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पढिए सत्य और न्याय की खोज करने वाले सुकरात जैसे महामानव की प्रेरक संक्षिप्त जीवनी जिसने अपने जीवन में एक भी शब्द नहीं लिखा- शब्द संख्या 12 हजार...
जेल समिति ने उपस्थित होकर सूचित किया कि आज मृत्युदंड दिए जाने का दिन है। उनके आदेश से पैर में पड़ी बेड़ियां खोलकर सुकरात को मुक्त कर किया गया। सुकरात एक खाट पर बैठ गए, नीचे झुककर अपनी टांगों को रगड़ते हुए बोले, ‘‘सुख भी क्या निराली वस्तु है। इसका दुःख के साथ कितना अद्भुत संबंध है। सुख और दुःख एक दूसरे के विरोधी माने गए हैं क्योंकि एक ही समय पर और एक ही साथ ये मनुष्य के साथ नहीं रह सकते। फिर भी इनमें से एक का अनुसरण करने वाले को, विवश होकर दूसरे को भी ग्रहण करना पड़ता है। इनके शरीर तो दो हैं परंतु यह एक ही सिर से जुड़े हुए हैं।’’
सुकरात ने स्वतःस्र्फूत वाणी में आगे कहा, ‘‘मैं समस्त विश्व मानवों को विश्वास दिलाना चाहता हूं कि उनके भीतर एक आत्मा है जो सामान्य जाग्रतावस्था की, बुद्धि की और नैतिक चरित्र की आधारशिला है। मित्रों, आत्मा अविनाशी है, मृत्यु उसका स्पर्श तक नहीं कर सकती। आत्मा का प्रादुर्भाव शरीर के साथ नहीं हुआ, इसलिए शरीर की मृत्यु के साथ उसका अंत भी नहीं होगा।’’ सुकरात द्वारा दिया गया आत्मा का सम्प्रत्यय तब से लेकर आज तक यूरोप के समस्त दार्शनिक चिंतन का केन्द्र बिन्दु रहा है।
यहां गीता की प्रतिध्वनि कितनी स्पष्ट दिखाई देती है जिसमें कहा गया है - अन्तवत इमें देहा (यह शरीर तो नष्ट होने वाला है पर यह) आत्मा न हन्यते (नहीं मारा जाता है)।
शाम के समय जब तक सुकरात ने स्नान किया जेलर जहर का प्याला लेकर आ पहुंचा। सुकरात ने प्याला ले लिया। होठों से लगाकर अत्यंत तत्परता और प्रसन्नता से सारा जहर पी लिया।
उपस्थित सभी लोग रोने लगे। कोई क्रंदन करने लगा तो कोई मुंह ढांपकर सिसकने लगा। इन्हें रोता देखकर सुकरात ने कहा ‘‘मैंने सुना है कि मनुष्य को शांति से मरना चाहिए। कृपया शांत हो जाएं और धीरज धरें। मृत्यु ऐसा गंतव्य है जिसे हम सब साझा करते हैं। इससे कोई नहीं बच पाया। ऐसा हो भी क्यों नहीं क्योंकि संभवतः मुत्यु ही जीवन का श्रेष्ठ आविष्कार है। यह जीवन में बदलाव का कारक है। यह पुराने को हटाकर नए के लिए रास्ता बनाता है।’’
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