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से  : विभ० [प्रा० सुंतो, पुं० हिं० सेंति] १. करण और अपादान कारक का चिन्ह। तृतीया और पंचमी की विभक्ति, जिसका प्रयोग इन अर्थो में होता है।–(क) द्वारा; जैसे–हाथ से देना, (ख) आपेक्षिक मान में कम या अधिक; जैसे–इससे कम, (ग) सीमा का आरम्भ; जैसे–यहाँ से। मुहा०–(स्त्री का किसी पुरुष) से रहना=पर—पुरुष से संभोग करना। उदा०–मीर गुल से अब के रहने में हुई वह बेकली। टल गई क्या नाफदानी पेड़ पत्थर हो गया।–जानसाहब। २. पुरानी हिन्दी और बोलचाल में, कहीं—कहीं सप्तमी या अधिकरण के चिन्ह ‘पर’ की तरह प्रयुक्त। उदा०–कहहिं कबीर गूँगे गुर खाया, पूछे से का कहिया।–कबीर। वि० हिं० ‘सा’ (समान) का बहु०। जैसे—थोड़े से कपड़े, बहुत से लोग। सर्व० हिं० ‘सो’ (वह) का बहु०। स्त्री० [सं०] १. सेवा। २. कामदेव की पत्नी रति का एक नाम।
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सेई  : स्त्री० [हिं० सेर] अनाज नापने का काठ का एक गहरा बरतन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) सर्व० [हिं० से (वह)+ई (प्रत्य०)] वही। उदा०–सेई तुम सेई हम कहियत।–कबीर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेउ  : पुं० १. दे० ‘सेव’ (पकवान)। २. दे० ‘सेब’ (फल)। ३. दे० ‘शिव’।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेउवा  : स्त्री०=सेवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेक  : पुं० [हिं० सेंकना] १. सेंकने की क्रिया या भाव। २. ताप। गरमी। ३. शरीर के किसी रुग्ण अंग पर गर्म चीज से पहुँचाई जानेवाली गर्मी। (फ़ोमेन्टेशन) ४. किसी प्रकार का सामान्य कष्ट, विपत्ति या संकट। (पश्चिम) जैसे–ईश्वर करे, तुम्हें जरा भी सेंक न लगे। क्रि० प्र०–आना।–लगना। स्त्री० [हिं० सींक] लोहे की कमानी जो छीपी कपड़े छापने के काम में लाते हैं।
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सेक  : पुं० [सं०] १. पानी से सींचने की क्रिया या भाव। सिंचाई। २. पानी का छिड़काव। ३. अभिषेक। ४. तेल आदि की मालिश। (वैद्यक) पुं० =सेंक। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेक-पात्र  : पुं० [सं०] पानी छिड़कने या सींचने का पात्र या बरतन।
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सेकंड  : पुं० [अं०] एक मिनट का ६॰ वाँ भाग। वि० गिनती में दो के स्थान पर पड़नेवाला। दूसरा।
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सेकड़ा  : पुं० [देश०] वह छाबुक या छड़ी, जिससे हलवाहे बैल हाँकते हैं। पैना।
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सेकतव्य  : वि० [सं०] १. छिड़के या सीचे जाने के योग्य। २. मालिश के योग्य।
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सेंकना  : स० [सं० श्रेषण=जलाना, तपाना] १. आँच के पास या आग पर रखकर भूनना। जैसे–रोटी सेंकना। २. आँच के पास या ताप के सामने रखकर गरम करना। जैसे–(क) सरदी में अँगाठी से हाथ—पैर सेंकना। (ख) खुली जगह में बैठकर धूप सेंकना। ३. कपड़ा, रूई, आदि गरम करके पीडि़त अंग पर उसका ताप पहुँचाना। जैसे–पेट या फोड़ा सेंकना। (फ़ोमेन्टेशन) मुहा०–आँखें सेंकना=रूपवती या सुन्दरी स्त्री को बारंबार देखकर तृप्त या प्रसन्न होना।
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सेंकाई  : स्त्री० [हिं० सेंकना] सेंकने का क्रिया या भाव।
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सेंकी  : स्त्री० [फा० सीनी, हिं० सनहकी] तश्तरी। रकाबी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेकुआ  : पुं० [देश०] काठ के दस्ते का लंबा करछी या डौआ, जिससे हलवाई दूध औटाते हैं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेक्ता  : वि० [सं० सेक्तृ] [स्त्री० सेक्त्री] १. सींचनेवाला। २. गौ, घोड़ी आदि में गर्भधान करानेवाला। पुं० स्त्री का पति। शौहर।
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सेक्रेटरियट  : पुं० [अं०]=सचिवालय।
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सेक्रेटरी  : पुं० [अं०] १. मंत्री। २. सचिव।
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सेक्शन  : पुं० [अं०] १. विभाग। जैसे–इस दरजे में दो सेक्सन हैं। २. धारा।
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सेख  : वि०, पुं० =शेष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =शेख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेखर  : पुं०=शेखर।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=शिखर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेखी  : स्त्री०=शेखी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंगर  : पुं० [सं० श्रृंगार] १. एक प्रकार का पौधा जिसकी फलियों की तरकारी बनती है। २. उक्त पौधे का फली। ३. बबूल की फली। ४. एक प्रकार का अगहनी घान। पुं० क्षत्रियों की एक जाति।
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सेंगरा  : पुं० [फा० सग या सं० श्रृंखल ?] मोटे बाँस का वह छोटा टुकड़ा जिसकी सहायता से पेशराज लोग मिलकर भारी धरनें, पतेथर आदि उठाते हैं। विशेष–सेंगरें में मोटे रस्से बाँधे जाते हैं और उन्ही रस्सों पर धरनें, पत्थर आदि लटकाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाये जाते हैं। पुं० संगरा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेगा  : पुं० [अ० सेगः] १. किसी काम या बात का कोई विशिष्ट विभाग या शाखा। २. व्यवस्था शासन आदि का महकमा।
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सेगुन  : पुं०=सागोन (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेगोन, सेगौन  : पुं० [देश०] मटमैले रंग की वह लाल मिट्टी जो नालों के पास पाई जाती है। पुं० =सागौन (वृक्ष)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेग्य  : पुं० [सं०] शीतलता। ठंडक। वि० ठंढा। शीतल।
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सेच  : पुं० [सं०] १. सिचाई। २. छिड़काव।
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सेचक  : वि० [सं०] १. सेचन करने का या सींचनेवाला। २. छिड़कनेवाला। तर करनेवाला। पुं० बादल। मेघ।
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सेचन  : पुं० [सं०√सिच् (सीचना)+ल्युट्–अन] १. पानी से सीचने की क्रिया या भाव। सिंचाई करना। २. पानी छिड़कना। ३.पानी के छींटे मारना। ४. अभिषेक। ५. धातुओं की ढलाई। ६. वह कड़ाही नुमा छोटा बरतन जिससें नाव में का पानी बाहर फेंका जाता है।
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सेचनक  : पुं० [सं०] अभिषेक।
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सेचनी  : स्त्री० [सं०] पानी भरने का बरतन। जैसे–डोल, बालटी आदि।
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सेचनीय  : वि० [सं०] जिसका सेचन हो सके या होने को हो।
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सेचित  : भू० कृ० [सं०] जो सींचा गया हो। तर किया हुआ।
