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पढिए सत्य और न्याय की खोज करने वाले सुकरात जैसे महामानव की प्रेरक संक्षिप्त जीवनी जिसने अपने जीवन में एक भी शब्द नहीं लिखा- शब्द संख्या 12 हजार...
जेलर के निर्देशानुसार वे टहलते रहे। क्रीटो उनके साथ चल रहा था। उसने पूछा, ‘‘आपकी कोई अंतिम इच्छा ?’’
‘‘हां, मुझे एसक्लोपियस (भारतीय देवता अश्विनीकुमारों के समकक्ष) के नाम एक मुर्गा चढ़ाना है। इस ऋण को चुकाना मत भूलना।’’
यह कहकर सुकरात ने उनके ऊपर लगे अधार्मिकता के आरोप को कितनी सहजता से नकार दिया। जब पैर भारी हो गए तो वे लेट गए। जब उन्हें लगा कि जहर का प्रभाव हृदय तक पहुंचने वाला है तो उन्होंने लड़खड़ाती आवाज में कहा, ‘‘मैं उड़ रहा हूं - प्रेम और शाश्वत प्रकाश की भूमि में। मैं मुक्त हूं - दुःख-दर्द बीमारी और चिंता से। उड़ रहा हूं आनंद के अतिरेक में। खुशियों के सपने देखते हुए आनंद की सांसे लेते हुए।’’
सुकरात ने शांति से अंतिम सांस ली। उनके खुले हुए मुख और आँखों को क्रीटो ने अपने हाथ से बंद कर दिया।
सुकरात की अंत्येष्टि के बाद यूनानवासियों ने उनकी मृत्यु पर पश्चाताप करना प्रारंभ कर दिया। अभियोगकर्ताओं का पूरे विश्व में बहिष्कार कर दिया और उनमें से दो ने तो आत्महत्या तक कर ली। यह निश्चित है कि यदि सुकरात को शहीद की मौत न मिलती तो उनके उपदेशों को संसार ने इतनी गहराई से अनुभूत न किया होता।
सुकरात ने अपने दर्शन से युवा पीढ़ी को प्रभावित किया। उनकी समकालीन पीढ़ी उनसे प्रसन्न नहीं थी। यूनान में और बाद में यूरोप में दर्शन की जो धाराएं फूटीं उनका मूल स्रोत सुकरात ही थे। जैसा उन्होने कहा था कि वे एथेंसवासी न रहकर विश्व नागरिक बन गए। गीताकार कृष्ण और महात्मा बुद्ध की तरह सुकरात ने भी आत्मा की अमरता की बात कही और पुनर्जन्म में अपना दृढ़ विश्वास व्यक्त किया। वे जनता के बीच उसी प्रकार विचरण करते थे जैसे उनसे 150 वर्ष पूर्व भारत के नगरों में महात्मा बुद्ध भ्रमण करते थे। ईसा की तरह बिना कोई पुस्तक लिखे सुकरात ने लोगों के दिमाग पर इतना प्रभाव डाला जितना हजारों पुस्तकें नहीं डाल सकतीं। उनकी दार्शनिक धरोहर उनके शिष्यों, प्लेटो और ज़ेनोफोन, ने सहेजी।
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