के लिए टाँका मारना। १९. किवाड़े या ताले के संबंध में ऐसी क्रिया करना कि वह बंद हो जाय, खुला न रहे। जैसे—(क) कोठरी का दरवाजा मारना। (ख) दरवाजे में ताला मारना। (पश्चिम) २॰.मैथुन या सम्भोग करना। (बाजारू)। विशेष—अनेक क्रियाओं के साथ संयो०क्रिया के रूप में भी और अनेक संज्ञाओं के साथ क्रि० प्र० के रूप में भी मारना का प्रयोग अनेक प्रकार के भाव प्रकट करने के लिए होता है। उनमें मुख्य भाव तीन हैं- (क) किसी प्रकार के आघात या क्रिया से उपेक्षापूर्वक अंत या समाप्त करना। जैसे—किसी के लिखे हुए लकीर मारना। किसी चीज को लात मारना, किसी काम या बात की गोली मारना आदि। (ख) किसी प्रकार का प्रभाव विशेषतः दूषित प्रभाव उत्पन्न करना। जैसे—जादू या मंतर मारना, किसी आदमी को पीस मारना। (ग) कोई क्रिया कष्ट रूप से या बुरी तरह से पूरी या सम्पन्न करना। जैसे—गाल मारना, डींग मारना, दम मारना, कोई चीज किसी के सिर मारना (उपेक्षापूर्वक देना या फेंकना) २१. किसी काम या बात के लिए मगज या सिर मारना अर्थात् बहुत अधिक मानसिक परिश्रम करना आदि। २२. कुछ अवस्थाओं में इसका प्रयोग (मुहावरे के प्रयोग में) अकर्मक क्रिया के रूप में भी होता है। जैसे—(क)यह सुनते ही उसे काठ मार गया, अर्थात् वह काष्ठ के समान स्तब्ध हो गया। (ख) सारी फसल को पाला मार गया (लग गया है) (ग) उसके भाई को लकवा मार गया, (अर्थात् हो गया) है। ऐसे प्रयोगों के ठीक अर्थों के लिए सम्बद्ध क्रियाएँ या संज्ञाएँ देखनी चाहिए।
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मारफत  : अव्य० [अ० मारफ़त] १. किसी व्यक्ति के माध्यम से। जैसे—मैं कुछ रुपये श्री कृष्णचंद की मारफत तुम्हें भेंजूँगा। २. पत्रों पर पता लिखते समय, किसी अमुक के द्वारा। स्त्री० [अ०] अध्यात्म। २. इस्लाम विशेषतः सूफी संप्रदाय में साधना की चार स्थितियों में से तीसरी स्थिति जिसमें साधक अपने गुरु या पीर के उपदेश और शिक्षा से ज्ञानी हो जाता है। विशेष—शेष तीन स्थितियाँ शरीअत, तरीकत और हकीकत कहलाती हैं। ३. उर्दू कविता का वह प्रकार जिसमें साधारण रूप में तो लौकिक प्रेम का उल्लेख होता है, परन्तु ध्वनि या श्लेष मे वस्तुतः ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट होता है। (अन्योक्ति का एक प्रकार) जैसे—अगर कोई मारफत की गजल याद हो तो सुनाओ।
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मारवाड़  : पुं० [सं० मरुवर्त] १. मेवाड़ प्रदेश। २. मेवाड़ और उसके आस-पास के अनेक प्रदेश जो अब राजस्थान के रुप में परिणत हो गये हैं।
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मारवाड़ी  : पुं० [हिं० मारवाड़] [स्त्री० मारवाड़िन] मारवाड़ देश का निवासी। स्त्री० मारवाड़ देश की बोली। वि० मारवाड़ देश का। मारवाड़-सम्बन्धी।
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मारसा  : पुं० [देश] १. एक प्रकार का संकर राग, जो परज, विभास और गौरी के मेल से बनता है। इसके गाने का समय सायंकाल है। २. संगीत में एक प्रकार का खयाल।
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मारा  : वि० [हिं० मारना] १. जो मारा गया हो। २. जिस पर मार पड़ी हो। मुहावरा—मारा फिरना, या मारा-मारा फिरना=बहुत ही दुर्दशा भोगते हुए इधर-उधर घूमना। ३. जो किसी प्रकार के आघात या प्रकोप से त्रस्त या पीड़ित हो। जैसे—आफत का मारा, किस्मत का मारा, बीमारी का मारा आदि। स्त्री०=माला। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारा-मारी  : स्त्री० [हिं० मारना] १. ऐसी लड़ाई जिसमे मार-काट हो रही हो २. जबरदस्ती। बल-प्रयोग। क्रि० वि० =मारामार।
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मारात्मक  : वि० [सं० मार-आत्मन्, ब० स०+कप्] १. हिंसक। २. प्राणनाशक। ३. दुष्ट।
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माराभिभू  : पुं० [सं० मार-अभि√भू (होना)+ड] गौतम बुद्ध।
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मारामार  : क्रि० वि० [हिं० मारना] बहुत अधिस तेजी से या इतने वेग से चलना कि मानो किसी को मारने जा रहे हों। स्त्री० १. मार-पीट। २. बहुत अधिक जल्दी। जैसे—इतनी मारा-मार करना ठीक नहीं। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारि  : स्त्री० १. मार। २. मरी। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मारिच  : पुं० १. मारीच (राक्षस)। २. मार्च (महीना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारित  : भू० कृ० [सं०√मृ+णिच्+क्त] १. जो मार डाला गया हो। २. भस्म के रूप में किया या लाया हुआ। (वैद्यक) जैसे—मारित स्वर्ण। ३. नष्ट किया हुआ। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मारिष  : पुं० [सं०√मृष् (सहन करना)+अच्, निपा० सिद्धि, या मा√रिष्+क] १. नाटक का सूत्रधार। २. नाटकों में आदरणीय या मान्य व्यक्ति के लिए सम्बोधन। ३. मरसा नाम का साग।
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मारिषा  : स्त्री० [सं० मारिष+टाप्] दक्ष की माता का नाम।
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मारी  : स्त्री० [सं०√मृ+णिच्+इन+ङीष्] १. चंडी नाम की देवी। २. माहेश्वरी शक्ति। ३. महामारी। मरी।
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मारीच  : पुं० [सं०] १. एक राक्षस जिसने रावण के कहने पर सीताहरण कराने के लिए सोने के हिरन का रूप धारण किया था। २. हाथी। ३. मिर्च के पौधों का समूह। वि० [सं० मरीचि+अण्] मरीचि द्वारा रचित।
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मारीची  : स्त्री० [सं०] बुद्ध की माता का नाम। माया देवी।
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मारु  : पुं० १. मार (कामदेव)। २. मारवाड़ (देश)। स्त्री०=मार। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मारुत  : पुं० [सं० मरुत+अण्] १. वायु। पवन। २. वायु या पवन के अधिपति देवता।
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मारुत-सुत  : पुं० [ष० त०] १. हनुमान। २. भीम।
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मारुतात्मज  : पुं० [सं० मारुत-आत्मज, ष० त०] हनुमान्।
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मारुतापह  : पुं० [सं० मारुत-अप√हन् (मारना)+ड] वरुण वृक्ष।
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मारुताशन  : पुं० [सं० मरुत-अशन, ब० स०] १. कार्तिकेय का एक अनुचर। २. साँप।
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मारुति  : पुं० [सं० मारुत+इञ्] १. हनुमान। २. भीम।
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मारुध  : पुं० [सं०] एक प्राचीन देश।
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मारू  : वि० [हिं० मारना] १. मार डालने या जान लेनेवाला। २. हृदय या मर्म स्थल पर आघात करनेवाला। ३. मारने-पीटनेवाला। पुं० १. उन गीतों या रागों का वर्ग जो युद्द के समय वीरों को उत्तेजित तथा उत्साहित करने के लिए गाये जाते है। २. युद्ध में बजाया जानेवाला बहुत बड़ा डंका या नगाड़ा। पुं० [देश] १. एक प्रकार का शाहबलूत जो शिमले और नैनीताल मे अधिकता से पाया जाता है। २. काकरेजी रंग। पुं० =मारवाड़ी।
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मारूज  : वि० [अ० मारूज] १. अर्ज किया हुआ। निवेदित २. उक्त। कथित। पुं० १. निवेदन। प्रार्थना। २. उक्ति। कथन।
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मारूत  : स्त्री० [हिं० मारना] घोड़ों के पिछले पैरों की एक भौरी जो मनहूस समझी जाती है। पुं० =मारुति।
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मारे  : अव्य० [हिं० मारना] वजहसे। कारण। (विवशतासूचक) जैसे—जल्दी के मारे वह अपनी पुस्तक यहीं भूल गया।
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मार्क  : पुं० [अ०] १. चिन्ह। छाप। २. मारका। ३. लक्षण।
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मार्कंड  : पुं० =मार्कंडेय।
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मार्कंडेय  : पुं० [सं० मृकंड+ढक्-एय] मृकंड ऋषि के पुत्र एक प्राचीन मुनि जिन्होंने अपने तपोबल से अमरत्व प्राप्त किया था। इनके नाम पर एक पुराण भी प्रचलित है।
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मार्का  : पुं० =मारका (चिन्ह)।
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मार्केट  : पुं० [अं०] बाजार। हाट।
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मार्क्विस  : पुं० [अ०] इंग्लैड के सुछ सामंतो की परम्पराहत एक उपाधि।
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मार्क्स  : पुं० एक प्रसिद्ध जर्मन क्रान्तिकारी समाजवादी नेता जिसने दर्शन, राजनीति आदि के कई प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे हैं, और जिसके नाम पर मार्क्सवाद (देखें) नाम का मत या वाद आजकल विशेष प्रचलित हैं। इसका पूरा नाम हैनरिच मार्क्स था (सन् १८१८-१८८३ ई०)।
