स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय अष्टांगहृदयवाग्भट
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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग
पञ्चदशोऽध्यायः
अथातः शोधनादिगणसङ्ग्रहमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः।
अब हम यहाँ से शोधनादिगणसंग्रह नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।
उपक्रम-द्विविधोपक्रमणीय नामक अध्याय का वर्णन करने के बाद अब यहाँ से शोधनादिगणसंग्रह नामक अध्याय का आरम्भ किया जा रहा है। इसके पूर्व अध्याय में अनेक प्रकार की चिकित्सा-विधियों का वर्णन सूत्र रूप में किया गया था। अब इस प्रकरण में शोधन आदि कर्म के उपयोगी औषधगणों के संग्रह की चर्चा की जायेगी।
संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–च.सू. ४; सु.सू. ३७, ३८, ३९ एवं अ.सं.सू. १४, १५, १६ में देखें।
मदनमधुकलम्बानिम्बबिम्बीविशालात्रपुसकुटजमूर्वादेवदालीकृमिघ्नम् ।
विदुलदहनचित्राः कोशवत्यौ करञ्जः कणलवणवचैलासर्षपाश्च्छर्दनानि ॥१॥
वमनकारक द्रव्य—मैनफल, मुलेठी, लम्बा ( कटुतुम्बी), निम्ब ( नीम ), बिम्बी ( कड़वी तुण्डिकेरी), इन्द्रायण, त्रपुस ( काली निशोथ, अन्यत्र खीरा), कुटज, मूर्वा, देवदाली ( बन्दालडोडा), वायविडंग, जलवेतस, चित्रक, कडुआ परबल, कोशातकी, राजकोशातकी, करञ्ज, पिप्पली, लवण, बालवच, इलायची तथा सफेद (पीली ) सरसों॥१॥
वक्तव्य—ऊपर निर्दिष्ट औषधद्रव्यों को वमनकारक कहा गया है, किन्तु इनमें कतिपय द्रव्य ऐसे हैं, जिनके स्वतन्त्र गुण वामक नहीं हैं। जैसे—मधुक (मुलेठी), एला ( इलायची) तथा त्रपुस का अर्थ जिन्होंने 'खीरा' किया है, वह भी। इसके बाद एक प्रकाश की किरण दिखलायी पड़ी, वह है-सुश्रुत की अमृतोपम वाणी—'समस्तं वर्गमधु वा यथालाभमथापि वा। प्रयुञ्जीत भिषक् प्राज्ञो यथोद्दिष्टेषु कर्मसु' ।। (सु.सू. ३७।३४) अर्थ स्पष्ट है। इस गण में कहे गये द्रव्यों के स्वतन्त्र गुणों के विवेचन की आवश्यकता नहीं पड़ती, अपितु इनका प्रयोग मिलाकर किया जाता है, क्योंकि यह सुश्रुत का सिद्धान्त-वाक्य मिश्रक वर्ग का है। मदनद्रव्य वमनकारक द्रव्यों में अग्रणी है, अतएव इस गण में उसकी सर्वप्रथम गणना की गयी है।
निकुम्भकुम्भत्रिफलागवाक्षीस्नुक्शङ्खिनीनीलिनितिल्वकानि ।
शम्याककम्पिल्लकहेमदुग्धा दुग्धं च मूत्रं च विरेचनानि ॥२॥
