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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


कषायापहृतस्नेहस्ततः स्नातो यथाविधि।
कुङ्कुमेन सदर्पण प्रदिग्धोऽगुरुधूपितः॥११॥
रसान् स्निग्धान् पलं पुष्टं गौडमच्छसुरां सुराम् ।
गोधूमपिष्टमाषेक्षुक्षीरोत्थविकृतीः शुभाः॥
नवमन्नं वसां तैलं, शौचकार्ये सुखोदकम्।
प्रावाराजिनकौशेयप्रवेणीकौचवास्तृतम् ॥१३॥
उष्णस्वभावैर्लघुभिः प्रावृतः शयनं भजेत् ।
युक्त्याऽर्ककिरणान् स्वेदं पादत्राणं च सर्वदा ॥ १४॥

स्नान आदि विधि—उसके बाद आँवला आदि कसैले द्रव्यों के कल्क (चटनी के समान पिसे हुए द्रव्यों) से पहले किये गये अभ्यंग (मालिश) की चिकनाहट को दूर करे, फिर विधिपूर्वक स्नान करे।  उसके बाद शरीर को मोटे तौलिया से पोंछकर कुंकुम, कस्तूरी आदि उष्णगुण-प्रधान द्रव्यों का लेप ( तिलक ) की धूप की सुवास का सेवन कर तदनन्तर भोजन करे।

भोजन में घी-तेल में भुना गया मांसरस स्वस्थ प्राणियों के मांस का होना चाहिए। गुड़ से बने पदार्थ, स्वच्छ (उत्तम ) मद्य या सामान्य मद्य, गेहूँ का आटा, उड़द की दाल, इक्षुरस, दूध द्वारा निर्मित पदार्थ (दही, मठा, मलाई, रबड़ी, खुरचन आदि), नये चावलों का भात, वसा, तैल का सेवन करे। हाथ धोने आदि के लिए गुनगुना गरम जल का प्रयोग करे।

इन दिनों प्रावार (ऊनी कम्बल आदि), मृगचर्म, रेशमी बिछौना, टाट या कुथक (रंग-बिरंगा कम्बल या गलीचा या गद्दा) बिछाकर रखें। ऊनी हलके चादर को ओढ़कर सोयें। प्रातःकाल युक्तिपूर्वक सूर्य की किरणों का सेवन करे। स्वेदन कर्म करे तथा जूता-जुराब ( मोजे ) को सदैव धारण करे।। ११-१४।।

वक्तव्य—कोश-साहित्य में 'नियुद्ध' शब्द का अर्थ है—बाहुयुद्ध। ‘पादाघातं च युक्तितः'—यहाँ पादाघात रूपी व्यायाम को थकावट आने से पहले छोड़ दें, यही युक्ति है! 'कषायापहृतः स्नेहः'-मालिश के समय जो शरीर पर तेल लगा है, उसे कषाय-द्रव्यों से दूर करें, न कि साबुन आदि क्षारयुक्त पदार्थों से। इनके प्रयोग से केशभूमि रूक्ष हो जाती है।

स्नानविधि—इसके लिए शास्त्र में द्रोणी अवगाहन (टब में लेटकर नहाने ) का विधान है। इसमें गरम पानी भर दिया जाता है, सिर को डुबाये बिना पूरे शरीर का इस प्रकार सुखद स्नान हो जाता है। केशर-कस्तूरी का लेप करने से शरीर सुवासित हो जाता है और शरीर में उष्णता का संचार भी होता है।

भोजन खाने वाले की रुचि के अनुसार इसका निर्माण किया तथा कराया जाता है। मांस-भोजन मांसभोजियों के लिए है। शाकाहार सबके लिए है। उड़द के बड़े तथा पकौड़े शाकाहारियों के मांस के प्रतिनिधिस्वरूप आहारद्रव्य हैं। वसा प्राणिज स्नेह है। गौड शब्द से गुड़ से बने भोज्य पदार्थ या मद्य का ग्रहण किया जाता है। प्रवेणी–रंगीन ऊनी वस्त्र। कौचव–रांकव वस्त्रभेद। पाठभेद के अनुसार कुथक-'कुथ' का अर्थ अमरकोश में 'कुश' दिया है। इसके कुशासन बनते हैं। ये बिछाये जाते हैं। धान के पुआल का गद्दा गरीबों का उत्तम बिस्तर है, किन्तु श्रीचक्रपाणि ने कुथक का अर्थ चित्रकम्बल किया है। इसी अर्थ में माघपण्डित ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है। देखें—'कुथेन नागेन्द्रमिवेन्द्रवाहनम्' (शिशुपालवध १।८) इसके अतिरिक्त श्रीअत्रिदेव तथा श्रीछांगाणीजी ने इसका अर्थ रुई का गद्दा किया है। यह अर्थ प्रसंगोचित होने पर भी विचारणीय है। मूल में 'कौचव' शब्द होने पर भी श्रीहेमाद्रि 'कुथक' का पर्याय कम्बल दे रहे हैं। अस्तु।