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मार्क्सवाद  : पुं० [जर्मन मार्क्स (नाम)+सं० वाद] जर्मन समाजवादी कार्ल मार्क्स (देखें) का यह सिद्धान्त कि सारी सम्पत्ति श्रम से ही उत्पन्न होती या बनती है, अतः उससे प्राप्त होनेवाला धन श्रमिकों को ही मिलना चाहिए। इसमें पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था का तिरस्कार किया गया है। विशेष—मार्क्स का मत है कि श्रमिको को पूँजीपतियों के साथ संघर्ष करते रहना चाहिए और इस प्रकार पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था का पूरी तरह से नाश करना चाहिए।
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मार्क्सवादी  : वि० [हिं० मार्क्सवाद] मार्क्सवाद-सम्बन्धी। मार्क्सवाद का। जैसे—मार्क्सवादी दृष्टिकोण। पुं० वह जो मार्क्सवाद के सिद्धान्तों का अनुयायी हो।
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मार्ग  : पुं० [सं०√मार्गवा√भृज्+घञ्] १. आने-जाने का रास्ता। पथ। राह। २. कोई ऐसा द्वार माध्यम या साधन जिसका अनुसरण, पालन या व्यवहार करने से कोई अभिप्राय या कार्य सिद्ध होता हो। ३. मलद्वार। गुदा। ४. अभिनय, नृत्य और संगीत की एक उच्च कोटि की शैली। ५. गंधर्व संगीत की वह शाखा जो देशी संगीत के संयोग से निकली थी। ६. मृगशिरा नक्षत्र। ७. मार्गशीर्ष या अगहन नाम का महीना। ८. विष्णु। ९. कस्तूरी। १॰. अपामार्ग। चिचड़ा। वि० मृग-सम्बन्धी। मृग का।
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मार्ग-कर  : पुं० [सं० ष० त०] वह कर जो यात्री को किसी विशिष्ट मार्ग से होकर जाने के बदले में देना पड़ता है। पथ-कर। (टोल टैक्स)
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मार्ग-दर्शक  : पुं० [सं० ष० त०] १. मार्ग दिखलानेवाला व्यक्ति २. वह जो यात्रियों, भ्रमण करने वालों का पथ-प्रदर्शन करता हो।
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मार्ग-दर्शन  : पुं० [सं० ष० त०] १. रास्ता दिखलाना। २. पथ-प्रदर्शन।
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मार्ग-देशिक  : पुं० [सं०] संगीत में, कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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मार्ग-देशी  : पुं० [हिं०] संगीत शास्त्र की दृष्टि से आज-कल का वह प्रचलित संगीत जिसमें ध्रपद, खयाल, टप्पा, ठुमरी आदि सम्मिलित हैं।
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मार्ग-धेनु (क)  : पुं० [सं० ष० त०] चार कोस की दूरी। एक योजन।
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मार्ग-राग  : पुं० [सं०] संगीत-शास्त्र में प्राचीन राग, जिन्हें शुद्धराग भी कहते हैं। जैसे—भैरव, मेघ आदि राग। (देशी रागों से भिन्न)
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मार्गक  : स्त्री० [सं० मारण]
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मार्गक  : स्त्री० [सं० मार्ग्+कन्] मार्गशीर्ष या अगहन का महीना।
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मार्गण  : पुं० [सं०√मार्ग् (खोजना)+ल्युट्—अन] १. अन्वेषण। खोज। २. प्रेम। ३. याचना। ४. याचक। भिखमंगा। ५. तीर। बाण।
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मार्गणा  : स्त्री० [√मार्ग+णिच्+यु च्—अन्,+टाप्] १. अन्वेषण। २. याचना।
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मार्गद  : पुं० [सं० मार्ग√दा (देना)+क] केवट। मल्लाह।
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मार्गन  : पुं० [सं० मार्ग√पा (रक्षा करना)+क] मार्ग अर्थात् रास्ते का निरीक्षण करनेवाला अधिकारी। पुं० =मार्गण (तीर)।
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मार्गपति  : पुं० =मार्गप।
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मार्गव  : पुं० [सं०] १. अयोगवी माता और निषाद पिता से उत्पन्न एक प्राचीन संकर जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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मार्गवती  : स्त्री० [सं० मार्ग+मतुप, म---व---डीप्] एक देवी जो मार्ग चलनेवालों की रक्षा करनेवाली मानी गयी है।
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मार्गशिर  : पुं० = मार्गशीर्ष।
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मार्गशीर्ष  : पुं० [सं० मृगशीर्ष+अण्+ ङीप्, मार्गशीर्षी+ अण्] अगहन का महीना।
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मार्गाधिकार  : पुं० [सं० मार्ग-अधिकार, ष० त०] वह अधिकार जो किसी मार्ग पर आने-जाने अथवा अपने आदमी या चीजें भेजने-मँगाने आदि के सम्बंध में किसी विशिष्ट व्यक्ति, देश आदि को प्राप्त होता है। (राइट आफ़ पैसेज)
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मार्गिक  : पुं० [सं० मृग+ठक्—इक] १. पथिक। यात्री। २. मृगों को मारनेवाला व्याध।
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मार्गी (गिन)  : पुं० [सं० मार्ग+इनि्] मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति। बटोही। यात्री। स्त्री० संगीत में एक मूर्च्छना जिसका स्वर-ग्राम इस प्रकार है—नि, स, रे,ग, म, प,ध, ।म, प, नि, स, रे, ग, म, प, ध, नि, स।
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मार्च  : पुं० [अं०] १. अंग्रेजी वर्ष का तीसरा मास जो फरवरी के बाद और अप्रैल से पहले पड़ता है और सदा ३१ दिनों का होता है। २. सैनिकों आदि का दल बाँधकर किसी उद्देश्य से आगे बढ़ना या चलना। ३. सेना का कूच या प्रस्थान।
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मार्ज  : पुं० [सं०√मृज् (शुद्ध करना)+णिच्+अच्] १. विष्णु। २. धोबी। ३. [√मृज्+घञ्] मार्जन।
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मार्जक  : वि० [सं०√मृज्+ण्वुल्—अक] मार्जन करनेवाला।
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मार्जन  : स्त्री० [सं०√मृज् (शुद्ध करना)+णिच्+ल्युट्—अन] १. दोष। मल आदि दूर करके साफ करने की किया या भाव। सफाई। २. अपने ऊपर जल छिड़ककर अपने आपको शुद्ध करना। ३. भूल, दोष आदि का परिहार। ४. लोध नामक वृक्ष।
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मार्जना  : स्त्री० [सं०√मृज्+णिच्+युच्—अन,+टाप्] १. मार्जन करने की किया या भाव। सफाई। २. क्षमा। माफी।
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मार्जनी  : स्त्री० [सं० मार्जन+ङीप्] १. झाड़ू। बुहारी। २. संगीत में मध्यम स्वर की एक श्रुति।
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मार्जनीय  : [सं० √मृज्+णिच्+अनीयर] अग्नि। वि० जिसका मार्जन होना आवश्यक या उचित हो। मार्जन के योग्य।
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मार्जार  : पुं० [सं०√मृज्+आरन्, [स्त्री० मार्जनी] १. बिल्ली। २. लाल-चीते का पेड़। ३. पूति सारिवा।
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मार्जारक  : पुं० [सं० मार्जार+कन्] मोर।
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मार्जारकर्षिका  : स्त्री० [सं० मार्जार-कर्ण, ब० स० ङोप्+कन्०+टाप्, ह्नस्व] चामुंडा (दुर्गा का एक रूप) का एक नाम।
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मार्जारपाद  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का बुरे लक्षणोंवाला घोड़ा।
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मार्जाराक्षक  : पुं० [सं० मार्जार-अक्षि, ब, स, षच्+कन्] एक प्रकार का रत्न। (कौ०)
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मार्जारी  : स्त्री० [सं० मार्जार+ङीप्] १. बिल्ली। २. कस्तूरी। ३. गन्धनाकुली।
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मार्जारी टोड़ी  : स्त्री० [सं० मार्जारी+हि० टोड़ी] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब कोमल स्वर लगते है।
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मार्जारीय  : पुं० सं० मार्जाय+छ—ईय] १. बिल्ली। २. शूद्र। वि० मार्जन करनेवाला।
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मार्जाल  : पुं० =मार्जाय।
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मार्जालीय  : पुं० [सं०√मृज्+अलीयच्] १. बिल्ली। २. शूद्र। ३. शिव। ४. एक प्राचीन ऋषि। वि०=मार्जारीय।
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मार्जित  : भू० कृ० [सं√मृज् (शुद्ध करना)+णिच्=क्त] जिसका मार्जन हुआ हो या किया गया हो। साफ या स्वच्छ किया हुआ। पुं० एक प्रकार का श्रीखण्ड जो दही, कपूर, चीनी शहद और मिर्च आदि मिलाकर बनाया जाता था।
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मार्तंड  : पुं० [सं० मृत-अण्ड, कर्म० स० पररूप,+अण्, वृद्धि] १. सूर्य। २. आक। मदार। ३. सूअर। ४. सोनामक्खी।
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मार्तंड-वल्लभा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सूर्य की पत्नी। २. छाया।
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मार्तिक  : भू० कृ० [सं० मृत्तिका+ठक्—इक] मिट्टी से बना या बनाया हुआ। पु० १. सकोरा। २. पुरवा।