विरेचनकारक द्रव्य-दन्ती (जमालगोटा) की जड़, निसोत की जड़, त्रिफला, इन्द्रायण की जड़, थूहर का दूध, शंखिनी, नील के बीज, तिल्वक (लोध की छाल), अमलतास की गुद्दी, कबीला, स्वर्णक्षीरी, दूध तथा मूत्र ( गोमूत्र ) आदि द्रव्य विरेचक होते हैं।॥२॥
वक्तव्य-'तिल्वकरम्यककाम्पिल्यकपाटलीत्वचः' । (अ.सं.सू. १४॥३) उक्त विषय को अ.हृ.सू. १५।२ में देखें। वृद्धवाग्भट ने कबीला की त्वचा का प्रयोग विरेचनार्थ लेने का निर्देश दिया है, उस विषय का संशोधन हृदय में किया गया है। इसका ग्राह्य अंग सामान्य रूप से फलरज है। इसकी त्वचा का प्रयोग कुष्ठ में किया जाता है। परिचय–'इष्टिकाचूर्णसङ्काशः चन्द्रिकाढयोऽल्परेचनः । सौराष्ट्रदेशे वृक्षस्य फलरेणुः कपिल्लकः ॥ देखें-शिवदत्त-निघण्टु । इतना होने पर भी वृद्धवाग्भट का निर्देश परीक्षणीय है।
मदनकुटजकुष्ठदेवदालीमधुकवचादशमूलदारुरास्नाः
यवमिशिकृतवेधनं कुलत्या मधु लवणं त्रिवृता निरूहणानि ॥३॥
निरूहणोपयोगी द्रव्य–मैनफल, कुटज की छाल, कूठ, बन्दालडोडा, मुलेठी, बालवच, दशमूल (दोनों पञ्चमूल ), देवदारु, रासना, जौ, सौंफ या सोया, कृतवेधन (धामार्गव तरोई), कुलथी के बीज, मधु, लवण और निसोत—इन द्रव्यों का उपयोग निरुहणबस्ति के लिए करना चाहिए।॥३॥
वेल्लापामार्गव्योषदार्वीसुराला बीजं शैरीषं बार्हतं शैनवं च।
सारो माधूकः सैन्धवं तार्यशैलं त्रुट्यौ पृथ्वीका शोधयन्त्युत्तमाङ्गम्॥४॥
शिरोविरेचनोपयोगी द्रव्य–वायविडंग, अपामार्ग, व्योष ( सोंठ, मरिच, पीपल), दारुहल्दी, सफेद राल, सिरीष के बीज, वनभण्टा के बीज, सहजन के बीज, महुआ का सार, सेंधानमक, तायशैल ( सूखा रसाञ्जन), छोटी तथा बड़ी इलायची और पृथ्वीका ( हिंगुपत्री) ये द्रव्य शिरोविरेचक होते हैं। ये रूक्ष विरेचक द्रव्य हैं। इनकी नस्य देने से सिर के भीतर जमा हुआ कफ बाहर निकल आता है।॥४॥
भद्रदारु नतं कुष्ठं दशमूलं बलाद्वयम्।
वायुं वीरतरादिश्च विदार्यादिश्च नाशयेत्॥५॥
वातनाशक द्रव्य–देवदारु, तगर, कूठ, दशमूल (दोनों पञ्चमूल ), बला, अतिबला, वीरतर आदि गण (आगे २४वाँ श्लोक देखें) तथा विदार्या दि गण ( आगे ९-१०वाँ श्लोक देखें ) ये द्रव्य वातनाशक हैं॥५॥
दूर्वाऽनन्ता निम्बवासाऽऽत्मगुप्ता गुन्द्राऽभीरुः शीतपाकी प्रियङ्गुः ।
न्यग्रोधादिः पद्मकादिः स्थिरे द्वे पद्मं वन्यं सारिवादिश्च पित्तम्॥६॥
