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अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


दशमोऽध्यायः

अथातो रसभेदीयमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः॥

अब यहाँ से हम रसभेदीय नामक अध्याय का व्याख्यान करेंगे। जैसा कि इस विषय में आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।

उपक्रम—इसके पहले नवें अध्याय के १२वें श्लोक में 'रसान् भेदैरुत्तरत्रोपदेक्ष्यते' ऐसा कहा गया था, तदनुसार प्रस्तुत अध्याय में रसभेदों का वर्णन किया जा रहा है। जीभ द्वारा ग्रहण किये जाने वाले विषय का नाम ही रस है अर्थात् रस की उत्पत्ति का मूल आधार जल एवं पृथिवी है। देखें—च.सू. ११६४। वास्तव में रस के मूलभूत कारण हैं—जल तथा पृथिवी, परन्तु उसकी अभिव्यक्ति का कारण पृथिवी तत्त्व है। इसी का समर्थन हमें उपनिषद् तथा वैशेषिक दर्शन में मिलता है। यथा—'रसो रसनेन्द्रियग्राह्यः, पृथिव्युदकवृत्तिः'। इति। और भी देखें—'आपो स्मृताः'। (च.सू. २५।१३) अर्थात् यह पुरुष रसज है, क्योंकि इसकी पुष्टि गर्भकाल में गर्भिणी के आहाररस से होती है और जल रस वाले होते हैं। अष्टांगहृदय में भी कहा गया है—'रसाः स्वाद्वम्ललवणतिक्तोषणकषायकाः । षड्द्रव्यमाश्रितास्ते च यथापूर्वं बलावहाः' ।। (अ.हृ.सू.१।१४) अर्थात् रस छः होते हैं—१. मधुर, २. अम्ल, ३. लवण, ४. तिक्त, ५. कटु तथा ६. कषाय। इनका आधार द्रव्य होता है। ये स्वतन्त्र रूप से नहीं पाये जाते। ये यथापूर्व बलवान् होते हैं। जैसे—कषाय रस से कंटुरस बलवान् होता है आदि। संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–च.सू. २६; च.वि. ८; सु.सू. ४२; सु.उ. ६३ तथा अ.सं.सू. १७ एवं १८ में देखें।

माम्भोऽग्निक्षमाम्बुतेजःखवाय्वग्न्यनिलगोनिलैः।
द्वयोल्बणैः क्रमाद्भूतैर्मधुरादिरसोद्भवः॥१॥

मधुर आदि रसों की उत्पत्ति—दो-दो महाभूतों की प्रधानता के कारण मधुर आदि रसों की उत्पत्ति होती है। यथा—पृथिवी एवं जल तत्त्वों की प्रधानता से मधुररस, अग्नि एवं पृथिवी तत्त्वों की प्रधानता से अम्लरस, जल एवं अग्नि तत्त्वों की प्रधानता से लवणरस, आकाश एवं वायु तत्त्वों की प्रधानता से तिक्तरस, अग्नि एवं वायु तत्त्वों की प्रधानता से कटुरस तथा पृथिवी एवं वायु तत्त्वों की प्रधानता से कषायरस की उत्पत्ति होती है॥१॥

वक्तव्य—इसी का समर्थन चरक ने भी किया है। देखें—च.सू. २६।४० ।

तेषां विद्याद्रसं स्वादुं यो वक्त्रमनुलिम्पति ।
आस्वाद्यमानो देहस्य ह्लादनोऽक्षप्रसादनः॥२॥
प्रियः पिपीलिकादीनाम्-

मधुररस के लक्षण—उक्त छ: रसों में मधुररस वह है, जो मुख को चारों ओर से लीप देता है। उसका स्वाद मिलते ही सम्पूर्ण शरीर का अधिष्ठाता मन प्रसन्न हो जाता है तथा सभी इन्द्रियाँ प्रसन्न हो जाती हैं। यह रस चिउँटी तथा मक्खियों का भी प्रिय होता है।॥२॥

-अम्लः क्षालयते मुखम् । हर्षणो रोमदन्तानामक्षिभ्रुवनिकोचनः॥३॥

अम्लरस के लक्षण अम्ल (खट्टा) रस मुख को भीतर की ओर से मानो धो डालता है। इसे
खाने से रोमांच तथा दन्तहर्ष हो जाता है। यह आँखों तथा भौंहों को संकुचित कर देता है॥३॥
स्यन्दयत्यास्यं कपोलगलदाहकृत् ।