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मार्तिकावत  : पुं० [सं०] १. पुराणानुसार चेदि राज्य का एक प्राचीन नगर। २. उक्त नगर के आसपास को प्रदेश। ३. उक्त देश का निवासी।
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मार्त्य  : पुं० [सं० मर्त्य+ष्यञ्] १. मर्त्य होने की अवस्था या भाव। मरणशीलता। २. शारीरिक मल।
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मार्दंग  : पुं० [सं० मृत्-अंग, ब० स०,+अण्] १. मृदंग बजानेवाला। २. नगर। शहर।
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मार्दंगिक  : पुं० [सं० मृदंग+ठक्—इक] वह जो मृदंग बजाता हो। मृदंगिया।
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मार्दव  : पुं० [सं० मृदु+अण्] १. मृदु होने की अवस्था या भाव। मृदुता। २. दूसरे को दुःखी देखकर दुःखी होने की वृत्ति। हृदय की कोमलता और सरसता। ३. अहंकार आदि दुर्गुंणों से रहित होने की अवस्था या भाव। ४. एक प्राचीन जाति।
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मार्द्वीक  : वि० [सं० मृद्वीका+अण्, वृद्धि] १. अंगूर-सम्बन्धी। २. अंगूर से बना या बनाया हुआ। स्त्री० [सं०] अंगूरी शराब।
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मार्फत  : अव्य०, स्त्री०=मारफत।
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मार्मिक  : वि० [सं० मर्मन्+टक्—इक] [भाव० मार्मिकता] १. मर्म-सम्बन्धी। मर्म का। २. मर्म स्थान (हृदय) पर प्रभाव डालने अथवा उसे आंदोलित करनेवाला। ३. किसी विषय का मर्म अर्थात् निहित तत्त्व के आधार पर या विचार से होनेवाला। जैसे—मार्मिक विवेचन।
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मार्मिकता  : स्त्री० [सं० मार्मिक तल्+टाप्] १. मार्मिक होने की अवस्था या भाव। २. किसी विषय, शास्त्र आदि के गूढ़ रहस्यों की अभिज्ञता या अच्छी जानकारी।
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मार्शल  : पुं० [अं०] सेना का एक उच्च अधिकारी।
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मार्शल-ला  : पुं० [अं०] १. वह आदेश जिसके द्वारा किसी देश की शासन-व्यवस्था सेना को सौंपी जाती है। २. सैनिक व्यवस्था या शासन। फौजी कानून या हुकूमत। विशेष—जब देश में विशेष उपद्रव आदि की आशंका होती है तब वहाँ से साधारण नागर शासन हटाकर इसी प्रकार का शासन कुछ समय के लिए प्रचलित किया जाता है।
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मार्ष  : पुं० =मारिष।
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माल  : पुं० [सं० मा+ रन्, र—ल, पृषो०] १. क्षेत्र। २. कपट। छल। ३. वन। जंगल। ४. हरताल। ५. विण्णु। ६. एक प्राचीन अनार्य या म्लेच्छ जाति। ६. एक प्राचीन देश। स्त्री० [सं० माला] १. गले में पहनने की माला। २. वह रस्सी या सूत की डोरी जो चरखे में बेलन पर से होकर जाती है और टेकुए को घुमाती है। ३. पंक्ति। श्रेणी। ४. झुंड। समूह। उदा०—बाल मृगनि का माल सधन वन भूलि परी ज्यौं।—नंददास। पुं० =मल्ल (पहलवान)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अं०] १. प्रत्येक ऐसी मूल्यवान वस्तु जिसकी कुछ उपयोग होता हो और इसीलिए जिसका क्रय-विक्रय होता है। जैसे—खेतों की उपज, वृक्षों के फल० घर का सामान, खनिज पदार्थ, गहने-कपड़े आदि। पद—मालख़ाना, मालगाड़ी मालगोदाम। मुहा०—माल काटना, चीरना या मारना= अनुचित रूप से कहीं से मूल्यवान पदार्थ या सम्पत्ति लेकर अपने अधिकार मे करना। २. धन-सम्मपत्ति। रुपया-पैसा। दौलत। पद—मालटाल, मालदार, माल-मता। ३. वह धन जो राज्य को कर, लगान आदि के रूप में प्राप्त होता है। राजस्व। पद—किसी पदार्थ का वह मूल अंश या तत्त्व जो वस्तुतः उपयोगी तथा मूल्यवान हो। जैसे—इस अँगूठी का माल (अर्थात् चाँदी या सोना) अच्छा है। ५. सुन्दर और सुस्वाद भोजन। ६. युवती और सुन्दरी स्त्री। (बाजारू) ६. गणित में वर्ग का घात। वर्ग अंक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माल-कंगनी  : स्त्री० [हि० माल+कंगनी] १. एक प्रकार की लता जिसके बीजों का तेल निकलता है। २. उक्त लता के दाने या बीज जोऔषध के काम आते हैं और जिनमें से एक प्रकार का तेल निकलता है।
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माल-गाड़ी  : पुं० [हिं० माल+गाड़ी] रेल में वह गाड़ी (सवारी-गाड़ी से भिन्न) जिसमें केवल माल-असबाब भरकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाया जाता है।
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माल-टाल  : पुं० =माल-मता।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माल-भंजिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] प्राचीन काल का एक प्रकार का खेल।
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माल-भंडारी  : पुं० [हि० माल+भंडारी] मालगोदाम, भंडार आदि का निरीक्षक।
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माल-भूमि  : स्त्री० [सं० मल्लभूमि] नैपाल के पूर्व का एक प्रदेश।
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माल-मता  : पुं० [अ० माल+मताअ] धन-दौलत। सम्पत्ति।
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माल-मंत्री  : पुं० दे० ‘राजस्व मंत्री’।
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मालक  : पुं० [सं०√मल् (धारण)+ण्वुल्—अक] १. स्थल-पदम। २. नीम। पुं० =मालिक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मालका  : स्त्री० [सं० मालक+टाप] माला।
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मालकोश  : पुं० [सं० माल-कोष, ष० त०+अण्] संगीत में ओड़व जाति का एक राग जिसे कौशिक राग भी कहते हैं तथा जो रात के दूसरे पहर में गाया जाता है।
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मालखंभ  : पुं० [सं० मल्ल+खम्भ] १. एक प्रकार की भारतीय कसरत या व्यायाम जो लकड़ी के खम्भे या डंडे के सहारे किया जाता है और जिसमें कसरत करनेवाला अनेक प्रकार से बार-बार ऊपर चढ़ता और कलाबाजियाँ करता हुआ नीचे उतरता है। कुछ लोग लकड़ी के खम्भे की जगह छत से लटकाये हुए लम्बे बेंत का भी सहारा लेते हैं। २. वह खम्भा जिसके सहारे हुए लम्बे बेंत का भी सहारा लेते हैं। २. वह खम्भा जिसके सहारे उक्त प्रकार की कसरत या व्यायाम किया जाता है।
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मालखाना  : पुं० [अं० माल+फा० खान
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मालगुजार  : पुं० [अ० मालगुज़ार] मालगुजारी देनेवाला व्यक्ति। २. जमींदार।
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मालगुजारी  : स्त्री० [फा०] जोती-बोयीजानेवाली जमीन का वह कर जो सरकार को दिया जाता है। लगान। २. मालगुजार होने की अवस्था या भाव।
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मालगुर्जरी  : स्त्री० [सं० मालगुर्जर+ङीप्] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें सब युद्ध स्वर लगते हैं।
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मालगोदाम  : पुं० [हिं० माल+गोदाम] १. वह स्थान जिसमें व्यापारी वस्तु का भंडार रखते है। गोदाम। २. रेलवे स्टेशन का वह स्थान जहाँ से मालगाड़ी में माल चढ़ाया और उतारा जाता है।
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मालगोमा  : पुं० [?] एक प्रकार का आम (फल)।
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मालंच  : पुं० [?] एक प्रकार का साग जो पानी में होता है।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मालचक्रक  : पुं० [सं०] कूल्हा।
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मालटा  : पुं० [मालटा (टापू से)] मुसम्मी की जाति का एक प्रकार का बढ़िया फल और उसका पेड़। यह पहले भूमध्यसगार के मालटा द्वीप से आता था। पर अब भारत में भी होता।
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मालति  : स्त्री० =मालती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मालती  : स्त्री० [सं०√मल्+ अतिच् दीर्घ+ङीष्] १. एक प्रकार की लता, जिसमें वर्षा ऋतु में सफेद रंग के सुगंधित फूल लगते हैं। २. उक्त लता का फूल। ३. छः अक्षरो की एक प्रकार की वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में क्रम से एक नगण, दो जगण और एक रगण होता है। ४. मदिरा नामक छंद। ५. सवैया के मत्तगयंद नामक भेद का दूसका नाम। ६. युवती स्त्री। ६. चंद्रमा की चाँदनी। ज्योत्स्ना। ८. रात्रि। रात। ९. पाढ़ा नाम की लता। १॰. जात्री या जाय-फलनामक वृक्ष।
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मालती-क्षार  : पुं० [सं० ष० त०] सुगाहा।
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मालती-जात  : पुं० [सं० स० त०] सुहागा।
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मालती-टोड़ी  : स्त्री० [हिं० मालती+टोड़ी] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जिसमें शुद्ध स्वर लगते हैं।
