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सक  : पुं० [सं० शाका] १. वीरता का कार्य। साका। २. शक्ति का आतंक। धाक। मुहा—सक बाँधना=अपने प्रभुत्व, बल आदि की धाक जमाना। ३. मर्यादा। सीमा। क्रि० प्र०—बाँधना। स्त्री० [शक्ति] १. ताकत। बल। २. सामर्थ्य। पुं० शक (संदेह)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकट  : पुं० [सं० अव्य० स०] शाखोट वृक्ष। सिंहोर। पुं० [सं० शकट] [अल्पा० सकटी] छकड़ा। गाड़ी।
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सकट-चौथ  : स्त्री०=सकट चौक (गणेश चौथ)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकटान्न  : पुं० [सं० अव्य० स०] ऐसे व्यक्ति का अन्न जिसे किसी प्रकार का अशौच हो। ऐसा अन्न आग्राह्य कहा गया है।
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सकटी  : स्त्री० [सं० शकट] छोटा सग्गण। सगड़ी।
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सकड़ी  : स्त्री=सिकरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकत  : स्त्री० [सं० शक्ति] १. बल। शक्ति। २. सामर्थ्य। ३. धन-सम्पत्ति। अव्य० जहाँ तक हो सके। भर-सक। यथा-साध्य। वि०, पुं०=शाक्त।
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सकता  : स्त्री० [सं० शक्ति] १. शक्ति। ताकत। बल। २. सामर्थ्य। बूता। पुं० [अ० सकतः] १. बेहोशी या मूच्र्छा नाम का एक रोग। २. भौचक्कापन। स्तब्धता। ३. पद्य के चरणों में होमे वाली यति। विराम। क्रि० प्र०—पड़ना।
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सकति  : स्त्री०=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) लपुं०=शाक्त।
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सकती  : सत्री०=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकन  : पुं० [देश०] १. लता। २. कस्तूरी। मुश्कदाना। अव्य० [सं० स०+कर्ण] कान लगाकर। उदा०-जदि तोहे चंचल सुनह सकन भए अपना धधन काए। विद्यापति।
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सकना  : अ० [सं० शक या वाक्य] कोई काम करने में समर्थ होना। करने योग्य होना। जैसे—कह सकता, खा सकना, जा सकना, बैठ सकना आदि। अ० [सं० शंका, हि० सकना=शंका करना] १. शंका के कारण घबराना, डरना या संकोछ करना। उदा०—सूखे से, श्रम से, सबक के से, थके से, भूलेसे, भमे से, भभर से, भकआने से। रत्नाकर। २. दे० ‘सकाना’।
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सकपक  : स्त्री० [अनु०] सकपकाने की क्रिया, अवस्था या भाव।
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सकपकाना  : अ० [अनु० सकपक] १. चकित होना। चकपकाना। २. आगा-पीछा करना। हिचकना। ३. लज्जित होना। शरमाना। ४. संकोच करना। स० १. चकिच करना। २. असमंजस या दुविधा मे डालना। ३. लज्जित या संकुचित करना।
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सकर-खड़ी  : स्त्री [फा० शकर+हिं० खाँड़] १. लाल और बिना साफ की हुई चीनी। खाँड़। शक्कर।
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सकरकंदी  : स्त्री=शकरकंद।
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सकरना  : अ० [फा० शकर+हिं० खाँड़] १. सकारा जाना। स्वीकृत या अंगी कृत होना। मंजूर होमा। जैसे—हुंडी सरकना। २. माना जाना। जैसै०—दाम या द्न सरकना। संयो० क्रि०—जाना।
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सकरपाला  : पुं०=शकर-पारा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकरा  : वि० १.=सँकरा। २. =सखरा।
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सकरिया  : स्त्री० [फा० शकर] लाल शकरकंद। रतालू।
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सकरुंड  : पुं० [गुज०] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी पत्तियों आदि का व्यवहार औषधि के रूप में होता है।
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सकरुण  : वि० [सं० अव्य० स०] जिसे करुणा हो। दयाशील।
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सकर्ण  : पुं० [सं०] वह जो सुनता या सुन सकता हो। वि० जिसके कान हों कामो वाला।
