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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


कुन्देन्दुधवलं शालिमश्नीयाज्जाङ्गलैः पलैः ।

भोजन-विधान—कुन्द ( चमेली का एक भेद 'मोतिया' ) के समान सफेद तथा इन्दु (चन्द्रमा) के समान शीतल ( शीतवीर्य ) शालिचावलों के भात को तीतर, बटेर आदि जांगलदेशीय प्राणियों के मांसरस के साथ खाये।

पिबेदसं नातिघनं रसाला रागखाण्डवौ।। ३०॥
पानकं पञ्चसारं वा नवमृदाजने स्थितम्।
मोचचोचदलैर्युक्तं साम्लं मृन्मयशुक्तिभिः ।। ३१॥
पाटलावासितं चाम्भः सकर्पूरं सुशीतलम् ।

पेय-विधान—अधिक गाढ़े मांसरस का सेवन न करे। रसाला, राग (रायता), खाण्डव (खट्टे, मधुर, नमकीन रसों के घोल) का पान करे। पञ्चसार का सेवन करे, जो नये मिट्टी के पात्र में बनाया गया हो; इस पात्र की सोंधी गन्ध भी उसमें आ जाती है, उसे शीतल करने के लिए कुछ देर केले अथवा महुए के पत्तों से ढककर रखे हुए पन्ना या शर्बत को पीयें, जिसमें कुछ खटाई भी मिलायी गयी हो। इसे पीने के लिए मिट्टी का पुरवा या कुल्हड़ या कसोरा होना चाहिए। पीने से पहले इसे पाढ़ल के फूलों तथा कपूर से सुगन्धित कर लेना चाहिए।। ३०-३१ ।।

वक्तव्य-इस प्रकरण में आये हुए भक्ष्य, भोज्य, पेय आदि पदार्थों का निर्माण-प्रकार भावप्रकाश के कृतान्नवर्ग में या पूर्ववर्ती संहिताग्रन्थों में देख लेना चाहिए।

पञ्चसार—इसका उल्लेख अ.ह.चि. २।१३ में इस प्रकार दिया है—मधु, खजूर, मुनक्का, फालसा, मिश्री तथा जल—इन पाँचों को मिलाकर बनाये गये मन्थ का दूसरा नाम ‘पञ्चसार' है।

शशाङ्ककिरणान् भक्ष्यान् रजन्यां भक्षयन् पिबेत् ॥ ३२॥
ससितं माहिषं क्षीरं चन्द्रनक्षत्रशीतलम्।

रात्रि में दुग्धपान-विधि—शशांककिरण नामक भोजनों का सेवन करते हुए चन्द्रमा तथा तारों द्वारा शीतल किया गया और मिश्री मिले हुए भैंस के दूध को पीये।।३२ ।।

वक्तव्य-शशांककिरण नामक भोजन का परिचय–'तालीसचूर्णबटकाः सकर्पूरसितोपलाः । शशाङ्ककिरणाख्याश्च भक्ष्या रुचिकराः परम्' (अ.ह.चि. ५।४९ )।

अभ्रङ्कषमहाशालतालरुद्धोष्णरश्मिषु ॥३३॥
वनेषु माधवीश्लिष्टद्राक्षास्तबकशालिषु।

मध्याह्नचर्या—दोपहर के समय धूप में पीड़ित मानव आकाश को छूने वाले अर्थात् बहुत ऊँचे बड़े-बडे शाल, ताल, तमाल वृक्षों से जहाँ सूर्य की किरणें छिप गयी हों तथा माधवीलताओं से परिवेष्टित, अंगूरों के गुच्छों से युक्त उपवनों में शयन या आराम करें।। ३३ ।।

वक्तव्य—यद्यपि इसी प्रकरण के ३६वें पद्य में 'स्वप्यात्' क्रिया का समावेश है, जिसका अध्याहार यहाँ भी कर लिया गया है।

सुगन्धिहिमपानीयसिच्यमानपटालिके ॥३४॥
कायमाने चिते चूतप्रवालफललुम्बिभिः।

शयन-विधान—सुगन्धित एवं शीतल जल से बार-बार सींचे गये पटालिकाओं ( परदों) वाले आमों के कोमल पत्तों एवं फलों की बन्दनवारों से सुसज्जित, कायमान (जो ऊँचाई तथा चौड़ाई में निवास करने के इच्छुक नर-नारी के शरीर के नापवाले घर में तथा उसमें बिछे हुए विस्तर ) में सोयें।।३४।।