लवणः

लवणरस के लक्षण- -लवणरस का सेवन करने से मुख से लालास्राव होने लगता है और कपोल तथा गले के भीतरी भाग में जलन पैदा होने लगती है।

तिक्तो विशदयत्यास्यं रसनं प्रतिहन्ति च ॥४॥

तिक्तरस के लक्षण—तिक्तरस का सेवन करने से मुख का भीतरी भाग विशद ( स्वच्छ ) हो जाता है तथा जीभ को कुछ समय के लिए यह अन्य रस ग्रहण करने के अयोग्य कर देता है।।४।।

उद्वेजयति जिह्वाग्रं कुर्वंश्चिमिचिमां कटुः।
स्रावयत्यक्षिनासास्यं कपोलौ दहतीव च ॥५॥

कटुरस के लक्षण—कटुरस (सोंठ, मरिच, पीपल या लाल मिर्चा ) का सेवन जीभ के अगले भाग को उद्विग्न कर देता है अर्थात् जीभ इसके स्वाद से घबड़ा जाती है। इससे जीभ में चिमचिमाहट होने लगती है। इसका सेवन करने से आँख, नाक तथा मुख से स्राव निकलने लगता है और कपोलों ( गालों) में दाह होने लगता है।।५।।

कषायो जडयेज्जिह्वां कण्ठस्रोतोविबन्धकृत् ।

कषायरस के लक्षण—कषायरस ( हरीतकी, आँवला आदि) का सेवन जीभ को जड़ (अन्य रस के सेवन में कुछ देर के लिए असमर्थ ) कर देता है और कण्ठ (गला) के स्रोतस् को अवरुद्ध कर देता है अर्थात् उसमें ऐंठन पैदा कर देता है।

रसानामिति रूपाणि-रसों के स्वरूप—यहाँ तक छहों रसों के परिचायक स्वरूपों का वर्णन कर दिया गया है।

-कर्माणि-रसों के कर्म—अब इसके आगे उक्त रसों के कर्मों का वर्णन किया जायेगा।

-मधुरो रसः॥६॥

आजन्मसात्म्यात् कुरुते धातूनां प्रबलं बलम्।
बालवृद्धक्षतक्षीणवर्णकेशेन्द्रियौजसाम्॥७॥
प्रशस्तो बृंहणः कण्ठ्यः स्तन्यंसन्धानकृद्गुरुः ।
आयुष्यो जीवनः स्निग्धः पित्तानिलविषापहः॥
कुरुतेऽत्युपयोगेन स मेदःश्लेष्मजान् गदान् ।
स्थौल्याग्निसादसन्यासमेहगण्डार्बुदादिकान्॥९॥

मधुररस के कर्म–मधुररस माता के दूध के रूप में जन्मकाल से सात्म्य (प्रकृति के अनुकूल ) होने के कारण रस आदि धातुओं को अत्यन्त बलदायक होता है। यह बालक, वृद्ध, क्षत ( उरःक्षत आदि), क्षीण (धातुक्षीण), वर्ण, केश, इन्द्रियों तथा ओजस् के लिए हितकारक होता है। यह शरीर को पुष्ट करता है, स्वरयन्त्र के लिए हितकर है, दूध को बढाता है, टूटी अस्थियों को जोड़ता है तथा मद्यसन्धानकारक भी है; गुरु( देर में पचने वाला) है, आयुवर्धक है, जीवन है, स्निग्ध है, पित्त, वात तथा विष का नाशक है। इसका अधिक उपयोग करने से यह मेदोरोग तथा कफज रोगों को उत्पन्न करता है। यथा—स्थूलता, मन्दाग्नि, सन्यास, प्रमेह, गलगण्ड तथा अर्बुद आदि रोग हो जाते हैं।। ६-९॥

अम्लोऽग्निदीप्तिकृत् स्निग्धो हृद्यः पाचनरोचनः ।
उष्णवीर्यो हिमस्पर्शः प्रीणनः क्लेदनो लघुः॥
करोति कफपित्तास्रं मूढवातानुलोमनः।
सोऽत्यभ्यस्तस्तनोः कुर्याच्छैथिल्यं तिमिरं भ्रमम् ॥
कण्डुपाण्डुत्ववीसर्पशोफविस्फोटतृड्ज्वरान् ।