पित्तनाशक द्रव्य–दूब, जवासा, नीम, अडूसा, केवाँच, गुन्द्रा (पटेरक), शतावरी, शीतपाकी (काकणन्तिका-भेद ), प्रियंगु ( श्यामा ), न्यग्रोधादि गण (श्लोक ,४१), पद्मकादि गण (श्लोक १२), शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, कमल, नागरमोथा तथा सारिवादि गण (श्लोक ११)—इनका सेवन पित्तदोषनाशक होता है॥६॥
आरग्वधादिरर्कादिर्मुष्ककाद्योऽसनादिकः।
सुरसादिः समुस्तादिर्वत्सकादिर्बलासजित्॥७॥
कफनाशक द्रव्य-आरग्वधादि गण (श्लोक १७), अर्कादि गण (श्लोक २८), मुष्ककादि गण (श्लोक ३२), असनादि गण (श्लोक १९), सुरसादि गण (पद्य ३०), मुस्तादि गण (पद्य ४०) एवं वत्सकादि गण ( पद्य ३३ ) इन गणों में वर्णित द्रव्य कफनाशक होते हैं।।७।।
जीवन्ती काकोल्यौ मेदे द्वे मुद्गमाषपर्यो च ।
ऋषभकजीवकमधुकं चेति गणो जीवनीयाख्यः॥
जीवनीय गण—जीवन्ती, काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, मुद्गपी, माषपर्णी, ऋषभक, जीवक तथा मुलेठी—ये दस द्रव्य जीवनी शक्ति को बढ़ाने वाले हैं।॥८॥
विदारिपञ्चाङ्गुलवृश्चिकालीवृश्चीवदेवाह्वयशूर्पपर्ण्यः
कण्डूकरी जीवनहस्वसंज्ञे द्वे पञ्चके गोपसुता त्रिपादी॥९॥
विदार्यादिरयं हृद्यो बृंहणो वातपित्तहा।
शोषगुल्माङ्गमर्दोर्ध्वश्वासकासहरो गणः॥१०॥
विदार्यादि गण—विदारीकन्द, एरण्ड, मेढ़ासिंगी, पुनर्नवा, देवदारु, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, केवाँच, जीवनपञ्चमूल (अ.हृ.सू. ६।१७० ), लघुपञ्चमूल (अ.हृ.सू. ६।१६९ ), सारिवा तथा हंसराज—ये द्रव्य विदार्यादिगण के कहे गये हैं। यह गण हृदय के लिए हितकर, शरीर को पुष्ट करने वाला, वात तथा पित्त-दोषनाशक, शोष, गुल्म, अंगमर्द, ऊर्ध्वश्वास तथा कास रोगों का विनाशक है।।९-१०।।
सारिवोशीरकाश्मर्यमधूकशिशिरद्वयम्।
यष्टी परूषकं हन्ति दाहपित्तास्रतृड्ज्वरान् ॥११॥
सारिवादि गण—सारिवा, खस, गम्भार, महुआ, सफेदचन्दन, लालचन्दन, मुलेठी तथा फालसा—ये द्रव्य सारिवादि गण के हैं। इन द्रव्यों का प्रयोग करने से दाह, पित्तज रोग, रक्तज रोग, तृषा (प्यास) तथ ज्वर का नाश हो जाता है।।११।।
पद्मकपुण्ड्रौ वृद्धितुगद्यः शृङ्गयमृता दश जीवनसंज्ञाः।
स्तन्यकरा घ्नन्तीरणपित्तं प्रीणनजीवनबृंहणवृष्याः॥१२॥