वक्तव्य—कायमाने' शब्द की यहाँ जो उपयोगिता है और जो उसका शाब्दिक अर्थ है, ऊपर लिखा है। देखें—वी.एस. आप्टे कोश । श्री अरुणदत्त ने ‘कायमाने' शब्द का 'वेण्वादिनिष्पादिते गृहविशेषे'  यह जो अर्थ किया है, इस अर्थ को अभिव्यक्त करने की इसमें कितनी शक्ति है, इस पर विचार करना होगा। गर्मियों में बाँस के सहारे सरपत, घास-फूस के घर बनाये जाते हैं, पर उन्हें 'कायमान' संज्ञा कब किसने दी, यह विचारणीय है।

कदलीदलकलारमृणालकमलोत्पलैः ॥३५॥
कोमलैः कल्पिते तल्पे हसत्कुसुमपल्लवे।
मध्यन्दिनेऽर्कतापातः स्वप्याद्धारागृहेऽथवा ॥३६॥
पुस्तस्त्रीस्तनहस्तास्यप्रवृत्तोशीरवारिणि

शयन-विधान केले के पत्तों, सुगन्धित कह्लारों (कमलभेदों), मृणालों (कमलकन्द = बिसों), कमलों, नीलकमलों से निर्मित तथा खिले हुए फूलों एवं मुलायम पत्तों से युक्त कोमल शयन = शय्या पर दोपहर की गर्मी से पीड़ित पुरुष सोए ( यही चर्या स्त्रियों के लिए भी है) अथवा धारागृह के समीप शयन वह हमने करे। जिस घर में शिल्पियों द्वारा स्त्री की आकृति की पुतलियाँ बनायी हों, उसके स्तनों, हाथों तथा मुख पर रखे गये खस से सुगन्धित जल बह रहा हो, तो ऐसे स्थान पर शयन करे ।। ३५-३६ ।।

वक्तव्य—श्रीमानों के घरों की साज-सज्जा में 'पुरुष-स्त्री' के जैसे अनेक प्रकार के चित्र किंवा मूर्तियाँ उनके शो नागृह में अथवा उद्यानों में देखी जाती हैं। यह भी विहार का एक प्राचीन प्रकार रहा है। फूलों तथा किसलयों की शय्या रचाने का प्रकार भी प्राचीन ही है।

निशाकरकराकीर्णे सोधपृष्ठे निशासु च ॥३७॥

आसना-
रात्रिचर्या—रात के समय चूना पुते हुए महल (सौंध ) की छत पर, जहाँ चन्द्रमा की चाँदनी छिटकी हो, वहाँ बैठना या लेटना चाहिए ।। ३७।।

-स्वस्थचित्तस्य चन्दनार्द्रस्य मालिनः।
निवृत्तकामतन्त्रस्य सुसूक्ष्मतनुवाससः॥३८॥
जलार्द्रास्तालवृन्तानि विस्तृताः पद्मिनीपुटाः।
उत्क्षेपाश्च मृदूत्क्षेपा जलवर्षिहिमानिलाः॥
कर्पूरमल्लिकामाला हाराः सहरिचन्दनाः।
मनोहरकलालापाः शिशवः सारिकाः शुकाः॥
मृणालवलयाः कान्ताः प्रोत्फुल्लकमलोज्ज्वलाः।
जङ्गमा इव पद्मिन्यो हरन्ति दयिताः क्लमम् ॥