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सेच्य  : वि० [सं०]=सेचनीय।
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सेज  : स्त्री० [सं० शय्या प्रा० सज्जा] १. बिछौना, विशेषतः सुन्दर और कोमल बिछौना। २. साहित्यिक तथा श्रृंगारिक क्षेत्र में वर या वधू का बिछौना। क्रि० प्रा०–करना।
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सेजपाल  : पुं० [हिं० सेज+पाल] प्राचीन काल में, वह सैनिक जो राजा की शय्या पर पहरा देता था।
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सेजरिया  : स्त्री०=सेज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेजा  : पुं० [देश०] आसाम और बंगाल में होने वाला एक प्रकार का पेड़ जिस पर टसर के कीड़े पाये जाते हैं।
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सेजिया,सेज्या  : स्त्री०=सेज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंजी  : स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।(पंजाब)
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सेझ  : स्त्री०=सेज।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेझदादि  : पुं०=सह्याद्रि (पर्वत)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेझदारि  : पुं०=सह्याद्रि (पर्वत)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेझना  : अ० [सं० सेधन=दूर करना, हटाना] दूर होना। हटना स० दूर करना। हटाना।
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सेंट  : स्त्री० [?] दूध की धार।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [अ०] १. खुशबू। २. सुगंधिपूर्ण द्रव्य। जैसे–इत्र।
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सेट  : पुं० [सं०] एक प्राचीन तौल या मान। पुं० [अं०] एक साथ पहनी या काम में लाई जानेवाली चीजों का समूह। कुलक। जैसे–गहनों का सेट, कपड़ों का सेट, बरतनों का सेट। पुं,=सेंठा।
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सेटना  : अ० [सं० श्रुत] किसी का महत्त्व, मान आदि स्वीकार करना या मनाना।
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सेंटर  : पुं० [अ०] केन्द्र। (दे० )
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सेटिल  : वि० [अं० सेटिल्ट] १. (झगड़ा या विवाद) जो निपट गया हो। २. जो निश्चित या तै हो गया हो।
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सेटिलमेंट  : पुं० [अं०] १. खेती के लिए भूमि को नापकर उसका राजकर निर्धारित करने का काम। बंदोबस्त। २. आपस में होनेवाला निपटारा या समझौता। ३. नई बसाई हुई जगह।
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सेंट्रल  : वि० [अ०] केन्द्रीय। (दे० )
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सेठ  : पुं० [सं० श्रेष्ठी] [स्त्री० सेठानी] १. बहुत बड़ा कोठीवाला, महाजन, व्यापारी या साहूकार। २. बहुत बड़ा धनवान् या सम्पन्न व्यक्ति। ३. खत्रियों की एक जाति। ४. सुनारों का अल्ल या जातिनाम। ५. दलाल। (डिं०)
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सेठन  : पुं० [देश०] झाड़ू। बुहारी।
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सेंठा  : पुं० [देश०] १. मूँज या सरकंडे के सींक का निचला मोटा मजबूत हिस्सा जो मोढ़े आदि बनाने के काम में आता है। कन्ना। २. एक प्रकार की घास, जो प्रायः छप्पर छाने के काम आती है। ३. वह पोली लकड़ी जिससें जुलाहे ऊरी फँसाते हैं। डाँड़।
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सेठा  : पुं० [हिं० सेठा] सरकंडे का निचला भाग।
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सेठानी  : स्त्री० [हिं० सेठ+आनी (प्रत्य०)] १. सेठ की पत्नी। २. महाजन स्त्री।
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सेड़ा  : पुं० [देश०] भादों में होनेवाला एक प्रकार का धान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेड़ी  : स्त्री० [सं० चेटि, प्रा० चेड़ि, हिं० चेरी] सखी। (डिं०)
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सेंढ़  : पुं० [देश०] सुनारी के काम में आनेवाला एक प्रकार का खनिज पदार्थ।
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सेढ़  : पुं० [अं० सेल] बादवान। पाल। (लश०)। क्रि० प्र०–खोलना।–चढ़ाना।–तानना।–बाँधना।–लगाना। मुहा०–सेढ़ बजाना=पाल में से हवा निकालना जिससे वह लपेटा जा सके। (लश०) सेढ़ सपटाना=रस्सा खींचकर पाल तानना।
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सेढ़खाना  : पुं० [सं० सेल=फा० खाना] १. जहाज में वह कमरा या कोठरी जिसमें पाल भरे रहते हैं। २. वह स्थान जहाँ पाल बनाये जाते हैं।
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सेढ़ा  : पुं० [देश०] सेड़ा नामक भादों मास में होनेवाला धान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेत  : वि०=श्वेत (सफेद)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है) पुं०=सेतु।
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सेंत—मेंत  : अव्य० [हिं० सेंत+मेंत (अनु०)] १. बिना दाम दिये सेंत में। २. बिना कुछ किये या दिये। मुफ्त में। ३. फजूल। व्यर्थ।
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सेतकुली  : पुं० [सं० श्वेतकुलीय] सर्पों के अष्ट कुल में एक। सफेद जाति के नाग।
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सेतदीप  : पुं०=श्वेतदीप।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंतना  : स०=संतान।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतना  : स०=सैंतना (संचित करना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतबंध  : पुं०=सेतुबंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतवा  : पुं० [सं० शक्ति, हिं० सितुही] अफीम काछने की लोहे की कलछी।
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सेतवारी  : स्त्री० [सं० सिक्ता,=बालू+बारी (प्रत्य०)] हरापन लिए हुए बलुई चिकनी मिट्टी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतवाह  : पुं० [सं० श्वेतवाहन] १. अर्जुन। २. चन्द्रमा। (डिं०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेता  : वि० [सं० श्वेत] [स्त्री० सेती] सफेद। उदा०–सेतो सेतो सब भलो सेतो बसो न केस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंति  : विभ० आधुनिक हिन्दी की ‘से’ विभक्ति का पुराना रूप । स्त्री० =सती।