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मालती-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] जावित्री।
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मालती-फल  : पुं० [सं० ष० त०] जायफल।
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मालद  : पुं० [सं०] १. वाल्मीकीय रामायण के अनुसार एक प्रदेश का नाम जिसे ताड़का ने उजाड़ दिया था। २. एक प्राचीन अनार्य जाति।
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मालदह  : पुं० [देश०] १. पूर्वी बिहार के एक नगर का नाम। २. उक्त नगर और उसके आस-पास के स्थान में होनेवाला एक प्रकार का बढ़िया आम।
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मालदही  : स्त्री० [हिं, मालदह] एक प्रकार की नाव जिसमें माझी छप्पर के नीचे बैठकर उसे खेते हैं। पुं० मध्यम में मालदह में बननेवाला एक तरह का कपड़ा। वि० मालदह-सम्बन्धी।
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मालदा  : पुं० = मालदह।
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मालदार  : वि० [फा०] [भाव० मालदारी] धनवान्। धनी।
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मालद्वीप  : पुं० [सं० मलयद्वीप] हिंद महासागर का एक द्वीपपुंज।
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मालन  : स्त्री० =मालिन।
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मालपूआ  : पुं० [हिं० माल+सं० पूआ] घी में तली हुई एक प्रकार की मीठी पूरी या पकवान।
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मालय  : वि० [सं० ष० त०] १. मलय पर्वत का। २. मलय पर्वत पर होनेवाला। पुं० १. चंदन। २. व्यापारियों का दल। ३. गरुड़ के एक पुत्र का नाम।
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मालव  : पुं० [सं० माल+व] १. आधुनिक मध्य प्रदेश का एक भू-भाग जो मध्य तथा प्राचीन काल में एक स्वंतन्त्र राज्य था। मालव देश। २. उक्त देश का निवासी। ३. संगीत में एक राग जो भैरव का पुत्र कहा गया है। ४. सफेद लोध। वि० मालवा नामक देश का।
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मालवक  : वि० [सं० मालव+वुञ्—अक] मालव-संबंधी। मालवे का। पुं० मालव देश का निवासी।
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मालवरी  : स्त्री० [हिं० मालाबार] एक प्रकार की ईख।
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मालवश्री  : स्त्री० [सं० ष० त०] सम्पूर्ण जाति की एक रागिनी जो सायंकाल गाई जाती है।
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मालवा  : पुं० [सं० मालव] आधुनिक मध्यप्रदेश के अंतर्गत एक भू-भाग। मालव। स्त्री० एक प्राचीन नदी।
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मालविका  : स्त्री० [सं० मालवा+ ठक्—इक,+टाप्] निसोथ।
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मालवी  : स्त्री० [सं० मालव +अण्+ ङीप्] १. संगीत में, श्री राग की एक रागिनी। २. पाढ़ा नाम की लता। ३. मालवे की बोली। वि०=मालवीय।
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मालवीय  : वि० [सं० मालव+छ—ईय] मालव देश-संबंधी। मालव का। पुं० मालव देश का निवासी।
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मालश्री  : स्त्री०=मालवश्री।
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मालसी  : स्त्री० =मालवश्री।
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माला  : स्त्री० [सं० मा=शोभा√ला (देना)+क,+टाप्] १. एक ही पंक्ति या सीघ में लगी हुई बहुत सी चीजों की स्थिति। अवली। पंक्ति। जैसे—पर्वत-माला। २. एक तरह की चीजों का निरन्तर चलता रहनेवाला क्रम। जैसे—पुस्तक माला। ३. फूलों का हार। गजरा। ४. फूलों के हार की तरह बनाया हुआ सोने, चाँदी, रत्नों आदि का हार। जैसे—मोतियों या हीरों की माला। ५. कुछ विशिष्ट प्रकार के दानों या मनकों का हार जो धार्मिक दृष्टियों से पहना जाता है। जैसे—तुलसी की माला, रुद्राक्ष की माला अर्थात् जिसके दानों या मनकों की गिनती के हिसाब के इष्टदेव के नाम का जप किया जाता है। मुहा०—माला जपना या फेरना=हाथ में माला लेकर इष्टदेव का नाम जपना। (किसी के नाम की) माला जपना=हरदम या प्रायः किसी का नाम लेते रहना अथवा चर्चा या ध्यान करते रहना। ६. समूह । झूंड। जैसे—मेघमाला। ६. एक प्राचीन नदी। ८. दूब। ९. भुई आँवला। १॰. काठ की एक प्रकार की कटोरी जिसमें उबटन या तेल रखकर शरीर पर मला या लगाया जाता है। ११. उपजाति छंद का एक भेद जिसके प्रथम और चौथे चरण में जगण, तगण, फिर जगण और अंत में दो गुरु होते है। पुं० [अ० महल, हि० महला] मकान का खंड। (महाराष्ट्र) जैसे—मकान का चौथा माला।
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माला दीपक  : पुं० [सं० ष० त०] साहित्य में, दीपक अलंकार का एक भेद जिसमें किसी वस्तु के एक ही गुण के आधार पर उत्तरोत्तर अनेक वस्तुओं का संबंध बताया जाता है। जैसे—रस के काव्य, काव्य से वाणी, वाणी से रसिक और रसिक से सभा की शोभा बढ़ती है।
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माला मणि  : पुं० [ष० त०] रुद्राक्ष।
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माला रानी  : स्त्री० [हिं,] संगीत में कल्याण ठाठ की एक रागिनी।
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माला-कंद  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कंद जो वैद्यक में तीक्ष्ण दीपन, गुल्म और गंडमाला रोग को हरनेवाला तथा वात और कफ का नाशक कहा गया है। कंडलता। बल-कंद।
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माला-दूर्बा  : स्त्री० [सं० उपमि० त०] एक प्रकार की दूब जिसमें बहुत सी गाँठें होती हैं। गंडदूर्वा।
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मालाकंठ  : पुं० [सं० ब० स०] १. अपामार्ग। चिचड़ा। २. एक प्रकार का गुल्म।
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मालाकार  : पुं० [सं० माला√कृ+अक्] [स्त्री० मालाकारी] १. पुराणानुसार एक वर्णसंकर जाति। विशेष—ब्रह्यवैवर्त पुराण के अनुसार यह जाति विश्वकर्मा और शूद्रा से उत्पन्न है। पराशर पद्धति के अनुसार यह तेलिन और कर्मकार से उत्पन्न है। २. माली।
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मालाकृति  : वि० [माला-आकृति, ब० स०] माला के आकार का। दे० ‘रज्जुवक्र’।
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मालागिरी  : वि०, पुं० =मलयागिरि।
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मालातृण  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह की सुगंधित घास। भूस्तृण।
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मालाधर  : पुं० [सं० ष० त०] सत्रह अक्षरों का एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नगण, सगण, जगण, फिर सगण और अंत में एक लधु और फिर गुरु होता है।
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मालाप्रस्थ  : पुं० [सं०] एक प्राचीन नगर।
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मालाफल  : पुं० [सं० ष० त०] रुद्राक्ष।
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मालामाल  : वि० [फा०] जिसके पास बहुत अधिक माल या धन हो। धन-धान्य से पूर्ण। सम्पन्न।
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मालाली  : स्त्री० [सं० माला√अल्+अच्+ङीष्] पक्का। असबरग।
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मालावती  : स्त्री० [सं० माला+मतुप्, वत्व, ङीप,] एक प्रकार की संकर रागिनी जो पंचम, हम्मीर, नट और कामोद के संयोग से बनती है। कुछ लोग इसे मेघराज की पुत्रवधु मानते हैं।
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मालिक  : पुं० [सं० माला+ठक्—इक] १. मालाएँ बनानेवाला। माली। २. रजक। धोबी। ३. एक प्रकार का पक्षी। पुं० [अ०] [स्त्री० मालिका] १. वह जो सब का स्वामी हो और सब पर अधिकार रखता हो। २. ईश्वर। जैसे—जो मालिक की मरजी होगी वही होगा। ३. सम्पत्ति आदि का स्वामी। अध्यक्ष। ४. विवाहिता स्त्री का पति। शौहर।
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मालिका  : स्त्री० [सं० माला+कन्+टाप इत्व] १. पंक्ति। श्रेणी। २. फूलों आदि का माला। ३. गले में पहनने का एक प्रकार का गहना। ४. पक्के मकान के ऊपर का कोठा। अटारी। ५. अंगूर की शराब ६. मदिरा। शराब। ६. पुत्री। बेटी। ८. चमेली। ९. अलसी। १॰. माली जाति की स्त्री। मालिन। ११. मुरा नामक गंध द्रव्य। १२. सातला। स्त्री० [फा० ‘मालिक’ का स्त्री०] स्वामिनी।
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मालिकाना  : पुं० [अ० मालिक+फा० आन
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मालिकी  : स्त्री० [फा० मालिक+ई (प्रत्य०)] मालिक होने की अवस्था या भाव स्वामित्व। मालकियत। वि० मालिक या स्वामी का। जैसे—मालिकी माल।
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मालित  : भू० कृ० [सं० माला+इतच्] १. जिसे माला पहनाई गई हो। २. जो घेर लिया गया हो।