मनोहर वातावरण—इन दिनों चित्त को स्वस्थ बनाये रखें, चन्दन के लेप से शरीर को गीला करें, फूलों एवं रत्नों की माला को धारण करें, स्त्री-सहवास न करें, पतले एवं हलके वस्त्रों को धारण करें। पानी में भिगोये हुए ताड़ के पंखों की हवा का सेवन करें या कमल के पत्तों की हवा का सेवन करें या मोरपंखों की हवा ले, जो धीरे-धीरे हिलाये जा रहे हों; इन सभी प्रकार के पंखों से शीतल जल की बूंदें गिर रही हों तथा शीतल हवा आ रही हो, कपूर के घोल से सुवासित स्फटिक की मालाओं को धारण करे; इसी को मल्लिकामाला कहा गया है। हरिचन्दन से सुवासित मोतियों की मालाएँ धारण करें। चारों ओर तुतली वाणी बोलने वाले शिशु (बालक-बालिकाएँ) खेल रहे हों, सुग्गे (तोते तथा मैनाएँ कलरव कर रही हों, कमलनाल के कंकण धारण की हुई तथा खिले हुए कमलों के समान उज्ज्वल मुखों वाली चलती-फिरती हुई कमलिनियों के सदृश नारियाँ ग्रीष्मकालजनित सुस्ती को दूर कर देती हैं ।। ३८-४१ ।।

वक्तव्य-सम्पूर्ण ग्रीष्म ऋतु के वर्णन का सारांश यह है कि इन दिनों सभी प्रकार के आहार-विहार शीतल, सुगन्धित एवं मनोहर होने चाहिए। कालिदास ने इन दिनों को ‘परिणामरमणीया दिवसाः' कहा है अर्थात् सायंकाल का समय ही इन दिनों सुहावना लगता है। इस वर्णन को देखकर यह विश्वास होता है कि हमारे पूर्वज बहुत ही सम्पन्न एवं रसिक थे, अन्यथा इस प्रकार चित्रण करना और ऐसे साधन जुटा पाना वाणी से भी अगम ही होते हैं।

आदानग्लानवपुषामग्निः सन्नोऽपि सीदति ।
वर्षासु दोषैर्दुष्यन्ति तेऽम्बुलम्बाम्बुदेऽम्बरे ।। ४२ ॥
सतुषारेण मरुता सहसा शीतलेन च।
भूबाष्पेणाम्लपाकेन मलिनेन च वारिणा ॥४३॥
वह्निनैव च मन्देन, तेष्वित्यन्योऽन्यदूषिषु।
भजेत्साधारणं सर्वमूष्मणस्तेजनं च यत् ॥४४॥

वर्षाऋतुचर्या—आदानकाल ( शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म ) के प्रभाव से दुर्बल शरीर वाले प्राणियों की पहले से ही मन्द हुई अग्नि (जठराग्नि ) इस (प्रावृट् एवं वर्षा ) ऋतु में वात आदि दोषों से और भी अधिक मन्द पड़ जाती है, क्योंकि उक्त वे दोष जल के भार से लटकते हुए बादलों द्वारा आकाश में छाये रहने पर तुषार युक्त अतएव शीतल वायु के स्पर्श से, पृथिवी में से निकलने वाली भाप के प्रभाव से, आहार के अम्लविपाक वाले होने से, इस काल में होने वाले मैले जल के प्रयोग से तथा जठराग्नि के मन्द पड़  जाने से (वे दोष ) कुपित होकर आपस में एक-दूसरे को दूषित करने लगते हैं। ऐसी स्थिति हो जाने पर साधारण आहार-विहार, जो वात आदि दोषों का शमन करने वाला हो, साथ ही जठराग्निवर्धक हो, उसका सेवन करे।। ४२-४४।।

आस्थापनं शुद्धतनुर्जीर्णं धान्यं रसान् कृतान्।
जाङ्गलं पिशितं यूषान् मध्वरिष्टं चिरन्तनम् ।।
मस्तु सौवर्चलाढ्यं वा पञ्चकोलावचूर्णितम्।
दिव्यं कौपं शृतं चाम्भो भोजनं त्वतिदुर्दिने॥४६॥
व्यक्ताम्ललवणस्नेहं संशुष्कं क्षौद्रवल्लघु।

