शब्द का अर्थ
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वस्त :
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पुं० [सं०] बकरा। पुं० [अ०] बीच का भाग। मध्य। स्त्री०=वस्तु।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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समानार्थी शब्द-
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वस्तक :
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पुं० [सं० वस्त+कन्] बनाया हुआ नमक। (प्राकृतिक नमक से भिन्न)। |
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वस्तव्य :
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वि० [सं०√वस् (निवास करना)+तव्य] (स्थान) जिसमें निवास किया जा सके। रहने या बसने के योग्य। |
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वस्ताद :
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पुं०=उस्ताद।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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वस्ति :
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स्त्री० [सं०] १. नाभि के नीचे का भाग। पेडू। २. मूत्राशय। (यूरिनरी ब्लैडर)। ३. पिचकारी। ४. दे० ‘वस्ति कर्म’। |
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वस्तिकर्म :
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पुं० [सं०] १. लिगेंद्रिय, गुदेंन्द्रिय आदि मार्गों में पिचकारी देने की क्रिया। (वैद्यक) २. आज-कल आँते साफ करने के लिए या रेचन के उद्देश्य से गुदा-मार्ग से जल ऊपर चढ़ाने की क्रिया (एनिमा)। |
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वस्तिकुंडलिका :
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स्त्री० [सं०] वैद्यक के अनुसार एक प्रकार का रोग जिसमें मूत्राशय में गाँठ सी पड़ जाती है, उसमें पीड़ा तथा जलन होती है और पेशाब कठिनता से उतरती है। |
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वस्तिवात :
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पुं० [सं०] एक प्रकार का मूत्र रोग जिसमें वायु बिगड़कर वस्ति (पेड़) में मूत्र को रोक देती है। |
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वस्तिशोधन :
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पुं० [सं०] १. मदन वृक्ष। मैनफल का पेड़। २. मैनफल। |
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वस्ती :
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वि० [सं०] वस्त अर्थात् मध्य भाग में होनेवाला। बीच का। स्त्री० १. बस्ती। २. =वस्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) |
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वस्तु :
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स्त्री० [सं०√वसु+तुन्] १. वह जो कुछ अस्तित्व में हो। वह जिसकी वास्तविकता हो। गोचर पदार्थ। २. श्रम द्वारा निर्मित चीज। ३. वह जो किसी वाद-विवाद आलोचना या विचार का विषय हो। विषय। ४. कथावस्तु। |
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वस्तु-जगत :
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पुं० [सं० कर्म० स०] यह दृश्यमान् जगत्। संसार। |
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वस्तु-ज्ञान :
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पुं० [सं०] १. किसी वस्तु की पहचान। २. मूल तथ्य या वास्तविकता का ज्ञान। तत्त्वज्ञान। |
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वस्तु-निर्देश :
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पुं० [सं० ब० स०] मंगलाचरण का एक भेद जिसमें कथा का कुछ आभास दे दिया जाता है (नाटक)। |
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वस्तु-निष्ठा :
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वि० [सं०] १. अध्यात्म और दर्शन में जो ब्रह्मा तत्त्वों या भौतिक पदार्थों से संबंध रखता हो, स्वयं कर्ता के आत्म या चेतना से जिसका कोई संबंध न हो,। ‘आत्म-निष्ठ’ का विपर्याय। २. कला और साहित्य में जो बाह्मा तत्त्वों या भौतिक पदार्थों पर ही आश्रित हो,स्वयं कर्त्ता या कृती के आत्म या चेतना से जिसका कोई संबंध न हो। ‘आत्मनिष्ठ’ का विपर्याय। (आब्जेक्टिव उक्त दोनों अर्थों के लिए)। |
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वस्तु-बल :
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पुं० [सं० ष० त०] वस्तु का गुण। |
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वस्तु-रूपक :
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पु० दे० ‘आलेख रूपक’। |
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वस्तु-वक्रता :
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स्त्री० [सं०] साहित्यिक रचनाओं में होनेवाला एक प्रकार का सौन्दर्यसूचक त्तत्व जो कवि की शब्दावली से भिन्न उन वस्तुओं या विषयों पर आश्रित होता है जिन्हें वह अपने वर्णन के लिए चुनता है। वाक्य-वक्रता (देखें) की तरह यह भी कवि की श्रेष्ठतम प्रतिभा से उदभूव होता और काव्य के समस्त सौन्दर्य का उदगम होता है। वर्ण्य वस्तु या विषय की रमणीयता, सुकुमारता और कौशलपूर्ण प्रदर्शन ही इसके प्रमुख लक्षण है। |
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वस्तु-स्थिति :
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स्त्री० [सं० ष० त०] किसी चीज या वस्तु की वास्तविक स्थिति। |
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वस्तुक :
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पुं० [सं० वस्तु+कन्] १. सार भाग। २. बथुआ का साग। |
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वस्तुतः :
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अव्य० [सं० वस्तु+तसिल्] वास्तविक रूप या स्थिति में। वास्तव में। (डी फ़ैक्टो)। |
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वस्तुत्प्रेक्षा :
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स्त्री० [सं०] साहित्य में उत्प्रेक्षा अलंकार का एक भेद जिसमें किसी उपमेय में उपमान के कार्य, गुण आदि की कल्पना की जाती है। |
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वस्तूपमा :
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स्त्री० [सं० ब० स०] उपमा अलंकार का एक भेद। |
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वस्तूवाद :
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पुं० [सं०] [स्त्री० वस्तुवादी] वह दार्शनिक सिद्धान्त कि जगत् जिस रूप में हमें दिखाई देता है, उसी रूप में वह वास्तविक और सत्य है। विशेष—न्याय और वैशेषिक का यही सिद्धान्त है जो अद्वैतवाद के सिद्धान्त के बिलकुल विपरीत है। |
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वस्त्य :
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पुं० [सं० वस्तु+यत्] बसने की जगह। बसती। |
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वस्त्र :
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पुं० [सं०√वस् (आच्छादन करना)+त्रण्] ऊन, रूई रेशम आदि के तागों से बुना या जमाकर तैयार किया हुआ वह प्रसिद्ध पदार्थ जो पहनने, ओढ़ने आदि के काम आता है। कपड़ा। |
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वस्त्र-पट :
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पुं० [सं०] कपड़ों पर हाथ से अंकित किया हुआ चित्र (प्राचीन)। |
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वस्त्र-पुत्रिका :
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स्त्री० [सं० मध्य० स०] गुड़िया। |
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वस्त्र-पूत :
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वि० [सं०] कपड़े से छाना हुआ। |
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वस्त्र-बंध :
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पुं० [सं०] नीवी। इजारबंद। |
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वस्त्र-भवन :
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पुं० [सं० ष० त०] खेमा। तंबू। |
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वस्त्र-रंजन :
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पुं० [सं०] कुसुंभ का पेड़। |
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वस्त्र-रंजनी :
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पुं० [सं०] मजीठ। |
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वस्त्रग्रंथि :
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स्त्री० [सं० ष० त०] नीवी। नाड़ा। इजारबंद। |
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वस्त्रय :
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पुं० [सं०] आधुनिक गिरनार पर्वत और तीर्थ का पुराना नाम। |
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वस्त्रागार :
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पुं० [सं० वस्त्र+आगार] १. वह स्थान जहाँ सब प्रकार के या बहुत से कपड़े हों। २. घर में वह कमरा जिसमें पहनने के कपड़े रखे जाते हों तथा उतारे और पहने जाते हों (ड्रेसिंग रूम)। |
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वस्त्रासव :
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पुं० [सं० वस्त्र-आसव, ष० त०] लाला। थूक। |
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