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सकर्मक  : वि० [सं०] १. जो किसी के कर्म से युक्त हो। पदः सकर्मक क्रिया। (देखें)। २. जो किसा प्रकार का कर्म या क्रिया कर रहा हो। क्रियाशील। उदा०—प्रस्फुटित उत्तर मिलेते, प्रकृति सकर्मक रही समस्त।—कामायनी।
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सकर्मक क्रिया  : स्त्री० [सं०] व्याकरण में दो प्रकार की क्रियाओं में से वह क्रिया जिसका कार्य उसके कर्म पर समाप्त होता हो। जैसे-खाना देना, माँगना, रखना आदि।
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सकल  : वि० [सं०] सब। समस्त। कुल। पुं० १. निर्गुण ब्रह्मा और सगुण प्रकृति। २. दर्शन शास्त्र के अनुसार तीन प्रकार के जीवों में से पशुवर्ग के जीव। ३. रोहित घास या तृण।
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सकलात  : पुं० [?] [वि० सकलाती] १. ओढ़ने की रजाई। दुलाई। २. उपहार। भेंट। ३. सौगात। मखमल नाम का कपड़ा।
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सकलाती  : वि० [हिं० सकलात] १. जो उपहार या भेंट के रूप में दिया जा सके। २. अच्छा। बढ़िया।
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सकली  : स्त्री० [डिं०] मत्स्य। मछली।
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सकस  : पुं०=शख्स।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकसकाना  : अ० [अनु०] बहुत अधिक डरना या डर कर काँपना।
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सकसना  : अ० [सं० शमका, हिं० सकना] १. भयभीत होना। डरना। २. अड़ना। ३.धँसना। उदा०—निकसे सकसिन न बचन भयौ हिचकिनी गहवर भर।—रत्नाकर।
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सकसाना  : स० [अनु०] भयभीत करना। डराना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सका  : पुं०=सक्का।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकाकुल  : पुं० [सं० शकाकुल] १. एक प्रकार का कंद जिसे अंबर कंद कहते हैं। २. एक प्रकार का शतावर। ३. सुधा-मूली।
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सकाकोल  : सं० [अव्य० स०] मनु के अनुसार एक नरक का नाम।
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सकाना  : अ० [सं० शंका, हिं० सकना] १. मन में संका या संदेह करना। २. संशंकित होकर पीछे हटना। आगे बढ़ने से हिचकिचाना। उदा०—क्षत्रिय तनु धरि समर सकाना।—तुलसी। ३. भयभीत होना। डरना। उदा०—सोच कबै सकाई कहा करिहै कमलासन।—रत्नाकर। ४. मन में दुःखी होना। उदा०—सुनि मुनिवर क् पुरुष वचन, कछु भूप सकाए। रत्नाकर। स० हिं० ‘सकना’ का सकर्मक और प्ररणार्थक रूप। जैसे—सके तो सकाओ, नहीं तो छोड़ दो। (परिहास)
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सकाम  : वि० [सं० अव्य० स०] जिसके मन में कोई कामना या इच्छा हो। २. जिसकी कामना या इच्छा पूरी हो गई हो। सफल मनोरथ। ३. मैथुन या संभोग की इच्छा रखने वाला। कामी। ४. प्रेम करने वाला। प्रेमी। ५. स्वार्थ साधन की भावना से काम करने वाला।
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सकाम-निर्जरा  : स्त्री० [सं० ब० स०] जैन धर्म में चित्त की वह वृत्ति जिसमें बहुत अधिक छति होने पर भी शत्रु को परम शान्ति पूर्वक क्षमा कर दिया जाता है।
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सकामा  : स्त्री० [सं० अव्य० स०] ऐसी स्त्री जो मैथुन की इच्छा रखती हो। कामवती स्त्री।
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सकामी (मिन्)  : वि० [सकाम+इनि] १. जिसे किसी प्रकार की कामना हो। कामनायुक्त। वासनायुक्त। २. कामुक। विषयी।
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सकार  : पुं० [सं० स+कार] १. ‘स’ अक्षर। २. ‘स’ वर्ण की यी उससे मिलती जुलती ध्वनि। जैसे—उस समय किसी के मुँह से सकार भी न निकाला। स्त्री० [हिं० सकारना] सकार अर्थात स्वीकृत करने की क्रिया या भाव। स्वीकृति। (ऐक्सेप्टेन्स)
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सकारना  : स० [सं० स्वीकरण] [भाव० सकारा] १. स्वीकृत करना। मंजूर करना। २. महाजनी बोलचाल में हुंडी की मिती पूरी होने के एक दिन पहले हुंडी देखकर उसपर हस्ताक्षर करना। और रुपये चुकाने का उत्तरदायित्व मानना। (आँनरिंग आफ ए ड्राफ्ट)