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सेतिका  : स्त्री० [सं० साकेत] अयोध्या नगरी का एक नाम।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंती  : स्त्री० [सं० संहति=(क) किफायत। २. ढेर या राशि।] ऐसी स्थिति जिसमें या तो (क) पास का कुछ भी व्यय न करना पड़े। (ख) कुछ भी परिश्रम करना पड़े, अथवा (ग) अनायास ही कोई चीज बहुत अधिक मात्रा या संख्या में प्राप्त हो। मुहा०–सेंती या सेंती—मेंती का=(क) जिसके लिए कुछ भी परिश्रम नकरना पडा़ हो। मुफ्त का या मुफ्त में। जैसे–उन्हें बाप—दादा का सेंती का माल मिला है। (ख) जिसके लिए कुछ भी व्यय न करना पडा हो। उदा०–सखा संग लीन्हेंज सेंति के फिरत रैन दिन बन में छाये।–सूर। (ग) जो बहुत अधिक मात्रा या मान में उपस्थित या प्रस्तुत हो। उदा०–दधि मै परी सेंति की चींटी, मो पै सबै कढ़ाई।–सूर। (घ) बिलकुल अकारण या व्यर्थ में। जैसे–इसके लिए कोई सेंती का प्रयत्न क्यों करे। प्रत्य० [प्रा० सुंतो, पंचमी विभक्ति] पुरानी हिन्दी की करण और अपादान की विभक्तिः से। उदा०–राजा सेंति कुंवर सब कहहीं। अस अस मच्छ समुद महँ अहहीं।–जायसी।
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सेती  : अव्य० [प्रा० सुत] १. किसी के प्रति। को। २. द्वारा। विभ० दे० ‘से’।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतु  : पुं० [सं०] १. बाँधने की क्रिया या भाव। बन्धन। २. नदी आदि पार करने के लिए बनाया हुआ रास्ता। पुल। ३. दूर रहनेवाली दो चीजों को आपस में मिलानेवाला अंग या रचना। (ब्रिज)। ४. पानी की रुकावट के लिए बँधा हुआ बाँध। ५. खेत की मेड़। ६. सीमा। हद। उदा०–राखहिं निज श्रुति सेतु।–तुलसी। ७. सीमा की सूचक किसी प्रकार की रचना । जैसे–डाँड़, मेड़ आदि। ८. ओंकार या प्रणव की एक संज्ञा। ९. ग्रन्थ की टीका या व्याख्या। १॰. वरुण वृक्ष। बरना। वि० =श्वेत।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतु-कर  : पुं० [सं०] सेतु या पुल बनानेवाला।
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सेतु-कर्म (न्)  : पुं० [सं०] सेतु या पुल बनाने का काम।
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सेतु-दुति  : पुं० [सं० श्वेतद्युति] चन्द्रमा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतु-पथ्य  : पुं० [सं०] दुर्गम स्थानों में जानेवाली सड़क। ऊँची—नीची पहाड़ी घाटियों में जानेवाली सड़क। (कौ०)
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सेतुक  : पुं० [सं०] १. पुल। २. जलाशय का धुस्स। बाँध। ३. वरुण नामक वृक्ष। बरना।
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सेतुज  : पुं० [सं०] दक्षिणापथ के एक स्थान का नाम।
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सेतुपति  : पुं० [सं०] दक्षिण भारत के पुराने रामनद राज्य के राजाओं की वंश परम्परागत उपाधि।
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सेतुप्रद  : पुं० [सं०] कृष्ण का एक नाम।
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सेतुबंध  : पुं० [सं०] १. पुल बनाने या बाँधने की क्रिया। २. नहर। ३. वह पथरीला मार्ग जो रामेश्वरम् से कुछ दूर आगे लंका की ओर समुद्र में बना हुआ है। प्रवाद है कि इसे नील और उनके साथियों ने श्रीरामचन्द्र जी के लंका पर चढ़ाई करने के समय बनाया था।
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सेतुबंध रामेश्वर  : पुं० [सं०] भारत की दक्षिणी सीमा का वह स्थान जहा लंका पर चढ़ाई करने के लिए रामचन्द्र ने पुल बनाया और शिवलिंग स्थापित किया था।
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सेतुवा  : पुं० =सूस।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =सेहुँवा (चर्म रोग)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेतुशैल  : पुं० [सं०] दो देशो के बीच का सीमा—सूचक पर्वत। सरहद का पहाड़।
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सेंथा  : पुं० =सेंठा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेथिया  : पुं० [तेलगू चेहि, चेट्टिया, हिं० सेठिया] आँख, गुदा, मूत्रेन्दिय आदि संबंधी रोगों की चिकित्सा करनेवाला। चिकित्सक। (दक्षिण)
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सेंथी  : स्त्री० [सं० शक्ति] छोटा भाला। बरछी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंद  : स्त्री० =सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेद  : पुं०=स्वेद (पसीना)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेदज  : वि० [स्वेदज] पसीने से उत्पन्न होनेवाला कीड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेदरा  : पुं० [फा० सेह=तीन+दर=दरवाजा] वह मकान, जिसके तीन तरफ खुली जमीन हो। तिदरी।
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सेंदुर  : पुं० [सं० सिन्दूर] ईंगुर की बुकनी जो प्रायः सौभाग्यवती स्त्रियाँ माँग में लगाती हैं। सिंदूर। क्रि० प्र०–भरना।–लगाना। मुहा०–सेंदुर चढ़ना=स्त्री का विवाह होना। सेंदुर पहनना=माँग में सिंदूर भरना या लगाना। (किसी की माँग में) सेंदुर देना=किसी स्त्री० की माँग में सिंदूर डालकर उससे विवाह करना या उसे अपनी पत्नी बनाना।
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सेंदुरदानी  : स्त्री० [हिं० सेंदुर+फा० दानी] सिंदूर रखने का छोटा डिब्बा। सिंदूर की डिबिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंदुरा, सेंदुरिया  : वि० , पुं०=सिंदूरिया।
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सेंदुरी  : वि० स्त्री० [हिं० सेंदुर+ई (प्रत्य०)] सिंदूरी गाय।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंद्रिय  : वि० [सं०] १. जिसमें इन्द्रियाँ हों। इन्द्रियोंवाला। जैव। (जीव या जन्तु) (आर्गनिक) २. पुंस्त्व या पौरुष से युक्त।
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सेंध  : स्त्री० [सं० संधि] १. चोरी करने के लिए मकान की दीवार में किया हुआ बड़ा छेद, जिसमें से होकर चोर किसी कमरे या कोठरी में घुसता है। संधि। नकब। क्रि० प्र०–देना।–मारना।–लगाना। २. इस प्रकार छेद करके की जानेवाली चोरी। क्रि० प्र०–लगना। स्त्री० [देश०] १. गोरख ककड़ी। फूट। २. कचरी नामक फल। पेहँटा।
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सेध  : पुं० [सं०] मनाही। निवारण।
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सेधक  : वि० [सं०] हटाने या रोकनेवाला।
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सेंधना  : स० [हिं० सेंध] चोरी करने के उद्देश्य से दीवार में छेद करके मकान में घुसनें के लिए रास्ता बनाना।
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सेधा  : स्त्री० [सं०] साही नाम का जन्तु।
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सेंधा नामक  : पुं० [सं० सैंधव] एक प्रकार का नमक जो पश्चिमी पाकिस्तान की खानों से निकलता है। सैंधव। लाहौरी नमक।