पद्मकादि गण—पद्मकाष्ठ, पुण्ड्र (प्रपौण्डरीक), वृद्धि (महाश्रावणी), वंशलोचन, ऋद्धि, काकड़ासिंगी, गुरुच तथा जीवनीय गण के दस द्रव्य (देखें—पद्य ८वाँ)—इसे पद्मकादि गण कहते हैं। यह दूध को बढ़ाता है, वातज, पित्तज रोगों को नष्ट करता है, तृप्तिकारक है, जीवनीय शक्ति को बढ़ाता है, शरीर को पुष्ट करता है तथा वीर्यवर्धक है।। १२ ।।
परूषकं वरा द्राक्षा कट्फलं कतकात् फलम् ।
राजाह्न दाडिमं शाकं तृण्मूत्रामयवातजित् ॥१३॥
परूषकादि गण—फालसा, त्रिफला, दाख या मुनक्का, कायफल ( काफल), निर्मली के बीज, खिरनी के फल, दाडिम (अनार) तथा सागवान के फल- -इनका प्रयोग प्यास लगने में, मूत्रज तथा वातज विकारों का शमन करता है।॥१३॥
अञ्जनं फलिनी मांसी पद्मोत्पलरसाञ्जनम्।
सैलामधुकनागाह्र विषान्तर्दाहपित्तनुत्॥१४॥
अञ्जनादि गण—काला सुरमा, सफेद सुरमा ( इन दोनों को स्रोतोञ्जन तथा सौवीराजन भी कहते हैं), फलिनी ( प्रियंगु ), जटामांसी, कमल, नीलकमल, रसवत, बड़ी इलायची, मुलेठी और नागकेसर—इनका प्रयोग विषविकार, अन्तर्दाह ( भीतरी जलन ) तथा पित्तविकारों का शमन करता है।।१४।।
पटोलकटुरोहिणीचन्दनं मधुम्रवगुडूचिपाठान्वितम्।
निहन्ति कफपित्तकुष्ठज्वरान् विषं वमिमरोचकं कामलाम् ॥१५॥
पटोलादि गण—परबल, कुटकी, सफेदचन्दन, मधुम्रव ( मुरंगी), गुरुच तथा पाठा—यह गण कफज रोग, पित्तज रोग, कुष्ठरोग, ज्वर, विषविकार, वमन, अरोचक तथा कामला रोगों का शमन करता है।। १५ ।।
वक्तव्य—मधुम्रव शब्द के 'वैद्यकशब्दसिन्धु' में अनेक पर्याय इस प्रकार मिलते हैं—मधुक वृक्ष, मोरटलता, मूर्वा, चोरमूर्वा, हंसपदी, पिण्डखजूर का वृक्ष, जीवन्ती, मधुयष्टि, जटामांसी, लाल लज्जालु।
गुडूचीपद्मकारिष्टधानकारक्तचन्दनम्। पित्तश्लेष्मज्वरच्छर्दिदाहतृष्णाघ्नमग्निकृत् ॥१६॥
गुडूच्यादि गण——गुरुच, पद्मकाष्ठ, नीम की छाल, धनियाँ तथा लालचन्दन—यह गण पित्तज विकार, कफज विकार, ज्वर, वमन, दाह, प्यास का लगना; इन विकारों को दूर करता है एवं जठराग्नि को प्रज्वलित करता है।।१६।।
आरग्वधेन्द्रयवपाटलिकाकतिक्तानिम्बामृतामधुरसास्रुववृक्षपाठाः ।
भूनिम्बसैर्यकपटोलकरञ्जयुग्मसप्तच्छदाग्निसुषवीफलबाणघोण्टाः ॥१७॥
आरग्वधादिर्जयति छर्दिकुष्ठविषज्वरान्।
कर्फ कण्डूं प्रमेहं च दुष्टव्रणविशोधनः॥१८॥
आरग्वधादि गण—अमलतास, इन्द्रजौ ( कुटजबीज ), पाढ़ल, करंज, नीम, गुरुच, मूर्वा, सुववृक्ष ( या स्रुवतरु-विकंकत वृक्ष), पाठा, चिरायता, कटसरैया, परबल, लताकरंज, करंज (कंजू या डिठोरी), छतिवन, चित्रक, कलौंजी, मैनफल, सहचर तथा सुपारी; यह गण वमन, कुष्ठ, विषविकार, ज्वर, कफज रोग, खुजली तथा प्रमेहरोग को नष्ट करता है एवं दूषित व्रण को शुद्ध करता है। १७-१८।।