अम्लरस के कर्म—अम्लरस का सेवन अग्निवर्धक, स्निग्ध, हृदय के लिए हितकर, पाचन, रोचन (रुचिकारक), उष्णवीर्य, स्पर्श में शीतल, प्रीणन (तृप्तिकारक ), क्लेदकारक तथा लघुपाकी है। यह कफ, पित्त तथा रक्त वर्धक है; प्रतिलोम या मूढ़ वातदोष का अनुलोमन करता है। इसका अधिक सेवन करने से शरीर में शिथिलता, तिमिर नामक नेत्ररोग, चक्करों का आना, खुजली, पाण्डुरोग, वीसर्प, शोफ ( सूजन ), विस्फोट ( फोड़े, शीतलारोग), प्यास का लगना तथा ज्वररोग को उत्पन्न करता है।।१०-११ ।।

लवणः स्तम्भसङ्घातबन्धविध्मापनोऽग्निकृत् ।।१२।।
स्नेहनः स्वेदनस्तीक्ष्णो रोचनश्छेदभेदकृत् ।
सोऽतियुक्तोऽम्रपवनं खलतिं पलितं वलिम्॥१३॥
तृट्कुष्ठविषवीसर्पान् जनयेत् क्षपयेद्बलम् ।

लवणरस के कर्म-लवणरस का सेवन स्तम्भ (जकड़न ) तथा संघातबन्ध (मल-मूत्र की रुकावट) विध्मापक अर्थात् विनाशक है तथा अग्नि (जठराग्नि ) की वृद्धि करता है। यह स्नेहन तथा स्वेदन है, तीक्ष्ण गुणयुक्त है, रुचिकारक, मांस का छेदक एवं मल का भेदक है। इसे अधिक खाने से वातरक्त, खलति तथा पलित नामक कपालरोगों, वली ( झुर्रियाँ), प्यास, कुष्ठ, विष एवं वीसर्प रोगों को पैदा करता है और बल को क्षीण करता है।।१२-१३।।

वक्तव्य-चरक ने लवण के अधिक उपयोग का निषेध किया है। देखें-च.वि. १।१५। रक्तविकारों में इसको सेवन करने का निषेध है। यह बढ़े हुए मांस का छेदक है और व्रणशोथ का भेदक भी है तथा सभी रसों को उजागर (प्रकट ) करने वाला भी है।

तिक्तः स्वयमरोचिष्णुररुचिं कृमितृविषम् ॥१४॥
कुष्ठमूर्छाज्वरोत्क्लेशदाहपित्तकफान् जयेत्।
क्लेदमेदोवसामज्जशकृन्मूत्रोपशोषणः॥१५॥
लघुर्मेध्यो हिमो रूक्षः स्तन्यकण्ठविशोधनः।
धातुक्षयानिलव्याधीनतियोगात्करोति सः॥१६॥

तिक्तरस के कर्म-तिक्तरस यद्यपि स्वयं अरुचिकर होता है, परन्तु यह ज्वर आदि के कारण उत्पन्न अरुचि को दूर करता है। यह कृमिरोग, तृष्णा, विष, कुष्ठ, मूर्छा, ज्वर, उत्क्लेश (जी मिचलाना), दाह (जलन ), पित्तज तथा कफज विकारों का विनाश करता है। क्लेद ( सड़न ), मेदस्, वसा, पुरीष (मल) और मूत्र को सुखाता है। यह पाक में लघु, बुद्धिवर्धक, शीतवीर्य, रूक्ष, दूध को शुद्ध करने वाला तथा गले के विकारों का शोधक है। इसका अधिक सेवन करने से धातुक्षय तथा वातव्याधियों की उत्पत्ति हो जाती है।। १४-१६॥

1 कटुर्गलामयोदर्दकुष्ठालसकशोफजित् ।
व्रणावसादनः स्नेहमेदःक्लेदोपशोषणः॥१७॥
दीपनः पाचनो रुच्यः शोधनोऽन्नस्य शोषणः।
छिनत्ति बन्धान् स्रोतांसि विवृणोति कफापहः॥
कुरुते सोऽतियोगेन तृष्णां शुक्रबलक्षयम् ।
मूर्छामाकुञ्चनं कम्पं कटिपृष्ठादिषु व्यथाम् ।। १९ ॥

कटुरस के कर्म-कटुरस गलरोग, उदर्द (कोठ, शीतपित्त), कुष्ठ, असलक (आमविकार ) एवं शोथरोग का विनाश करता है। व्रणशोथ की कठोरता को शिथिल ( ढीला ) कर देता है; स्नेह, मेदस् एवं क्लेद ( सड़न ) को सुखाता है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, भोजन को पचाता है, भोजन के प्रति रुचि को बढ़ाता है; मुख, नासिका, नेत्र एवं शिर का स्रावण एवं रेचन विधियों से शोधन करता है, खाये हुए अन्न को सुखाता है अतएव खाने के बाद प्यास लगती है, अतिसारनाशक है, मल के बन्धन को काटता है, स्रोतों को फैलाता है तथा कफ का नाशक है। इस रस का अधिक प्रयोग करने से प्यास अधिक लगती है, शुक्र एवं बल का क्षय करता है। मूर्छा (बेहोशी), शरीर के अवयवों तथा सिराओं में सिकुड़न, कँपकँपी, कमर तथा पीठ में पीड़ा पैदा करता है।।१७-१९।।