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सकारा  : पुं० [हिं० सकारना] १. सकारने की क्रिया या भाव। २. महाजनी लेन-देन में वह धन जो हुंडी सकारने और उसका समय फिर से बढाने में किया जाता है। पुं० [सं० सकाल]=सकाल (सबेरा)।
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सकारात्मक  : वि० [सं०] १. (उत्तर या कथन) जो सहमति या स्वीकृति का सूचक हो। नकारात्मक के विपरीत। (एफर्मेंटिव) २. जिसका कोई निश्चित मान या स्थिर स्वरूप हो। निश्चयी। (पाजिटिव)
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सकारी  : पुं० [हिं सकारना] वह जो कोई हुंडी सकारता हो। या जिसके नाम को हुंडी लिखी गई हो। (ड्राई)
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सकारे  : अव्य० [सं० सकाल] १. प्रातःकाल। सबेरे। तड़के। २. नियत समय से कुछ पहले ही। जल्दी।
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सकालत  : स्त्री० [अ०] १. सकील या गरिष्ठ होने की अवस्था या भाव। गरिष्ठता। २. गुरुता। भारीपन।
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सकाश  : अव्य० [सं० अव्य० स०] पास। निकट। समीप।
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सकिया  : स्त्री० [?] एक प्रकार की बड़ी गिलहरी जिसके पंख काले होते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकिलना  : अ० [हिं०] १. फिसलना। सरकना। २. सिकुड़ना। सिमटना। ३. कुछ कर सकने योग्य या समर्थ होना। ४. (कार्य) पूरा होना।
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सकीन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का जंतु।
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सकील  : वि० [अ०] [भाव० सकालत] १. जो हजम न हो। गरिष्ठ। गुरुपाक। २. भारी। वजनी।
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सकुच  : स्त्री०—संकोच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुचाई  : स्त्री० [सं० संकोच, हिं० सकुच+आई (प्रत्य०)] १. सकुचित होने की क्रिया या भाव। २. संकोच।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुचाना  : अ० [सं० संकोच, हिं० सकुच+आना (प्रत्य०)] १. संकोच करना। लज्जा करना। शरमाना। २. फूलों आदि का संपुचित या बंद होना। ३. सिकुड़ना। स-[हिं० सकुचाना का प्रे०] किसी को संकोच करने मे प्रवृत्त करना। लज्जित करना।
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सकुची  : स्त्री० [सं० शकुल मत्स्य] एक प्रकार की मछली जो साधारण मछलियों से भिन्न और प्रायः कछुए की आकार की होती है। इसके चार छोटे-छोटे पैर होते हैं। और एक लंबी पूँछ होती है। इसी पूँछ से यह शत्रु पर आघात करती है। जहाँ पर इसकी चोट लगती है, वहाँ घाव हो जाता है, और चमड़ा सड़ने लगता है। यह स्थल में भी रह सकती है।
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सकुचीला  : वि० [हि० सकुच+ईला (प्रत्य०)] [स्त्री० सकुचीली] जिसे अधिक और प्रायः संकोच होता हो। संकोच करने वाला। शरमीला।
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सकुचीली  : वि० [हिं० सकुचीला] लजवंती। लज्जावती लता।
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सकुचौहाँ  : वि० [सं० संकोच+हिं० औहाँ (प्रत्य०)] [स्त्री० सकुचौहीं] अधिक और प्रायः संकोच करने वाला। लजीला।
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सकुड़ना  : अ०=सिकुड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुन  : पुं० [सं० शकुंत] पक्षी। चिड़िया घर। पुं०=शकुन।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुनी  : स्त्री० [सं० शकुंत] चिड़िया। पक्षी।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुपना  : अ०=सकोपना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकुल  : पुं० [सं० कर्म० स०] अच्छा कुल। उत्तम कुल। ऊँचा खानदान। पुं०=सकुची (मछली)।
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सकुलज  : वि० [सं० सकुल√जन् (उत्पन्न करना)+ड] एक ही कुल में उत्पन्न (दो या अधिक व्यक्ति)।