असनतिनिशभूर्जश्वेतवाहप्रकीर्याः खदिरकदरभण्डीशिंशिपामेषशृङ्गयः।
त्रिहिमतलपलाशा जोङ्गकः शाकशालौ क्रमुकधवकलिङ्गच्छागकर्णाश्वकर्णाः ॥१९॥
असनादिर्विजयते श्वित्रकुष्ठकफक्रिमीन्।
पाण्डुरोगं प्रमेहं च मेदोदोषनिबर्हणः॥२०॥
असनादि गण—विजयसार, तिनिश, भोजपत्र, अर्जुन, डिठोरी, खैरसार, श्वेतसार, सिरस, शीशम, मेढ़ासिंगी, सफेदचन्दन, लालचन्दन, दारुहल्दी, ताड़, पलाश, अगुरु, सागवान, सालवृक्ष, सुपारी, धव, इन्द्रजौ, अजकर्ण एवं अश्वकर्ण—यह गण श्वित्र ( सफेद कोढ़), कुष्ठरोग, कफज रोग, क्रिमिरोग, पाण्डुरोग, प्रमेह तथा मेदोदोष ( मोटापा) इन विकारों को नष्ट करता है।। १९-२०।।
वरुणसैर्यकयुग्मशतावरीदहनमोरटबिल्वविषाणिकाः ।
द्विबृहतीद्विकरञ्जजयाद्वयं बहलपल्लवदर्भरुजाकराः॥२१॥
वरुणादिः कर्फ मेदो मन्दाग्नित्वं नियच्छति। आढ्यवातं शिरःशूलं गुल्मं चान्तः सविद्रधिम् ॥ वरुणादि गण–वरुण (वरना), लाल फूल वाली कटसरैया, सफेद फूल वाली कटसरैया, शतावर, चित्रक, मूर्वा, बेल, काकड़ासिंगी, कण्टकारी, वनभण्टा, करंज, पूतिकरंज, अरणी, हरे, सहजन, दर्भ ( कुशभेद) तथा रुजाकर ( हिन्ताल)—यह गण कफज विकार, मेदोविकार, मन्दाग्नि, ऊरुस्तम्भ, शिरःशूल, गुल्मविकार तथा विद्रधि ( भीतर की ओर मुँह वाला फोड़ा) को नष्ट करता है।।२१-२२ ।।
ऊषकस्तुत्थकं हिङ्गु कासीसद्वयसैन्धवम्।
सशिलाजतु कृच्छ्राश्मगुल्ममेदःकफापहम् ॥२३॥
ऊषकादि गण—ऊषक (कल्लर), तूतिया ( औषध-प्रयोग में इसे भून कर लिया जाता है), हींग, हरा कासीस, सेंधानमक तथा शिलाजीत—यह गण मूत्रकृच्छ्र, अश्मरी (पथरी), गुल्म, मेदोविकार एवं कफज विकार को शान्त करता है।। २३ ।।
वेल्लन्तरारणिकबूकवृषाश्मभेदगोकण्टकेत्कटसहाचरबाणकाशाः ।
वृक्षादनीनलकुशद्वयगुण्ठगुन्द्राभल्लूकमोरटकुरण्टकरम्भपार्थाः ॥२४॥
वर्गो वीरतराद्योऽयं हन्ति वातकृतान् गदान्।
अश्मरीशर्करामूत्रकृच्छ्राघातरुजाहरः॥२५॥
वीरतर्वादि गण—वीरतरु, अग्निमन्थ (अरणि ), बूक ( ईश्वरमल्लिका ), अडूसा, पाषाणभेद, गोखरू, इत्कर, सहचर, बाण (नीले फूल वाली कटसरैया), काश, वन्दा, नलसर (नरकट), कुश, दर्भ (डाभ), गुण्ठ ( कुन्द्र), गुन्द्रा (पटेरक), भल्लूक (सोनापाठा), मोरट (क्षीरमोरट), कुरण्ट (सिलियारा), करम्भ ( उत्तम अरणि ) और पार्थ ( सुवर्चला—हुलहुल)—यह गण वातज विकारों, अश्मरी ( पथरी ), शर्करा, मूत्रकृच्छ्र तथा मूत्राघात की पीड़ा का शमन करता है।। २४-२५ ।।