कषायः पित्तकफहा गुरुरस्रविशोधनः।
पीडनो रोपणः शीतः क्लेदमेदोविशोषणः॥२०॥
आमसंस्तम्भनो ग्राही रूक्षोऽति त्वक्प्रसादनः।
करोति शीलितः सोऽति विष्टम्भाध्मानहृद्रुजः॥
तृट्कार्यपौरुषभ्रंशस्रोतोरोधमलग्रहान्

कषायरस के कर्म-कषायरस पित्त तथा कफ को शान्त करता है, गुरु है, रक्त को शुद्ध करता है। कषायरस-प्रधान द्रव्यों का लेप लगाने से यह पके फोड़े का पीडन करता है और पूय निकल जाने पर रोपण करता है। यह शीतीवीर्य है, सड़न तथा मेदोधातु को सुखाता है, आमदोष को रोकता है तथा  मल-मूत्र मल को बाँधता है। यह अत्यन्त रूक्ष होता है, त्वचा को स्वच्छ करता है। इसका अधिक सेवन करने से विष्टम्भ, आध्मान (अफरा ), हृदय में पीड़ा, प्यास, कृशता, शुक्रधातु का नाश, स्रोतों में रुकावट तथा में रुकावट होती है।। २०-२१ ।।

घृतहेमगुडाक्षोडमोचचोचपरूषकम् ॥२२॥
अभीरुवीरापनसराजादनबलात्रयम्।
मेदे चतस्रः पर्णिन्यो जीवन्ती जीवकर्षभौ॥२३॥
मधूकं मधुकं बिम्बी विदारी श्रावणीयुगम् ।
क्षीरशुक्ला तुगाक्षीरी क्षीरिण्यौ काश्मरी सहे॥२४॥
क्षीरेक्षुगोक्षुरक्षौद्रद्राक्षादिमधुरो गणः।

मधुरस्कन्ध के द्रव्य–घृत, सोना, गुड़, अखरोट, केला, चोच (दालचीनी, नारियल, तालफल- वैद्यकशब्दसिन्धु), परूषक (फालसा), अभीरु ( शतावरी), काकोली, कटहल, चिरौंजी, बलात्रय (बला, अतिबला, नागबला ), दो मेदा ( मेदा, महामेदा), चारपर्णिनी (शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, माषपर्णी, मुद्गपर्णी), जीवन्ती, जीवक, ऋषभक, महुआ, मुलेठी, बिम्बी (कुन्दरू), विदारीकन्द, श्रावणीयुगल ( मुण्डी, बड़ीमुण्डी), क्षीरशुक्ला, वंशलोचन, दो क्षीरिणी (छोटी दुद्धी, बड़ी दुद्धी ), गम्भार, दो सहा ( सहा, महासहा), दूध, ईख, गोखरू, मधु, मुनक्का आदि—ये सब द्रव्य मधुरस्कन्ध के हैं ।। २२-२४॥

अम्लो धात्रीफलाम्लीकामातुलुङ्गाम्लवेतसम्॥२५॥
दाडिमं रजतं तक्रं चुकं पालेवतं दधि।
आम्रमाम्रातकं भव्यं कपित्थं करमर्दकम् ॥२६॥

अम्लस्कन्ध के द्रव्य–आँवला, इमली, मातुलिंग (प्रायः सभी नीबू विशेषकर बिजौरानीबू ), अम्लवेत, दाडिम, रजत (चाँदी), तक्र (मठा), चुक्र, पालेवत, दही, आम, आमड़ा, भव्य ( कमरख ), कैथ तथा करमर्दक (करौंदा) ॥२५-२६ ।।

वरं सौवर्चलं कृष्णं बिडं सामुद्रमौद्भिदम्।
रोमकं पांसुजं शीसं क्षारश्च लवणो गणः॥२७॥

लवणस्कन्ध के द्रव्य–सेंधानमक, सोंचरनमक, कालानमक, विडलवण (नौसादर ), समुद्रीनमक, औद्भिद (रेह ) नमक, रोमक (साँभर ) नमक, पांशुज (धूल या मिट्टी का ) नमक, सीसाधातु तथा सभी क्षार।।२७॥