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मालिन  : स्त्री० [हिं० माली] १. माली की स्त्री। २. माली का काम करनेवाली स्त्री। स्त्री० [स० मालिनी] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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मालिनी  : स्त्री० [सं० माला+इनि+ङीप्] १. माली जाति की स्त्री। मालिन। २. चंदा नगरी का एक नाम। ३. गौरी। ४. गंगा। ५. जवासा। ६. कलियारी। ६. स्कंद की सात मातृकाओं में से एक। ८. साहित्य मे, मंदिरा नामकी वृत्ति। ९. एक प्रकार की वार्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक पाद में १5 अक्षर होते है। पहले ६. वर्ण दसवाँ और तेरहवाँ लघु और शेष गुरु होते हैं (न, न, भ, य, य)। इसे कोई-कोई मात्रिक भी मानते हैं। १॰. हिमालय की एक प्राचीन नही। रौच्य मनु की माता का नाम। ११. हिमालय की एक प्राचीन नदी। कहते हैं कि इसी के तट पर मेनका के गर्भ से शकुलंता का जन्म हुआ था।
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मालिन्य  : पुं [सं० मलिन+ष्णञ्, ण्ण वा, बुद्धि] १. मलिन होने की दशा या भाव। मलिनता। मैलापन। २. अंधकार। अंधेरा।
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मालियत  : स्त्री० [अ०] १. माल का वास्तिवक मूल्य। कीमत। २. धन। सम्पत्ति। ३. मूल्यवान पदार्थ। कीमती चीज।
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मालिया  : पुं० [देश०] पाल आदि बाँधते समय दी जानेवाली रस्सी में एक विशेष प्रका की गाँठ। (ल०) पं० [हिं० माल] मालगुजारी। (पश्चिम)
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मालिवान  : पुं० माल्यवान्।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मालिश  : स्त्री० [फा०] १. शरीर पर तेल आदि मलने की क्रिया या भाव। मर्दन। २. रक्त-संचार आदि के लिए शरीर के किसी अंग पर बार-बार हाथ से मलने की किया। मुहा०—जी मालिश करना=उबकाई या मिचली-सी आना। जैसे—उसे देखकर मेरा तो जी मालिश करने लगा।
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माली (लिन्)  : वि० [सं० माला+इनि] [स्त्री० मालिनी] जो माला धारण किये हो। पुं० १. वाल्मीकीय रामायण के अनुसारसुकेश राक्षस का पुत्र जो माल्यवान् और सुमाली का भाई था। २. राजीव-गण नामक छन्द का दूसरा नाम। पुं० [सं० माला+इनि, दी्र्ध, न-लोप, मालिन; प्रा० मालिन] [स्त्री० मालिन, मालिनि, मालिनी] १. बाग को सींचने और पौधों को ठीक स्थान पर लगानेवाला व्यक्ति। बागवान। २. हिन्दूओं में उक्त काम करनेवाली एक जाति। ३. उक्त जाति का व्यक्ति। स्त्री० [हिं, माला] छोटी माला। सुमिरनी। उदा०—पतनारी माली पकाई और न कछू उपाय।—बिहारी। वि० [अं०] माल अर्थात् धन या सम्पत्ति से संबंध रखनेवाला। अर्थ सम्बंधी। आर्थिक।
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माली खूलिया  : पुं० [अं०] एक प्रकार का मानसिक रोग जिसमें रोगी प्रायः खिन्न या दुःखी और संशक रहता है। उन्माद
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माली गौड़  : पुं०=मालव-गौड़। (राग)
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मालीद  : पुं० [अं० मालिबडेना] एक प्रकार की उज्ज्वल और चमकदार धातु जो चाँदी से अधिक कड़ी होती है।
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मालीदा  : पुं० दे ‘मलीदा’।
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मालु  : पुं,० [सं०√मृ (प्राप्त करना)+उण् वृद्धि, र=त्त] एक प्रकार की लता जो पेड़ों से लिपटती है। पत्रलता।
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मालुक  : पुं० [सं० मालु+कन्] १. काली तुलसी। २. मटमैले रंग का एक प्रकार का राजहंस।
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मालुधान  : पुं० [सं० मालु√धा (रखना)+ल्यु—अन] १. एक प्रकार का साँप। २. पुराणानुसार आठ प्रमुख नागों में से एक। ३. महापथ।
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मालुधानी  : स्त्री० [सं० मालुधान+ङीप्] एक प्रकार की लता]।
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मालुमात  : स्त्री० [अं०] १. जानकारी। ज्ञान। २. किसी बात का विषय की इच्छी और पूरी जानकारी।
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मालुर  : पुं० [सं० मा√लू (काटना)+र] १. बेल का पेड़। २. कपित्थ। कैथ।
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मालूम  : वि० [अं०] १. (बात् वस्तु या विषय) जिसका इल्म अर्थात् ज्ञान हो चुका हो। जाना हुआ। ज्ञात। विदित। २. प्रकट। स्पष्ट। पुं० जहाज का प्रधान अधिकारी या अफसर। (लश०)
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मालोपमा  : स्त्री० [सं० माला-उपमा उपमि० स०] साहित्य में उपमालंकार का एक भेद जिसमें एक उपमेय के (क) एक ही धर्मवाले अथवा (ख) विभिन्न धर्मवाले अनेक उपमान बतलाये जाते है।
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माल्य  : पुं० [सं० माला+ष्यञ्] १. फूल। २. माला। ३. सिर पर लपेटी जानेवाली माला।
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माल्य-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] सन का पौधा।
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माल्यक  : पुं० [सं० माल्य+ कन] १. दमनक। दौना। २. माला।
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माल्यवंत  : पुं० =माल्यवान्।
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माल्यवती  : स्त्री० [सं० माल्यवत्+ङीप्] पुराणानुसार एक प्राचीन नदी। वि० (हि०) माल्यवत् का स्त्री०।
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माल्यवत्  : वि० [सं० माल्य+मतुप्, वत्व] [स्त्री० माल्यवती] जो माला पहने हो। पुं० =माल्यवान्।
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माल्यवान् (वत्)  : पुं० [सं० दे० माल्यवत] १. पराणानुसार एक पर्वत जो केतुमाल और इलावृत वर्ष के बीच का सीमा-पर्वत कहा गया है। २. सुकेश का पुत्र एक राक्षस जो गंधर्व की कन्या देववती से उत्पन्न हुआ था। वि० [सं० माल्यवत्] [स्त्री० माल्यवती] जो माला पहने हो।
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माल्ल  : पुं० [सं० मल्ल +अञ्] १. एक वर्ण संकर। २. दे० ‘मल्ल’।
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माल्लवी  : स्त्री० [सं०√मल्ल्+वण्,+ङीप्] १. मल्लों की विद्या या कला। २. मल्लों का जोड़।
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माल्ह  : पुं० =मल्ल। स्त्री० =माला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावत  : पुं० = महावत।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
मावना  : अ०= अमाना (किसी के बीच में समाना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावली  : पुं० [?] [स्त्री० मावली] १. महाराष्ट्र राज्य के पहाड़ों में रहनेवाली एक योद्धा जाति। २. उक्त जाति का व्यक्ति।
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मावली  : वि० [हिं० मावला] मावलों से संबं रखनेवाला। मावलों का। जैसे—मालवी गाँव, मावली दल। स्त्री० ‘मावला’ की स्त्री। पुं० =मावला।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावस  : स्त्री० =अमावस। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावा  : पुं० [सं० हि० माँड] १. माँड। पीच। २. किसी चीज का सार भाग। सत्त। मुहा०—(किसी का) मावा निकालना=खूब मारना-पीटना। ३. वह दूध जो गेहूँ आदि को भिगोकर या कच्चा मलकर निचोड़ने से निकलता है। ४. दूध का खोआ। ५. प्रकृति। ६. अंडे के अंदर की जरदी। ६. चंदन का तेल या ऐसी ही और कोई चीज जिसमें दूसरी चीजों का सार भाग मिलाकर इत्र तैयार करते हैं। इत्र की जमीन। ८. एक प्रकार का गाढ़ा लसदार सुगंधित द्रव्य जिसे तम्बाकू में डालकर उसे सुगंधित करते है। ९. किसी प्रकार का मसाला या सामग्री। १॰. हीरे की बुकनी जिससे मलकर सोने-चाँदी के गहने चमकाते हैं।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
मावासी  : स्त्री०=मवासी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मावीत्र  : पुं० [सं० मातृ-पितृ] माता-पिता। (राज०) उदा०—मावीत्र अजाद मेटी बोलै मुखि।—प्रिथीराज।
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माश  : पुं० [सं० माष से फा०] उरद। मुहा०—माश मारना=मंत्र पढ़कर किसी को वश में करने के लिए उस पर उरद फेंकना। उदा०—भेड़ बन जाओगे मारेगी जो दो माश तुम्हें।—जान साहब। पुं० [सं० महाशय] १. महाशय। २. बंगाली।
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माशा  : पुं० [सं० माष, जंद० मष, माहः] आठ रत्ती मान की एक प्रकार की तौल जिसका व्यवहार सोने, चाँदी, रत्नों और औषधियों के तौलने में होता है। पुं० [सं० महाशय] १. महाशय। २. बंगाली।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माशा अल्लाह  : अव्य० [अ०] एक प्रशंसासूचक पद जिसका अर्थ है—वाह क्या कहना है ! बहुत अच्छे या क्या कहने !