रोधशाबरकरोध्रपलाशा जिङ्गिणीसरलकट्फलयुक्ताः।
कुत्सिताम्बकदलीगतशोकाः सैलवालुपरिपेलवमोचाः॥२६॥
एष रोध्रादिको नाम मेदःकफहरो गणः।
योनिदोषहरः स्तम्भी वर्गो विषविनाशनः ॥२७॥
रोधादि गण—लोध, पठानीलोध, पलाश, जिंगिणी ( काला सेमल), सरल (चीड़ वृक्ष), कायफल, रासना, कदम्ब, केला, अशोक, ऐलवालुक, मोथा एवं मोच (सलई) यह गण मेदोदोष, कफज रोग, योनिविकारनाशक, मलस्तम्भक, वर्ण को उज्ज्वल करने वाला तथा विषविकार को नष्ट करता है।।२६-२७ ।।
अर्कालर्को नागदन्ती विशल्या भाम रास्ना वृश्चिकाली प्रकीर्या ।
प्रत्यक्पुष्पी पीततैलोदकीर्या श्वेतायुग्मं तापसानां च वृक्षः॥२८॥
अयमर्कादिको वर्गः कफमेदोविषापहः।
कृमिकुष्ठप्रशमनो विशेषाव्रणशोधनः॥२९॥
अर्कादि गण—आक (मदार), अलर्क ( सफेद फूल वाला मदार ), नागदमन, कलिहारी, भारंगी, रासना, ऊँटकटारा, करंज, अपामार्ग (चिरचिटा), मालकाँगुनी, डिठौरी, दोनों श्वेता (किणही, पालिन्दी) तथा तापसवृक्ष ( इंगुदी )—यह गण कफज विकार, मेदोरोग, विषविकार, क्रिमिरोग तथा कुष्ठरोग नाशक है; विशेष करके यह दुष्टव्रणों का शोधक है।। २८-२९ ।।
सुरसयुगफणिज्ज कालमाला विडङ्गं खरबुसवृषकर्णीकट्फलं कासमर्दः ।
क्षवकसरसिभामकार्मुकाः काकमाची कुलहलविषमुष्टीभूस्तृणो भूतकेशी ॥३०॥
सुरसादिर्गणः श्लेष्ममेदःकृमिनिषूदनः।
प्रतिश्यायारुचिश्वासकासघ्नो व्रणशोधनः ॥३१॥
सुरसादि गण—सफेद तुलसी, काली तुलसी, मरुवा, कालमाला ( कुठेरक), वायविडंग, खरबुस (तुलसी), मूसाकर्णी, कायफल, कासमर्द (कसौंदी), नकछिंकनी, जलधनियाँ, भारंगी, कार्मुका (रक्तमंजरी), मकोय या गुड़फला, कुलहल (भूकदम्ब ), कुचिला, सुगन्धितृण तथा जटामांसी—यह गण कफज विकार, मेदोरोग, क्रिमिज रोग, प्रतिश्याय, भोजन के प्रति अरुचि, श्वास एवं कास रोग का शमन करता है; विशेषकर यह व्रणशोधक होता है।। ३०-३१ ।।
मुष्ककस्नुग्वराद्वीपिपलाशधवशिंशिपाः।
गुल्ममेहाश्मरीपाण्डुमेदोऽर्शःकफशुक्रजित् ॥ ३२॥
मुष्ककादि गण—मोखा, सेहुण्ड, त्रिफला, चित्रक, पलाश, धव तथा शीशम—यह गण गुल्म, प्रमेह, अश्मरी (पथरी), पाण्डुरोग, मेदोरोग, बवासीर, कफज विकार एवं शुक्र (वीर्य) सम्बन्धी दोषों को दूर करता है।॥ ३२॥