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सेंधिया  : वि० [हिं० सेंध] दीवार में सेंध में लगाकर चोरी करनेवाला। जैसे–सेंधियाँ चोर। पुं० [?] १. ककड़ी की जाति की एक बेल जिसमें तीन—चार अंगुल लम्बे छोटे—छोटे फल लगते हैं। कचरी। सेंध। पेहँटा। २. फूट नामक फूल। ३. एक प्रकार का विष। पुं० =सिंधिया।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंधी  : स्त्री० [सिंध (देश०)] १. खजूर। २. खजूर की शराब। स्त्री०=सेंधिया (फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंधुआर  : पुं०=सिंधुआर (जन्तु)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंधुर  : पुं०=सिंदुर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेन  : पुं० [सं०] १. तन। शरीर। २. जीवन। ३. प्राचीन भारत में, व्यक्तियों के अन्त में लगनेवाला एक पद। जैसे–शूरसेन। ४. चार प्रकार के दिगम्बर जैन साधुओं में से एक। ५. बंगाल का सिद्ध राजवंश जिसने ११ वीं से १५ वीं शताब्दी तक राज्य किया था। ६. बंगाल की वैद्य नामक जाति का अल्ल। वि० १. जिसके सिर पर कोई मालिक हो। सनाथ। २. अधीन। आश्रित। वि० =सेना (फौज)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =श्येन (बाज पक्षी)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेनप  : पुं० [सं० सेनापति] सेनापति।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
सेनपति  : पुं०=सेनापति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेना  : स्त्री० [सं०] १. युद्ध के लिए सिखाए हुए और अस्त्र—शस्त्र से सजे हुए सैनिकों या सिपाहियों का बड़ा दल या समूह। फौज। पलटन। (आर्मी)। २. किसी विशिष्ट उद्देश्य या कार्य की सिद्धि के लिए संघटित किया हुआ कोई बड़ा दल या समूह। जैसे–बालसेना, मुक्ति सेना, वानर सेना आदि। ३. इन्द्र का वज्र।। ४. भाला। ५. साँग। ६. इन्द्राणी। ७. वर्तमान अवसर्पिणी के तीसरे अर्हत् शंभव की माता का नाम। (जैन) ८. प्राचीन भारत में स्त्रियों के नाम के साथ लगनेवाला एक पद। जैसे–बसंतसेना। स० [सं० सेवन] १. सेवा—टहल करना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) मुहा०–चरणसेना=(क) पैर दबाना। (ख) तुच्छ चाकरी या सेवा करना। २. आराधना या उपासना करना। ३. औषध आदि का नियमित रूप से प्रयोग या व्यवहार करना। ४. पवित्र स्थान पर निरन्तर वास करना। जैसे–काशी या वृन्दावन सेना। ५. यों ही किसी चीज पर बराबर पड़े रहना। जैसे–चारपाई सेना। ६. मादा पक्षी का गरमी पहुँचाने के लिए अपने अंड़ो पर बैठना। ७. कोई चीज व्यर्थ लेकर बैठे रहना। (व्यंग्य)।
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सेना-कक्ष  : पुं० [सं०] सेना का पार्श्व। फौज का बाजू।
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सेना-कर्म  : पुं० [सं०] १. सेना का संचालन तथा व्यवस्था। २. सैनिक सेवा का काम।
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सेनांग  : पुं० [सं०] १. सेना के चार अंगों (हाथी, घोड़े, रथ और पैदल) में से हर एक । २. सैनिकों का छोटा दल या टुकड़ी। सेना का विभाग।
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सेनागोप  : पुं० [सं०] प्राचीन भारत में, वह व्यक्ति जो सेना रखता था।
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सेनाग्र  : पुं० [सं०] सेना का अग्रभाव। फौज का अगला हिस्सा।
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सेनाग्रणी  : पुं० [सं०] १. सेना का अग्रणी या प्रधान नायक २. संगीत में कर्नाटकी पद्धति का एक राग।
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सेनाचर  : पुं० [सं०] १. सैनिक। २. शिविर। में रहनेवाला सौनिक।
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सेनाजयंती  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सेनाजीवी (विन्)  : पुं० [सं०] सेना में रहकर अपनी जीविका चलानेवाला सैनिक। सिपाही। योद्धा।
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सेनादार  : पुं० [सं० सेना+फा० दार] सेना—नायक। फौजदार।
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सेनाधिकारी  : पुं० [सं०] फौज का अफसर। सेना का अधिकारी।
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सेनाधिप  : पुं० [सं०]=सेनापति।
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सेनाधिपति  : पुं० [सं०]=सेनापति।
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सेनाधीश  : पुं० [सं०] सेनापति।
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सेनाध्यक्ष  : पुं० [सं०] फौज का अफसर। सेनापति।
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सेनानायक  : पुं० [सं०] सेना का अफसर। फौजदार।
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सेनानी  : पुं० [सं०] १. सेनापति। सिपहसालार। २. कार्तिकेय का एक नाम। ३. एक रुद्र का नाम। ४. जूआ खेलने का एक प्रकार का पासा।
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सेनापति  : पुं० [सं०] १. सेना का नायक। फौज का अफसर। सिपहसालार। २. कार्तिकेय, जो देवताओं की सेना के प्रधान अधिकारी माने गये हैं। ३. शिव का एक नाम।
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सेनापत्य  : पुं० [सं०] सेनापति होने की अवस्था, पद या भाव।
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सेनापरिधान  : पुं० [सं०] सेना के साथ रहने वाले आवश्यक व्यक्तियों का सारा सामान। लवाजमा। (एकाउन्टरमेन्ट)
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सेनापाल  : पुं० [सं० सेनापाल] सेनापति।
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सेनाभक्त  : पुं० [सं०] सेना के लिए रसद और बेगार। (को०)
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सेनाभक्ति  : स्त्री० [सं०] प्राचीन भारत में, वह कर जो राजा या राज्य का ओर से सेना के भरण—पोषण के लिए लिया जाता था।
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सेनामणि  : पुं० [सं०] संगीत में कर्नटकी पद्धति का एक राग।
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सेनामनोहरी  : स्त्री० [सं०] संगीत में कर्नाटकी पद्धति की एक रागिनी।
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सेनामुख  : पुं० [सं०] १. सेना का अगला भाग २. सेना का एक विभाग, जिसमें तीन हाथी, ९ घोड़े और १५ पैदल सवार रहते थे। ३. नगर के मुख्य द्वार के सामने का बाहरी रास्ता।
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सेनायोग  : पुं० [सं०] सैन्य—सज्जा। फौज की तैयारी।
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सेनावास  : पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ सेना रहती हो। छावनी। २. खेमा। डेरा। शिविर।
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सेनावाह  : पुं० [सं०] सेनानायक।
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सेनाव्यूह  : पुं० [सं०] युद्धकाल में विभिन्न स्थानों पर की गई सेना के विभिन्न अंगों की स्थापना या नियुक्ति। सैन्य—विन्यास। दे० ‘व्यूह’।
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सेनि  : स्त्री०=श्रेणी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेनिका  : स्त्री० [सं० श्येनिका] १. बाज पक्षी की मादा। मादा बाज पक्षी। २. श्येनिका नामक छन्द।