तिक्तः पटोली त्रायन्ती बालकोशीरचन्दनम्।
भूनिम्बनिम्बकटुकातगरागुरुवत्सकम् ॥२८॥
नक्तमालद्विरजनीमुस्तमूर्वाटरूषकम् ।
पाठापामार्गकांस्यायोगुडूचीधन्वयासकम् ॥२९॥
पञ्चमूलं महद्व्याघ्यौ विशालाऽतिविषा वचा।

तिक्तस्कन्ध के द्रव्य–तीता परवल, त्रायमाणा, नेत्रबाला, खस, चन्दन, चिरायता, नीम, कुटकी, तगर, अगरु, कुटज, नक्तमाल ( करंज), दो हल्दी (दारुहल्दी, हल्दी), नागरमोथा, मूर्वा, अडूसा, पाठा, अपामार्ग, कांस्यधातु, लोहधातु, गुरुच, धमासा, बृहत्पंचमूल (बिल्व, सोनापाठा, गम्भारी, पाढ़ल, अरणी ), वनभण्टा, कण्टकारी, विशाला ( इन्द्रायण), अतीस तथा बालवच ।। २८-२९ ।।

कटुको हिङ्गुमरिचकृमिजित्पञ्चकोलकम् ॥३०॥
कुठेराद्या हरितकाः पित्तं मूत्रमरुष्करम् ।

कटुस्कन्ध के द्रव्य–हींग, कालीमिर्च, वायविडंग, पञ्चकोल ( पिप्पली, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, नागर = सोंठ), कुठेरक आदि, हरितक ( देखें—अ.हृ.सू. ६।१०६), पित्त ( मांस खाने वालों का प्रिय पदार्थ, जो मृग, बकरा आदि में पाया जाता है, वह अवयव-विशेष ), गोमूत्र आदि सभी ग्राह्य मूत्र और अरुष्कर ( भिलावा) ॥३०॥

वर्गः कषायः पथ्याऽक्षं शिरीषः खदिरो मधु ॥३१॥
कदम्बोदुम्बरं मुक्ताप्रवालाञ्जनगैरिकम्।
बालं कपित्थं खर्जूरं बिसपद्मोत्पलादि च ॥३२॥

कषायस्कन्ध के द्रव्य–हरड़, बहेड़ा, सिरीष, खदिर (बबूल, कीकर आदि), मधु, कदम्ब, गूलर, मोती, मूंगा, अंजन, गेरू, कच्चा कैथ, कच्चा खजूर, बिस (कमलकन्द ), कमल तथा उत्पल ( कमलभेद )
आदि।। ३१-३२॥

मधुरं श्लेष्मलं प्रायो जीर्णाच्छालियवादृते ।
मुद्गाद्गोधूमतः क्षौद्रात्सिताया जाङ्गलामिषात् ॥३३॥

मधुररस का विशिष्ट वर्णन–प्रायः सभी मधुर रस वाले द्रव्य कफकारक होते हैं; केवल पुराने शालिधान्य, जौ, मूंग, गेहूँ, मधु, सफेद मिश्री तथा जांगल देश के प्राणियों के मांस को छोड़कर ।। ३३ ।।

प्रायोऽम्लं पित्तजननं दाडिमामलकादृते।

अम्लरस का विशिष्ट वर्णन–अनार ( यहाँ अनार शब्द से पहाड़ों में पाये जाने वाले खट्टे दाडिमों की ओर वाग्भट का संकेत है) एवं आँवला को छोड़कर प्रायः सभी अम्लद्रव्य पित्तकारक होते हैं। अपथ्यं लवणं प्रायश्चक्षुषोऽन्यत्र सैन्धवात् ॥ ३४॥

लवणरस का विशिष्ट वर्णन—सेंधानमक के अतिरिक्त सभी नमक नेत्रों के लिए अहितकर होते हैं।। ३४॥

तिक्तं कटु च भूयिष्ठमवृष्यं वातकोपनम् ।
ऋतेऽमृतापटोलीभ्यां शुण्ठीकृष्णारसोनतः॥३५॥

तिक्त-कटुरसों का विशिष्ट वर्णन—गुरुच तथा तिक्त परबल के बिना प्रायः सभी तिक्त द्रव्य अवृष्य (वीर्यनाशक) तथा वातकारक होते हैं। सोंठ, पीपल, लहसुन को छोड़कर प्रायः सभी कटु द्रव्य अवृष्य तथा वातकारक होते हैं।। ३५॥