वत्सकमूर्वाभार्ङ्गीकटुका मरीचं घुणप्रिया च गण्डीरम् ।
एला पाठाऽजाजी कट्वङ्गफलाजमोदसिद्धार्थवचाः॥३३॥
जीरकहिङ्गविडङ्गं पशुगन्धा पञ्चकोलकं हन्ति ।
चलकफमेदःपीनसगुल्मज्वरशूलदुर्नाम्नः॥
वत्सकादि गण-कुटज, मूर्वा, भारंगी, कुटकी, कालीमरिच, अतीस, थूहर, इलायची, पाठा, जीरा, सोनापाठा, मैनफल, अजवाइन, पीली सरसों, बालवच, कालाजीरा, हींग, वायविडंग, अजमोद और पंचकोल (पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक तथा सोंठ)—यह गण वातज विकार, कफज विकार, मेदोरोग, पीनस, गुल्म, ज्वर, शूल एवं बवासीर रोगों को नष्ट करता है।। ३३-३४।।
वचाजलददेवाह्वनागरातिविषाभयाः ।
हरिद्राद्वययष्टयाह्वकलशीकुटजोद्भवाः॥३५॥
वचाहरिद्रादिगणावामातीसारनाशनौ
मेदःकफाढ्यपवनस्तन्यदोषनिबर्हणौ ।। ३६ ।।
वचादि गण—बालवच, नागरमोथा, देवदारु, सोंठ, अतीस तथा हरीतकी (हरड़ या हरे)। हरिद्रादि गण—हल्दी, दारुहल्दी ( किरमोड़ा की छाल), मुलहठी, पृष्ठपर्णी तथा इन्द्रजौ। उक्त दोनों गण के ये द्रव्य आमातिसार, मेदोरोग, कफजरोग, आढ्यवात (ऊरुस्तम्भ ) एवं स्तन्यदोषों को नष्ट करते हैं।। ३५-३६ ।।
प्रियगुपुष्पाजनयुग्मपद्माः पद्माद्रजो योजनवल्लयनन्ता।
मानद्रुमो मोचरसः समङ्गा पुन्नागशीतं मदनीयहेतुः॥ ३७ ।।
अम्बष्ठा मधुकं नमस्करी नन्दीवृक्षपलाशकच्छुराः।
रोधं धातकिबिल्वपेशिके कट्वङ्गः कमलोद्भवं रजः॥३८॥
गणौ प्रियङ्ग्वम्बष्ठादी पक्वातीसारनाशनौ ।
सन्धानीयौ हितौ पित्ते व्रणानामपिरोपणौ ॥ ३९ ॥
प्रियंग्वादि गण—प्रियंगु (गोंदनी) या प्रियंगुपुष्प (प्रियंगु के फूल), पुष्प ( जस्ता का लावा या फूल, जिसे जयपुरी सफेदा भी कहते हैं), अञ्जनयुग्म (काला तथा सफेद सुरमा), पद्मा (पद्मचारिणी), कमल का केसर, मजीठ, जवासा, सेमल, सेमल की गोंद, नमस्कारी (लज्जावन्ती), नागकेशर, सफेदचन्दन तथा धाय के फूल।
अम्बष्ठादि गण—अम्बष्ठा (पाठा), मुलहठी, लज्जावन्ती, पारसपीपल, पलाश, धमासा, लोध, फूल, बेल की गिरी, सोनापाठा एवं कमल का केसर।
उक्त दोनों गण पक्वातीसार को नष्ट करते हैं, अस्थिभंग को जोड़ते हैं, पित्तज विकारों में हितकर होते हैं तथा व्रणरोपण (फोड़ा के घाव को भरने वाले) होते हैं।। ३७-३९ ।।
मुस्तावचाग्निद्विनिशाद्वितिक्ताभल्लातपाठात्रिफलाविषाख्याः ।
कुष्ठं त्रुटी हैमवती च योनिस्तन्यामयघ्ना मलपाचनाश्च ॥ ४० ॥