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सेनी  : स्त्री० [फा० सीनी] १. तश्तरी। रकाबी। २. एक विशेष प्रकार की नक्काशीदार तश्तरी। स्त्री० [सं० श्येनी] १. बाज पत्री की मादा। मादा बाज पक्षी। स्त्री० [सं० श्रेणी] १. अवली। पक्ति। २. सीढ़ी। ३. दे० ‘श्रेणी’। पुं० [?] विराट् के यहाँ अज्ञातवास करते समय का सहदेव का रखा हुआ कल्पित नाम।
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सेनुर  : पुं० =सिंदूर।
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सेनूं  : पुं० [हिं० नैनूँ का अनु०] नैनूँ की तरह का एक प्रकार का बूटीदार कपड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेनेट  : स्त्री० दे ‘सीनेट’।
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सेनेटर  : पुं० =सीनेटर।
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सेफ  : पुं० [अं०] लोहे की मोटी चादर का बना हुआ एक प्रकार का छोटा अल्मारीनुमा बक्स, जिसमें रोकड़ और बहुमूल्य पदार्थ रखे जाते हैं। वि० [अं०] सुरक्षित। पुं० =शेफ।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेब  : पुं० [फा०] १. नाशपाती की जाति का मझोले आकार का एक पेड़। २. उक्त पेड़ का फल, जो मेवों में गिना जाता है। पुं० =सेव।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंबर  : पुं०=सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेंभा  : पुं० [देश०] घोड़ों का एक बात रोग।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेम  : स्त्री० [सं० शिंबी] एक प्रकार की फली, जिसकी तरकारी खाई जाती है।
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सेम का गोंद  : पुं० [हिं०] एक प्रकार के कचनार का गोंद, जो इंद्रिय जुलाब और स्त्रियों का रुका हुआ रज खोलने के लिए उपयोगी माना जाता है।
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सेमई  : पुं० [हिं० सेम] सेम की तरह का हल्का सब्ज रंग। वि० उक्त प्रकार के रंग का। स्त्री०=सेवई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेमंतिका  : स्त्री०=सेमंती।
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सेमंती  : स्त्री० [सं०] सफेद गुलाब का फूल। सेवती।
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सेमर  : पुं० [देश०] दलदली जमीन।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० =सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेमल  : पुं० [सं० शाल्मलि] १. एक बहुत बड़ा पेड़, जिसके फल में से एक प्रकार की रुई निकलती है। २. उक्त वृक्ष के फल की रुई, जो रेशम की तरह चिकनी और मुलायम होती है। (सिल्क—कॉटन) पद–सेमल का सूआ=व्यर्थ का काम या परिश्रम करके उसके बुरे परिणाम से दुःखी होने और पछतानेवाला। (सेमल के बीज में चोंच मारनेवाले तोते के दृष्टांत पर) उदा०–कतहूँ सुवा होत सेमर कौ, अंतहि कपट न बचिवो।–सूर।
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सेमल—मूसला  : पुं० [सं० शाल्मलि—मूल] सेमल की जड़।
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सेमा  : पुं० [हिं० सेम] बड़ी सेम।
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सेमार  : पुं० =सिवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेमिटिक  : पुं० [अं०] दे० ‘सामी’ (साम का देश)।
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सेर  : पुं० [?] १. एक मान या तौल, जो सोलह छटाँक या अस्सी तोले की होती है। मन का चालीसवाँ भाग। मुहा०–सेर का सवा सेर मिलना=किसी अच्छे या जबरदस्त का उससे भी बढ़कर अच्छे या जबरदस्त से मुकाबला या सामना होना। २. पानी की १॰६ ढोलियों का समूह। (तमोली)। पुं० (देश०) एक प्रकार का धान, जो अगहन महीने मे तैयार हो जाता है और जिसका चावल बुहत दिनों तक रह सकता है। स्त्री० [देश०] एक प्रकार की मछली। वि० [फा०] जिसका पेट या मन भर गया हो। तृप्त। पुं०=शेर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेरन  : स्त्री० [देश०] पहाड़ी देशों में होनेवाली एक प्रकार की घास।
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सेरवा  : पुं० [सं० शट ?] वह कपड़ा, जिससे हवा करके अन्न बरसाते समय भूसा उडाया जाता है। झूली। पुं० [हिं० सिर] चारपाई या बिस्तर का सिरहाना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० सेराना=ठंडा करना, शांत करना] दीवाली के प्रातः काल ‘दरिद्दर’ (दरिद्रता) भगाने की रस्म, जो सूप बजाकर की जाती है।
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सेरही  : स्त्री० [हिं० सेर] एक प्रकार का कर या लगान, जो किसान को फसल की उपज के अपने हिस्से पर देना पड़ता था।
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सेरा  : पुं० [हिं० सेर] चारपाई की वह पाटी, जो सिरहाने की ओर रहती है। पुं० [फा० सेराब] आबपाशी की हुई जमीन। पुं० =सेढ़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेराना  : अ०, स०=सिराना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेराब  : वि० [फा०] [भाव० सेराबी] १. पानी से तर किया या भरा हुआ। सींचा हुआ।
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सेराबी  : स्त्री० [फा०] सेराब करने की क्रिया या भाव।
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सेराह  : पुं० [सं०] दूध की तरह सफेद रंगवाला घोड़ा।
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सेरी  : स्त्री० [फा०] सेर होने अर्थात अच्छी तरह तृप्त और संतुष्ट होने की अवस्था, क्रिया या भाव। तृप्त। स्त्री० [सं० श्रेणी] लंबी पतली गली। (राज०) स्त्री० [हिं० सेर] सेर भर का बटखरा या बाट। (पश्चिम)
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सेरीना  : स्त्री० [हिं० सेर] अनाज या चारे का वह हिस्सा जो असामी जमींदार के देता था।
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सेरुआ  : पुं० [?] १. वैश्य। (सुनार)। २. वेश्याओं की परिभाषा में वह व्यक्ति, जो मुजरा सुनने आया हो। पुं०=सेरवा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेरू  : पुं० [सं० सेलु] लिसोड़े का पेड़। लभेड़ा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) पुं० [हिं० सिर] चारपाई में सिरहाने और पैताने की ओर की लकड़ियाँ। (पश्चिम)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेल  : पुं० [सं० शल, प्रा० सेल] बरछा। भाला। साँग। पुं० [सं० सिलना=एक पौधा जिसके रेशों से रस्से बनते थे] १. एक प्रकार का सन का रस्सा, जो पहाड़ों में पुल बनाने के काम में आता है। २. हल में लगी हुई वह नली, जिसमें से होकर कूंड में भरे हुए बीज जमीन पर गिरते हैं। पुं० [?] नाव से पानी उलोचने का काट का बरतन। स्त्री० [?] १. गले में पहनने की माला। २. एक प्रकार की समुद्री मछली, जिसके ऊपरी जबड़े बहुत तेज धार वाले होते हैं। पुं० [सं० शेल] तोप का वह गोला, जिसमें गोलियाँ आदि भरी रहती हैं। (फौजी)। पुं० [अं०] बिक्री। विक्रय। पद–सेल टैक्स=बिक्री—कर।
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सेलखड़ी  : स्त्री० =सिलखड़ी (खड़िया)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेलग  : पुं० [सं०] लुटेरा। डाकू।
