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वर  : वि० [सं० वृ (चुनना आदि)+अप्, कर्मणि] १. (समस्त शब्दों के अन्त में) सबसे बढ़कर उत्तम। श्रेष्ठ। जैसे–पूज्यवर, मान्यवर। २. किसी की तुलना में अच्छा या बढ़कर। ३. चुने जाने पसन्द किये जाने के योग्य। पुं० १. बहुत सी चीजों में से अच्छी या काम की चीज पसंद करके चुनना। चयन। वरण। २. कोई ऐसी अच्छी चीज या बात जो देवता से प्रसाद के रूप में मांगी जाय। ३. देवता की कृपा से उक्त प्रकार की इच्छा या याचना की होनेवाली पूर्ति। क्रि० प्र०–देना।–पाना।–माँगना।–मिलना। ४. वह जो किसी कन्या के विवाह के लिए उपयुक्त पात्र माना या समझा गया हो। ५. नव-विवाहिता स्त्री का पति। ६. कन्या के विवाह के समय दिया जानेवाला दहेज। ७. जामाता। दामाद। ८. बालक। लड़का। ९. दारचीनी। १॰. अदरक। ११. सुगन्ध। तृण। १२. सेंधा नमक। १३. मौलसिरी। १४. हल्दी। १५. गौरा पक्षी। प्रत्य० [फा०] एक प्रत्यय जो संज्ञाओं के अंत में लगकर ‘वाला’ या से ‘युक्त’ का अर्थ देता है। जैसे–किस्मतवर, नामवर।
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वर-क्रतु  : पुं० [सं० ब० स०] इन्द्र।
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वर-चंदन  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. काला चंदन। २. देवदार।
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वर-तिक्त  : पुं० [सं० ब० स०] १. कुटज। कोरैया। २. नीम। ३. रोहितक। रोहेड़ा। ४. पापड़ा।
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वर-त्वच  : पुं० [सं० ब० स०] नीम का पेड़।
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वर-दक्षिणा  : स्त्री० [सं० ष० त० या मध्य० स०] वह धन जो वर को विवाह के समय कन्या के पिता से मिलता है। दहेज। दायज।
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वर-दल  : पुं० [सं० ष० त०] वर के साथ विवाह के लिए जानेवाले लोगों का समूह। बरात।
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वर-द्रुम  : पुं० [सं० कर्म० स०] एक प्रकार का अगर जिसका वृक्ष बहुत बड़ा होता है।
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वर-प्रद  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० वरप्रदा] वर देने वाला। वरद।
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वर-प्रदान  : पुं० [सं० ष० त०] मनोरथ पूर्ण करना। कोई फल या सिद्धि देना। वर देना। किसी को प्रसन्न होकर उसका मनोरथ पूरा करने के लिए उसे वर देना। वर-दान।
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वर-फल  : पुं० [सं० ब० स०] नारिकेल। नारियल।
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वर-मेल्हा  : पुं० [पुर्त] एक प्रकार का लाल चन्दन।
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वर-यात्रा  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वर का विवाह के लिए वधू के यहाँ जाना। २. वर के साथ वर-पक्ष के लोगों का कन्या पक्ष के यहाँ विवाह के अवसर पर धूम-धाम से जाना। बरात।
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वरक  : पुं० [सं० वर√कन्] १. कपड़ा। वस्त्र। २. नाव के ऊपर की छाजन। ३. बन-मूँग। ४. जंगली बेर। ५. झड़बेरी। ५. प्रियंगा कँगनी। पुं० [अ०] १. पृष्ठ। पन्ना। २. धातु विशेषतः सोने या चाँदी का पतला पत्तर जो मिठाइयों, मुरब्बों आदि पर लगाकर खाया जाता है।
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वरक-सजा  : पुं० [अ+फा०] सोने-चाँदी के पत्तर अर्थात् वरक बनानेवाला।
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वरका  : पुं० [अ० वरक] पुस्तक आदि का पृष्ठ। पन्ना।
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वरकी  : वि० [अ०] जिसमें कई या बहुत से वरक हो। परतदार।
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वरंच  : अव्य० [सं० परंच] १. उपस्थित, उक्त वर्णित आदि से भिन्न या विपरीत स्थिति में। ऐसा नहीं बल्कि ऐसा। २. परन्तु। लेकिन।
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वरज  : वि० [सं० वर√जन् (उत्पत्ति)+ड] उमर या कद में बड़ा। ज्येष्ठ।
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वरजिश  : स्त्री० [फा०] १. कसरत। व्यायाम। २. ऐसा काम जिसमें शारीरिक श्रम अधिक करना पड़ता हो।
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वरज़िशी  : वि० [फा०] (शरीर) जो व्यायाम से हृष्ट-पुष्ट हुआ हो।
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वरट  : पुं० [सं०√वृ+अटन्] [स्त्री० वरटा] १. हंस। २. कुन्द का फूल।
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वरटा  : स्त्री० [सं० वरट+टाप्] १. मादा हंस। हंसी। २. बर्रे नाम का फतिंगा। ३. गँधिया कीड़ी।
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वरंड  : पुं० [सं०√वृ (आच्छादन)+अण्डन्] १. बंसी की डोर। २. समूह। ३. मुहाँसा। ४. घास का गट्ठर। ४. फीलखाने की वह दीवार जो दो लड़ाके हाथियों को लड़ने से रोकने के लिए उनके बीच में दीवार खड़ी की जाती है।
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वरंडक  : पुं० [सं० वरंड+कन्] १. मिट्टी का भीटा। ढूह। २. हाथी का हौदा।
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वरंडा  : स्त्री० [सं० वरंड+टाप्०] १. कटारी। कत्ती। २. बत्ती। पुं० दे० ‘बरामदा’(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)।
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वरण  : पुं० [सं०√वृ+ल्युट-अन] १. अपनी इच्छा या रुचि से किया जानेवाला चयन। चुनाव। जैसे–उन्होंने न जाने क्यों कंटकित पथ का वरण किया।–महादेवी वर्मा। २. प्राचीन भारत में यज्ञ आदि के लिए उपयुक्त ब्राह्मण चुनना और कार्य सौपने से पहले उसका पूजन तथा सत्कार करना। ३. उक्त अवसर पर पुरोहित, ब्राह्मण आदि को दिया जानेवाला दान। ४. कन्या के विवाह के समय का चुनाव करके विवाह-संबंध निश्चित करने की क्रिया या कृत्य। ५. अर्चन। पूजन। ६. सत्कार। ७. ढकने-लपेटने आदि की क्रिया। ८. घेरा। ९. पुल। सेतु। १॰. वरुण वृक्ष। ११. ऊँट। १२. प्राकार।
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वरण-माला  : स्त्री० [सं० च० त०] जयमाल।
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वरणा  : स्त्री० [सं०] १. वरुणा नदी। २. सिन्धु नदी में मिलनेवाली एक छोटी नदी।
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वरणीय  : वि० [सं०√वृ+अनीयर्] [भाव० वरणीयता, स्त्री० वरणीया] १. वरण किये जाने के योग्य (वर, पात्र आदि) २. चुनने या संग्रह करने के योग्य। उत्तम। बढ़िया। ३. पूजनीय। पूज्य।
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वरत्रा  : स्त्री० [सं०√वृ+अत्रन्+टाप्] १. बरेत। बरेता। २. चपड़े का तमसा। ३. हाथी को बाँधकर खींचने का रस्सा।
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वरद  : वि० [सं० वर√दा (देना)+क] [स्त्री० वरदा] १. वर देनेवाला। २. अभीष्ट सिद्ध करनेवाला।
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वरद-मुद्रा  : स्त्री० [सं० कर्म० स०] दूसरों को यह जतानेवाली शारीरिक मुद्रा कि हम तुम्हें मनचाहा वर देने या तुम्हारी सब कामनाएँ पूरी करने को प्रस्तुत हैं। (इसमें देने का भाव सूचित करने के लिए हथेली ऊपर या सामने रखकर कुछ नीचे झुकाई जाती है)।
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वरदा  : स्त्री० [सं० वरद+टाप्] १. कन्या। लड़की। २. असगंध। ३. अड़हुल।
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वरदा चतुर्थी  : स्त्री० [सं० व्यस्त पद अथवा, मध्य० स०] माघ शुक्ल चतुर्थी। वरदा चौथ।
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वरदाता (तृ)  : वि० [सं० ष० त०] [स्त्री० वरदात्री] वर देनेवाला। व़रद।