शरीर-शुद्धि—इस ऋतु के आरम्भ में वमन-विरेचन क्रियाओं द्वारा शरीरगत संचित दोषों का शोधन करके आस्थापन (निरूहण ) बस्ति का सेवन करे। साधारण आहार—पहले खाये हुए भोजन के भलीभाँति पच जाने पर आगे निम्नोक्त पदार्थों का इन दिनों सेवन करें—पुराने जौ एवं गेहूँ आदि सुपच पदार्थों को खायें, अच्छी प्रकार पकाये गये तथा छौंके हुए मांसरस, हरिण आदि जांगलदेशीय प्राणियों का मांस, मूंग आदि दालों का जूस, पुराना मधु, पुराने आसव, अरिष्ट, मस्तु, सौवर्चल ( कालानमक ) युक्त अथवा पञ्चकोल (पिप्पली, पीपलामूल, चव्य, चीता, नागरमोथा ) के चूर्ण को मिलाकर उक्त मांसों, मांसरसों, जूसों तथा आसवों का सेवन करें।

जल-इन दिनों वर्षा का स्वच्छ जल (जो आकाश से बरसते समय स्वच्छ पात्र में संग्रह किया हो), कुआँ का जल अथवा पकाकर शीतल किये हुए जल का सेवन करें।
दुर्दिन में—जिस दिन आकाश में अत्यन्त बादल छायें हों, उस दिन पर्याप्त मात्रा में खट्टे रस वाले पदार्थों, नमकीन पदार्थों तथा स्निग्ध पदार्थों के साथ सूखा चबैना का सेवन करे। ये पदार्थ लघु होते हैं, अत: शीघ्र पच जाते हैं।। ४५-४६।।

अपादचारी सुरभिः सततं धूपिताम्बरः।। ४७॥
हर्म्यपृष्ठे वसेद्वाष्पशीतशीकरवर्जिते।

सेवनीय विहार-इन दिनों नंगे पैरों से गीली भूमि में तथा कीचड़ में नहीं चलना चाहिए। इत्र आदि सुगन्धिन पदार्थों का प्रयोग करता रहे, वस्त्रों में अगुरु आदि की धूप देता रहे। छत के ऊपर चारों ओर से खुले कमरे में निवास करे, जहाँ पृथिवी से निकलने वाली भाप न हो, सर्दी न हो तथा वर्षा की बौछारें न पहुँचती हों।। ४७ ।।

वक्तव्य—'हर्म्यपृष्ठे'–हर्म्य का अर्थ है राजाओं या श्रीमानों अथवा धनिकों का निवासगृह, उसका 'पृष्ठ' अर्थात् ऊपरी भाग, जिसे संस्कृत में 'अट्ट' एवं हिन्दी में 'अट्टालिका' कहते हैं। यह अट्ट' या 'अट्टालिका' हवादार कमरा होता है। श्रीवाग्भट ने इसी को ‘हर्म्यपृष्ठे' स्वीकारा है।

नदीजलोदमन्थाहःस्वप्नायासातपांस्त्यजेत् ॥४८॥

त्याज्य विहार—इन दिनों नदी या नद के जलों तथा पतला मठा या छाँछ को न पीयें। सत्तू का सेवन न करें, दिन में न सोयें, अधिक परिश्रम न करें और धूप (घाम ) का सेवन न करें।। ४८ ।।

वक्तव्य-वर्षा ऋतु में नदीजल का सामान्य रूप से निषेध किया गया है। इसकी विशेष जानकारी के लिए आप प्राचीन संहिताओं एवं परवर्ती निधण्टु-ग्रन्थों का अवलोकन कीजिये। भावप्रकाश-निघण्टु वारिवर्ग ३२-३६ के अनन्तर भावमिश्र ने उसी प्रकरण में वृद्धसुश्रुत के वचनों को उद्धृत किया है उन्हें भी देखें—६५-६७ । 'वर्षानादेयमुदकानाम्' (च.सू. २५।३९)।

'अनूपोऽहितदेशानाम्' (च.सू. २५।४० )-चरक ने अहितकर देशों में अनूप देश की गणना की है। ध्यान रहे, वर्षा ऋतु में जाङ्गल देश तथा साधारण देश भी अनूपदेश का रूप धारण कर लेते हैं, अतः इन दिनों अत्यन्त सावधानी से रहकर अपने स्वास्थ्य को सुरक्षित रखें। पहले तो कभी भी नंगे पैरों नहीं चलना चाहिए, फिर इन दिनों तो जूता पहनकर चले या सवारी से भ्रमण करें, अन्यथा 'अलस' नामक पादरोग हो सकता है। देखें—सु.नि. १३॥३२॥