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सेलना  : अ० [प्रा० सेल=जाना] मर खाना। चल बसना।
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सेला  : पुं० [सं० शल्लक, शल्क=छिलका; मछली का सेहरा] १. रेशमा चादक या दुपट्टा। २. एक प्रकार का रेशमी साफ़ा। पुं० [सं० शालि] भुँजिया चावल।
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सेलार  : पुं०=सेलिया (घोड़ा)।
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सेलिया  : पुं० [सं० सेराह] सफेद घोड़ा। सेराह।
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सेली  : स्त्री० [हिं० सेल] बरछी। स्त्री० [हिं० सेला] १. छोटा दुपट्टा। २. गाँती। ३. गोरखपंथियों में वे ऊँनी धागे, जिनमें गले में पहनने की सोंग की सीटी (नाद या श्रृंगीनाद) बँधी रहती है। ४. ऊन, रेशम या सूत की वह माला जो योगी लोग गले में पहनते या सिर पर लपेटते हैं। ५. गलें में पहनने का एक प्रकार का गहना। स्त्री० [सं० शल्क=मछली का सेहरा] एक प्रकार की मछली। स्त्री० [देश०] दक्षिण भारत में होनेवाला एक प्रकार का पेड़, जिसकी लकड़ी से खेती के औजार बनाये हैं।
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सेलून  : पुं० [सं०] १. उत्सवों आदि के लिए सजाया हुआ बड़ा कमरा। २. जहाजों में ऊँचे के यात्रियों के रहने का कमरा। ३. विशिष्ट प्रतिष्टित यात्रियों के लिए बना हुआ रेल का बढ़िया डिब्बा। ४. आमोद—प्रमोद, क्षौरकर्म, मद्यपान आदि के लिए बना हुआ बढ़िआ और सजाया हुआ कमरा।
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सेलो  : पुं० [देश०] खेती की ऐसी जमीन जिस पर वृक्ष आदि की छाया पड़ती हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेल्ला  : पुं०=सेल (भाला)।
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सेल्ह  : पुं०=सेल (भाला)।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेल्हा  : पुं० [स० शाल] एक प्रकार की अगहनी धान जिसका चावल बहुत दिनों तक रह सकता है। पुं० [स्त्री० अल्का० सेल्ही]=सेला (भाला)।
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सेव  : पुं० [सं० सेविका] सूत के रूप में बना हुआ आटे, मैदे आदि का एक पकवान। पुं० [?] खेत की हलकी या कम गहरी जोताई। ‘अवाई’ का विपर्याय। पुं० =सेब (फल)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) स्त्री० =सेवा।
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सेव-दाना  : पुं० [हिं०] सोयाबीन के दाने।
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सेंवई  : स्त्री० =सेवईं।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवँई  : स्त्री०=सेवई।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवई  : स्त्री० [सं० सेविका] मैदे के सुखाये हुए बहुत पतले सूत के से लच्छे जो घी में तलकर या दूध में पकाकर खाये जाते हैं। क्रि० प्र०–पूरना।–बढ़ना। स्त्री० [सं० श्यामक, हिं० सावाँ] एक प्रकार की लंबी घास, जिसकी बालें चारे के काम आती हैं। कही—कही इसके दाने या बीज बाजरे के साथ मिलाकर खाये भी जाते हैं। सेवन।
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सेवक  : वि० [सं०] [स्त्री० सेविका] किस की सेवा या खिदमत करनेवाला जैसे–देश—सेवक, समाज-सेवक। पुं० [स्त्री० सेविका, सेवकिन, सेवकी] १. वह जो किसी की सेवा करने के काम पर नियुक्त हो। नौकर। २. वह जो किसी की छोटी—मोटी सेवाएँ या टहल करने के काम पर नियुक्त हो।चाकर। परिचारक। ३. वह जो किसी देवता या विशिष्ट रूप से अराधक, उपासक या पूजक हो। देवता का भक्त। ४. वह जो किसी वस्तु का सेवन अर्थात उपभोग या व्यवहार करता हो। जैसे–मद्य सेवक। ५. वह जो धार्मिक दृष्टि से किसी विशिष्ट पवित्र स्थान में नियमित या स्थायी रूप से रहता हो। जैसे–तीर्थ—सेवक। ६. सिलाई का काम करनेवाला व्यक्ति। दरजी। ७. अनाज आदि रखने का बोरा।
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सेवकाई  : स्त्री० [सं० सेवक+हिं० आई (प्रत्य०)] १. ब्रह्यणों साधु—महात्माओं की दृष्टि से, अनेक सेवकों, शिष्यों, यजमानों आदि का वर्ग या समूह। २. सेवा। टहल। उदा०–इहै हमार बड़ी सेवकाई।–तुलसी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवग  : पुं०=सेवक।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवड़ा  : पुं० [हिं० सेब+ड़ा (प्रत्य०)] १. मैदे का एक प्रकार का मोटा सेव या पकवान। पुं० [सं० श्वेतपट] १. एक प्रकार के देवता। २. एक प्रकार के जैन साधु।
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सेवँत  : पुं० [सं० सामंत] एक राग जो हनुमत के अनुसार मेघ राग का पुत्र है।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवति  : स्त्री० =स्वाती (नक्षत्र)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवती  : स्त्री० [सं० सेमंती] सफेद गुलाब। वि० उक्त गुलाब की तरह सफेद। पुं० सफेद रंग।
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सेवन  : पुं० [सं०] [वि० सेवति, सेवनीय, सेव्य, कर्ता सेवी] १. परिचर्या। टहल। सेवा। २. उपासना। आराधना। ३. नियमित रूप से किया जानेवाला प्रयोग या व्यवहार।। इस्तेमाल। जैसे–औषध का सेवन। ४. बराबर किसी बड़े के पास या किसी पवित्र स्थान पर रहना। जैसे–काशी-सेवन। ५. उपभोग। जैसे–मद्य-सेवन, स्त्री-सेवन। ६. कपड़े सीने का काम। सिलाई। पुं०=सेवई (घास)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवना  : स०=सेना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है) सं० [सं०सेवन] सेवा—टहल करना। स० दे० ‘सेना’।
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सेवनी  : स्त्री० [सं०] १. सूई। सूची। २. सिलाई के टाँके। सीअन। सीवन। ३. शरीर के अंगो में सीअन की तरह दिखाई पड़नेवाला जोड़। ४. जूही। स्त्री० =सेविका।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवनीय  : वि० [सं०] १. जिसका सेवन करना आवश्यक या उचित हो। २. पूज्य। ३. जो सीये जाने के योग्य हो।
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सेंवर  : पुं० =सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवँर  : पुं०=सेमल।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवरा  : पुं० १.=सेवड़ा। २.=सेहरा। (राज०)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवरी  : स्त्री० =शबरी।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवल  : पुं० [देश०] ब्याह की एक रस्म।