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वरदानी (निन्)  : वि० [सं० वरदान+इनि] १. वरदान करनेवाला। २. मनोरथ पूर्ण करनेवाला।
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वरदी  : स्त्री० [अ० वर्दी] किसी विशिष्ट कार्यकर्ता वर्ग का पहनावा। जैसे–खेलाड़ियों, चपरासियों, फौजियों या सिपाहियों की वरदी।
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वरना  : स० [सं० वरण] १. वरण करना। चुनना। २. अविवाहिता स्त्री का किसी को अपने पति के रूप में चुनना। वरण करना। पुं० ऊँट। अव्य० [फा० वर्ना] यदि ऐसा न हुआ तो। नहीं तो।
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वरन्  : अव्य० [सं० परम्] १. ऐसा नहीं। २. इसके विपरीत। बल्कि।
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वरम  : पुं०=वर्म।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वरयिता (तृ)  : वि० [सं०√वर् (चुनना)+णिच्+तृच्०] वरण करनेवाला। पुं०स्त्री का पति। स्वामी।
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वररुचि  : पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध प्राचीन वैयाकरण और कवि।
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वरला  : स्त्री० [सं०√वृ (विभक्त करना)+अलच्+टाप्] हंसिनी। वि० परला (उस पार का)।
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वरवराह  : पुं० [सं० कर्म० स० व्यंग्य प्रयोग]=बर्बर।
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वरवर्णिनी  : स्त्री० [सं० वर-वर्ण,कर्म० स०+इत्० शुद्ध रूप वरवर्णी] १. लक्ष्मी। २. सरस्वती। ३. उत्तम स्त्री। ४. लाक्षा। लाख। ५. हलदी। ६. गोरोचन ७. कंगनी नामक गहना।
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वरही  : पुं० [हिं० वर] सोने की एक लंबी पट्टी जो विवाह के समय वधू को पहनाई जाती है। टीका। पुं०=वहीं (मोर)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री०=वरही।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वरा  : स्त्री० [सं०√वृ (चुनना आदि)+अच्-टाप्] १. चित्रकला। २. हलदी। ३. रेणुका नामक गन्ध द्रव्य। ४. गुड़च। ५. मेदा। ६. ब्राह्मी बूटी। ७. बिडंग। ८. सोमराजी। ९. पाठा। १॰. अड़हुल। जापा। ११. बैगंन। भंटा। १२ . सफेद अपराजिता। १३. शतमूली। १४. मदिरा। शराब।
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वराक  : पुं० [सं० वृ (अलग करना)+षाकन्] १. शिव। २. युद्ध। वि० १. शोचनीय। २. नीच। ३. अभाग्य। दीन-हीन। बेचारा।
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वरांग  : पुं० [सं० वर-अंग, कर्म० स०] १. शरीर का श्रेष्ठ अंग अर्थात् सिर। २. [ब० स०] विष्णु जिनके सभी अंग श्रेष्ठ है। ३. एक प्रकार का नक्षत्र वत्सर जो ३२४ दिनों का होता है। ४. [कर्म० स०] गुदा। ५. भग० योनि। ६. वृक्ष की शाखा। टहनी। ७. [ब० स०] दारचीनी। ८. हाथी। वि० सुंदर अंगोंवाला।
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वरांगना  : स्त्री० [सं० वरा-अंगना, कर्म० स०]सुडौल अंगोंवाली सुन्दरी। सुन्दर स्त्री। स्त्री०=वारांगना।
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वरांगी (गिन्)  : वि० [सं० वरागं+इनि, शुद्धरूप वरांग] [स्त्री० वरांगिनी] सुन्दर अंगों और शरीर वाला। पुं० १. हाथी। २. अमलबेत। स्त्री० [सं० वरांग+ङीष्] १. हल्दी। २. नागदंती। ३. मंजीठ।
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वराट  : पुं० [सं० वर√अट् (जाना)+अण्] १. कौड़ी। २. रस्सी। ३. कमलगट्टे का बीज।
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वराटक  : पुं० [सं० वराट+कन्] १. कौड़ी। २. रस्सी। ३. पद्यबीज।
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वराटिका  : स्त्री० [सं० वराट+कन्, टाप्स, इत्व०] १. कौड़ी। २. तुच्छ। वस्तु। ३. नागकेसर।
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वरानन  : वि० [सं० वर-आनन, ब० स०] [स्त्री० वरानगा] सुन्दर मुखवाला। पुं० सुन्दर मुख।
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वरान्न  : पुं० [सं० वर-अन्न, कर्म० स०] दला हुआ उत्तम अन्न।
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वरायन  : पुं० [सं० वर+आयन] १. विवाह से पहले होनेवाली एक रीति। २. वह गीत जो विवाह के समय वर-पक्ष की स्त्रियाँ गाती हैं।
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वरारोह  : पुं० [सं० वर-आरोह, ब० स०] १. विष्णु। २. एक पक्षी। वि० श्रेष्ठ सवारीवाला।
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वरार्ह  : वि० [सं० वर√अर्ह (योग्य होना)+अच्] १. जिसके संबंध में वर मिल सके। २. जो वर पाने के लिए उपयुक्त हो। ३. बहुमूल्य।
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वराल (क)  : पुं० [सं०वर√अल् (भूषण)+अण्,वराल+कन्=वरालक] लवंग। लौंग।
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वरालिका  : स्त्री० [सं० वरा-आलिका, ब० स०] दुर्गा।
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वरासत  : स्त्री० [अ० विरासत] १. वारिस होने की अवस्था या भाव। २. वारिस को उत्तराधिकार के रूप में मिलनेवाली सम्पत्ति।
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वरासन  : पुं० [सं० वर-आसन, कर्म० स०] १. श्रेष्ठ आसन। २. विशेषतः वह आसन जिस पर विवाह के समय वर बैठता है। ३. अड़हुल। ४. नपुंसक। ५. दरबान।
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वराह  : पुं० [सं० वर (=अभीष्ट)आ√हन् (खोदना)+ड] १. शूकर। सूअर। २. विष्णु के दस अवतारों में से एक जो शूकर के रूप में हुआ था। ३. एक प्राचीन पर्वत। ४. शिशुमार या सूस नामक जल-जंतु। ५. वाराही कन्द।
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वराह-कर्णी  : स्त्री० [सं० ष० त० ङीष्] अश्वगंधा लता।
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वराह-कल्प  : पुं० [मध्य० स०] वह काल या कल्प जिसमें विष्णु ने वराह का अवतार लिया था। वाराहकल्प।
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वराह-क्रांता  : स्त्री० [सं० तृ० त०] १. वाराह कल्प। २. लजालू।
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वराह-पत्री  : स्त्री० [सं० ब० स० ङीष्] अश्वगंधा।
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वराह-मिहिर  : पुं० [सं०] ज्योतिष के एक प्रसिद्ध आचार्य जो बृहत्संहिता पंचसिद्धांतिका और बृहज्जातक नामक ग्रन्थों के रचयिता थे।
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वराह-मुक्ता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक प्रकार का कल्पित मोती जिसके संबंध में यह माना जाता है कि यह वराह या सूअर के सिर में रहता है।
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वराह-व्यूह  : पुं० [सं० मध्य० स० या उपमि० स०] एक प्रकार की सैनिक व्यूह-रचना जिसमें अगला भाग पतला और बीच का भाग चौड़ा रखा जाता था।
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वराह-शिला  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] एक विचित्र और पवित्र शिल्प जो हिमालय की एक चोटी पर है।
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वराह-संहिता  : स्त्री० [सं० मध्य० स०] वराहमिहिर रचित ज्योति का बृहत्संहिता नाम का ग्रन्थ।
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वराहक  : पुं० [सं० वराह+कन्] १. हीरा। २. सूँस।
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वराहिका  : स्त्री० [सं० वराह+कन्-टाप्,इत्व] कपिकच्छु। केवाँच। कौंच।
