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सग  : पुं० [फा०] कुत्ता। श्वान।
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सग-जुबान  : पुं० [फा०] ऐसा घोड़ा जिसकी जीभ कुत्ते की जीभ के समान पतली और लंबी हो। ऐसा घोड़ा ऐबी समझा जाता है।
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सग-पहती  : स्त्री० [हिं० साग-पहती=दाल] ऐसी दाल जो साग के समान पगाई गइ हो।
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सगड़ी  : स्त्री० [हिं० सग्गड़] छोटा सग्गड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगण  : पुं० [सं० अव्य० स०] छंद शास्त्र में एक गण जिसमें दो लघु और एक गुरु अक्षर होता है। जैसे—उपमा-कमला-मनसा आदि। इस गण का प्रयोग छंद के आदि में अशुभ है। इसका रूप ।।ऽ है।
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सगत  : स्त्री० [सं० शक्ती] १. शिव की भार्या। पार्वती। (ङिं०) २. शक्ती।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगती  : स्त्री=शक्ति।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगदा  : पुं० [देश०] एक प्रकार का मादक पदार्थ जो अनाज में बनाया जाता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगंध  : वि० [सं० अव्य० स०] १. जिसमें गंध हो। गंधयुक्त। महक-दार। २. अभिमानी। घमंडी।
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सगधा  : स्त्री० [सं० सगंध-टाप्] सुगंधशालि। बासमती चावल। वि० [स्त्री० सगंधी]=सगा।
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सगधी  : वि० [सं० सगंध+इनि=संगधिन्] जिसमें गंध हो। महकदार।
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सगन  : [?] १. दे० ‘सगण’। २. दे० ‘शकुन’।
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सगनौती  : स्त्री=शकुनौती।
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सगपन  : पुं०=सगापन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगबग  : वि० [अनु०] १. सराबोर। लथपथ। २. पिघला हुआ। द्रवित। ३. भरा हुआ। परिपूर्ण। क्रि०—वि० १. जल्दी या तेजी से। २. चटपट। तुरंत।
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सगबगाना  : अ० [अनु० सग-बग] १. लथ-पथ होना। २. जल्दी या फुरती करता हो। ३. दे० ‘सकपकाना’।
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सगभत्ता  : पुं० [हिं० साग+भात] एक प्रकार का भात जो चावल में साग मिलाकर पकाया जाता है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगभ्य  : वि० [सं० सगर्भ+यत्]=सगर्भ।
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सगर  : पुं० [सं०] अयोध्या के एक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा जो रामचंद्र के पूर्वज थे। (जब इनके सौवें अश्वमेघ का घोड़ा चुराकर इंद्र पाताल ले गया था तब इनके ६ ॰॰॰॰ पुत्रों ने पाताल पहुँचने के लिए प्रथ्वी खोदी थी जिससे समुद्र की सीमा बढ़ी थी। इसीलिए समुद्र का नाम सागर पड़ा था। वि०=सगरा (सब)। पुं० [हिं० तगर] तगर का फूल या पौधा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगरा  : वि० [सं० समग्र] [स्त्री० सगरी] सब। तमाम। सकल। कुल। पुं० [सं० सागर] १. समुद्र। सागर। २. झील। ३.तालाब।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगर्भ  : वि० [सं० ब० स०] एक ही गर्भ में उत्पन्न। सहोदर। सगा। (भाई, बहन आदि)।
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सगर्भा  : [वि०स्त्री०[सं०सगर्भ+आ] १. (स्त्री) जिसे गर्भ हो। गर्भवती स्त्री। २. दो या कइयों में से कोई जो एक ही गर्भ में हुई हों। सहोदरा।
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सगल  : वि०=सकल (सब)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगलत  : स्त्री० [हिं० सगल=सकल] १. सकल या समस्त का भाव। समस्तता। समष्टि। वि० पूरा। सारा। सब।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सगला  : वि० [सं० सकल] सब। समस्त। कुल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगवती  : स्त्री० [?] खाने का माँस। गोश्त। कलिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगवारा  : पुं० [सं० स्वक्, हिं० सगा] गाँव की आस-पास की और उससे संबंध रखती हुई भूमि।
