स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
नवमोऽध्यायः
अथातो द्रव्यादिविज्ञानीयमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः ।
अब हम यहाँ से द्रव्यादिविज्ञानीय अर्थात् द्रव्य, रस, गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव का वर्णन इस अध्याय में करेंगे। ऐसा प्राचीन आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
उपक्रम—इससे पहले अध्याय में अन्न-पान के उपयोगी द्रव्यों का सामान्य रूप से वर्णन तथा आहार-विधि का उपदेश किया गया था। अब इस अध्याय द्वारा द्रव्य और उसमें आश्रित रहने वाले रस, गुण, वीर्य, विपा प्रभाव का इसलिए वर्णन किया जायेगा कि इनकी परीक्षा करके ही अन्न-पान के उपयोग का उपदेश दिया जायेगा। अतएव प्रस्तुत अध्याय की उपस्थापना की जा रही है। संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–च.सू. २६; सु.सू. ४०-४१ तथा अ.सं.सू. १७ में देखें।
द्रव्यमेव रसादीनां श्रेष्ठं, ते हि तदाश्रयाः।
द्रव्य की प्रधानता-रस, गुण, वीर्य, विपाक एवं प्रभाव द्रव्य में रहने वाले इन धर्मों में हरीतकी आदि द्रव्यों को ही श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि ये रस आदि द्रव्य में ही आश्रित होते हैं। अर्थात् ये रस आदि भाव द्रव्य में प्राप्त होते हैं।
वक्तव्य-चरक ने द्रव्य की परिभाषा इस प्रकार की है—'यत्राश्रिताः कर्मगुणाः कारणं समवायि यत्'। तद् द्रव्यम्'। (च.सू. ११५१) अर्थात् जिसमें कर्म एवं गुण आश्रित हैं और जो द्रव्य गुण-कर्म का समवायिकारण है, वह द्रव्य है। इसका विस्तृत व्याख्यान सुरभारती प्रकाशन चौखम्बा, वाराणसी से प्रकाशित 'चरकसंहिता' प्रथम भाग में यथास्थान देखें।
पञ्चभूतात्मकं तत्तु-
द्रव्य का स्वरूप—वह द्रव्य पृथिवी, जल, तेज (अग्नि ), वायु एवं आकाश—इन पाँच महाभूतों के संयोग वाला है।
-क्ष्मामधिष्ठाय जायते॥१॥
द्रव्य की उत्पत्ति—वह द्रव्य पृथिवी का आश्रय पाकर उस प्रकार उत्पन्न होता है, जैसे मिट्टी से घड़ा उत्पन्न होता है।।१॥
अम्बुयोन्यग्निपवननभसां समवायतः।
तन्निर्वृत्तिर्विशेषश्च-
उत्पत्ति के कारण- -द्रव्य की उत्पत्ति का प्रमुख कारण जल है, तथापि इसकी उत्पत्ति में अग्नि, वायु तथा आकाश के समवायि सम्बन्ध से उसकी उत्पत्ति होती है। उक्त पदार्थों ( महाभूतों) के संयोग-भेद से द्रव्यों में भिन्नता भी होती है।
–व्यपदेशस्तु भूयसा ॥२॥
नामकरण में कारण—जिस द्रव्य में जिस महाभूत तत्त्व की विशेषता होती है, वह उसी नाम से कहा जाता है। जैसे—पार्थिव, आग्नेय, वायव्य, नाभस आदि व्यवहार के लिए उस-उसकी संज्ञाएँ होती हैं॥२॥ १० अ० हृ०
तस्मान्नैकरसं द्रव्यं
भूतसङ्घातसम्भवात्।
द्रव्य अनेक
-पृथिवी आदि महाभूतों के समवाय से उत्पन्न होने के कारण कोई भी द्रव्य किसी एक रसवाला नहीं होता है।
नैकदोषास्ततो रोगास्तत्र व्यक्तो रसः स्मृतः॥३॥