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वराही  : स्त्री० [सं० वराह+ङीष्] १. वराह की मादा। शूकरी। सूअरी। २. [वराह+अच्+ङीष्] वाराही कंद। ३. नागर मोथा। ४. असगंध। ५. गौरैया की तरह का काले रंग का एक पक्षी। ६. दे्० ‘वाराही’।
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वरि  : स्त्री० [सं० वर=पति] पत्नी। (राज०) उदाहरण–वर मंदा सइ वद वरि।–प्रिथीराज। अव्य,० [सं० उपरि] १. ऊपर। (राज०) उदाहरण–वले बाढ़ दे सिली वरि।–प्रिथीराज। २. भाँति। तरह। उदाहरण–वेस संधि सुहिणा सुवरि।–प्रिथीराज।
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वरियाम  : वि० [सं० वरीयस्] उत्तम। श्रेष्ठ। उदाहरण-पतो माल गद्ध पुरुषरा, वणिया भुज वरियाम।–बाँकीदास।
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वरिशी  : स्त्री० [सं० वडिश] छली फँसानेवाली कँटिया बंसी।
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वरिष्ठ  : वि० [सं० वर+इष्ठन्] १. श्रेष्ठ तथा पूज्य। २. सबसे बड़ा तथा बढ़कर। कनिष्ठ का विपर्याय। (सुपीरियर)। पुं० [सं०] १. धर्म सावर्णि मन्वतर के सप्त ऋषियों में से एक। २. उरुतमस ऋषि का एक नाम। ३. ताँबा ४. मिर्च। ५. तीतर। पक्षी।
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वरिष्ठा  : स्त्री० [सं० वरिष्ठ+टाप्] १. हलदी। २. अड़हुल। जवा।
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वरी  : स्त्री० [सं०√नृ (वरण करना)+अच्-ङीष्] १. शातावरी। सतावर। २. सूर्य की पत्नी। स्त्री० [सं० वर] विवाह हो चुकने पर वर वक्ष से कन्या को देने के लिए भजे जानेवाले कपड़े, गहने आदि। (पश्चिम)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वरीय  : वि० [सं० वरीयस्०] [भाव० वरीयता] १. सब से अच्छा या बढ़िया। २. बहुतों में अच्छा होने के कारण चुने या ग्रहण किया जाने के योग्य। अधिमान्य। (प्रिफरेबुल)। वि० [सं० वर+ईय (प्रत्यय)०] वर-संबंधी। वर का।
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वरीयता  : स्त्री० [सं० वरीयस्ता०] १. चयन, चुनाव आदि के समय किसी को औरों की अपेक्षा दिया जानेवाला महत्व। २. वह गुण जिसके फलस्वरूप किसी को चयन आदि के समय औरों से अधिक प्रमुखता मिलती है।
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वरीयान् (यस्)  : वि० [सं० वर+ईयसुन्] १. बड़ा। २. श्रेष्ठ। ३. पूरा जवान। पूर्ण युवा। पुं० १. फलित ज्योतिष में विष्कंभ आदि सत्ताइस योगों में से अठारहवाँ योग, जिसमें जन्म लेनेवाला मनुष्य दयालु, दाता सत्कर्म करनेवाला और मधुर स्वभाव का समझा जाता है। २. पुलह ऋषि का एक पुत्र।
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वरु  : अव्य०=वरु (बल्कि)।
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वरुट  : पुं० [सं०] एक प्राचीन म्लेच्छ जाति।
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वरुण  : पुं० [सं०√वृ+उनन्] १. एक वैदिक देवता जो जल का अधिपति, दस्युओं का नाशक और देवताओं का रक्षक कहा गया है। पुराणों में वरुण की गिनती दिकपालों में की गई है और वह पश्चिम दिशा का अधिपति माना गया है। वरूण का अस्त्र पाश है। २. जल। पानी। ३. सूर्य। ४. हमारे यहाँ सौर जगत् का सबसे दूरस्थग्रह। (नेपचून)। ५. वरुन का वृक्ष।
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वरुण-ग्रह  : पुं० [सं० ब० स०] घोड़ों का घातक रोग जो अचानक हो जाता है। इस रोग में घोड़े का तालू, जीभ, आँखें और लिगेंन्द्रिय आदि अंग काले हो जाते हैं।
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वरुण-दैवत  : पुं० [सं० ब० स०] शतभिषा नक्षत्र।
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वरुण-पाश  : पुं० [सं० ष० त०] वरुण का अस्त्र० पाश या फंदा। २. नक्र या नाक नामक जल जंतु। ३. ऐसा जाल या फंदा जिससे बचना बहुत कठिन हो।
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वरुण-प्रस्थ  : पुं० [सं०] कुरुक्षेत्र के पश्चिम का एक प्राचीन नगर।
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वरुण-मंडल  : पुं० [सं० ष० त०] नक्षत्रों का एक मंडल जिसमें रेवती, पूर्वाषाढ़ आर्द्रा आश्लेषा मूल, उत्तरभाद्रपद और शतभिषा है।
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वरुणक  : पुं० [सं० वरुण+कन्] वरुण या बरुन का वृक्ष।
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वरुणात्मजा  : स्त्री० [सं० वरुण-आत्मजा, ष० त०] वारुणी। मदिरा। शराब।
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वरुणादिगण  : पुं० [सं० वरुण-आदि, ब० स० वरुणादि, ष० त०] पेड़ों और पौधों का एक वर्ग जिसके अन्तर्गत बरुन, नील झिटी सहिंजन जयति, मेढ़ासिंगी, पूतिका, नाटकरंज, अग्निमंथ (अगेंथू) चीता, शतमूली, बेल, अजश्रृंगी, डाभ, बृहती और कटंकारी है (सुश्रुत)।
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वरुणालय  : पुं० [सं० वरुण-आलय, ष० त०] समुद्र।
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वरूथ  : पुं० [सं०√वृ (वरण करना)+ऊथन्] १. तनुत्राण। बकतर। २. ढाल। ३. लोहे का वह जाल जो युद्ध के समय रथ की रक्षा के लिए उस पर डाला जाता था। ४. फौज। सेना।
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वरूथिनी  : स्त्री० [सं० वरूथ+इनि-ङीष्] सेना।
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वरूथी (थिन्)  : पुं० [सं० वरूथ+इनि] हाथी की पीठ पर रखी जानेवाली काठी।
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वरे  : अव्य० [?] १. परे। दूर। २. उस ओर। उधर। ३. उस पार।
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वरेण्य  : वि० [सं०√वृ+एण्य] १. जो वरण किये जाने के योग्य हो। २. चाहा हुआ। इच्छित। ३. उत्तम। श्रेष्ठ। ४. प्रधान। मुख्य। पुं० केसर।
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वरेंद्र  : पुं० [सं० वर+इंद्र, कर्म० स०] १. राजा। २. इन्द्र। ३. बंगाल का एक प्रदेश या विभाग।
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वरेश्वर  : पुं० [सं० वर-ईश्वर, कर्म० स०] शिव।
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वर्क  : पुं०=वरक (पृष्ठ)।
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वर्कर  : पुं० [सं०√वृक् (स्वीकार)+अर०] १. जवान पशु। २. बकरा। पुं० [अ०] १. काम करनेवाला व्यक्ति। २. विशेषतः किसी सभा, समिति आदि का कार्यकर्ता।
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वर्कराट  : पुं० [सं० वर्कर√अट् (जाना)+अच्] १. कटाक्ष। २. दोपहर के सूर्य की प्रभा। ३. स्त्री के कुच पर का नख-क्षत।
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वर्ग  : पुं० [सं०√वुज् (त्याग देना आदि)+घञ्] १. एक ही प्रकार की अथवा बहुत कुछ मिलती-जुलती या सामान्य धर्मवाली वस्तुओं का समूह। श्रेणी। जैसे– ओषधि वर्ग, साहित्यिक वर्ग विद्यार्थीवर्ग, आदि। २. कुछ विशिष्ट कार्यों के लिए बना हुआ कुछ लोगों का समूह। ३. देवनागरी वर्णमाला में एक स्थान से उच्चरित होनेवाले स्पर्श व्यंजन वर्णों का समूह। जैसे– कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग आदि। ४. ग्रन्थ का अध्याय, परिच्छेद या प्रकरण। ५. कक्षा। जमात। ६. ज्यामिति में वह समकोण चतुर्भुज जिसकी लम्बाई-चौड़ाई बराबर हो। ७. गणित में समान अंकों का घात।
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वर्ग-पहेली  : स्त्री० [सं० हिं] पहेलियाँ बुझाने के लिए ऐसी वर्गाकार रेखाकृति जिसमें छोटे-छोटे घर बने होते हैं तथा जिनमें कुछ संकेतों के आधार पर वर्ण भरे जाते हैं। (क्रासवर्ड)।
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वर्ग-फल  : पुं० [सं० ष० त०] गणित में दो समान राशियों के घात से प्राप्त होनेवाला गुणनफल।
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वर्ग-मूल  : पुं० [सं० ष० त०] वह राशि जिससे वर्गफल को भाग देकर वर्गांक निकाला जाता है।