कषायं प्रायशः शीतं स्तम्भनं चाभयां विना।

कषायरस का विशिष्ट वर्णन हरड़ को छोड़कर प्रायः सभी कषाय द्रव्य शीतवीर्य तथा स्तम्भन-कारक होते हैं।

रसाः कट्वम्ललवणा वीर्येणोष्णा यथोत्तरम् ॥३६॥
तिक्तः कषायो मधुरस्तद्वदेव च शीतलाः।
तिक्तः कटुः कषायश्च रूक्षा बद्धमलास्तथा ॥३७॥
पट्वम्लमधुराः स्निग्धाः सृष्टविण्मूत्रमारुताः।
पटोः कषायस्तस्माच्च मधुरः परमं गुरुः॥३८॥
लघुरम्लः कटुस्तस्मात् तस्मादपि च तिक्तकः।

रसों के द्विविध वीर्य-कटु, अम्ल तथा लवण रस वीर्य की दृष्टि से उत्तरोत्तर अधिक उष्ण होते हैं और तिक्त, कषाय तथा मधुर रस वीर्य की दृष्टि से उत्तरोत्तर अधिक शीत होते हैं।

रसों के रूक्ष एवं स्निग्ध गुण—तिक्त, कटु तथा कषाय रस वाले द्रव्य उत्तरोत्तर रूक्ष गुण वाले तथा मल को बाँधने वाले होते हैं। लवण, अम्ल एवं मधुर रस वाले द्रव्य उत्तरोत्तर स्निग्ध गुण वाले तथा मल, मूत्र एवं अपानवायु को निकालने वाले होते हैं।

रसों के गुरु एवं लघु गुण-लवणरस से कषायरस एवं कषायरस से मधुररस गुण में अधिक गुरु होता है। अम्लरस लघु होता है, इससे अधिक लघु कटुरस होता है और इससे भी अधिक लघु होता है तिक्तरस ।। ३६-३८॥

वक्तव्य—महर्षियों की विचारदृष्टि अत्यन्त सूक्ष्म तथा व्यापक होती थी, अतएव उन्हें विविधता कदम-कदम पर दिखलायी देती थी और अपवाद भी, अस्तु। यहाँ तक के विवेचन से हमने रसों के गुण, वीर्य, विपाक तथा प्रभाव को समझा किन्तु इनके विपरीत भी कई स्थल ऐसे मिलते है जो उक्त सिद्धान्तों के विपरीत देखे जाते हैं। जैसे ऊपर रस का विवेचन किया गया है, वैसा ही विस्तृत क्षेत्र विपाक का भी है। इन गुत्थियों को सुलझाने के लिए च.सू. २६ का अध्ययन एवं मनन करें।

संयोगाः सप्तपञ्चाशत्कल्पना तु त्रिषष्टिधा ॥ ३९ ॥
रसानां यौगिकत्वेन यथास्थूलं विभज्यते।

रसों के ६३ भेद-मधुर आदि छ: रसों के परस्पर (एक-दूसरे के साथ ) संयोग करने पर इनके स्थूल रूप से ५७ भेद होते हैं। पुनः इनमें छ: रसों को जोड़ देने पर इनकी कल्पना दोषों को आधार मानकर करने से ६३ प्रकार की हो जाती है। इसे शास्त्रकार स्थूल गणना मानते हैं ।। ३९ ।।

वक्तव्य-अ.हृ.सू. १२ में देखें, वहाँ ६२ प्रकार के दोषभेदों का वर्णन किया गया है।

एकैकहीनास्तान् पञ्चदश यान्ति रसा द्विके॥४०॥
त्रिके स्वादुर्दशाम्लः षट् त्रीन् पटुस्तिक्त एककम् ।
चतुष्केषु दश स्वादुश्चतुरोऽम्लः पटुः सकृत् ॥
पञ्चकेष्वेकमेवाम्लो मधुरः पञ्च सेवते।
द्रव्यमेकं षडास्वादमसंयुक्ताश्च षड्रसाः॥४२॥