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सगा  : वि० [सं० स्वक्] [स्त्री० सगी] [भाव० सगापन] १. एक ही माता से उत्पन्न। सहोदर। संबंध या रिश्ते में अपने ही कुल या परिवार का। जैसे—सगा चाचा। पुं०=सगापन। उदा०—स्वारथ को सबको सगा, जग सगला ही जाणि।—कबीर।
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सगाई  : स्त्री० [हिं० सगा+आई (प्रत्य०)] १. सगे होने का भाव। सगापन। २. घनिष्ठ पारिवारिक संबंध। नाता। रिश्ता। उदा०—देखहु लोग हरि कै सगाई। माय घरैं पुत्र धिया संग जाई।—कबीर। ३. आत्मीयता और घनिष्ता का संग-साथ। उदा०—परिहरि झूठा करि सगाई।—कबीर। (ख) सबसों ऊँची प्रेम सगाई।।—सूर। ४. बिलकुल एक से या एक वर्ग के होने की अवस्था या भाव। जैसे—बैन सगाई=वर्ण मैत्री का अनुप्रास। ५. विवाह का निश्चय। मँगनी। ६. विधवा स्त्री के साथ पुरुष का वह संबंध जो कुछ जातियों में विवाह के समान ही माना जाता हो। ७. संबंध। नाता। रिश्ता।
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सगापन  : पुं० [हिं० सगा+पन (प्रत्य०)] सगा होने की अवस्था या भाव।
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सगाबी  : स्त्री० [फा० सग+आबी] ऊद-बिलाव नामक जंतु।
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सगारत  : स्त्री० [हिं० सगा+आरत (प्रत्य०)] सगा होने का भाव या सगापन।
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सगीर  : वि० [अ०] १. छोटा। २. उमर या पद में छोटा। ३. हीन।
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सगुण  : वि० [सं०] गुण से युक्त। जिसमें गुण हों। पुं० सत्व, रज, तम तीनों गुणों से युक्त परमात्मा का वह रूप जिसमें वह अनतार धारण करके प्राणियो या मनुष्यों के से आचरण और व्यवहार करता है। साकार ब्रह्मा। ‘निर्गुण’ का विपर्याय। विशेष—मध्य युग में उत्तर भारत में भक्ति मार्ग में दो संप्रदाय हो गये थे। निर्गुण और सगुण। राम, कृष्ण आदि के अवतार ब्रह्मा के सगुण रूप के अंतर्गत आते हैं। निर्गुण रूप में अवतार की कल्पना नहीं होती।
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सगुणता  : स्त्री० [सं०] सगुण होने की अवस्था, धर्म या भाव। सगुण-पन।
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सगुणी  : वि०=सगुण।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगुन  : पुं० १. =सगुण। २. =शकुन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सगुनाना  : स० [सं० शकुन, हिं० सगुन+इया (प्रत्य०)] वह मनुष्य जो लोगो को शकुनों के शुभाशुभ फल बतलाता हो। शकुन विचरने और उनका फल बतलाने वाला।
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सगुनौती  : स्त्री० [हि० सगुन] १. शकुन विचारने की क्रिया या भाव। २. वह पुस्तक जिसमें शकुनों के अच्छे और बुरे फलों का विमेचन हो। ३. मंगलाचरण। मंगलपाठ।
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सगुरा  : वि० [हिं० स+गुरु] १. जिसनें किसी गुरु से दीक्षा ली हो। २. जिसने किसी गुरु से, अच्छी बातया काम की शिक्षा पाई हो। ‘निगुरा’ का विपर्याय।
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सगृह  : पुं० [सं० अव्य० स०]=गृहस्थ।
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सगोत  : वि०=सगोत्र।
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सगोती  : पुं० [सं० सगोत्र] एक हा गोत्र अथवा कुल या परिवार के लोग भाई-बंद। सगोत्र।
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सगोत्र  : पुं० [सं० ब० स० अव्य० स० बा०] १. ऐसे लोग जो एक ही गोत्र के अर्थात एक ही पूर्वज से उत्पन्न हुएं हों। (किन्ड्रेड, किन्समेन) २. कुल। वंश। ३. जाति।
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सगोत्रता  : स्त्री० [सं०] सगोत्र होने की अवस्था या भाव। (किनशिप)
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सगौती  : स्त्री० [देश०] खाने का माँस। गोश्त। कलिया। पुं०=सगोत्र।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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