वर्षाशीतोचिताङ्गानां सहसैवार्करश्मिभिः।
तप्तानां सञ्चितं वृष्टौ पित्तं शरदि कुप्यति ॥४९ ।।
तज्जयाय घृतं तिक्तं विरेको रक्तमोक्षणम् ।

शरद्-ऋतुचर्या वर्षा ऋतु में पानी से भीगे हुए अतएव शीततायुक्त प्राणियों के शरीरों में पित्त का संचय क्रमशः होता रहता है। उसके बाद शरद् ऋतु के आ जाने पर एकाएक सूर्य की तेज किरणों द्वारा तपे हुए प्राणियों के शरीरों में वर्षाकाल में संचित हुआ पित्त इस समय कुपित हो जाता है। उस पर विजय पाने के लिए अर्थात् वह किसी प्रकार के पित्तजनित विकारों को पैदा न कर दें, इसके लिए तिक्तघृत का सेवन, विरेचन तथा रक्तमोक्षण कराना चाहिए ।। ४९ ।।

वक्तव्य-अ.हृ.चि. १९ में वर्णित तिक्तघृत अथवा महातिक्तघृत का सेवन करायें। चिकित्सक की अनुमति से विरेचन तथा रक्तमोक्षण भी करायें।

तिक्तं स्वादु कषायं च क्षुधितोऽन्नं भजेल्लघु ॥५०॥
शालिमुद्गसिताधात्रीपटोलमधुजाङ्गलम्

आहार-विधि—तिक्त, मधुर तथा कसैले रस-प्रधान पदार्थों को आहारकाल में भूख लगने पर थोड़ी मात्रा में खायें। शालि के चावल, मूंग, मिश्री या खाँड़, आँवला, परवल, मधु तथा जांगल प्राणियों के मांस या मांसरस का सेवन करें।। ५०।।

तप्तं तप्तांशुकिरणैः शीतं शीतांशुरश्मिभिः॥५१॥
समन्तादप्यहोरात्रमगस्त्योदयनिर्विषम्।
शुचि हंसोदकं नाम निर्मलं मलजिज्जलम् ॥५२॥
नाभिष्यन्दि न वा रूक्षं पानादिष्वमृतोपमम् ।

हंसोदकसेवन-निर्देश—दिन में स्वाभाविक रूप से सूर्य की किरणों से तपा हुआ और रात्रि में चन्द्रमा की किरणों से शीतल अर्थात् सूर्य एवं चन्द्र की किरणों से सुसेवित तथा अगस्त्य तारा के उदय हो जाने से निर्विष (दोषरहित ) अतएव पवित्र, निर्मल एवं दोषनाशक जल को 'हंसोदक' कहते हैं। यह जल अभिष्यन्दकारक नहीं होता और न रूक्ष ही होता है। यह अमृत के समान गुणों वाला जल पीने योग्य होता है।।५१-५२॥

वक्तव्य—'वर्षासु चीयते पित्तं शरत्काले प्रकुप्यति'। 'हंसोदक' को ही भावमिश्र ने 'अंशूदक' कहा है। इसका वर्णन भा.प्र.वारिवर्ग ६२-६३ में देखें।

चन्दनोशीरकर्पूरमुक्तास्रग्वसनोज्ज्वलः ॥५३॥
सौधेषु सौधधवलां चन्द्रिका रजनीमुखे ।

विहार-विधि-रजनीमुख (रात्रि होने के बाद एक-दो घण्टा तक आरम्भ ) में चन्दन, खस तथा कपूर का लेप लगाकर ( इन द्रव्यों का अलग-अलग या एक साथ भी लेप बनाया जा सकता है), मोतियों की माला धारण कर, साफ-सुथरे वस्त्र पहन कर, चूना से पुते हुए भवन की ऊपरी छत पर बैठकर चूना के सदृश उज्ज्वल चाँदनी का सेवन करें।॥५३ ।।

वक्तव्य—सायंकाल छत में बैठकर चाँदनी का सेवन करें। यह लाभ पूर्णिमा के आस-पास की कुछ ही रात्रियों में मिल सकता है, शेष दिनों सायंकालीन हवा का सेवन करें। 'रजनीमुखे' शब्द का तात्पर्य है कि रात होते ही एक-दो घण्टा तक छत पर बैठने का सुख लिया जा सकता है, उसके बाद ओस गिरने लगती है। यह हानिकारक होती है, इसका सेवन न करें।