पीवरोरुस्तनश्रोण्यः समदाः प्रमदाः प्रियाः।
हरन्ति शीतमुष्णाङ्गयो धूपकुङ्कुमयौवनैः॥१५॥

शीतनाशक उपाय-पीन (स्थूल एवं पुष्ट ) ऊरु, स्तन तथा श्रोणिवाली यौवन तथा सुरा के मद से मदमाती हुई प्रिया, कुंकुम के लेप, अगुरु की धूप एवं यौवनमद के कारण उष्ण शरीर वाली नारियाँ (भोग्या स्त्रियाँ) शीत को हर लेती हैं।। १५ ।।

अङ्गारतापसन्तप्तगर्भभूवेश्मचारिणः।
शीतपारुष्यजनितो न दोषो जातु जायते॥१६॥

निवास-विधि-जलते हुए अंगारों से तपे हुए मकान के निचले तल में निर्मित कमरे में (जहाँ बाहर बहने वाली शीतल हवा का प्रवेश न हो) अथवा गर्भभूवेश्म (घर के भीतर बनी हुई गुफा ) में निवास करने वाले नर-नारियों को शीत के कारण उत्पन्न होने वाली परुषता सम्बन्धी कोई विकार कभी नहीं होता। अतः इन दिनों उक्त प्रकार के घर में निवास करे ।।१६।।

अयमेव विधिः कार्यः शिशिरेऽपि विशेषतः। तदा हि शीतमधिकं रौक्ष्यं चादानकालजम्॥१७॥

शिशिर ऋतुचर्या–हेमन्त ऋतु में कही गयी सभी विधियों का सेवन विशेष करके शिशिर ऋतु में भी करना चाहिए। विशेषता यह है कि इस ऋतु में हेमन्त ऋतु की अपेक्षा शीत अधिक पड़ने लगता है, क्योंकि इस ऋतु में आदानकाल का प्रारम्भ हो जाता है। अतः इसमें रूक्षता आने लगती है।। १७ ।।

वक्तव्य—इसमें आदानकाल के प्रारम्भ होने के कारण जो रूक्षता होने लग जाती है, उसकी शान्ति के लिए अभ्यंग का सेवन तथा स्निग्ध आहारों का सेवन करना चाहिए। संक्षेप में यही 'शिशिर ऋतुचर्या' है। तन्त्रकार का सूत्र रूप में सामान्य-विशेष विधि से वर्णन का प्रकार सर्वत्र दिखलाई देता है।

कफश्चितो हि शिशिरे वसन्तेऽर्कीशुतापितः।
हत्वाऽग्निं कुरुते रोगानतस्तं त्वरया जयेत् ।। १८॥
तीक्ष्णैर्वमननस्याद्यैर्लघुरूक्षैश्च भोजनैः।
व्यायामोद्वर्तनाघातैर्जित्वा श्लेष्माणमुल्बणम् ॥ १९ ॥
स्नातोऽनुलिप्तः कर्पूरचन्दनागुरुकुङ्कुमैः।
पुराणयवगोधूमक्षौद्रजाङ्गलशूल्यभुक्॥२०॥
सहकाररसोन्मिश्रानास्वाद्य प्रिययाऽर्पितान्।
प्रियास्यसङ्गसुरभीन् प्रियानेत्रोत्पलाङ्कितान्॥
सौमनस्यकृतो हृद्यान्वयस्यैः सहितः पिबेत्।
निर्गदानासवारिष्टसीधुमार्दीकमाधवान् ॥२२॥
शृङ्गबेराम्बु साराम्बु मध्वम्बु जलदाम्बु च।