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सकुला  : पुं० [सं० सकुल-टाप] बौद्ध भिक्षुओं का नेता या सरदार।
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सकुलादनी  : स्त्री० [सं० ब० स०] महाराष्ट्री या मेरठी नाम की लता। २. कुटकी।
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सकुली  : स्त्री०=सकुची (मछली)।
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सकुल्य  : वि० [सं० सकुल+यत] (दो या अधिक) जो एक ही कुल में उत्पन्न हुए हों।
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सकूँकर  : पुं० [रूमी सकन्कुर] गोह की तरह एक लाल रंग का जंतु। इसका माँस बहुत बलवर्धक माना जाता है। इसे रेत की मछली या रेगमाही भी कहते हैं।
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सकूतरा  : पुं० [?] एक द्वीप जो अरब सागर में अफ्रीका के पूर्वीतट के समीप है। यहाँ मोती और प्रवाल अधिक मिलतें हैं।
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सकूनत  : स्त्री० [अ०] रहने का स्थान। निवास स्थान। पता। जैसे—वहाँ वल्दियत और सकूनत भी पूछी जाती है।
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सकृतप्रजा  : स्त्री० [सं०] १. बंध्य रोग। बाँझपन। शेर या सिंह की मादा। शेरनी।
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सकृतफल  : वि० [सं० ब० स०] [स्त्री० सकृतफला] (पौधा या वृक्ष) जो एक ही बार फलता हो। जैसा—केला।
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सकृतस  : वि० स्त्री० [सं० सकृत√षु (उत्पन्न करना)+क्विप] (स्त्री) जिसने अभी बालक प्रसव किया हो।
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सकृत्  : अव्य० [सं०] १. एक बार। एक मरतबा। २. सदा। हमेशा। ३.सहित। साथ। उदा०—जँह तँह काक उलूक, बक, मानस सकृत मराल।—तुलसी। पुं० गुह। मल। विष्ठा। २. कौआ।
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सकृत्प्रज  : वि० [सं०] जिसे एक ही बच्चा हो। पुं० कौआ।
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सकृदागामी मार्ग  : पुं० [सं० कर्म० स०] बौद्ध मतानुसार एक प्रकार का धार्मिक मार्ग जिसमें जीव केवल एकबार जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त करता है।
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सकृद्  : अव्य० [सं० सकृत् का वह रूप जो उसे समस्त पदों के पहले लगने पर प्राप्त होता है। जैसे—सकृदग्रह।
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सकेत  : पुं० [सं० संकेत] १. संकेत। इशारा। २. प्रेमी और प्रेमिका के मिलने का कोई एकांत स्थान। वि० [सं० संकीर्ण] सँकरा। संकीर्ण। पुं० १. संकट की स्थिति। २. कष्ट। दुःख। उदा०—खिनहीं उठै खिन बूड़ै, अस हिं० कँवल सकेत।—जायसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकेतना  : अ० [हिं० संकेत] संकुचित होना। सिकुड़ना। स० संकुचित करना। सिकोड़ना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सकेती  : स्त्री० [हिं० संकेत] १. कष्ट या विपत्ति में होने की अवस्था या भाव। २. कष्ट। दुःख।
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सकेरना  : स०=सकेलना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकेलंग  : पुं० [सं० सक्लिंग] एक प्रकार का ऊँचा वृक्ष जिसकी लकड़ी नरम और सफेद होती है और इमारत आदि बनाने के काम आती है।
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सकेलना  : स० [सं० संकलन या सकल] १. इकट्ठा करना। जमाकरना। उदा०—जो बनिता सुत-जूथ सकेलै, हय गये विभव घनेरे।—सूर। २. बिखरे हुए काम या चीजें समेटना। उदा०—ज्यों बाजीगर स्वाँग सकेला।—कबीर। २. काम पूरा करना निपटाना।
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सकेला  : स्त्री० [अ० सैकल] एक प्रकार की तलवार जो कड़े और नरम लोहे के मेल से बनाई जाती है। पुं० [अ० सकील ?] एक प्रकार का लोहा।
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सकोच  : पुं०=संकोच।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोचना  : स० [सं० संकोच+हिं० ना (प्रत्य०)] संकुचित करना।सिकोड़ना अ० सकोच करना। शरमाना।