तुषारक्षारसौहित्यदधितैलवसातपान् ॥५४॥
तीक्ष्णमद्यदिवास्वप्नपुरोवातान् परित्यजेत् ।

अपथ्य-निषेध—इस ऋतु में निम्नलिखित दस वस्तुओं का सेवन न करें, ये अपथ्य होते हैं—१. ओस, २. क्षार पदार्थ, ३. भरपेट भोजन करना, ४. दही, ५. तेल, ६. वसा (प्राणिज स्नेह के द्वारा पकाये गये पदार्थ), ७. तेजधूप ( घाम), ८. तीक्ष्ण मद्य, ९. दिन में सोना तथा १०. पूरब की ओर से बहने वाली वायु ।।५४।।

शीते वर्षासु चाद्यांस्त्रीन् वसन्तेऽन्त्यान् रसान्भजेत् ॥५५॥
स्वादुं निदाघे, शरदि स्वादुतिक्तकषायकान्।
शरद्वसन्तयो रूक्षं शीतं धर्मघनान्तयोः॥५६॥
अन्नपानं समासेन विपरीतमतोऽन्यदा।

संक्षिप्त ऋतुचर्या—विस्तार से कही गई ऋतुचर्या का अब यहाँ संक्षेप से वर्णन किया जा रहा है। शीतकाल (हेमन्त तथा शिशिर ऋतु) में और वर्षा ऋतु में आरम्भ के तीन (मधुर, अम्ल, लवण) रसों का सेवन करे। वसन्त ऋतु में अन्तिम तीन ( तिक्त, कटु, कषाय ) रसों का सेवन करें। ग्रीष्म ऋतु में विशेष करके मधुररस का सेवन करे। शरद् ऋतु में मधुर, तिक्त, कषाय रसों का सेवन करें। शरद् तथा वसन्त ऋतुओं में रूक्ष अन्न (आहार ) तथा पेय लें। ग्रीष्म एवं घनान्त ( शरद् ) ऋतुओं में शीतगुण-प्रधान अन्न-पान का सेवन करें और हेमन्त, शिशिर, वर्षा ऋतुओं में उक्त (रूक्ष, शीत ) के विपरीत स्निग्ध एवं उष्ण अन्नपान का सेवन करना चाहिए ।। ५५-५६ ।।

वक्तव्य-श्री अरुणदत्त अपनी व्याख्या में 'अन्यदा' का अर्थ 'हेमन्तशिशिरवसन्तवर्षाख्ये काले' करते हैं, श्रीहेमाद्रि यहाँ मौन है। अन्य टीकाकार ‘अन्यदा' शब्द से हेमन्त, शिशिर एवं वर्षा ऋतुओं का ग्रहण करते हैं। ध्यान दें—वर्षाकाल में जब वर्षा होती है तो मौसम उतनी देर या उतने दिनों तक शीतल हो जाता है, तब शीतकाल के समान इसके विपरीत जब वर्षा न हो और गर्मी पड़ रही हो तब ग्रीष्म या शरद् ऋतु के समान अन्नों (आहारों) तथा रसों का सेवन करना चाहिए।