दो-दो रसों के १५ योग—एक-एक रस को कम करते हुए पाँच भागों में दो-दो रसों के संयोग से इस प्रकार इनके १५ भेद होते हैं—मधुररस के साथ अम्ल आदि ५ रसों के संयोग से ५, अम्लरस के साथ लवण आदि ४ रसों के संयोग से ४, लवणरस के साथ तिक्त आदि ३ रसों के संयोग से ३, तिक्तरस के साथ कटु आदि २ रसों के संयोग से २ तथा कटुरस के साथ कषाय १ रस के संयोग से १ (योग १५); त्रिक ( तीन-तीन ) रसों के संयोग से इनके २० भेद इस प्रकार होते हैं मधुररस के साथ अन्य दो रसों के संयोग से १०, अम्लरस के साथ अन्य दो रसों के संयोग से ६, लवणरस के साथ अन्य दो रसों के संयोग से ३ और तिक्तरस के साथ अन्य दो रसों के संयोग से १ (योग २०); चतुष्क ( चार-चार) रसों के संयोग से इनके १५ भेद इस प्रकार होते हैं—मधुररस के साथ अन्य तीन रसों के संयोग से १०, अम्लरस के साथ अन्य तीन रसों के संयोग से ४ और लवणरस के साथ अन्य तीन रसों के संयोग से १ (योग १५); पञ्चक ( पाँच-पाँच) रसों के संयोग से इनके छ: भेद इस प्रकार होते हैं—मधुररस के साथ अन्य चार रसों के संयोग से ५ और अम्लरस के साथ अन्य चार रसों के संयोग से १ ( योग ६); षट्क (छः ) रसों के संयोग से केवल एक भेद इस प्रकार होता है—मधुररस के साथ अन्य पाँच रसों के संयोग से १ और असंयुक्त अर्थात् अलग-अलग मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु एवं कषाय नामक रस ६; इस प्रकार इनका कुल ६३ योग होता है।। ४०-४२ ।।

षट् पञ्चकाः, षट् च पृथग्रसाः स्युश्चतुर्द्विको पञ्चदशप्रकारौ।
भेदास्त्रिका विंशतिरेकमेव द्रव्यं षडास्वादमिति त्रिषष्टिः॥४३॥

विषयोपसंहार—पाँच-पाँच रसों के योग ६, अलग-अलग रस ६, चतुष्क रसयोग १५, द्विक रस योग १५, त्रिक रसयोग २० तथा षट्क रसयोग १ –इस प्रकार कुल ६३ प्रकार के भेद होते हैं। ४३ ।।

वक्तव्य-उक्त ६३ प्रकार के रससंयोगों का यहाँ स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया जा रहा है- पंचक रससंयोग के ६ भेद-१. अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, कषाय रसों का संयोग (मधुररसहीन), २. मधुर, लवण, तिक्त, कटु, कषाय रसों का संयोग ( अम्लरसहीन ), ३. मधुर, अम्ल, तिक्त, कटु, कषाय रसों का संयोग (लवणरसहीन ), ४. मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय रसों का संयोग ( तिक्तरसहीन ), ५. मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कषाय रसों का संयोग ( कटुरसहीन ), ६. मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु रसों का संयोग (कषाय रसहीन);

पृथक् रसों की गणना ६—१. मधुर, २. अम्ल, ३. लवण, ४. तिक्त, ५. कटु तथा ६. कषाय; चतुष्क रससंयोग के १५ भेद-१. मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त रसों का संयोग ( कटुकषायरसहीन); २. मधुर, अम्ल, लवण, कटु रसों का संयोग ( तिक्त-कषायरसहीन); ३. मधुर, अम्ल, लवण, कषाय रसों का संयोग (तिक्त-कटुरसहीन ); ४. मधुर, अम्ल, तिक्त, कटु रसों का संयोग ( लवण-कषायरसहीन ); ५. मधुर, अम्ल, तिक्त, कषाय रसों का संयोग (लवण-कटुरसहीन ); ६. मधुर, अम्ल, कटु, कषाय रसों का संयोग (लवण-तिक्तरसहीन); ७. मधुर, लवण, तिक्त, कटु रसों का संयोग ( अम्ल-कषायरसहीन ); ८. मधुर, लवण, तिक्त, कषाय रसों का संयोग (अम्ल-कटुरसहीन ); ९. मधुर, लवण, कटु, कषाय रसों का संयोग ( अम्ल-तिक्तरसहीन ); १०. मधुर, तिक्त, कटु, कषाय रसों का संयोग (अम्ल-लवणरसहीन ); ११. अम्ल, लवण, तिक्त, कटु रसों का संयोग (मधुर-कषायरसहीन); १२. अम्ल, लवण, तिक्त, कषाय रसों का संयोग ( मधुर-कटुरसहीन ); १३. अम्ल, लवण, कटु, कषाय रसों का संयोग ( मधुर-तिक्तरसहीन ); १४. अम्ल, तिक्त, कटु, कषाय रसों का संयोग ( मधुर-लवणरसहीन ) और १५. लवण, तिक्त, रसों का संयोग (मधुर-अम्लरसहीन )।