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माशी  : पुं० [फा० माश=उड़द] १. माष अर्थात् उड़द की तरह का कालापन लिये लाल रंग। २. जमीन की एक नाप। वि० उक्त प्रकार के रंग का।
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माशूक  : पुं० [अं० माशूक़] [स्त्री० माशूका] लौकिक अथवा आध्यात्मिक प्रेम-पात्र। प्रिय।
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माशूका  : स्त्री० [अ० माशूक़] प्रेम-पात्री।
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माशूकाना  : वि० [अ० माशूक़+फा० आन
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माशूकी  : स्त्री० [फा०] माशूक होने की अवस्था या भाव। प्रेम-पात्रता।
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माष  : पुं० [सं०√मष् (मारना) +घञ्] १. उड़द। २. माशा नामक तौल। ३. शरीर पर होनेवाला मसा। वि० मूर्ख। स्त्री० =माख।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माष-तैल  : पुं० [सं० ष० त०] वैद्यक में एक प्रकार का तेल जो अर्द्धांग, कम्प आदि रोगों में उपयोगी माना जाता है।
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माष-पत्रिका  : स्त्री० [सं० ब० स०, +कन्+टाप् इत्व] माषपर्णी।
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माष-पर्णी  : स्त्री० [सं० ब० सं० ङीष्] जंगली उड़द।
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माष-योनि  : स्त्री [सं० ब० स०] पापड़।
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माष-वटी  : स्त्री० [सं० ष० त०] उड़द की बनी हुई बड़ी। (दे० ‘बड़ी’)
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माषक  : पुं० [सं० माष+ कन्] १. माशा नाम की तौल। २. उड़द। माष।
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माषना  : अ०=माखना (क्रुद्र होना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माषाद  : पुं० [सं० माष√अद्र (भक्षण करना)+अण्] कछुआ।
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माषाश  : पुं० [सं० माष +अश् (खाना) +अच्] घोड़ा।
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माषीण  : पुं० [सं० माष+ ख—ईन] माष या उड़द का खेत।
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माष्य  : पुं० [सं० माष+ष्यञ्] माष या उड़द बोने योग्य खेत। मशार।
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माँस  : अव्य०=में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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मांस  : पुं० [सं०√मन् (ज्ञान)+स] [वि० मांसल] १. मनुष्यों तथा जीव-जन्तुओं के शरीर का हड्डी, नस, चमड़ी, रक्त आदि से भिन्न अंश जो रक्त वर्ण का तथा लचीला होता है। आमिष। गोश्त। पद—मांस का घी=चरबी। २. कुछ विशिष्ट पशु-पक्षियों का मांस जिसे मनुष्य खाद्य समझता है। जैसे—बकरे या मुर्गे का मांस। पुं० =मास (महीना)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मास  : पुं० [सं० √मस् (परिणाम)+ घञ्] काल का एक विभाग जो वर्ष के बारहवें भाग के बराबर होता है। महीना। विशेष—मास या महीना साधारणतः ३. दिनों का माना जाता है; परन्तु चांद्र, सौर आदि गणनाओं के अनुसार कभी-कभी एक दिन अधिक या कम का भी होता है। इसके सिवा नाक्षत्र मास और सावन मास भी होते है, जिनका विवेचन उक्त शब्दों के अन्तर्गत मिलेगा। पद—अधिमास, मल-मास। पुं० =मांस (गोश्त)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांस-कीलक  : पुं० [ष० त०] बवासीर का मसा।
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मांस-ग्रंथि  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के विभिन्न अंगों में निकलने वाली मांस की गाँठ।
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मास-ताला  : पुं० [सं० ब० स०,+टाप्] एक प्रकार का बाजा।
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मांस-तेज (स्)  : पुं० [ब० स०] चरबी।
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मांस-धरा  : स्त्री० [ष० त०] सुश्रुत के अनुसार शरीर की त्वचा की सातवीं तह। स्थूलापार।
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मांस-पिंड  : पुं० [ष० त०] १. शरीर। देह। २. मांस का टुकड़ा या लोथड़ा।
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मांस-पिंड़ी  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के अंदर रहनेवाली मांस की गाँठ।
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मांस-पेशी  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के अंदर होनेवाली झिल्ली तथा रेशों के आकार का मांस-पिंड जिसका मुख्य कृत्य गति उत्पन्न करना होता है। विशेष—पक्षापात रोग में किसी अंग की मांसपेशियाँ गति उत्पन्न करना बंद कर देती हैं जिसके फलस्वरूप वह अंग हिलाया-डुलाया नहीं जा सकता।
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मांस-फल  : पुं० [सं० उपमि० स०] तरबूज।
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मास-फल  : पुं० [सं० ष० त०] गणित ज्योतिष में, किसी की जन्म-कुंडली के अनुसार किसी एक महीने का फल। (वर्ष-फल की तरह)
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मांस-भक्षी (क्षिन्)  : वि० [सं० मांस√भक्ष् (खाना)+णिनि] मांस खानेवाला । मांसाहारी।
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मास-भृत  : पुं० [सं० तृ० त०] वह मजदूर जिसे मासिक वेतन मिलता हो।
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मांस-मंड  : पुं० [सं० ष० त०] उबाले या पकाये हुए मांस का रसा। यखनी। शोरबा।
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मास-मान  : पुं० [ब० स०] वर्ष।
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मांस-योनि  : पुं० [ब० स०] रक्त और मांस से उत्पन्न जीव।
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मांस-रज्जु  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. सुश्रुत के अनुसार शरीर के अंदर होनेवाले स्नायु जिनसे मांस बँधा रहता है। २. मांस का रसा। शोरबा।
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मांस-रस  : पुं० [ष० त०] मांस का रसा। शोरबा।
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मांस-लिप्त  : पुं० [तृ० त०] हड्डी।
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मांस-विक्रयी (यिन्)  : पुं० [सं० मांस+वि०√क्री+इनि, उपपद, स०] १. वह जो मांस बेचता हो। कसाब। २. वह जो धन के लोभ में अपनी सन्तान किसी के हाथ बेचता हो।
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मांस-वृद्धि  : स्त्री० [ष० त०] शरीर के किसी अंग के मांस का बढ़ जाना। जैसे—घेंघा, फील पाँव आदि।
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मांस-समुद्भवा  : स्त्री० [सं० ब० स०+टाप्] चरबी।
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मांस-सार  : पुं० [ष० त०] शरीर के अन्तर्गत मेद नामक धातु। वि० हष्ट-पुष्ट। मोटा-ताजा।
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मास-स्तोम  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक यज्ञ।
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मांस-स्नेह  : पुं० [ष० त०] चरबी। वसा।
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मांस-हासा  : पुं० [ब० स०+टाप्] चमड़ा।
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मासक  : पुं० [सं० मास+कन्] महीना। मास।
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मांसकारी (रिन्)  : पुं० [सं० मांस√कृ+णिनि] रक्त। लहू।
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मांसखोर  : वि० [सं० मांस+फा० खोर] [भाव० मांसखोरी] मांसाहारी। मांस खानेवाला।
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मांसज  : वि० [सं० मांस√जन् (उत्पन्न होना)+ड] मांस से उत्पन्न होनेवाला। पुं० चरबी जो मांस से उत्पन्न होती है।
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मासज्ञ  : पुं० [सं० मास√ज्ञा (जानना)+क] १. दात्यूह नामक पक्षी। बनमुर्गी। २. एक प्रकार का हिरन।
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मासना  : अ० [सं० मिश्रण हिं० मीसना] मिलना। स० =मिलाना। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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मांसभोजी (जिन्)  : वि० [सं० मांस√भुज् (खाना)+णिनि] मांसाहारी।
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मासर  : पुं० [सं०√मस् (परिणाम)+णिच+अरन्] १. एक प्रकार का मादक पेय पदार्थ जो चावल के माँड़ और अंगूरों के उठे हुए रस से बनाया जाता था। २. काँजी।
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मांसरोहिणी  : स्त्री० [सं० मांस√रुह् (उत्पन्न होना)+णिच्+णिनि, +ङीष्] एक प्रकार का जंगली वृक्ष।