ज्यौतिष सम्मत ऋतुक्रम

क्रम. राशि
मास
ऋतु
२.
३.
मीन, मेष
वृष, मिथुन
कर्क, सिंह
चैत्र, वैशाख
ज्येष्ठ, आषाढ़
श्रावण, भाद्रपद
आश्विन, कार्तिक
मार्गशीर्ष, पौष
माघ, फाल्गुन
वसन्त
ग्रीष्म
वर्षा
शरत्
हेमन्त
शिशिर
४.
५.
कन्या, तुला
वृश्चिक, धनु
मकर, कुम्भ
६.
संशोधनोपयोगी ऋतुक्रम
क्रम.
राशि
मास
मेष, वृष
१.
२.
मिथुन, कर्क
ऋतु
ग्रीष्म
प्रावृट्
वर्षा
शरत्
हेमन्त
वैशाख, ज्येष्ठ
आषाढ़, श्रावण
भाद्रपद, आश्विन
कार्तिक, मार्गशीर्ष
सिंह, कन्या
४.
तुला, वृश्चिक
धनु, मकर
कुम्भ, मीन
पौष, माघ
६.
फाल्गुन, चैत्र
वसन्त
५२
अष्टाङ्गहृदये
वातादि दोषों की चय-प्रकोप-प्रशम तालिका
दोष
वात
पित्त
कफ
संचय
वर्षा ऋतु
हेमन्त ऋतु
ग्रीष्म ऋतु
मेष, वृष
सिंह, कन्या
धनु, मकर
वैशाख, ज्येष्ठ
मध्याह्नकाल
पौष, माघ
भाद्रपद, आश्विन
दिन का चौथा पहर
उषःकाल
प्रकोप
शरद् ऋतु
वसन्त ऋतु
प्रावृट् ऋतु
मिथुन, कर्क
श्रावण
अपराह्नकाल
तुला, वृश्चिक
कुम्भ, मीन
फाल्गुन, चैत्र
आषाढ़,
कार्तिक, मार्गशीर्ष
अर्धरात्रिकाल
पूर्वाह्नकाल
प्रशम
वसन्त ऋतु
शरद् ऋतु
तुला, वृश्चिक
कार्तिक, मार्गशीर्ष
अर्धरात्रिकाल
कुम्भ, मीन
फाल्गुन, चैत्र
प्रावृट् ऋतु
मिथुन, कर्क
श्रावण
अपराहकाल
आषाढ़,
पूर्वाह्नकाल


नित्यं सर्वरसाभ्यासः स्वस्वाधिक्यमृतावृतौ ॥५७॥

रससेवन-निर्देश—सभी ऋतुओं में प्रतिदिन सभी (छहों ) रसों का सेवन करना चाहिए तथा जिस-जिस ऋतु में जिन-जिन रसों के सेवन का विशेष निर्देश दिया गया है, उस-उस ऋतु में उस-उस रस का अधिक सेवन करना चाहिए।।५७।।

वक्तव्य-ऊपर जो वाग्भट ने 'नित्यं सर्वरसाभ्यासः' कहा है, इसका समर्थन महर्षि चरक इस प्रकार कर रहे हैं—'सर्वरसाभ्यासो बलकराणाम्' तथा 'एकरसाभ्यासो दौर्बल्यकराणाम्'। (च.सू. २५।४० ) अर्थात् मधुर आदि छहों रसों का प्रतिदिन सेवन करने से देह तथा इन्द्रियों का बल बढ़ता है, इसके विपरीत आचरण करने से बलहानि होती है। आज की भाषा में ये सभी रस विटामिनों से भरपूर हैं और इनसे शरीर के उन आवश्यक तत्त्वों की पूर्ति होती है, जिनकी प्रतिदिन शरीर को आवश्यकता पड़ती रहती है।

ऋत्वोरन्त्यादिसप्ताहावृतुसन्धिरिति स्मृतः।
तत्र पूर्वो विधिस्त्याज्यः सेवनीयोऽपरः क्रमात् ॥
असात्म्यजा हि रोगाः स्युः सहसा त्यागशीलनात्।

इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने ऋतुचर्या नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥

ऋतुसन्धि में कर्तव्य-दो ऋतु के जोड़ को ऋतुसन्धि कहते हैं। प्रथम ऋतु का अन्तिम सप्ताह और आने वाली ऋतु का प्रथम सप्ताह अर्थात् यह पन्द्रह दिन का समय ऋतुसन्धि है। इसमें क्रमशः पहले ऋतु की चर्या को छोड़ते हुए अगले ऋतु की चर्या का अभ्यास करना प्रारम्भ कर देना चाहिए। यदि आप पहली ऋतुचर्या को सहसा छोडकर दूसरी ऋतुचर्या को सहसा प्रारम्भ कर देंगे तो इस व्यतिक्रम से असात्म्यजनित रोग हो सकते हैं।। ५८॥