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सेवा  : स्त्री० [सं०] १. बडे़ पूज्य स्वामी आदि को सुख पहुँचाने के लिए किया जाने वाला काम। परिचर्या। टहल। मुहा०–सेवा मे=बड़े के समने आदरपूर्वक । २. सेवा या नौकर होने की अवस्था या काम। नौकरी। ३. व्यक्ति संस्था आदि से कुछ वेतन लेकर उनका कुछ काम करने की क्रिया या भाव। नौकरी। ४. किसी लोकोपयोगी वस्तु विषय कार्य आदि में रुची होने के कारण उसके हित, वृद्धि, उन्नति आदि के लिए किया जाने वाला काम। जैसे–साहित्य—सेवा आदि। ५. सार्वजनिक अथवा राजकीय कार्यो का कोई विशेष विभाग जिसके लिए कोई विशेष प्रकार का काम हो। जैसे–वैचारिक—सेवा (जुडिशियल सर्विस)। साधविक सेवा। (इक्जिक्यूटिव सर्विस) ६. इस प्रकार में किसी में काम करने वालो का समूह या वर्ग। (सर्विस उक्त सभी अर्थों के लिए) ७. धार्मिक दृष्टि से देवताओं की मूर्तियों आदि को स्नान कराना, फूल चढ़ना, भोग लगाना आदि। जैसे–ठाकुर जी की सेवा। ८. किसी के पालन—पोषण, रक्षण, संवर्धन आदि के लिए किये जाने वाले उपयुक्त काम। जैसे–गौ की सेवा, पोड़—पौधो की सेवा। ९. उपभोग। जैसे–स्त्री—सेवा। १॰. आश्रम। शरण। जैसे–वे बहुत दिनो तक महाराज की सेवा में पड़े रहे।
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सेवा-काकु  : स्त्री० [सं०] सेवा कैल में स्वर परिवर्तन या आवाज बदलना। (अर्थात कभी जोर से बोलना, कभी मुलामियत सो, कभी क्रोध से और कभी दुख भाव से।)
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सेवा-काल  : पुं० [सं०] वह अवधि, जिसमें कोई सेवा में नियुक्त रहा हो। (पीरियड आफ सर्विस)
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सेवा-टहल  : स्त्री० [सं० सेवा+हिं० टहल] ‘बड़ों’, रोगियों आदि की परिचर्या। खिदमत। सेवा-शुश्रुषा।
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सेवा-पंजी  : स्त्री० [सं०] वह पंजी या पुस्तिका जिसमें सेवकों विशेषतः राजकीय सेवको के सेवा काल की कुछ मुख्य बातें लिखी जाती है। (सर्विस बुक)
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सेवा-पद्धति  : स्त्री० [सं०] वैष्णव संप्रदायों में देवताओं आदि की सेवा—पूजा की कोई विशिष्ट प्रणाली।
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सेवा-बंदगी  : स्त्री० [सं० सेवा+फा० बंदगी] १. साहब—सलामत। २. आराधना। पूजा।
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सेवा-भाव  : पुं० [सं०] सेवा विशेषतः उपकार करने की भावना। जैसे–वे साहित्य—साधना सेवा-भाव से ही करते है।
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सेवा-वृत्ति  : स्त्री० [सं०] सेवा या नौकरी करके जीविका उपार्जन करना या जीवन बिताना।
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सेवाजन  : पुं० [सं०] सेवा करने वाले व्यक्ति।
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सेवांजलि  : स्त्री० [सं०] कर—संपुट या अंजलि में भरी या रखी वस्तु गुरु, देवता आदि को समर्पण करना।
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सेवाती  : स्त्री० =स्वाती (नक्षत्र)।
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सेवादार  : पुं० [सं०+फा०] [भाव० सेवादारी] १. वह सिक्ख जो किसी सिख गुरू की सेवा में रहकर परम निष्टा और श्रद्धा—भक्तिपूर्वक उनकी सेवा करता था। २. आज—कल वह सिक्ख जो गुरुद्वारे में रहकर गुरुग्रंथ साहब की पूजा आदि के काम पर नियुक्त रहता है। द्वारपाल।
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सेवादास  : पुं० [सं०] [स्त्री० सेवा—दासी] छोटी—छोटी सेवाएँ करने वाला नौकर। टहलुआ।
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सेवाधर्म  : पुं० [सं०] सेवक का धर्म।
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सेवाधारी  : पुं० =सेवादार।
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सेवापन  : पुं० [सं० सेवा+हिं० पन (प्रत्य०)] सेवा करने की क्रिया, ढंग या भाव।
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सेवाय  : अव्य०=सिवा (अतिरिक्त)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवायत  : पुं० [हिं० सेवा] वह जो किसी देव मूर्ति की सेवा आदि के काम पर नियुक्त हो।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवार  : स्त्री० [सं० शैवाल] १. नदियों, तालों आदि में होने वाली लंबे, कड़े तथा तेज किनारो वाली घास। २. मिट्टी की तहें जो किसी नदी आस पास जमी हों। पुं० पान। (सुनार)(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवारा  : पुं०=सेवड़ा (पकवान)।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवाल  : स्त्री०=सेवार।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेवावाद  : पुं० [सं०] खुशामद। चापलूसी।
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सेवावादी  : पुं० [सं०] खुशामदी। चापलूस।
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सेवि  : पुं० [सं०] १. बदर—फल। बेर। २. सेव नामक फल। वि० १.=सेवी। २.=सेव्य। ३.=सेवित।
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सेविं—बैंक  : पुं० [अ०] आधुनिक अर्थ व्यवस्था में वह संस्था जिसमें लोग अपनी बचत के रूप में जमा करते हैं और उस पर ब्याज भी प्राप्त करते हैं।
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सेविका  : स्त्री० [सं०] १. सेवा करने वाली स्त्री। दासी। परिचारिका। नौकरानी। २. सेवई नामक व्यंजन।
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सेवित  : भू० कृ० [सं०] १. जिसकी सेवा या टहल की गई हो। उपचरित। २. जिसकी आराधना, उपासना या पूजा की गई हो। ३. जिसकी सेवा अर्थात उपयोग या व्यवहार किया गया हो। ४. आश्रित। ५. उपभुक्त। पुं० १. बेर। २. सेव (फल) ।
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सेवितव्य  : वि० [सं०]=सेव्य।
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सेविता  : स्त्री० [सं०] १. सेवक का कर्म। सेवा। दास—वृत्ति। २. आराधना। उपासना। ३. आश्रय। पुं० [सं० सेवितृ] सेवक।
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सेवी (विन्)  : वि० [सं०] १. सेवा करने वाला। २. आराधना या पूजा करनेवाला। ३. किसी वस्तु या स्थान का सेवन करनेवाला।
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सेवें  : पुं० [देश०] एक प्रकार का ऊँचा पेड़ जिसकी लकड़ी कुछ पीलापन या ललाई लिए सफेद रंग की, नरम, चिकनी, चमकीली और मजबूत होती है। कुमार।
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सेवोपहार  : पुं० दे० ‘आनुतोषक’।
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सेव्य  : वि० [सं०] [स्त्री० सेव्या] १. जिसकी सेवा करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। २. जिसकी आराधना, उपासना या पूजा करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। ३. जिसका सेवन अर्थात उपभोग या व्यवहार करना आवश्यक, उचित या उपयुक्त हो। ४. जिसकी रक्ष करना आवश्यक या उचित हो। ५. जिसका उपभोग या भोग करना आवश्यक या उचित हो। पुं० १. स्वामी। मालिक। २. उशीर। खस। ३. अश्वत्थ। पीपल। ४. हिज्जल नामक वृक्ष। ५. लमज्जक नामक घास, या तृण। ६. गौरैया पक्षी। चिड़ा। ७. सुगंधवाला। ८. लाल चंदन। ९. समुद्री नमक। १॰. जल। पानी। ११. दही। १२. पुरानी चाल की एक प्रकार की शराब।