अव्यक्तोऽनुरसः किञ्चिदन्ते व्यक्तोऽपि चेष्यते।
अनेकदोषज रोग—यही कारण है कि उस द्रव्य का सेवन करने से उत्पन्न होने वाले ज्वर आदि रोग भी किसी एक ही दोष वाले नहीं होते हैं, उस द्रव्य में जो रस व्यक्त (प्रतीत ) होता है, वही उसका प्रधान रस कहा जाता है। जो रस प्रधान रस का अनुभव होने के बाद प्रतीत होता है अथवा जिसका बहुत कम अनुभव हो पाता है, उसे 'अनुरस' कहा जाता है।।३।।
वक्तव्य—महर्षि पुनर्वसु के समय में रस तथा आहार विषय सम्बन्धी एक सम्भाषा परिषद् हुई थी, जिसका विशद विवेचन च.सू. २६ में किया गया है। अन्त में भगवान् आत्रेय पुनर्वसु ने सिद्धान्त पक्ष की स्थापना की तथा द्रव्य, देश, काल के प्रभाव से ६३ प्रकार के रसभेदों की चर्चा की गयी। इसका परिशीलन करें। इस प्रसंग में सु.सू. ४० का भी अवलोकन कर लें।
गुर्वादयो गुणा द्रव्ये पृथिव्यादौ रसाश्रये ॥४॥
रसेषु व्यपदिश्यन्ते साहचर्योपचारतः।
द्रव्यगत गुरु आदि गुण—गुरु आदि बीस गुण ( जिनका वर्णन अष्टांगहृदय-सूत्रस्थान १११८ में किया जा चुका है) पार्थिव आदि द्रव्यों में रहते हैं। ये ही द्रव्य मधुर आदि रसों के आश्रय भी होते हैं, किन्तु साहचर्य ( संगति ) होने के कारण वे गुरु आदि गुण रसों में भी होते हैं, ऐसा कह दिया जाता है॥४॥ वक्तव्य-गुर्वादयो गुणाः'-इसका वर्णन पहले किया जा चुका है। ‘पृथिव्यादौ' के स्थान पर 'पार्थिवादौ' पद अधिक सुगम होता। ऐसा न होने के कारण श्री अरुणदत्त को उक्त पद की व्याख्या 'पृथिव्यादि महाभूतारब्धे द्रव्ये' इस प्रकार करनी पड़ी है। इसके पहले तीसरे पद्य में भी इन्होंने द्रव्य को 'भूतसङ्घातसम्भव' माना है और अगले पद्यों में भी द्रव्यों को क्रम से पार्थिव, आप्य, आग्नेय आदि संज्ञा दी है। वास्तव में पृथिवी आदि भूत हैं, इनके संयोग से ही पञ्चभूतात्मक द्रव्य या द्रव्यों की उत्पत्ति होती है।
द्रव्यं गुरुस्थूलस्थिरगन्धगुणोल्बणम् ॥५॥
पार्थिव गौरवस्थैर्यसङ्घातोपचयावहम्।
पार्थिव द्रव्य का वर्णन–उक्त पञ्चमहाभूतात्मक द्रव्यों में जो द्रव्य गुरु, स्थूल, स्थिर तथा गन्धगुण-प्रधान होता है, उसे पार्थिव द्रव्य कहते हैं। इन गुणों से युक्त पार्थिव द्रव्य गुरुता, स्थिरता, संघातता (ठोसपन ) तथा उपचय (शरीरपुष्टि ) कारक होता है।।५।।
द्रवशीतगुरुस्निग्धमन्दसान्द्ररसोल्बणम् ॥६॥
आप्यं स्नेहनविष्यन्दक्लेदप्रह्लादबन्धकृत्।
आप्य द्रव्य का वर्णन—जो द्रव्य द्रव, शीत, गुरु, स्निग्ध, मन्द, सान्द्र तथा रसगुण-प्रधान होता है, उसे आप्य ( अप् धातु-प्रधान ) या जलीय द्रव्य कहते हैं। इन गुणों से युक्त आप्य द्रव्य स्नेहन, विष्यन्दन ( अभिष्यन्दकारक ), क्लेदन (गीलापन ), प्रह्लादन (आनन्द या तृप्तिकारक ) तथा बन्धन (आटा आदि को बाँधने वाला) कारक होता है।॥६॥
रूक्षतीक्ष्णोष्णविशदसूक्ष्मरूपगुणोल्बणम् ॥७॥
आग्नेयं दाहभावर्णप्रकाशपचनात्मकम्।
वायव्यं
नाभसं