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वर्ग-संघर्ष  : पुं० [सं० ष० त०] किसी समाज के भिन्न-भिन्न वर्गों में होनेवाला ऐसा पारस्परिक संघर्ष जिसमें एक-दूसरे को दबाने या नष्ट करने का प्रयत्न होता है। (क्लास स्ट्रगल)।
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वर्गण  : पुं० [सं० वर्ग+णिच्+युच्-अन] गुणन। घात। (गणित)।
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वर्गपद  : पुं०=वर्गमूल।
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वर्गयुद्ध  : पुं० [सं० ष० त०] दे० ‘गृह युद्ध’।
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वर्गलाना  : स० [फा० वर्गलानीदन] छल-फरेब से किसी को किसी ओर प्रवृत्त करना। बहकाना।
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वर्गित  : भू० कृ,० [सं० वर्ग+णिच्+क्त] अनेक वर्गों में बँटा या बाँटा हुआ। वर्गीकृत। (क्लैसिफायड)।
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वर्गी (र्गिन)  : वि० [सं० वर्ग+इनि, दीर्घ, नलोप] वर्ग-संबंधी। वर्ग का।
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वर्गीकरण  : पुं० [सं० वर्ग+च्वि, ईत्व√कृ (करना)+ल्युट-अन०] [भू० कृ० वर्गीकृत] गुण-धर्म, रंग-रूप, आकार-प्रकार आदि के आधार पर वस्तुओं आदि के भिन्न-भिन्न वर्ग बनाना (क्लैसिफ़िकेशन)।
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वर्गीकृत  : भू० कृ० [सं० वर्ग+च्वि, ईत्व√कृ+क्त०] वर्गित। अनेक या विभिन्न वर्गों में बँटा या बाँटा हुआ। (क्लैसिफायड)।
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वर्गीय  : वि० [सं० वर्ग+छ-ईय] १. किसी विशिष्ट वर्ग से संबंध रखनेवाला या उसमें होनेवाला। वर्ग का। २. जो किसी विशिष्ट वर्ग के अन्तर्गत हो। जैसे– क वर्गीय अक्षर। ३. एक ही वर्ग या कक्षा का। जैसे–वर्गीय मित्र। पुं० सहपाठी।
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वर्गोत्तम  : पुं० [सं० वर्ग-उत्तम, स० त०] फलित ज्योतिष में राशियों के वे श्रेष्ठ अंश जिनमें स्थित ग्रह शुभ होते हैं।
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वर्ग्य  : वि० [सं० वर्ग+यत्०] १. जिसके वर्ग बनाए जा सकें या बनाये जाने को हों २. वर्गीय।
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वर्चस्  : पुं० [सं०√वर्च (तेज)+असुन्] [वि० वर्चस्वान्, वर्चस्वी] १. रूप। २. तेज। प्रताप। ३. कांति। दीप्ति। ४. श्रेष्ठता। ५. अन्न। अनाज। ६. मल। विष्ठा।
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वर्चस्क  : पुं० [सं० वर्चस्+कन्] १. दीप्ति। तेज। २. विष्ठा।
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वर्चस्य  : वि० [सं० वर्चसू+यत्] तेजवर्द्धक।
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वर्चस्वान् (स्वत्)  : वि० [सं० वर्चस्+मतुप्] [स्त्री० वर्चस्वती] १. तेजवान्। २. दीप्तियुक्त।
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वर्चस्वी (स्विन्)  : वि० [सं० वर्चस्+विनि] [स्त्री० वर्चस्विनी] १. तेज स्त्री। २. दीप्तियुक्त। पुं० चंद्रमा।
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वर्जक  : वि० [सं०√वृज् (निषेध करना)+णिच्+ण्वुल-अक] वर्जन करनेवाला।
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वर्जन  : पुं० [सं०√वृज्+णिच्+ल्युट-अन] [वर्जनीय,वर्ज्य] १. त्याग। छोड़ना। २. किसी प्रकार के आचरण, व्यवहार आदि के संबंघ में होनेवाला निषेध। मनाही। ३. हिंसा। ४. दे० ‘अपवर्जन’।
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वर्जना  : स्त्री० [सं०√वृज्+णिच्+युच्-अन,टाप्] १. वर्जन करने की क्रिया या भाव। मनाही। वर्जन। २. बहुत ही उग्र, कठोर या विकट रूप से अथवा बहुत भयभीत करते हुए कोई बात निषिद्ध ठहराने ०या वर्जित करने की क्रिया या भाव। (टैबू)। विशेष—अनेक असभ्य और आदिम जन-जातियों में इस प्रकार की अनेक परम्परा गत वर्जनाएँ चली आती हैं कि अमुक काम आदि नहीं करने चाहिएँ, अमुक पदार्थ कभी नहीं छूने चाहिए, अथवा अमुक प्रकार के साथ किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रखना चाहिए, नहीं तो बहुत घातक या भीषण परिणाम भोगना पड़ेगा। सभ्य जातियों में नैतिक तथा सामाजिक क्षेत्रों में भी इसी प्रकार की अनेक वर्जनाएँ प्रचलित हैं। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि जहाँ मन में बहुत ही स्वाभाविक, अदमनीय और प्रबल प्रवृ्तियाँ तथा वासनाएँ होती हैं,वहाँ प्राकृतिक वर्जनाओं का रूप धारण या नियन्त्रण की भी प्रवृत्तियाँ होती हैं जो वर्जनाओं का रूप धारण कर लेती हैं। स० वर्जन या निषेध करना। मना करना।
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वर्जनीय  : वि० [सं०√वृज्+णिच्+अनीयर्] १. जिसका वर्जन होना उचित हो। वर्जन किये जाने के योग्य। २. त्यागे जाने के योग्य। ३. खराब।
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वर्जयिता (तृ)  : वि० [सं०√वृज्+णिच्+तृच्] वर्जक।
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वर्जित  : भू० कृ० [सं०√वृज्+णिच्+क्त] १. जिसके संबंध में वर्जन या निषेध हुआ हो। मना किया हुआ। २. (पदार्थ) जिसका आयात-निर्यात या व्यापार राज्य के द्वारा विधिक रूप से बन्द किया या रोका गया हो। (कान्ट्राबैंड) ३. त्यागा हुआ। परित्यक्त। ४. दे० ‘निषिद्ध’।
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वर्जित  : स्त्री० [फा०]=वरजिश (व्यायाम)।
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वर्ज्य  : वि० [सं०√वृज्+णिच्+यत्] =वर्जनीय।
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वर्ज्य-सूची  : स्त्री० [सं०] अर्थशास्त्र में ऐसी वस्तुओं की सूची जिनके संबंध में किसी प्रकार का वर्जन या निषेध किया गया हो। (ब्लैक लिस्ट)।
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वर्ण  : पुं० [सं०√वर्ण) रंगना आदि)+ण्यत्+घञ्] १. पदार्थों के लाल, पीले हरे आदि भेदों का वाचक शब्द। रंग। (देखें)। २. वह पदार्थ जिसमें चीजें रंगी जाती हों। रंग। ३. शरीर के रंग के आधार पर किया जानेवाला जातियों, मनुष्यों आदि का विभाग। जैसे–मनुष्यों की कृष्णवर्ण, गौरवर्ण, पीतवर्ण आदि कई जातियाँ है। ४. भारतीय हिन्दुओं में स्मृतियों में कही हुई दो प्रकार की सामाजिक व्यवस्थाओं में वह जिसके अनुसार गुण, कर्म और स्वभाव के विचार से सारा समाज, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नामक चार वर्गों में विभक्त है। दूसरी व्यवस्था ‘आश्रम व्यवस्था’ कहलाती है। ५. पदार्थों के निश्चित किए हुए भेद, वर्ण या विभाग। जैसे–स-वर्ण अक्षरों की योजना। ६. भाषाविज्ञान तथा व्याकरण में लघुतम ध्वनि इकाई। ६. उक्त का सूचक चिन्ह। अक्षर। ७. संगीत में मृदंग का एक प्रकार का ताल जिसके ये चार भेद कहे गये हैं। पाट, विधिपाट, कूटपाट और खंडपाट। ९. आकृति या रूप। १॰. चित्र। तसवीर। ११. प्रकार। भेद। १२. गुण। १३. कीर्ति। यश। १४. बड़ाई। स्तुति। १५. सोना स्वर्ण। १६. अंगराग। १७. केसर।
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वर्ण-क्रम  : पुं० [सं०] १. वर्णमाला के अक्षरों का क्रम। जैसे– वर्णक्रम से सूची बनाना। २. किसी वस्तु की वह आकृति जो उसे देखने के बाद आँख बन्द कर लेने पर भी कुछ देर तक दिखाई देती है। ३. प्रकाश में के रंग जो विशिष्ट प्रक्रिया से विश्लेषित किये जाते हैं। (स्पेक्ट्रम)।
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वर्ण-खंड-मेरु  : पुं० [ष० त०] छंद शास्त्र में वह क्रिया जिससे बिना मेरु बनाए ही वृत्त का काम निकल जाता है, यह पता चल जाता है कि इतने वर्णों के कितने वृत्त हो सकते हैं और प्रत्येक वृत्त में कितने गुरु और कितने लघु होते हैं।