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सेव्य-सेवक भाव  : पुं० [सं०] उस प्रकार का भाव, जिस प्रकार का वस्तुतः सेव्य या सेवक के बीच रहता हो या रहना चाहिए। स्वामी और सेवक तथा उपास्य और उपासक के बीच का पारस्परिक भाव।
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सेव्या  : स्त्री० [सं०] १. बंदा या बाँदा नामक जो दूसरे पेड़ो पर रहकर पनपती हैं। २. आँवला। ३. एक प्रकार की जंगली धान।
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सेशन कोर्ट  : पुं० [अ०]=सत्र—न्यायालय।
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सेंशर  : पुं० [अं०] १. यह कहना कि तुमने यह दोष या भूल की है। २. निंदात्मक भर्त्सना।
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सेश्वर  : वि० [सं०] १. ईश्वरयुक्त। २. जिसमें ईश्वर का अंश या सत्ता मानी गई गो।
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सेष  : पुं० १.=शेष। २.=शेख।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेषुक  : वि० [सं०] तीर या बाण से युक्त।
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सेस  : वि०, पुं० =शेष।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेस-रंग  : पुं० [सं० शेष+रंग] सफेद रंग (शेष नाग का रंग सफेद माना गया है।)
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सेंसर  : पुं० [अं०] १. वह सरकारी अफसर जिसें पुस्तकें, समाचार—पत्र आदि छापने या प्रकाशित होने, नाटक खेले जाने, चित्रपट दिखाये जाने पर या तार से कहीं भेजे जाने के पूर्व उन्हें देखने या जाँचने और टोकने का अधिकार होता है। २. उक्त प्रकार की जाँच का काम।
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सेसर  : पुं० [फा०सेह=तीन+सर=बाजी] १. ताश का एक प्रकार का खेल जिसमें तीन—तीन ताश हर आदमी को बांटे जाते हैं। और उसकी बिंदियों की जोड़ पर हार—जीत होती है। २. जालसाजी। ३. धोखेबाजी।
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सेंसर—बोर्ड  : पुं० [सं०] सेंसर करनेवाले अधिकारियों की समिति।
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सेसरिया  : वि० [हिं० सेसर+इया (प्रत्य०)] छल—कपट करके दूसरों का माल मारनेवाला। जालिया।
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सेसी  : पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा पेड़ जिसकी लकड़ी के सामान बनतें हैं। पगूर।
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सेसूंचन  : पुं० [सम्√सूच् (सूचना देना)+णिच्-ल्युट्-अन] [भू० कृ० संसूचित] [वि० संसूचनीय, संसूच्य] १. प्रकट या जाहिर करना। २. बतलाना। ३.भेद खोलना। ४. समझाना-बुझाना। ५. डाँटना डपटना। फटकार बताना।
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सेंह  : स्त्री०=सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेह  : वि० [फा०] दो और एक तीन। यौ.के आरंभ में। जैसे—सेह खानी। सेह हजारी। पुं० =सेहा।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेह-हजारी  : पुं० [फा०] एक उच्च पर जो मुसलमान बादशाहों के समय में सरदारों और दरबारियों को मिलता था। (ऐसे लोग या तो तीन हजार सेवक या सैनिक रख सकते थे। अथवा तीन हजार सैनिक के नायक होते थे।)
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सेहखाना  : पुं० [फा० सेह=तीन+खाना=घर] ऐसा घर जिसमें तीन घर हों। तिमंजिला मकान।
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सेहत  : स्त्री० [अ०] [वि० सेहती] १. सुख। चैन। राहत। २. तंदुरस्ती। स्वास्थ्य। ३. रोग से रहित होने की अवस्था। आरोग्य। क्रि० प्र०–पाना।–मिलना।
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सेहत-खाना  : पुं० [सं० सेहत+फा० खाना] पेशाब आदि करने या नहाने धोने के लिए जहाज में बनी हुई एक छोटी सी कोठरी।
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सेहती  : वि० [अ० सेहत] १. सेहत अर्थात स्वास्थ संबधी। २. स्वस्थ।
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सेहथना  : स० [सं० सह+हस्त=सहस्त+ना (प्रत्य०)] १. हाथ से लीप कर साफ करना। सैंतना। २. झाड़ू देना। बुहारना।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेहर  : पुं० [अ० सेह्र] जादू-मंतर। टोना-टोटका। पुं०=शेखर।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेहरा  : पुं० [हिं० सिर+हार] १. विवाह के समय वर को पहनाने के लिए फूलों या सुनहले-रुपहले तारों आदि की बड़ी मालाओं की पंक्ति या पुंज। २. विवाह का मुकुट। मौर। क्रि० प्र०–बँधना।–बाँधना। पद–सेहरा बँधाइ=वह धन या नेग जो दूल्हे को सेहरा बाँधने पर दिया जाता है। सेहरे जलवे का बीबी=वह स्त्री जिसके साथ रीति पूर्वक सेहरा बाँधकर और धूम-धाम से बारात निकालकर विवाह किया गया हो। (उपपत्नी यी रखली से भिन्न) मुहा०–(किसी काम या बात का) किसी के सिर सेहरा बाँधना=किसी कार्य के सफलतापूर्ण संपादन का श्रेय प्राप्त होना। किसी काम या बात का यश मिलना। ३. विवाह के समय वर पक्ष से गाये जाने वाले मांगलिक गीत या पढ़े जाने वाले पद्य। ४. मछली के शरीर पर सीपी की तरह चमकीले छिलके जो जो छोटे—छोटे टुकड़ो के रूप में निकलते हैं। (फि़श—स्केल) ५. चित्रकला में सजावट के लिए उक्त आकार प्रकार का अंकन।
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सेहरा  : स्त्री० [सं० शफरी] छोटी मछली। सहरी।
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सेहराबंदी  : स्त्री० [हिं० सेहरा=फा० बंदी] विवाह के अवसर पर बरात निकलने से पहले वर को सेहरा बाँधने का धार्मिक और सामाजिक कृत्य।
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सेहवन  : पुं०=सेहुआँ (रोग)।
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सेंहा  : पुं० [हिं० सेंध] कूआँ खोदने का पेशा करने वाला मजदूर। कुईरा। स्त्री०=सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेहा  : पुं० [हिं० सेंध] कूआँ खोदनेवाला मजदूर।
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सेहिथान  : पुं० [हिं० सेहियान] खलियान साफ करने वाला कूँचा।
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सेंही  : स्त्री०=सेंध।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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सेही  : स्त्री० [सं० सेधा, सेधी]=साही (जंतु)।
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सेहुँआँ  : पुं० [?] एक प्रकार का चर्म रोग, जिसमें शरीर पर भूरी-भूरी महीन चित्तियाँ सी पड़ जाती हैं।
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सेहुआन  : पुं० [देश०] एक प्रकार का करम कल्ला, जिसके बीजों से तेल निकालता है।
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सेंहुड़  : पुं० [सं० सेहुण्ड] थूहर।
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सेहुँड़  : पुं० [सं० सेहुण्ड] थूहर का पेड़।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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