आग्नेय द्रव्य का वर्णन—जो द्रव्य रूक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण, विशद, सूक्ष्म तथा रूपगुण-प्रधान होता है, उसे आग्नेय द्रव्य कहते हैं। इन गुणों से युक्त आग्नेय द्रव्य दाह, कान्ति, वर्ण, प्रकाश तथा पाचन करने वाला होता है।। ७॥
रूक्षविशदलघुस्पर्शगुणोल्बणम्॥८॥
रौक्ष्यलाघववैशद्यविचारग्लानिकारकम् ।
वायव्य द्रव्य का वर्णन—जो द्रव्य रूक्ष, विशद, लघु तथा स्पर्शगुण-प्रधान होता है, वह वायव्य द्रव्य कहा जाता है। वह रूक्षता, लघुता, विशदता, विचरणशीलता एवं ग्लानि (हर्षक्षय ) कारक होता है।।८॥
सूक्ष्मविशदलघुशब्दगुणोल्बणम् ॥९॥
सौषिर्यलाघवकरम्-
नाभस द्रव्य का वर्णन—जो द्रव्य सूक्ष्म, विशद, लघु तथा शब्दगुण-प्रधान होता है वह नाभस (आकाशीय ) कहा जाता है। वह सौषिर्य (खोखलापन ) तथा लघुता कारक होता है॥९॥
-जगत्येवमनौषधम् ।
न किञ्चिद्विद्यते द्रव्यं वशान्नानार्थयोगयोः॥१०॥
औषधमय द्रव्य-इस प्रकार सम्पूर्ण संसार में कोई भी द्रव्य ऐसा नहीं है जो औषध न हो, क्योंकि सभी द्रव्य अनेक अर्थों (प्रयोजनों) में एवं विविध प्रकार के योगों में प्रयुक्त होते हैं।॥१०॥
वक्तव्य—इसी विषय का जीवातु भगवान् पुनर्वसु का यह उपदेश है—'नानौषधिभूतं जगति किञ्चिद् द्रव्यमुपलभ्यते'। (च.सू. २६।१२ ) तथा इसी का समर्थक गद्य देखें—सु.सू. ४१।५। गुरु आदि २० गुणों का वर्णन इसके प्रथम अध्याय में महर्षि वाग्भट ने किया है। इनके अतिरिक्त पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन्हें भी गुण कहा गया है। ऊपर श्लोक ५ से ९ तक में देखें। महर्षि कणाद ने २४ गुणों का वर्णन इस प्रकार किया है—१. रूप, २. रस, ३. गन्ध, ४. स्पर्श, ५. संख्या, ६. परिमाण, ७. पृथक्त्व, ८. संयोग, ९. विभाग, १०. परत्व, ११. अपरत्व, १२. गुरुत्व, १३. द्रवत्व, १४. स्नेह, १५. शब्द, १६. बुद्धि, १७. सुख, १८. दुःख, १९. इच्छा, २०. द्वेष, २१. प्रयत्न, २२. धर्म, २३. अधर्म और २४. संस्कार। साथ ही च.सू. ११४९ भी देखें। इन गुण-धर्मों वाले द्रव्य स्वयं तथा दूसरे के संयोग से औषध-कार्य का निर्वाह करते हैं। ये औषध द्रव्य स्थावर-जंगम भेद से दो प्रकार के होते हैं।
द्रव्यमूर्ध्वगमं तत्र प्रायोऽग्निपवनोत्कटम्।
अधोगामि च भूयिष्ठं भूमितोयगुणाधिकम् ॥११॥
द्रव्यों की विशेषता—जो द्रव्य ऊर्ध्वगामी अर्थात् वमनकारक होता है, उसमें प्रायः अग्नि तथा वायु तत्त्व के गुण अधिक होते हैं और जो द्रव्य अधोगामी अर्थात् विरेचनकारक होता है, उसमें प्रायः पृथिवी तथा जल तत्त्व के गुण अधिक पाये जाते हैं।।११।।