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वर्ण-चारक  : पुं० [सं० ष० त०] १. चित्रकार। २. रंगसाज।
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वर्ण-ज्येष्ठ  : पुं० [सं० स० त०] हिन्दुओं के सब वर्णों में बड़ा अर्थात् ब्राह्मण।
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वर्ण-तूलिका  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह कूँची जिससे चित्रकार चित्र बनाते हैं। कलम।
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वर्ण-दूत  : पुं० [सं० ब० स०] लिपि।
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वर्ण-दूषक  : पुं० [सं० ष० त०] १. अपने संसर्ग से दूसरों को भी जातिभ्रष्ट करनेवाला। २. जाति से निकाला हुआ पतित मनुष्य।
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वर्ण-नष्ट  : पुं० [सं० ब० स०] छन्दशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि प्रस्तार के अनुसार इतने वर्णों के वृत्तों के अमुक संख्यक भेद का लघु-गुरु के विचार से क्या रूप होगा।
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वर्ण-नाश  : पुं० [सं० ष० त०] व्याकरण में उच्चारण की कठिनता या किसी और कारण से किसी शब्द में का कोई अक्षर या वर्ण लुप्त हो जाना० जैसे–‘पृष्ठतोपर’ में के ‘त’ का वर्ण-नाश होने पर पृष्ठों पर शब्द बनता है।
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वर्ण-पताका  : स्त्री० [सं० ष० त०] छन्दशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि वर्णवृत्तों के भेदों में से कौन सा (पहला, दूसरा तीसरा आदि) ऐसा है जिसमें इतने लघु और इतने गुरु होगें।
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वर्ण-पात  : पुं० [सं० ष० त०] किसी अक्षर का शब्द में से लुप्त हो जाना। वर्ण-नाश।
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वर्ण-पाताल  : पुं० [ष० त०] छन्दशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि अमुक संख्या के वर्णों के कुल कितने वृत्त हो सकते हैं और उन वृत्तों में से कितने लध्वादि और कितने लध्वंत कितने गुर्वादि और कितने गुर्वन्त तथा कितने सर्वलघु होंगे।
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वर्ण-पात्र  : पुं० [ष० त०] १. रंग या रंगों का डिब्बा। २. वह डिब्बा जिसमें बने हुए छोटे-छोटे घरों में रंगों के जमे हुए टुकड़े रखे जाते हैं। (चित्रकला)।
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वर्ण-पुष्प (क)  : पुं० [ब० स० कप्०] पारिजात।
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वर्ण-प्रत्यय  : पुं० [ष० त०] छंदशास्त्र में वह प्रक्रिया जिससे यह जाना जाता है कि कितने वर्णों के योग से कितने प्रकार के वर्णवृत्त बनते हैं।
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वर्ण-प्रस्तार  : पुं० [ष० त०] छंद-शास्त्र में वह क्रिया जिससे यह जाना जाता कि अमुक संख्यक वर्णों के इतने वृत्त भेद हो सकते है और उन भेदों के स्वरूप इस प्रकार होगे।
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वर्ण-भेद  : पुं० [ष० त०] १. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र इन चार प्रकार के वर्णों के लोगों में माना जानेवाला भेद। २. काले, गोरे, पीले, लाल आदि रंगों के आधार पर विभिन्न जातियों में किया जानेवाला पक्षपातमूलक भेद (रेशियल डिस्क्रमिनेशन)।
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वर्ण-मर्कटी  : स्त्री० [ष० त०] छन्दशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि इतने वर्णों के इतने वृत्त हो सकते हैं जिनमें इतने गुर्वादि, गुर्वत, और इतने लध्वादि, लध्वंत होंगे तथा इन सब वृत्तों में कुल मिलाकर इतने वर्ण इतने गुरु-लघु, इतनी कलाएँ और इतने पिण्ड (=दो कल) होगे।
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वर्ण-माता (तृ)  : स्त्री० [ष० त०] लेखनी।
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वर्ण-मातृका  : स्त्री० [ष० त०] सरस्वती।
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वर्ण-माला  : स्त्री० [ष० त०] १. किसी लिपि के वर्णों लघुतम ध्वनि इकाइयों की सूची। २. उक्त ध्वनियों के सूचक चिन्हो की सूची।
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वर्ण-राशि  : स्त्री०=वर्णमाला।
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वर्ण-वर्तिका  : स्त्री० [ष० त०] १. चित्रकला में अलग-अलग तरह के रंगों से बनी हुई बत्ती या पेसिल की तरह का एक प्राचीन उपकरण। २. पेंसिल। ३. तूलिका।
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वर्ण-विकार  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान में वह स्थिति जब किसी शब्द में का वर्णविशेष निकल जाता है और उसके स्थान पर कोई और वर्ण आ जाता है।
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वर्ण-विचार  : पुं० [ष० त०] आधुनिक व्याकरण का वह अंश जिसमें वर्णों के आकार, उच्चारण और सन्धियों आदि के नियमों का वर्णन हो। प्राचीन वेदांग में यह विषय शिक्षा कहलाता था।
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वर्ण-विपर्यय  : पुं० [ष० त०] भाषा-विज्ञान में वह अवस्था जब किसी शब्द के वर्ण आगे-पीछे हो जाते हैं और एक दूसरे का स्थान ग्रहण कर लेते हैं।
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वर्ण-वृत्त  : पुं० [मध्य० स०] वह पद्य जिसके चरणों में वर्णों की संख्या और लघु गुरु का क्रम निर्धारित हो।
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वर्ण-व्यवस्था  : स्त्री० [ष० त०] हिन्दुओं की वह सामाजिक व्यवस्था जिसके अनुसार वे ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन चार विभागों या मुख्य जातियों में बँटे हुए हैं।
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वर्ण-श्रेष्ठ  : पुं० [स० त०] ब्राह्मण।
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वर्ण-संकर  : पुं० [ब० स०] [भाव वर्ण-संकरता] १. व्यक्ति जिसका जन्म विभिन्न वर्णों के माता-पिता से हुआ हो। २. व्यभिचार से उत्पन्न व्यक्ति।
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वर्ण-संहार  : पुं० [ब० स०] नाटकों में प्रतिमुख संधि का एक अंग।
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वर्ण-सूची  : स्त्री० [ष० त०] छंदशास्त्र में एक क्रिया जिससे वर्णवृत्तों की संख्या की शुद्धता उनके भेदों में आदि, अन्त, लघु और आदि अन्त गुरु की संख्या जानी जाती है।
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वर्ण-हीन  : वि० [तृ० त०] १. जो चारों वर्णों (क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि) में से किसी में न हो। २. जातिच्युत।
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वर्णक  : पुं० [सं०√वर्ण+णिच्+ण्वुल-अक] १. वह तत्व या पदार्थ जिससे रँगाई के काम के लिए रंग बनते हों। रंग (पिगमेन्ट) २. अंगराग। ३. देवताओं को चढ़ाने के लिए पिसी हुई हल्दी आदि ऐपन। ४. अभिनय करनेवालों के पहनने के कपड़े का परिधान। ५. दाढ़ी-मूँछ या सिर के बाल रंगने की दवा या मसाला। ६. चित्रकार। ७. चन्दन। ८. चरण। पैर। ९. मंडल। १॰. हरताल।
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वर्णच्छटा  : स्त्री० [सं० ष० त०] दे० ‘वर्णक्रम’।
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वर्णद  : पुं० [सं० वर्ण√दा (देना+क] एक प्रकार की सुगन्धित लकड़ी। रतन-जोत। दंती। वि० वर्ण या रंग देनेवाला।
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वर्णन  : पुं० [सं०√वर्ण (वर्णन करना, रँगना आदि)+णिच्+ल्युट-अन] १. वर्णों अर्थात् रंगों का प्रयोग करना। रँगना। २. किसी विशिष्ट अनुभूति, घटना, दृश्य, वस्तु, व्यक्ति आदि के संबंध में होनेवाला विस्तारपूर्ण कथन जो उसका ठीक-ठीक बोध दूसरों को कराने के लिए किया जाता है। ३. गुण-कथन। प्रशंसा। स्तुति।