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मांसल  : वि० [सं० मांस+लच्] [भाव० मांसलता] १. (शरीर का कोई अंग) जो मांस से अच्छी तरह भरा हो। २. जिसमें मांस या उसकी तरह के गूदे की अधिकता हो। गुदगुदा। फ्लेशी। ३. मोटा-ताजा। हष्ट-पुष्ट।४. दृढ़। पक्का। मजबूत। पुं० १. गौड़ी रीती का एक गुण। २. उड़द।
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मांसलता  : स्त्री० [सं० मांसल+तल्+टाप्] १. मांस से भरे होने की अवस्था या भाव। २. बहुत अधिक मोटे-ताजे तथा हष्ट-पुष्ट होने की अवस्था या भाव।
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मासा  : पुं० =माशा।
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मासांत  : पुं० [सं० मास-अन्त० ष० त०] १. महीने का अंत। २. महीने का अन्तिम दिन। ३. अमावस्या। ४. सौर संक्रान्ति का दिन।
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मांसादन  : पुं० [मांस-अदन, ष० त०] मांस खाने की क्रिया या भाव।
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मांसादी (दिन्)  : वि० [सं० मांस√अद्+णिनि] मांस खानेवाला। मांसाहारी।
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मांसाद्  : वि० [सं० मांस√अद् (खाना)+क्विप्] जो मांस-खाता हो। मांस-भक्षक। पुं० राक्षस।
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मासाधिप  : पुं० [सं० मास-अधिप, ष० त०] वह ग्रह जो मास का स्वामीहो। मासेश।
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मासानुमासिक  : वि० [सं० ष० त०] प्रतिमास संबंधी। प्रतिमास का।
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मांसारि  : पुं० [मांस-अरि, ष० त०] अम्लबेंत।
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मांसार्गल  : पुं० [मांस-अर्गल, ष० त०] गले में लटकनेवाला मांस।
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मांसार्बुद  : पुं० [मांस-अर्बुद, ष० त०] १. एक प्रकार का रोग जिसमें लिंग पर फुंसियां निकल आती है। २. शरीर के किसी अंग में आघात लगने से होनेवाली वह सूजन जो पत्थर की तरह कड़ी हो जाती है और जिसमें प्रायः पीड़ा नहीं होती।
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मासावधिक  : वि० [सं० मास-अवधि, ब० स०+कप्] जिसकी अवधि एक मास पर्यंत हो।
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मांसाशन  : पुं० =मांसादन। वि० =मांसाशी।
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मांसाशी (शिन्)  : वि० [सं० मांस√अस् (खाना)+णिनि] जो मांस खाता हो। मांसाहारी। पुं० राक्षस।
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मांसाष्टका  : स्त्री० [मांस-अष्टका, मध्य० स०] माघ कृष्णाष्टमी । इस दिन मांस से पिंडदान करने का विधान था।
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मांसाहारी (रिन्)  : वि० [सं० मांस+आ√हृ+णिनि] [स्त्री० मांसाहारिणी] मांस का भोजन करनेवाला। मांसभक्षी।
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मासिक  : वि० [सं० मास+ठञ्—इक] १. मास-सम्बन्धी। २. मास मास पर नियमित रूप से होनेवाला। पुं० दे० ‘मासिक-धर्म’।
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मासिक-धर्म  : पुं० [सं० कर्म० स०] स्त्रियों को प्रति मास होनेवाला रज-स्त्राव।
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माँसी  : वि० [सं० माष्] माष अर्थात् उड़द के रंग का। पुं० उक्त प्रकार का रंग जो उड़द के दाने के रंग की तरह होता है।
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मांसी  : स्त्री० [सं० मांस+अच्+ङीष्] १. जटामासी। २. काकोली। ३. चन्दन का तेल। ४. इलायची।
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मासी  : स्त्री० [सं० मातृष्वसा; पा० मातुच्छा; प्रा० मउच्छा] सम्बन्ध के विचार से माँ की बहन। मौसी।
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मासीन  : वि० [सं० मास+खञ्—ईन] एक महीने की अवस्थावाला।
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मांसु  : पुं० मांस।
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मासुरकर्ण  : पुं० [सं० मसुरकर्ण+अण्] मसुकर्ण के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।
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मासुरी  : स्त्री० [सं० मसुर+अण्+ङीप्] चीर-फाड़ के काम में आनेवाला एक प्राचीन शस्त्र या औजार।
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मासूम  : वि० [अं०] १ जिसने कोई अपराध या दोष न किया हो। निरपराध। बेगुनाह। २. कलुष या पाप से रहित। ३. जो हर प्रकार से असमर्थ, निर्दोष तथा दया का पात्र हो। जैसे—मासूम बच्चा।
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मासूमियत  : स्त्री० [अ०] मासूम होने की अवस्था या भाव।
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मासूर  : वि० [सं० मसूर+अण्] १. मसूर-सम्बन्धी। मसूर का। २. मसूर की आकृति का।
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मासेष्टि  : स्त्री० [सं० मास-इष्टि मध्य० स०] वह इष्टि या यज्ञ जो पतिमास किया जाता हो।
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मांसोदन  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक तरह का पुलाव जिसमें मांस के टुकड़े भी डाले जाते हैं।
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मांसोपजीवी (विन्)  : वि० [सं० मांस+उप√जीव् (जीना)+णिनि] १. जिसकी जीविका मांस से चलती हो। २. जो मांस बेचकर जीवन निर्वाह करता हो।
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मासोपवास  : पुं० [सं० मास-उपवास, मध्य० स०] १. लगातार महीने भर तक किया जानेवाला उपवास। २. आश्विन शुक्ल ११ से कार्तिक शुक्ल ११ तक किया जानेवाला एक प्रकार का उपवास जिसका विधान गरुड़ पुराण में है।
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मासोपवासी (सिन्)  : पुं० [सं० मास-उपवास, मध्य० स०,+इनि] वह जो मासोपवास अर्थात् लगातार महीने भर तक उपवास करता हो।
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मास्  : पुं० [सं०√मा (मानना)+असुन्] १. चंद्रमा। २. महीना। मास।
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मास्टर  : पुं० [अं०] [भाव० मास्टरी] १. स्वामी। मालिक। २. अध्यापक। शिक्षक। ३. किसी कला, गुण, विद्या या विषय में निष्णात्त व्यक्ति। ४. छोटे बच्चों के लिए एक प्रकार का प्रेमपूर्ण सम्बोधन।
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मास्टरी  : स्त्री० [अं० मास्टर+ई (प्रत्य०)] १. मास्टर अर्थात् अध्यापक का काम, पद या पेशा। २. किसी कला, हुनर आदि में निष्णात्त होने की अवस्था या भाव।
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मास्तिष्क्य  : वि० [सं० मस्तिष्क+व्यज्] मस्तिष्क-संबंधी। मस्तिष्क का। जैसे—मास्तिष्क्य चित्रण।
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मास्य  : वि० [सं, मास+ यत्] महीने भर का। मासीन।
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माँह  : अव्य० [सं० मध्य०] में। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माह  : अव्य० [मध्य; प्रा० मज्झ] में। पुं० [सं० माष० प्रा० माह] उड़द। पुं० =मास (महीना)। पुं० =माघ नामक महीना। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहत  : स्त्री० [सं० महत्ता] महत्त्व। बड़ाई।
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माहताब  : पुं० [फा०] १. चंद्रमा। २. चाँदनी। स्त्री० =माहताबी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहताबी  : स्त्री० [फा०] १. एक तरह की आतिशबाजी। २. चाँदनी रात का मजा लेने के लिए बैठने के लिए बनाया हुआ चबूतरा। ३. तरबूज। ४. चकोतरा। ५. एक तरह का कपड़ा। वि० माहताब अर्थात् चन्द्रमा की चाँदती में बनाया या तैयार किया हुआ। जैसे—माहताबी गुलकन्द।
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माहना  : अ० =उमाहना (उमड़ना)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहर  : पुं० [सं माहिर =इन्द्र] इन्द्रयान। पद—माहर का फल =ऐसा पदार्थ जो देखने में तो सुन्दर हो, पर दुर्गुणों से भरा हो। वि० =माहिर (जानकार)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माँहरा  : सर्व=हमारा (राज०)। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहरा  : सर्ब० =हमारा। (राज०) (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहली  : पुं० [हिं० महल] १. महल अर्थात् अन्तःपुर में काम करनेवाला सेवक। २. महली। खोजा। ३. नौकर। सेवक।
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माहव  : पुं० =माधव। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहवार  : अव्य० [फा०] प्रतिमास। हर महीने। पुं० हर महीने मिलनेवाला वेतन। मासिक वेतन। वि० हर महीने होनेवाला। मासिक।