वक्तव्य-एक 'नाभस' गुण-प्रधान द्रव्य का वर्णन ऊपर के श्लोक में छूट गया है। इसका गुण है—संशमनकारकत्व। प्रायः शब्द कभी-कभी इसके विपरीत प्रभाव की भी सूचना देता है। कभी ऐसा भी देखा जाता है कि एक ही द्रव्य वमन तथा विरेचन कारक होता है, तो उसमें उक्त चारों भूतों के गुण पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं, फलतः वे दोनों कार्य में समर्थ हैं। इस विषय का विस्तृत वर्णन सुश्रुत में इस प्रकार प्राप्त है—'तत्र "साधयेत्' (सु.सू. ४१।६) अर्थात् विरेचक द्रव्यों में पृथिवी एवं जल तत्त्व के गुणों की अधिकता रहती है, क्योंकि ये दोनों तत्त्व भारी होने के कारण अधोगामी होते हैं। वामक द्रव्यों में अग्नि एवं वायु के गुणों की अधिकता होती है। ये दोनों तत्त्व लघु होने के कारण ऊर्ध्वगामी होते हैं। आकाश गुण अधिकता वाले द्रव्य संशमन होते हैं। इसी प्रकार यहाँ दीपन, लेखन तथा बृहण द्रव्यों का भी वर्णन किया गया है।
इति द्रव्यम्-
द्रव्य-वर्णन की समाप्ति—यहाँ तक पाञ्चभौतिक द्रव्य के सम्बन्ध में जो वर्णन करना था, उसका व्याख्यान समाप्त हो गया है।
-रसान् भेदैरुत्तरत्रोपदेष्यते।
रसवर्णन-प्रस्ताव-द्रव्यों का वर्णन करने के बाद अब अगले (११वें) अध्याय में रसों के भेदों का वर्णन किया जायेगा।
वीर्यं पुनर्वदन्त्येके गुरु स्निग्धं हिमं मृदुं।। १२॥
लघु रूक्षोष्णतीक्ष्णं च तदेवं मतमष्टधा।
द्रव्यगत वीर्य-वर्णन—कुछ आचार्यों का कथन है कि द्रव्यगत वीर्य आठ प्रकार का होता है। यथा—१. गुरु, २. स्निग्ध, ३. हिम, ४. मृदु, ५. लघु, ६. रूक्ष, ७. उष्ण एवं ८. तीक्ष्ण ॥ १२ ॥ चरकस्त्वाह वीर्यं तत् क्रियते येन या क्रिया॥१३॥
नावीर्यं कुरुते किञ्चित्सर्वा वीर्यकृता हि सा।
11 चरकसम्मत वीर्य—महर्षि चरक का कथन है कि वीर्य उसे कहते हैं जिससे जो क्रिया की जाती है। कोई भी द्रव्य वीर्य के बिना किसी कार्य को नहीं कर सकता, अतः सभी क्रियाएँ वीर्य से ही सम्पन्न होती हैं ।। १३॥
गुर्वादिष्वेव वीर्याख्या तेनान्वर्थेति वर्ण्यते॥१४॥
समग्रगुणसारेषु शक्त्युत्कर्षविवर्तिषु।
व्यवहाराय मुख्यत्वाद् बह्वग्रग्रहणादपि ॥१५॥
वाग्भट का मत-श्रीवाग्भटाचार्य का कथन है कि ऊपर कहे गये गुरु आदि आठ गुणों में ही वीर्य संज्ञा सार्थक है, अतएव उक्त आठ गुणों को वीर्य कहा जाता है, क्योंकि उक्त आठ गुण ही पहले कहे गये बीस गुणों में प्रमुख होते हैं और अपनी शक्ति की श्रेष्ठता के कारण ही विविध प्रकार से क्रिया करते हैं। यह (वीर्य) सभी गुणों में चिरस्थायी होने के कारण तथा शक्ति की अधिकता के कारण चिकित्सा-व्यवहार में प्रमुख होता है। सभी गुणों में प्रमुख होने के कारण उसी की गणना ( उल्लेख ) होती है।। १४-१५ ।।
अतश्च विपरीतत्वात्सम्भवत्यपि नैव सा।
विवक्ष्यते रसाद्येषु, वीर्यं गुर्वादयो ह्यतः॥१६॥
रस आदि में वीर्य की श्रेष्ठता—इसीलिए उक्त विशेषताओं से विपरीत होने के कारण रस, विपाक, प्रभाव को 'वीर्य' संज्ञा नहीं दी गयी है। यद्यपि उक्त रस आदि को भी वीर्य कहा जा सकता था, पर कहा नहीं गया। अतएव गुरु आदि आठ गुणों का नाम ही 'वीर्य' है।। १६ ।।
उष्णं शीतं द्विधैवान्ये वीर्यमाचक्षते-