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वर्णना  : स्त्री० [सं०√वर्ण+णिच्+युच्-अन, टाप्] १. वर्णन। २. गुण-कीर्तन।
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वर्णनातीत  : वि० [सं० वर्णन+अतीति, द्वि० त०] जिसका वर्णन करना असंभव हो।
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वर्णनात्मक  : वि० [सं० वर्णन-आत्मन्, ब० स० कप्] (कथन लेख आदि) जिसमें किसी अनुभव, अनुभूति दृश्य आदि का वर्णन हो या किया जाय।
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वर्णागम  : पुं० [सं० वर्ण-आगम, ष० त०] भाषा विज्ञान में वह स्थिति जब किसी शब्द के वर्ण में एक वर्ण और आकर मिलता है।
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वर्णाट  : पुं० [सं० वर्ण√अट् (गति)+अच्] १. चित्रकार। २. गायक। ३. प्रेमिका। ४. पत्नी द्वारा अर्जित धन से निर्वाह करनेवाला।
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वर्णांध  : वि० [सं० वर्ण-अंध, सुप्सुपा स०] [भाव० वर्णान्धता] जिसकी आँखों में ऐसा दोष हो कि वह रंगों की पहचान न कर सके। वर्णान्धता रोग का रोगी। (कलर ब्लाइंड)।
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वर्णांधता  : पुं० [सं० वर्णान्ध+तल्-टाप्] नेत्रों का एक प्रकार का रोग या विकार जिसमें मनुष्य को लाल, काले, पीले आदि रंगों की पहचान नहीं रह जाती (कलर ब्लाइन्डनेस)
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वर्णाधिप  : पुं० [सं० वर्ण-अधिप, ष० त०] फलित ज्योतिष में ब्राह्मणादि वर्णों के अधिपति ग्रह। (ब्राह्मण के अधिपति बृहस्पति और शुक्र, क्षत्रिय के भौम और रवि, वैश्य के चंद्र, शूद्र के बुध और अन्त्यज के शनि कहे गये हैं)।
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वर्णानुक्रम  : पुं० [सं० वर्ण-अनुक्रम, ष० त०] वर्णों का नियत क्रम।
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वर्णानुक्रमणिका  : स्त्री० [सं० वर्ण-अनुक्रमणिका, ष० त०] वर्णों के अर्थात् वर्णमाला के अक्षरों के क्रम से तैयार की हुई अनुक्रमणिका या सूची।
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वर्णानुप्रास  : पुं० [सं०वर्ण-अनुप्रास,ष०त०] सनातनी हिन्दुओं में माने-जाने वाले (ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और शूद्र) चारों वर्ण और चारों आश्रम (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और सन्यास)
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वर्णाश्रमी (मिन्)  : वि०[सं०वर्णाश्रम+इनि] १, वर्णाश्रम-सम्बन्धी जो वर्णाश्रम के नियम, सिद्धान्त आदि मानता और उनके अनुसार चलता हो।
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वर्णिक  : पुं० [सं० वर्ण+ठन्-इक] लेखक। वि० १. वर्ण-सम्बन्धी। २. (छन्द) जिसमें वर्णों की गणना या विचार मुख्य हो।
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वर्णिक-गण  : पुं० [कर्म०स०] छन्दशास्त्र में के ये आठों गण-यगण,मगण,तगण,रगण,जगण, भगण,नगण और सगण।
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वर्णिक-छंद (स्)  : पुं० [कर्म० स०] संस्कृत छन्द शास्त्र में वे छन्द जिनके चरणों की रचना वर्णों की संख्या के विचार से होती है।
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वर्णिक-वृत्त  : पुं० [कर्म० स०] वर्णिक छंद।
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वर्णिका  : स्त्री० [सं० वर्णिक+टाप्०] १. स्याही। रोशनाई। २. सुनहला या सोने का पानी। ३. चन्द्रमा। ४. लेप लगाना। लेपन।
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वर्णित  : भू० कृ० [सं०√वर्ण (व्याख्यान या स्तुति)+णिच्+क्त] १. जिसका वर्णन हो चुका हो। २. वर्णन के रूप में आया या लाया हुआ।
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वर्णिनी  : स्त्री० [सं० वर्ण+इनि-ङीष्०] १. किसी वर्ण की स्त्री। २. हल्दी।
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वर्णी (र्णिन्)  : वि० [सं० वर्ण+इनि] वर्णयुक्त। रंगदार। पुं० १. चित्रकार। २. लेखक। ३. ब्रह्मचारी। ४. चारों वर्णों में से किसी एक वर्ग का व्यक्ति।
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वर्णु  : पुं० [सं०√वृ (अलग करना)+णु] १. आधुनिक बन्नू नदी। २. बन्नू नामक नगर और इसके आसपास का प्रदेश।
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वर्णोदिष्ट  : पुं० [सं० वर्ण-उद्दिष्ट, ब० स०] छंदशास्त्र में एक क्रिया जिससे यह जाना जाता है कि अमुक संख्यक वर्णवृत्त का कोई रूप कौन सा भेद है।
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वर्ण्य  : वि० [सं० वर्ण+यत्०] १. वर्ण या रंग संबंधी। [√वर्ण+ण्यत्] वर्णन किये जाने के योग्य। पुं० १. केसर। २. वन-तुलसी। ३. प्रस्तुत विषय। ४. गंधक।
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वर्तक  : पुं० [सं०√वृत्त (वर्तमान रहना)+ण्वुल्-अक] १. बटुआ। २. नर बटेर। ३. घोड़े का खुर। वि० वर्तन करने या बनानेवाला।
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वर्तन  : पुं० [सं०√वृत्त+ल्युट-अन] १. इधर-उधर या चारों ओर घूमना। २. चलना-फिरना। गति। ३. जीवित या वर्तमान रहना। स्थिति। ४. कोई चीज उपयोग या व्यवहार में लाना। बरतना। ५. लोगों के साथ आचरण या व्यवहार करना। बरतना। बरताव। ६. जीविका। रोजी। ७. उलट-फेर। परिवर्तन। ८. कोई चीज कहीं रखना या लगाना। स्थापन। ९. पीसना। पेषण। १॰. पात्र। बरतन। ११. घाव में सलाई डालकर हिलाना-डुलाना जिससे घाव या नासूर की गहराई और फैलाव आदि का पता लगता है। शल्य-कार्य। १२. चरखे की वह लक़ड़ी जिसमें तकला लगा रहता है। १३. विष्णु का एक नाम।
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वर्तना  : स्त्री०[सं०√वृत्त+णिच्+युच्-अन,टाप्]१. वर्तन। २. चित्रकला में,चित्रों में छाया या अंध-कार दिखाने के लिए काला या इसी प्रकार का और कोई रंग भरना। अ० स०=बरतना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वर्तनी  : स्त्री० [सं०√वृत्त+अनि,-ङीष्] १. बटने की क्रिया। पेषणा। सिलाई। २. रास्ता। बाट। ३. किसी शब्द के वर्ण,उनका क्रम तथा उच्चारण विधि। (स्पेलिंग)।
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वर्तमान  : वि० [सं०√वृत्त+शानच्,मुक्,आगम०] १. (जीव या प्राणी) जो इस समय अस्तित्व या सत्ता में हो। २. नियम या विधान जो लागू हो या चल रहा हो। ३. जो उपस्थित, प्रस्तुत या समक्ष हो। विद्यमान। पुं० वर्तमान काल।
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वर्तमान-काल  : पुं० [सं० कर्म० स०] १. व्याकरण में क्रिया के तीन कालों में से एक जिससे यह सूचित होता है कि क्रिया अभी चली चलती है। २. वृत्तान्त। समाचार। हाल।
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वर्ति  : स्त्री० [सं०√वृत्त+इन्०] १. बत्ती। २. अंजन। ३. घाव में भरी जानेवाली कपड़े आदि की बत्ती। ४. औषध बनाने के काम या क्रिया। ५. उबटन। ६. गोली। बटी।
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वर्तिक  : वि० [सं०√वृत्त+तिकन्०] १. बत्ती से सम्बन्ध रखनेवाली। बत्ती का। बत्ती से युक्त। जिसमें बत्तियाँ हों। उदाहरण-बन सहस्र वर्तिका नीराजन।–दिनकर। अ०बटेर नामक पक्षी।
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वर्तिक  : पुं० [सं०√वृत्त+इतच्] बटेर।
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वर्तिका  : स्त्री० [अ०वर्तिक+टाप्] १. बत्ती। २. बटेर पक्षी। ३. मेढ़ासिंगी। ३. सलाई। ४. पेंसिल की तरह का एक उपकरण जो रेखाचित्र बनाने के काम आता था।