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माहवारी  : वि० [फा०] मासिक। स्त्री० स्त्रियों का मासिक-धर्म।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माँहा  : अव्य०=माँह (में)। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माहाँ  : अव्य = महँ (बीच)।
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माहाकुल  : वि० [सं० महाकुल +अञ्] ऊँचे घराने में उत्पन्न। महाकुल।
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माहाकुलीन  : वि० [सं० महाकुल+खञ्—ईन] बहुत बड़ा कुलीन।
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माहाजनीन  : वि० [सं० महाजन+खञ्+ईन, वृद्धि] १. जो महाजनों के लिए उपयुक्त हो। २. महाजनों की तरह का।
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माहात्मिक  : वि० [सं० महात्मन्+ठक्—इक] १. महात्मा-सम्बन्धी। महात्मा का। २. जिसकी विशेष महत्ता हो। महात्मा से युक्त।
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माहात्म्य  : पुं० [सं० महात्मन्+ष्यञ्] १. महत् होने की अवस्था या भाव। गौरव। महिमा। २. आदर-सम्मान। ३. धार्मिक क्षेत्र में किसी पवित्र या पुण्य-कार्य से अथवा किसी स्थान के महत्त्व का वर्णन। जैसे—एकादशी माहात्म्य काशी माहात्म्य।
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माहाना  : वि० [फं०] माहवार। मासिक।
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माहिं  : अव्य० [सं० मध्य; प्रात० मज्झ] अन्दर। भीतर में। (अधिकरण कारक का चिन्ह)
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माँहि, मांही  : अव्य०=माँह।
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माहित  : पुं० [सं० महित+अण्] महित ऋषि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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माहित्य  : पुं० [सं० महित+यञ्] महित ऋषि के गोत्र में उत्पन्न व्यक्ति।
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माहियत  : स्त्री [अ० माहीयात] १. भीतरी और वास्तविक तत्व । २. प्रकृति। ३. विवरण।
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माहिया  : पुं० [पं०] १. प्रियम। प्रिय। २. एक प्रकार का प्रसिद्ध पंजाबी गेयपद दो तीन चरणों का होता है और जिसमें मुख्यतः करुण और श्रृंगार रस की प्रधानता होती है और बिहर-दशा का मार्मिक वर्णन होता है।
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माहियाना  : वि० [फा० माहियान
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माहिर  : पुं० [सं० √मह+इरन् बा०] इन्द्र। वि० [अ०] किसी बात या विषय का पूर्ण ज्ञाता। अच्छा जानकार।
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माहिला  : पुं० [सं० मध्य] अन्तर। फरर्क। वि० [स्त्री० माहिली] १. मध्य या बीच का। मँझला। २. अन्दर का। आन्तरिक। पुं० =माँझी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहिले  : अव्य० [हिं० माहि] अन्दर। भीतर। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहिष  : वि० [सं० महिषी+अण्] भैंस सम्बन्धी या भैंस का (दूध आदि)।
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माहिष-वल्लरी  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] काला विधारा। कृष्ण वृद्धदारक।
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माहिष-वल्ली  : स्त्री० [सं० उपमि० स०] छिरहटी।
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माहिषिक  : पुं० [सं० महिषी +ठक्-इक, वृद्धि] १. व्यभिचारिणी स्त्री का पति। २. भैंस के द्वारा जीविका निर्वाह करनेवाला व्यक्ति।
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माहिष्मती  : स्त्री० [सं०] वर्तमान मध्य प्रदेश में स्थित एक बहुत पुरानी नगरी जिसे मांधाता के पुत्र मुचकुंद ने बसाया था।
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माहिष्य  : पुं० [सं० महिषी+ष्यञ्, वृद्धि] स्मृतियों के अनुसार एक संकर जाति।
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माहीं  : अव्य०=माँहि।
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माही  : स्त्री [सं० माहेय] एक नदी जो खंभात की खाड़ी में गिरती है। स्त्री० [फा०] मछली। पद—माही-गौर, माही-पुश्त, माही-मरातिब।
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माही-गीर  : पुं० [फा०] मछली पकड़नेवाला। मछुवा।
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माही-पुश्त  : वि० [फा०] जो मछली की पीठ की तरह उभरा हुआ और किनारे-किनारे ढालुआँ हो। पुं० एक प्रकार का कारचोबी का काम जो बीच में उभरा हुआ और दोनों ओर से ढालुआँ होता है।
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माही-मरातिब  : पं० [फा०] मुगल बादशाहों के आगे हाथी पर चलने-वाले सात झंड़े जिन पर अलग-अलग मछली, सातों ग्रहों आदि की आकृतियाँ कारचोबी की बनी होती थीं।
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माँहुटि  : पुं० [हिं० माघ (महीना)] माघ के महीने में होनेवाली वर्षा। उदाहरण—नैन चुवहिं जस माँहुटि नीरू।—जायसी। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहुति  : स्त्री० [सं० माध-घटा] माघ महीने की घटा या बादल। (यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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माहुर  : पुं० [सं० मधुर, प्रा० महुर =विष] विष। पद—माहुर की गाँठ=(क) बहुत ही जहरीली और खराब चीज। (ख) बहुत ही दुष्ट हृदय का व्यक्ति।
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माहुरी  : स्त्री० [सं० माधुरी] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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माँहूँ  : पुं० [?] सरसों, गोभी, मूली शलजम आदि में लगनेवाला एक प्रकार का हल्के पीले-रंग का कीड़ा जिसके शरीर के पिछले भाग पर ऊपर की ओर दो छोटी नलियाँ रहती हैं लाही।
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माहूँ  : स्त्री० [देश०] १. एक प्रकार का छोटा कीड़ा जो राई, सरसों, मूली आदि की फसल में उनके डंठलों पर फूलने के समय या उसके पहले अंडे दे देता है। २. कनसलाई नाम का कीड़ा।
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माहेंद्र  : वि० [सं० महेन्द्र+अण्] १. महेन्द्र-संबंधी। महेन्द्र का। २. जिसका देवता महेन्द्र हो। ज्योतिष में, वार के अनुसार भिन्न-भिन्न दंड़ों में पड़नेवाला एक योग जिसमें यात्रा करने का विधान है। ३. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ४. सुश्रुत के अनुसार एक देवग्रह जिसके आक्रमण करने के ग्रहग्रस्त पुरुष में माहात्म्य, शौर्य, शास्त्र-बुद्धिता आदि गुए एकाएक आ जाते हैं। ५. जैनियों के एक देवता दो कल्पभव नामक वैमानिक देवगण में है। ६. जैनियों के एक देवता जो कल्पभव नामक वैमानिक देवगण में है। जैनियों के अनुसार चौथे स्वर्ग का नाम।
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माहेंद्री  : स्त्री० [सं० महेन्द्र+ङीष्] १. महेन्द्र अर्थात् इन्द्र की शक्ति। २. इन्द्र की पत्नी। ३. इन्द्रासन। ४. गाय। गौ। ५. सात मातृकाओं में से एक।
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माहेय  : वि० [सं० मही +ढक० ढ—एय] मिट्टी का बना हुआ। पुं० १. मूँगा नामक रत्न। विद्रुम। २. मंगल ग्रह। ३. नरकासुर।
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माहेयी  : स्त्री० [सं० माहेय+ङीष्] १. गाय। गौ। २. माही नाम की नदी।
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माहेल  : पुं० [सं० महेल+अण्] एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि।
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माहेश  : वि, [सं० महेशा+अण्] महेश का।
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माहेशी  : स्त्री० [सं० माहेश+ङीष्] दुर्गा।
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माहेश्वर  : वि० [सं० महेश्वर+अण् वृद्धि] महेश्वर-सम्बंधी। महेश्वर का। पुं० १. एक प्रसिद्ध शैव सम्प्रदाय। २. एक प्रकार का यज्ञ। ३. एक उप-पुराण का नाम। ४. एक प्रकार का प्राचीन अस्त्र। ५. पाणिनि के वे चौदह सूत्र जिन्हें प्रत्याहार कहते हैं और जिन्हें पाणिनि ने अष्टाध्यायी के सूत्रों का प्रमुख आधार बनाया है।
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माहेश्वरी  : जी० [सं० माहेश्वरी+ङीष्] १. दुर्गा। २. एक मातृका का नाम। ३. एक प्राचीन नदी। ४. एक प्रसिद्ध पीठ या तीर्थ-स्थान। पुं० वैश्यों की एक जाति।
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माँहै  : अव्य०=माँह। (यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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माहों  : पुं० =माहूँ (कीड़ा)।
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