द्विक रससंयोग के १५ भेद-१. मधुर तथा अम्ल रस का संयोग, २. मधुर तथा लवण रस का संयोग, ३. मधुर तथा तिक्त रस का संयोग, ४. मधुर तथा कटु रस का संयोग, ५. मधुर तथा कषाय रस का संयोग, ६. अम्ल तथा लवण रस का संयोग, ७. अम्ल तथा तिक्त रस का संयोग, ८. अम्ल तथा कटु रस का संयोग, ९. अम्ल तथा कषाय रस का संयोग, १०. लवण तथा तिक्त रस का संयोग, ११. लवण तथा कटु रस का संयोग, १२. लवण तथा कषाय रस का संयोग, १३. तिक्त तथा कटु रस का संयोग, १४. तिक्त तथा कषाय रस का संयोग और १५. कटु तथा कषाय रस का संयोग।

त्रिक रससंयोग के २० भेद-१. मधुर, अम्ल, लवण रसों का संयोग; २. मधुर, अम्ल, तिक्त रसों का संयोग; ३. मधुर, अम्ल, कटु रसों का संयोग; ४. मधुर, अम्ल, कषाय रसों का संयोग; ५. मधुर, लवण, तिक्त रसों का संयोग; ६. मधुर, लवण, कटु रसों का संयोग; ७. मधुर, लवण, कषाय रसों का संयोग; ८. मधुर, तिक्त, कटु रसों का संयोग; ९. मधुर, तिक्त, कषाय रसों का संयोग; १०. मधुर, कंटु, कषाय रसों का संयोग; ११. अम्ल, लवण, तिक्त रसों का संयोग; १२. अम्ल, लवण, कटु रसों का संयोग; १३. अम्ल, लवण, कषाय रसों का संयोग; १४. अम्ल, तिक्त, कटु रसों का संयोग; १५. अम्ल, तिक्त, कषाय रसों का संयोग; १६. अम्ल, कटु, कषाय रसों का संयोग; १७. लवण, तिक्त, कटु रसों का संयोग; १८. लवण, तिक्त, कषाय रसों का संयोग; १९. लवण, कटु, कषाय रसों का संयोग और २०. तिक्त, कटु, कषाय रसों का संयोग। षडास्वाद रससंयोग का १ भेद-१. मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु, कषाय रसों का संयोग। इस प्रकार ६ + ६ + १५ + १५ + २० + १ = रसकल्पना के ६३ भेद किये गये हैं। इनका उपयोग चिकित्सा काल में किया जाता है।

ते रसानुरसतो रसभेदास्तारतम्यपरिकल्पनया
सम्भवन्ति गणनां समतीता दोषभेषजवशादुपयोज्याः॥४४॥

इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने रसभेदीयो नाम दशमोऽध्यायः॥१०॥

रससंयोगों के असंख्य भेद-वे ( उपर्युक्त) रसभेद रस तथा अनुरस के भेद से एवं तर-तम भाव की परिकल्पना से असंख्य हो जाते हैं। तथापि उन रससंयोग-भेदों का प्रयोग वात आदि दोषों का तथा हरीतकी आदि औषध-द्रव्यों के रस-अनुरस आदि का विचार करके यथोचित प्रकार से उपयोग करना चाहिए।। ४४॥

वक्तव्य—रसानुरस—प्रत्येक द्रव्य में एक प्रधान रस तथा एकाधिक अनुरस रहते ही हैं। जैसे—हरीतकी का प्रधान रस कषाय है, शेष लवण रहित चार रस उसके अनुरस हैं। यथा—'हरीतकी पञ्चरसाऽलवणा तुवरा परम्'। और भी कहा गया है—'द्रव्यमेकरसं नास्ति, न रोगोऽप्येकदोषजः' । अस्तु ।

तारतम्य–तर-तम के भाव को 'तारतम्य' कहते हैं। दो द्रव्यों में एक को उत्तम या अधम बतलाने के लिए 'तर' का प्रयोग होता है और वही अनेक में एक को बतलाने के लिए 'तम' का प्रयोग होता है। दूसरा प्रयोग इस प्रकार है—यह द्रव्य उससे गुरुतर है अथवा यह द्रव्य उन सबमें गुरुतम है। इसी प्रकार लघुतर, लघुतम प्रयोग भी होते हैं, तीसरा प्रयोग है—मधुर, मधुरतर, मधुरतम आदि।

इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में रसभेदीय नामक दसवाँ अध्याय समाप्त ॥१०॥

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