वसन्त ऋतुचर्या–शिशिर ऋतु में शीत की अधिकता के कारण स्वाभाविक रूप से कफदोष का संचय हो जाता है। वह कफदोष वसन्त ऋतु में सूर्य की किरणों से सन्तप्त होकर पिघलने लगता है, जिसके कारण पाचकाग्नि मन्द पड़ कर अनेक प्रकार के (प्रतिश्याय आदि ) रोगों को उत्पन्न कर देता है, अतः इस ऋतु में उस कफदोष को शीघ्र निकालने का प्रयत्न करे। (वमन तथा रूक्ष नस्यों के प्रयोग से इसका निर्हरण करे। ) अन्यत्र कहा भी है—'हेमन्ते चीयते श्लेष्मा वसन्ते च प्रकुप्यति'। यहाँ हेमन्त शब्द के साहचर्य से शिशिर ऋतु का भी ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि दोनों की ऋतुचर्या प्रायः समान है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि हेमन्त-शिशिर ऋतु में संचित कफदोष का प्रकोप वसन्त ऋतु में होता है।) इसलिए कफदोष को निकालने के लिए तीक्ष्ण वमनकारक द्रव्यों द्वारा वमन करायें और तीक्ष्ण एवं रूक्ष औषधों का प्रतिदिन नस्य लें। लघु ( शीघ्र पचने वाले ) तथा रूक्ष (स्नेहरहित ) भोजन करे। व्यायाम, उबटन, आघात ( दण्ड-बैठक ) का प्रयोग करें और कराये, जिससे बढ़ा हुआ कफदोष शान्त हो जाय (अन्यत्र इस ऋतुचर्या में धूमपान, कवलग्रह का भी विधान है)। उसके बाद स्नान करे; फिर कपूर, अगरु, चन्दन, कुंकुम का शरीर में अनुलेप लगाये ( तिलक करे )। भोजन में पुराने जौ, गेहूँ की रोटी आदि बनाकर खाये, मधु का सेवन करे, जांगल देश के प्राणियों के मांस के बड़े बनवाकर खायें, जो लोहे की शलाका में पिरोकर पकाये जाते हैं, अतएव इन्हें 'शूल्य' कहा जाता है।

पान-विधि—पके हुए आम का रस निकाल कर, जिसे पहले प्रियतमा ने चखकर अपने प्रियतम को दिया हो, प्रिया के मुख की गन्ध से सुरभित, जिस पर प्रिया के नयनकमलों की छाया पड़ रही हो, जो मन को प्रिय लगने वाला हो, हृदय को शक्ति देने वाला हो; ऐसे आम के रस का मित्रमण्डली के साथ पान करे। (ध्यान रहे, इन मित्रों के साथ-साथ पत्नी भी अवश्य रहे, नहीं तो 'प्रियानेत्रोत्पलाङ्कितान्' यह विशेषेण व्यर्थ हो जायेगा)। दोषरहित आसव, अरिष्ट, सीधु, मुनक्का द्वारा निर्मित सुरा तथा महुआ के आसव का सेवन भी मित्रों के साथ बैठकर उचित मात्रा में करे। अदरख का पानी, विजयसार तथा चन्दन का जल, मधुमिश्रित जल और नागरमोथा का क्वथित जल इनका भी सेवन करे ।। १५-२२ ।।

वक्तव्य-ऊपर जो विस्तृत खान-पान व्यवस्था बतलायी है, इसका उद्देश्य यह है कि जिसे जो रुचिकर तथा प्रिय हो उसका वह सेवन करे। अदरख का पानी आदि सभी का क्वाथ कर लें, मध्वम्बु को केवल जल में घोलकर लें। यहाँ तक वसन्त ऋतु की प्रात:कालीन चर्या का वर्णन कर दिया गया है।

दक्षिणानिलशीतेषु परितो जलवाहिषु ॥२३॥
अदृष्टनष्टसूर्येषु मणिकुट्टिमकान्तिषु ।
परपुष्टविघुष्टेषु कामकर्मान्तभूमिषु ॥२४॥
विचित्रपुष्पवृक्षेषु काननेषु सुगन्धिषु।
गोष्ठीकथाभिश्चित्राभिर्मध्याह्नं गमयेत्सुखी ॥२५॥

मध्याह्नचर्या—जो घने वन दक्षिण दिशा की वायु अर्थात् मलयज पवन से शीतल तथा सुगन्धित हों, जहाँ चारों ओर जलप्रवाह हो रहा हो, जहाँ सूर्य का प्रकाश थोड़ा पड़ रहा हो या वन के घने होने से न हो रहा हो, जहाँ हीरे-मरकत आदि के फर्श बने हों; इनकी कान्ति से युक्त वनों में, जहाँ कोयलें कूक रही हों, सहवास करने योग्य स्थानों में, जहाँ विविध प्रकार के सुगन्धित फूलों वाले वृक्ष हों, ऐसे वनों ( उद्यानों) में सुख चाहने वाला पुरुष मित्रमण्डली की कथा-सुभाषित युक्त सभाओं द्वारा मध्याह्नकाल को बिताये।। २३-२५।।