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वर्तित  : भू०कृ० [सं०√वृत्त+णिच्+क्त] १. घुमाया या चलाया हुआ। २. संपादित किया हुआ। ३. बिताया हुआ। ४. ठीक या दुरुस्त किया हुआ।
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वर्तिलेख  : पुं० [सं०] बहुत लंबे और मुट्ठे की तरह लपेटे जानेवाले कागज पर लिखा हुआ लेख। खर्रा। (स्क्रोल)
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वर्ती (र्त्तिन्)  : वि० [सं० पूर्वपद के रहने पर] [स्त्री० वर्तिनी] १.वर्तन करनेवाला। २. स्थित रहने या होनेवाला। जैसे–तीरवर्ती, दूरवर्ती। स्त्री० १. बत्ती। २. सलाई।
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वर्तुल  : वि० [स०√वृत्+उलच्] गोल। वृत्ताकार। पुं० १. गाजर। २. मटल। ३. गुंड तृण। ४. सुहागा।
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वर्त्म (न्)  : पुं० [सं०√वृत्त+मनिन्, नलोप] १. मार्ग। पथ रास्ता। २. छकों आदि के चलने से जमीन पर बननेवाली रेखा या लकीर। ३. किनारा। ४. आँख की पलक। ५. आधार। आश्रय। ६० पलकों में होनेवाला एक प्रकार का रोग या विकार।
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वर्त्म-कर्दम  : पुं० [सं० ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें पित्त और रक्त के प्रकोप से आँखों में कीचड़ भरा रहता है।
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वर्त्म-बंध  : पुं० [सं० ब० स०] आँख का एक रोग जिसमें पलक में सूजन हो जाती है, खुजली तथा पीड़ा होती है और आँख नहीं खुलती।
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वर्त्मार्बुद  : पुं० [सं० वर्त्मन्-अर्बुद, ब० स०] आँखों का एक रोग जिसमें पलक के अन्दर एक गाँठ उत्पन्न हो जाती है।
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वर्दी  : स्त्री०=वरदी।
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वर्द्ध  : पुं० [सं० √वर्ध (काटना, पूरा करना आदि)+णिच्+अच्] १. काटने, चीरने या तराशने की क्रिया। २. पूरा करना। पूर्ति। ३. भारंगी। ४. सीसा नामक धातु।
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वर्द्ध  : पुं० [सं०√वृध+रन्] चमड़ा। चमड़े का तसमा।
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वर्द्धक  : वि० [सं०√वृध् (बढ़ाना)+णिच्+प्वुल्–अक] १. वृद्धि करनेवाला। २. [√वर्ध्+ण्वुल]–अक] काटने, छीलने या तराश करनेवाला। पुं० [सं०√वर्ध् (काटना)+अच, वर्ध√कष् (हिंसा)+डि] दे० ‘वर्द्धकी’।
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वर्द्धकी (किन्)  : पुं० [सं०√वर्ध्+अच्+कन्+इनि] बढ़ई।
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वर्द्धन  : वि० [सं० √वृध्+णिच्+ल्यु–अन] वृद्धि करनेवाला। जैसे—आनंदवर्धन। पुं० [√वृध्+णिच्+ल्युट—अन] १. वृद्धि करने या होने की अवस्था, क्रिया या भाव। २. वृद्धि। बढ़ती।
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वर्द्धनी  : स्त्री० [सं० वर्द्धन+ङीप] १. झाड़ू। २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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वर्द्धमान्  : वि० [सं० √वृध्+शानच्, मुक आगम] १. जो बढ़ रहा हो या बढ़ता जा रहा हो। बढ़ता हुआ। २. जिसकी या जिसमें बढ़ने की प्रवृत्ति हो। वर्द्धनशील। पुं० १. महावीर स्वामी। जैनियों के २४वें तीर्थंकर। २. बंगाल का आधुनिक बर्दवान नगर। ३. मिट्टी का प्याला या कसोरा। ४. एक वृत्त जिसके पहले चरण में १४. दूसरे में १३. तीसरे में १८ और चौथे में १५ वर्ण होते हैं।
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वर्द्धयिता  : वि० [सं०√वृध् (बढ़ना)+णिच्+तृच्] [स्त्री० वर्द्धयित्री] बढ़ानेवाला। वर्द्धक।
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वर्द्धापन  : पुं० [सं०√वर्ध् (काटना)+णिच्, आपुक्+ल्युट्–अन] १. जनमे हुए शिशु की नाल काटना। २. उन्नति। ३. वृद्धि आदि की कामना से किया जानेवाला धार्मिक कृत्य। ४. महाराष्ट्र में प्रचलित अभ्यंग आदि कृत्य जो किसी की जन्मतिथि पर उसकी उन्नति, दीर्घायु आदि के उद्देश्य से किये जाते हैं।
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वर्द्धिका  : स्त्री० [सं० वर्द्धी+कन्–टाप् ह्रस्व] दे० ‘वर्द्धी’।
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वर्द्धित  : भू० कृ० [सं०√वृध्+णिच्+क्त] १. जिसका वर्द्धन या वृद्धि हुई हो। २. कटा या काटा हुआ।
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वर्द्धिष्णु  : वि० [सं०√वृध्+इष्णुच्] बढ़ता रहनेवाला। वृद्धिशील।
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वर्द्धीका  : स्त्री० [सं० वर्द्ध+ङीष्] १. चमड़े की पेटी। वर्द्धी। २. गले में और छाती पर पहनने का बद्धी नाम का गहना।
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वर्धरोध  : पुं० [सं०] जीवों, वनस्पतियों आदि की वह स्थिति जिसमें उनका वर्धन या विकास रुक जाता या वैज्ञानिक क्रियाओं से रोक दिया जाता है। (एबोर्शन)
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वर्ध्म  : पुं० [सं०√वृध् (बढ़ना)+मनिन् वर्ध्मन्] १. प्रायः आतशंक या गरमी से रोगी को होनेवाला वह फोड़ा जो जाँघ के मूल में संधिस्थान में निकल आता है। बद। २ आँत उतरने का रोग।
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वर्म (न्)  : पुं० [सं०√वृ (बढ़ना)+मनिन्] १. कवच। वक्तर। २. घर। मकान। ३. पित्तपापड़ा। पुं० [फा०] शरीर के किसी अंग में होनेवाली सूजन। शोथ। जैसे—जिगर का वर्म।
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वर्म-धर  : वि० [सं० ष० त०] कवचधारी।
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वर्मक  : पुं० [सं० वर्मन्+कन्] आधुनिक बरमा या ब्रह्मा देश का पुराना नाम।
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वर्मा (र्मन्)  : पुं० [सं०] एक उपाधि जो कायस्थ, खत्री आदि जातियों के लोग अपने नाम के अंत में लगाते हैं।
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वर्मिक  : वि० [सं० वर्मन्+ठन–इक] वर्म अर्थात् कवच ये युक्त।
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वर्मित  : भू० कृ० [ सं० वर्मन+णिच् (नामधातु)+क्त] वर्म से युक्त किया हुआ। कवचधारी।
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वर्मी  : वि० =वर्मिक।
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वर्य  : वि० [सं०√ वर् (इच्छा करना)+यत्] १. श्रेष्ठ। २. प्रधान। पुं० कामदेव।
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वर्या  : वि० स्त्री० [√वृ (वरण)+यत्+टाप्] (कन्या) जिसका वरण होने को हो अथवा जो वरण किये जाने को हो।
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वर्वर  : पुं० [सं०√वृ+ष्वरच्]=बर्बर।
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वर्ष  : पुं० [सं०√वृष् (सींचना)+अच्] १. वर्षा। वृष्टि। २. बादल। मेघ। ३. काल का एक प्रसिद्ध मान जिसमें दो अयन और बारह महीने होते हैं। उतना समय जितने में सब ऋतुओं की एक आवृत्ति हो जाती है। संवत्सर। साल। बरस। ४. काल गणना में उतना समय जितने में कोई विशिष्ट चक्र पूरा होता हो। जैसे—चांद्र वर्ष, नाक्षत्र वर्ष, वित्त वर्ष। ५. पुराणानुसार पृथ्वी का ऐसा विभाग जिसमें सात द्वीप हो। ६. किसी द्वीर का कोई प्रधान भाग या विभाग। जैसे—इलावर्ष, भारतवर्ष। ७. किसी मास की निश्चित तिथि से लेकर पुनः उसी मास की आनेवाली तिथि के बीच का समय। जैसे—एक वर्ष उन्हें यहाँ आये आज हुआ है।
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वर्ष-कोष  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. दैवज्ञ। ज्योतिषी। २. उड़द। माष।