वीर्य सम्बन्धी अन्य मत—कुछ दूसरे आचार्यों का मत है कि 'वीर्य' केवल दो प्रकार का होता है—१. उष्ण एवं २. शीत। यहाँ ‘एव' शब्द निश्चयात्मक है अर्थात् वीर्य दो ही प्रकार का होता है। -अपि च । नानात्मकमपि द्रव्यमग्नीषोमौ महाबलौ॥१७॥
व्यक्ताव्यक्तं जगदिव नातिक्रामति जातुचित् ।
वाग्भट का समर्थन वाग्भटाचार्य का कथन है कि यह मत भी ठीक ही है, क्योंकि अनेक प्रकार के शक्तिशाली द्रव्य भी अग्नि तथा सोम ( जल ) तत्त्वों का कभी भी उस प्रकार अतिक्रमण नहीं कर पाते, जिस प्रकार व्यक्त एवं अव्यक्त कारण वाला जगत् ( संसार ) अग्नि एवं सोम का अतिक्रमण नहीं कर सकता ।। १७ ।।
वक्तव्य-ऊपर वीर्य की मान्यता के सम्बन्ध में मत-मतान्तरों की चर्चा की गयी है। चरक का मत है कि 'वीर्य' वह है जिसकी शक्ति से द्रव्य कर्म को पूर्ण करता है और उन्होंने 'कर्म' की परिभाषा इस प्रकार दी है—'प्रयत्नादि कर्म चेष्टितमुच्यते'। (च.सू. ११४९) वीर्य की परिभाषा—'वीर्यं तु क्रियते येन या क्रिया। नावीर्यं कुरुते किञ्चित्, सर्वा वीर्यकृता क्रिया'। (च.सू. २६।६५ ) इस प्रसंग में सुश्रुतोक्त गद्य का भी अवलोकन करें—सु.सू. ४०।५।
तत्रोष्णं भ्रमतृग्लानिस्वेददाहाशुपाकिताः॥१८॥
शमं च वातकफयोः करोति, शिशिरं पुनः।
हादनं जीवनं स्तम्भं प्रसादं रक्तपित्तयोः॥१९॥
वीर्य के लक्षण—वाग्भट के अनुसार वीर्य दो प्रकार का होता है। उन दोनों में प्रथम उष्णवीर्य के लक्षण–भ्रम, प्यास का लगना, ग्लानि (हर्षक्षय ), स्वेद, दाह, आशुपाकिता ( शीघ्र पचना–भोजन का तथा व्रण आदि का) एवं वात तथा कफ दोषों का शमन करता है।
शीतवीर्य—ह्लादन (मन को प्रसन्न करने वाला), जीवन, स्तम्भनकारक और रक्त एवं पित्त को निर्मल करने वाला होता है।।१८-१९।।
जाठरेणाग्निना योगाद्यदुदेति रसान्तरम्।
रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः॥२०॥
विपाक का वर्णन—जठराग्नि के संयोग से जब खाये हुए मधुर आदि रस युक्त आहार का पाक होने लगता है, उसके बाद जो आहाररस से अलग रस उत्पन्न होता है, उसे 'विपाक' कहते हैं।।२०।।
वक्तव्य–श्रीमानों का भोजन प्रायः षड्रस युक्त होता है। इसको समझाने के लिए उक्त श्लोक में 'रसानां' पद दिया है। उसके बाद उस खाये हुए आहार का जब जठराग्नि से पुनः पाक होकर जो दूसरा रस पैदा होता है, उसे 'विपाक' अर्थात् विशिष्ट पाक कहते हैं।
स्वादुः पटुश्च मधुरमम्लोऽम्लं पच्यते रसः।
तिक्तोषणकषायाणां विपाकः प्रायशः कटुः ॥२१॥
विपाकज रस-भेद-प्रायः मधुर तथा लवण रस वाले पदार्थों का विपाक मधुर होता है, अम्ल पदार्थों का विपाक अम्ल ही होता है और तिक्त, कटु एवं कषाय रसों का विपाक कटु होता है।। २१ ।।
वक्तव्य-उक्त दृष्टि से छ: रसों का त्रिविध (मधुर, अम्ल तथा कटु) विपाक होता है, किन्तु सुश्रुत ने दो प्रकार का विपाक माना है। देखें—सु.सू. ४०।१०-१२। वे दो विपाक हैं—१. मधुर तथा २. कटु । श्रीवाग्भट ने 'प्रायः' पद का प्रयोग करके प्राचीन मत को स्वीकार कर अपने मत को भी प्रदर्शित कर दिया है।