गुरुशीतदिवास्वप्नस्निग्धाम्लमधुरांस्त्यजेत्।

वसन्त ऋतु में अपथ्य--इस ऋतु में गुरु ( देर से पचने वाले भक्ष्य पदार्थ ), शीतल पदार्थ, दिन में सोना, स्निग्ध (घी-तेल से बने हुए खाद्य ) पदार्थों, अम्ल तथा मधुर रस-प्रधान पदार्थों का सेवन न करें, क्योंकि ये सभी कफवर्धक होते हैं।

तीक्ष्णांशुरतितीक्ष्णांशुर्णीष्मे सङ्क्षिपतीव यत् । २६ ॥
प्रत्यहं क्षीयते श्लेष्मा तेन वायुश्च वर्धते ।
अतोऽस्मिन्पटुकट्वम्लव्यायामार्ककरांस्त्यजेत् ॥२७॥

ग्रीष्म ऋतुचर्या-ग्रीष्म ऋतु में तीक्ष्णांशु (सूर्य) अपनी तेज किरणों से संसार के जलीय तत्त्व को सुखा देता है। ( यहाँ एक दूसरा पाठभेद इस प्रकार मिलता है—'स्नेहमर्कोऽतितीक्ष्णांशुः'। यह पाठ अधिक स्पष्ट है, इससे भी चरकोक्त यह पाठ अधिक स्पष्ट है—'मयूखैर्जगतः स्नेहं ग्रीष्मे पेपीयते रविः'। (च.सू. ६।२७) जिसके कारण शरीरस्थित जलीय अंश कफधातु का भी क्षय होने लगता है, फलतः वातदोष की वृद्धि होती जाती है। इसलिए इस ऋतु में लवण, कटु तथा अम्ल रस-प्रधान पदार्थों का, व्यायाम एवं धूप (घाम ) का सेवन करना छोड़ दें।।२६-२७।।

भजेन्मधुरमेवान्नं लघु स्निग्धं हिमं द्रवम् ।

सेवनीय पदार्थ—इस ऋतु में अधिक मधुर आहारों का सेवन करे तथा लघु ( शीघ्र पच जाने वाले ), स्निग्ध (घी-तेल से बने हुए ) पदार्थों, शीतल एवं पेयों का सेवन करे।

वक्तव्य—घी-तेल से बने पदार्थ गुरु होते हैं, अत: 'गुरूणामर्धसौहित्यम्' अर्थात् गुरु पदार्थों को भरपेट न खाकर आधा ही खाना चाहिए, यह शास्त्र की आज्ञा है; नहीं तो पाठकों को सन्देह होगा कि ऊपर पहले लघु (सुपच ) कहा है, फिर आगे स्निग्ध ?

सुशीततोयसिक्ताङ्गो लिह्यासक्तून् सर्शकरान् ॥२८॥

सत्तू-सेवनविधि—अत्यन्त शीतल जल ( यह स्वभावशीतल जल पर्वतीय प्रदेशों में सुलभ होता है, कृत्रिम शीतल जल सर्वत्र मिल सकता है, किन्तु गुणवत्ता की दृष्टि से वह निकृष्ट होता है। देखें—'हिमवत्प्रभवाः पथ्याः पुण्या देवर्षिसेविताः'। च.सू. २७।२०९ ) से स्नान करे, चीनी मिलाकर सत्तुओं को चाटे। (चाटने योग्य बनाने के लिए उसमें शीतल जल मिला लें।।। २८ ।।

मद्यं न पेयं, पेयं वा स्वल्पं, सुबहुवारि वा।

मद्य-सेवनविधि—इन दिनों मद्यपान न करे, यदि पीना ही हो तो थोड़ा पीयें अथवा उसमें बहुत-सा जल मिलाकर पीयें। इतना भी वे पीयें जिन्हें यह अनुकूल पड़ता हो।

अन्यथा शोषशैथिल्यदाहमोहान् करोति तत् ॥२९॥

मद्यपान का निषेध—शास्त्रीय आज्ञा के विरुद्ध किया हुआ मद्यपान शोष (क्षय ), पाठभेद के अनुसार शोफ = सूजन, शैथिल्य (शिथिलता = अंगों में ढीलापन ), दाह (जलन), बेहोशी आदि विकारों को उत्पन्न कर देता है।। २९ ।।

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