वक्तव्य—शारीरिक सन्धियों की भाँति ऋतुसन्धियों का भी ध्यान रखना पड़ता है। महाकवि भारवि ने भी कहा है—'सहसा विदधीत न क्रियाम्' (किरात ) आप नियमानुसार दो महीनों से जिस ऋतु के अनुसार जिन खान-पानों का सेवन करते आ रहे हैं, यदि एकाएक उसे छोड़कर आप दूसरे खान-पानों का सेवन कर देंगे तो वे खान-पान आपको सात्म्य (अनुकूल ) नहीं होंगे। अतः प्रथम ऋतु के अन्तिम सप्ताह में पहले क्रम को छोड़ता हुआ आने वाली ऋतु के प्रथम सप्ताह तक अगली खान-पानविधि को व्यवस्थित कर लेना चाहिए। इसी प्रकार वस्त्रों के परिवर्तन पर भी ऋतुसन्धियों में ध्यान दें।

सात्म्य–'उपशय' अथवा 'सात्म्य' ये परस्पर पर्यायवाची शब्द हैं। जो आहार-विहार, वेश- -भूषा, देश जिस पुरुष को अनुकूल हो, वह उसके लिए सात्म्य कहा जाता है। महर्षि चरक ने सात्म्य का परिचय इस प्रकार दिया है—'सात्म्यं नाम "सात्म्यम् । (च.वि. ११२०) अर्थात् सात्म्य वह है जो अपने सर्वथा अनुकूल हो, इसी को 'उपशय' कहते हैं। वह प्रवर, अवर, मध्य भेद से तीन प्रकार का होता है। वह पुनः विधि-भेद से सात प्रकार का होता है। जैसे—मधुर आदि रसों के भेद से छ: प्रकार का और सभी रसों के योग से एक प्रकार का। इनमें सब रसों का सेवन 'प्रवरसात्म्य' है। केवल किसी एक रस का सेवन 'अवरसात्म्य' है। प्रवर तथा अवर के बीच वाले रस को 'मध्यसात्म्य' कहते हैं। इन अवर तथा मध्य सात्म्य को छोड़कर क्रमशः प्रवरसात्म्य का सेवन करे।

अन्यत्र चरक ने 'सात्म्य' की परिभाषा इस प्रकार दी है—'सात्म्यं नाम'.''भवन्ति' । (च.वि. ८।११८) अर्थात् 'सात्म्य' वह तत्त्व है जिसका लगातार सेवन करने से लाभ प्राप्त होता है। उसमें जो घी, दूध, तैल, मांस तथा मांसरस का सेवन करते हैं और सभी रसों के सेवन करने का जिन्हें अभ्यास है वे बलवान्, कष्टों को सहन करने की शक्ति वाले तथा दीर्घायु होते हैं और जो किसी एक रस का सेवन करते हैं, वे प्रायः थोड़े बलवाले, कष्टों को न सहने वाले, अल्पायु एवं निर्धन होते हैं। चरक ने एक ओकसात्म्य' की भी चर्चा की है। देखें—च.सू. ६।४५ में। यहाँ 'ओक' शब्द का अर्थ 'गंगाधर' के अनुसार औचित्य है, शेष इसका अर्थ 'घर रूपी शरीर' करते हैं।

ऊपर जो मास-ऋतु-अयन के रूप में कालविभाजन किया गया है, उस परिधि के अनुसार शीत, उष्ण तथा वर्षाकाल के स्वरूप में अन्तर आ सकता है। अतः चिकित्सा के क्षेत्र में यह अन्तर घातक हो सकता है। इसलिए जब शीत प्रारम्भ हो जाय तब हेमन्त-शिशिर की चर्या करनी चाहिए। इसी प्रकार गर्मी-बरसात के मौसमों के सम्बन्ध में भी समझें। जब सौरमास के अनुसार किसी ऋतु के लक्षण सम्पूर्ण रूप से परिलक्षित नहीं होते अथवा कम-ज्यादा दिखलाई दें, तो ये अशुभ लक्षण कहे जाते हैं। इससे जल, देश एवं काल में विकृति उत्पन्न हो जाती है; जिससे कोई-न-कोई रोग फैलने लगता है, जिसे सुश्रुत के शब्दों में ‘मरक' कहते हैं। देखें—सु.सू. ६।१७ तथा च.वि. ३।१-२३ तक में जनपदोद्ध्वंस का वर्णन।

इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में ऋतुचर्या नामक तीसरा अध्याय समाप्त ॥३।।

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