कटु- -तिक्तरस विवाद–प्रायः समाज में देखा जाता है कि मिर्च तीती है एवं नीम कड़वी है, इस प्रकार प्रयोग करते हैं, यह उचित नहीं है। आप ध्यान दें—कटुरस के लक्षण—'जो रस जीभ में रखने मात्र में घबराहट उत्पन्न करे, जीभ में चुभे या उसे कष्ट दे, जो दाह करता हुआ मुख, नासिका तथा आँखों से स्राव कराने वाला हो, उसे कटुरस कहते हैं'। (शा.सं.पू.खं. २।२०) जैसे—सोंठ, काली मिर्च, पिप्पली को 'त्रिकटु' या 'कटुत्रय' कहते हैं। इन्हीं के गुण लाल मिर्चा में भरपूर पाये जाते हैं, अतः ये सभी द्रव्य कटु कहे जाते हैं। तिक्तरस के लक्षण—'जो रस जीभ में रखने मात्र से कष्ट दे अर्थात् अप्रिय लगे और जो दूसरे रसों के स्वाद को प्रतीत न होने दे, उसे तिक्तरस कहते हैं। यह मुख की तिक्तता को दूर करके लार को सुखाकर मन को प्रसन्न कर देता है'। (शा.सं.पू.खं. २।२१ ) तिक्त रस युक्त द्रव्यों में नीम, कुटकी आदि प्रमुख हैं।
रसैरसौ तुल्यफलस्तत्र द्रव्यं शुभाशुभम्।
किञ्चिद्रसेन कुरुते कर्म पाकेन चापरम् ॥२२॥
गुणान्तरेण वीर्येण प्रभावेणैव किञ्चन ।
रस-वीर्य-विपाक-प्रभाव-विपाक का फल मूल (आहार ) रस के समान ही फलदायक होता है, किन्तु उसमें भी द्रव्य के अपने विशिष्ट लक्षण इस प्रकार होते हैं—कोई द्रव्य दोषशमन रूप कर्म करने के कारण शुभ होता है और कोई द्रव्य दोषप्रकोपन रूप कर्म करने के कारण अशुभ होता है। उसमें भी कोई द्रव्य मधुर आदि रस से कर्म करता है, तो कोई पाक (विपाक ) से, कोई गुण से, कोई वीर्य से और कोई प्रभाव से ही कर्म करता है।। २२।।
यद्यद्रव्ये रसादीनां बलवत्त्वेन वर्तते ॥२३॥
अभिभूयेतरांस्तत्तत्कारणत्वं प्रपद्यते।
विरुद्धगुणसंयोगे भूयसाऽल्पं हि जीयते॥२४॥
द्रव्य का स्वाभाविक बल—द्रव्य में रस, गुण, वीर्य, विपाक, प्रभाव इनमें से जो बलवान् होकर रहता है, वही अपना कर्म करता है और वह दूसरों को दबाकर ( पराजित कर ) शुभ अथवा अशुभ कार्य करने में कारण होता है। परस्पर विपरीत गुणों का संयोग होने के कारण अधिकांश यह देखा जाता है कि बलवान् द्वारा अल्प बल वाला जीत लिया जाता है।। २३-२४।।
रसं विपाकस्तौ वीर्यं प्रभावस्तान्यपोहति ।
बलसाम्ये रसादीनामिति नैसर्गिकं बलम् ॥२५॥
रस आदि का स्वाभाविक बल—रस की समानता होने पर कभी-कभी रस को विपाक जीत लेता है, रस और विपाक को वीर्य जीत लेता है तथा रस-विपाक-वीर्य को प्रभाव जीत लेता है। यह द्रव्यों का अथवा रस आदि का स्वाभाविक बल कहा जाता है।।२५।।
रसादिसाम्ये यत् कर्म विशिष्टं तत् प्रभावजम् ।
दन्ती रसाय॑स्तुल्याऽपि चित्रकस्य विरेचनी॥
मधुकस्य च मृद्वीका, घृतं क्षीरस्य दीपनम् ।