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सकोड़ना  : स०=सिकोड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोतरा  : पुं०=चकोतरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोपना  : अ० [सं० कोप+ना (प्रत्य०)] कोप करना। गुस्सा करना।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोपित  : वि०=कुपित।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोरना  : स०=सिकोड़ना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सकोरा  : पु० [हिं० कसोरा] [स्त्री० सकोरी] मिट्टी की एक प्रकार की छोटी कटोरी। कसोरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्कर  : स्त्री०=शक्कर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्करी  : स्त्री० [सं० शर्करी] शर्करी नामक छंद।
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सक्का  : पुं० [अ० सक्कः] १. भिश्ती। माशकी। २. वह जो मशक में पानी भर कर लोगो को पिलाता फिरता हो।
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सक्त  : वि० [सं०] १. किसी के साथ लगा या सटा हुआ। संलग्न। २. आसक्त। वि०=सख्त। (कड़ा)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्त-चक्र  : पुं०[सं०] ऐसा राष्ट्र जो चारो ओर शक्ती शाली राष्ट्रो से घिरा हो। राष्ट्रचक्र।
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सक्त-मूत्र  : पुं० [सं०] चरक के अनुसार वह व्यक्ति जिसे थोड़ा-थोड़ा पेशाब होता हो।
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सक्ति  : स्त्री०=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्तु  : पुं० [सं० शक्तु] भुने हुए अनाज को पीसकर तैयार किया हुआ आटा। सत्तू।
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सक्तुक  : पुं० [सं०] १. एक प्रकार का विषाक्तफल जिसकी गाँठ में सत्तू के समान चूरा भरा रहता है।। २. सत्तू।
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सक्तुकार  : पुं० [सं०] वह जो सत्तू बनाता और बेचता हो।
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सक्तुफला  : स्त्री० [सं०] शमी। वृक्ष। सफेद कीकर।
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सक्थि  : पुं० [सं०√सज्ज् (मिलना)+ क्थिन] सुश्रुत के अनुसार एक मर्म स्थान जो शरीर के ग्यारह मुख्य स्थानों में माना गया है।
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सक्थी  : पुं० [सं० सक्थिन्-दीर्घ न लोप, सक्थिन] १. हड्डी। अस्थि। २. जंघा। जाँघ। ३. छकड़े या बैलगाड़ी का एक अंग या अंश।
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सक्र  : पुं०=शक्र (इन्द्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्र-सरोवर  : पुं० [सं० शक्र-सरोवर] इन्द्र-कुंड नामक स्थान जो व्रज में है।
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सक्रघण  : पुं० [सं० शक्रधन] इन्द्र का अस्त्र, वज्र। (ङिं०)
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सक्रपति  : पुं० [सं० शक्रपति] विष्णु। (ङिं०)
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सक्रारि  : पुं० [सम० शक्रारि] इंद्र का शत्रु, मेघनाथ।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सक्रिय  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जो अपनी अथवा कोई क्रिया कर पहा हो। २. (काम) जिसमें कुछ करके दिखाया जाय। ३.जो क्रियात्मक रूप में हो। (एक्टिव)
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सक्रियता  : स्त्री० [सं०] सक्रिय होने की अवस्था या भाव। (एक्टिविटी)
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सक्ष  : वि० [सं०] १. जिसका अतिक्रमण हो सके। जो लाँघा जा सके। २. हारा हुआ पराजित।
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सक्षम  : वि० [सं०] १. जिसमें किसी विशिष्ट कार्य क्षमता हो। क्षमता शाली। २. जो किसी विशिष्ट कार्य करने के लिए उपयुक्त और फलतः उसका अधिकारी या पात्र हो। (काम्पीटेन्ट)
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सक्षमता  : स्त्री० [सं०] सक्षम होने की अवस्था, गुण या भाव। (काँम्पीटेन्सी)
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