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वर्ष-धर  : पुं० [सं० ष० त०] १. बादल। २. पहाड़। ३. वर्ष का शासक। ४. अन्तःपुर का रक्षक। खोजा। ५. पृथ्वी को वर्षों से विभक्त करने वाले पर्वत।
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वर्ष-पुस्तिका  : स्त्री० [सं०] दे० ‘वर्ष-बोध’।
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वर्ष-फल  : पुं० [सं० ष० त०] १. फलित ज्योतिष में जातक के अनुसार वह कुंडली जिससे किसी के वर्ष भर के ग्रहों के शुभाशुभ फलों का विवरण जाना जाता है। क्रि० प्र०—निकालना। २. उक्त के आधार पर साल भर के शुभाशुभ फलों का लिखित विचार। क्रि० प्र०—बनाना।
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वर्ष-बोध  : पुं० [सं० ष० त०] प्रति वर्ष पुस्तक के रूप में प्रकाशित होनेवाला कोई ऐसा विवरण जिसमें किसी देश, वर्ष, समाज आदि से संबंध रखनेवाले कार्यों, घटनाओं आदि की सभी मुख्य और जानने योग्य बातों का संग्रह रहता है। अब्द-कोश (ईयर-बुक)
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वर्षक  : वि० [सं०√ वृर्ष+ण्वुल्–अक] १. वर्षा करनेवाला। २. ऊपर से फेंकने या गिरानेवाला। जैसे—वम-वर्षक।
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वर्षकर  : पुं० [सं० वर्ष√कृ (करना)+ट] मेघ। बादल।
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वर्षकरी  : स्त्री० [सं० वर्षकर+ङीष्] झिल्ली। झींगुर।
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वर्षकाम  : वि० [सं० वर्ष√कम् (चाहना)+णिड़्+अच्] जिसे वर्षा की कामना हो।
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वर्षकामेष्टि  : पुं० [सं० ष० त०] एक यज्ञ जो वर्षा कराने के उद्देश्य से किया जाता था।
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वर्षगाँठ  : स्त्री०=बरस-गाँठ।
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वर्षघ्न  : पुं० [सं० वर्ष√हन् (मारना)+टक्, कुत्व] १. पवन। वायु। २. अन्तःपुर का नपुंसक रक्षक। खोजा।
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वर्षण  : पुं० [सं०√वृष (बरसना)+ल्युट्–अन] १. बरसना। २. वर्षा। ३. वर्षोपल।
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वर्षप, वर्ष-पति  : पुं० [सं० वर्ष√पा (रक्षा)+क; वर्ष-पति, ष० त०] वर्ष अर्थात् साल का अधिपति ग्रह।
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वर्षा  : स्त्री० [सं०√वर्ष+अ+टाप्] १. आकाश के मेघों से पानी बरसना। वृष्टि। २. किसी चीज का बहुत अधिक मात्रा में ऊपर से आना या गिरना। जैसे—गोलियों या फूलों की वर्षा। ३. किसी बात का लगातार चलता रहनेवाला क्रम। जैसे—गोलियों की वर्षा। ४. [वर्ष+अच्+टाप्] वह ऋतु जिसमें प्रायः बरसता रहता है। बरसात।
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वर्षा-प्रभंजन  : पुं० [सं० मध्य० स०] ऐसी आँधी जिसके साथ पानी भी बरसे।
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वर्षा-बीज  : पुं० [सं० ष० त०] १. मेघ। बादल। औला।
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वर्षा-मंगल  : पुं० [सं० मध्य० स०] १. वर्षा का अभाव होने या सूखा पड़ने पर मेघों का वरुण से वर्षा के लिए प्रार्थना करना। २. इस प्रार्थना से संबंध रखनेवाला उत्सव।
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वर्षा-मापक  : पुं० [सं० ष० त०] वह बोतल अथवा नल जिसमें वर्षा का पानी आप से आप भरता रहता है, और जिसपर लगे चिह्नों से जाना जाता है कि कितना पानी बरसा। (रेन-गेज)
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वर्षांक  : पुं० [सं० वर्ष-अंक, ष० त०] संख्या क्रम से किसी संवत् या सन् के निश्चित किये हुए नाम जो अंकों के रूप में होते हैं। दिनांक की तरह। जैसे—वर्षांक १९६१, १९६२।
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वर्षागम  : पुं० [सं० वर्षा-आगम, ष० त०] १. वर्षा ऋतु का आगमन। २. नये वर्ष का आगमन।
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वर्षाधिय  : पुं० [सं० वर्ष-अधिप, ष० त०] फलित ज्योतिष के अनुसार वह ग्रह जो संवत्सर या वर्ष का अधिपति हो। वर्षपति।
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वर्षानुवर्षी (षिन्)  : वि० [सं० वर्ष-अनुवर्ष, ष० त०+इनि] १. प्रति वर्ष होनेवाला। २. जो बराबर कई वर्षों तक निरंतर चलता रहे या बना रहे। ३. (वनस्पति या वृक्ष) जो एक बार उग आने पर अनके वर्षों तक बराबर बना रहे। बहुवर्षी। (पेरीनियल)
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वर्षांबु  : पुं० [सं० वर्षा-अंबु, ष० त०] वर्षा का जल।
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वर्षाभू  : पुं० [सं० वर्षा√भू (होना)+क्विप्] १. भेक। दादुर। मेढ़क। २. इन्द्रगोप या ग्वालिन नाम का कीड़ा। ३. रक्त पुनर्नवा। ४. कीड़े-मकोड़े। वि० वर्षा में या वर्षा से उत्पन्न होनेवाला।
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वर्षांश  : पुं० [सं० वर्ष-अंश, ष० त०] महीना।
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वर्षाशन  : पुं० [सं० वर्ष-अशन, मध्य० स०] वर्ष भर के लिए दिया जानेवाला अन्न।
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वर्षाहिक  : पुं० [सं० वर्षा-आहक, मध्य० स०] एक प्रकार का बरसाती साँप जिसमें विष नहीं होता।
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वर्षित  : भू० कृ० [सं०√वृष्+णिच्+क्त] १. बरसाया हुआ। २. ऊपर से गिराया या फेंका हुआ। पुं० वर्षा। वृष्टि।
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वर्षी (र्षिन्)  : वि० [सं० (पूर्वपद के रहने पर)√वृष+णिनि] [स्त्री० वर्षिणी] वर्षा करनेवाला। (यौ० के अंत में) जैसे—अमृत-वर्षी। स्त्री०=बरसी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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वर्षीय  : वि० [सं० वर्ष+छ–ईय] [स्त्री० वर्षीया] १. वर्ष या साल से संबंध रखनेवाला। २. गिनती के विचार से, वर्षों का। जैसे—पंच-वर्षीय। दसवर्षीय बालक।
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वर्षुक  : वि० [सं०√वृष्+उकञ्] वर्षा करनेवाला।
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वर्षेश  : पुं० [सं० वर्ष+ईश, ष० त०] वर्षाधिप। (दे०)
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वर्षोपल  : पुं० [सं० वर्ष-उपल, ष० त०] ओला।
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वर्ष्म (र्ष्मन्)  : पुं० [सं०√वृष्+मनिन्] १. शरीर। २. प्रमाण। ३. चरम सीमा। इयत्ता। ४. नदियों आदि का बाँध।
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वर्ह  : पुं० [सं० √वर्ह् (दीप्ति करना)+अच्] १. मोर का पंख। ग्रंथिपर्णी। गणिवन। ३. वृक्ष का पत्ता।
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वर्हण  : पुं० [सं०√वृह् (बढ़ना) अथवा√वर्ह्+ल्युट्-अन] पत्र। पत्ता।
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वर्हि (स्)  : पुं० [सं०√वृहं+इसुन्,निं०न-लोप] १. अग्नि। २. चमक। दीप्ति। ३. यज्ञ। ४. कुश। ५. चीते का पेड़।
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वर्हि-ध्वज  : पुं० [सं० ब० स०] स्कंद। कार्तिकेय।
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वर्हिमुख  : पुं० [सं० ब० स०] १. अग्नि। २. एक देवता।
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वर्हिषद्  : पुं० [सं० वर्हिस्√अद् (खाना)+क्विप्] पितरों का एक गण।
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वर्ही (र्हिन्)  : पुं० [सं० वर्ह+इनि] १. मयूर। मोर। २. कश्यप के एक पुत्र। ३. तगर।
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