प्रभाव का वर्णन—रस एवं विपाक आदि की समानता होने पर भी उन-उन द्रव्यों का जो प्रमुख कर्म होता है, उसमें प्रभाव ही कारण है। जैसे—दन्ती (जमालगोटा नामक ) द्रव्य रस तथा विपाक में चित्रक (चीता) द्रव्य के समान होती है, फिर भी यह विरेचक ही होता है। इसी प्रकार मुनक्का द्रव्य के रस आदि महुआ के समान होते हैं, तथापि मुनक्का मधुर एवं विरेचक होता है। घृत के रस, गुण आदि दूध के समान होते हैं, फिर भी दूध अग्निदीपन होता है।। २६ ।।
वक्तव्य—इस विषय को विस्तारपूर्वक समझने के लिए आप च.सू. २६।६७ से ७२ तक के पद्यों का अवलोकन करें। शार्ङ्गधराचार्य ने भी इस विषय में प्रकाश डाला है अर्थात् द्रव्य में रस, गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव रहते हैं, जो प्रयोगानुसार अपना-अपना कार्य करते हैं।
इति सामान्यतः कर्म द्रव्यादीनां, पुनश्च तत् ॥२७॥
विचित्रप्रत्ययारब्धद्रव्यभेदेन भिद्यते।
द्रव्य आदि के कर्म—इस प्रकार इस अध्याय में द्रव्यों तथा द्रव्यगत रस, गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव के कर्मों का सामान्य रूप से वर्णन कर दिया गया है। फिर भी द्रव्यों के कर्मों में अनेक प्रकार के भेद देखें जाते हैं, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में पञ्चमहाभूतों के लक्षण ही उसमें मूल कारण होते हैं। प्रत्येक द्रव्य की रचना में पञ्चमहाभूतों का संयोग होता है, किन्तु यह संयोग सबमें भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है; अतएव प्रत्येक द्रव्य एक-दूसरे द्रव्य से भिन्न होता है।। २७॥
स्वादुर्गुरुश्च गोधूमो वातजिवातकृद्यवः॥२८॥
उष्णा मत्स्याः पयः शीतं कटुः सिंहो न शूकरः।
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने द्रव्यादिविज्ञानीयो नाम नवमोऽध्यायः॥९॥
भिन्नता के उदाहरण—गेहूँ तथा जौ ये दोनों द्रव्य स्वाद में मधुर तथा गुरु होने पर भी गेहूँ वातविकार का शमन करता है और जौ वातकारक होता है। मत्स्यमांस स्वादु रसयुक्त तथा गुरु गुणयुक्त होने पर भी उष्ण कहा गया है और उसी के समान रस तथा गुण से युक्त दूध शीतवीर्य होता है। इसी प्रकार सिंह तथा सूअर का मांस मधुर एवं गुरु होता है, परन्तु विपाक की दृष्टि से सिंह का मांस कटु तथा सूअर का मांस मधुर होता है।। २८॥
वक्तव्य-उक्त उदाहरणों का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक द्रव्य भले ही वह स्थावर अथवा जंगम भेद से किसी प्रकार का भी हो, वह विचित्र कारणों के विचित्र संयोग से उत्पन्न होता है। फलतः प्रत्येक के रस-गुण आदि समान होने पर भी उस-उस के वीर्य, विपाक तथा प्रभाव परस्पर भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं। फिर भी हम यह कहने के लिए बाध्य हैं कि सभी द्रव्य पाञ्चभौतिक होते हैं। यही कारण है कि 'प्रभाव' को अचिन्त्य शक्ति वाला कहा एवं माना गया है।
इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में द्रव्यादिविज्ञानीय नामक नवाँ अध्याय समाप्त ॥९॥
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