मुस्तादि गण-नागरमोथा, बालवच, चित्रक, हल्दी, दारुहल्दी, द्वितिक्ता (कुटकी, यवतिक्ता), भिलावा, पाठा, त्रिफला, विषाख्या ( अतिविषा = अतीस ), कूठ, इलायची तथा सफेद वच—यह गण योनिरोग तथा स्तन्यरोग को नष्ट करता है और यह मल का पाचन करता है।॥४०॥
न्यग्रोधपिप्पलसदाफलरो-युग्म जम्बूद्वयार्जुनकपीतनसोमवल्काः।
प्लक्षाम्रवजुलपियालपलाशनन्दीकोलीकदम्बविरलामधुकं मधूकम् ॥ ४१ ॥
न्यग्रोधादिर्गणो व्रण्यः सङ्ग्राही भग्नसाधनः।
मेदःपित्तास्रतृड्दाहयोनिरोगनिबर्हणः॥ ४२ ॥
न्यग्रोधादि गण—बरगद, पीपल, गूलर, लोध, पठानीलोध, जम्बूद्वय (जामुन, कठजामुन ), अर्जुन, आमड़ा, कायफल (काफल ), पाकर ( पिल्खन), आम, वेत, चिरौंजी, पलाश, पारसपीपल, बेर, कदम्ब, तेंदू, मुलेठी तथा महुआ—यह गण व्रण का शोधन एवं रोपण, ग्राही, टूटी हुई अस्थि को जोड़ने वाला, मेदोरोग, पित्तज रोग, रक्तविकार, तृषा, दाह तथा योनिरोगों का विनाशक है।।४१-४२ ।।
एलायुग्मतुरुष्ककुष्ठफलिनीमांसीजलध्यामकं
स्पृक्काचोरकचोचपत्रतगरस्थौणेयजातीरसाः
शुक्तिर्व्याघ्रनखोऽमराह्वमगुरुः श्रीवासकः कुङ्कुमं
चण्डागुग्गुलुदेवधूपखपुराः पुन्नागनागाह्वयम्॥४३॥
एलादिको वातकफौ विषं च विनियच्छति।
वर्णप्रसादनः कण्डूपिटिकाकोठनाशनः॥४४॥
एलादि गण—एलायुग्म ( बड़ी इलायची, छोटी इलायची), लोहवान या कृत्रिम गोंद या रूमी मस्तगी, कूठ, गन्धप्रियंगु, जटामांसी, नेत्रबाला, सुगन्धितृण, स्पृक्का (देवी), ग्रन्थिपर्ण, दालचीनी, तेजपत्ता, तगर, थुनेर, बोल, सीप, नाखूना, देवदारु, अगुरु, श्रीवासक (गन्धाविरोजा), केशर, चण्डा (चोर नामक गन्धद्रव्य—वै.श.सि.), गुग्गुल, राल, कुन्दरू, गोंद, लाल नागकेसर तथा नागकेसर—यह गण वातज विकार, कफज विकार तथा विषज विकार को नष्ट करता है; वर्ण को स्वच्छ करता है, खुजली, पिडका तथा कोठ रोग को भी नष्ट करता है॥४३-४४।।
श्यामादन्तीद्रवन्तीक्रमुककुटरणाशङ्खिनीचर्मसाह्वा-
स्वर्णक्षीरीगवाक्षीशिखरिरजनकच्छिन्नरोहाकरजाः ।
बस्तान्त्री व्याधिघातो बहलबहुरसस्तीक्ष्णवृक्षात् फलानि
श्यामाद्यो हन्ति गुल्मं विषमरुचिकफौ हृद्रुजं मूत्रकृच्छ्रम्॥४५॥
श्यामादि गण—काली निसोत, दन्ती ( जमालगोटा ), द्रवन्ती (मूसाकर्णी), सुपारी, सफेद निसोत, यवतिक्ता ( कालमेघ), सातला, सत्यानाशी, इन्द्रायण, अपामार्ग, कबीला, गुरुच, करंज, बस्तान्त्री (वृषगन्धा), अमलतास, बहल (बहुफल), बहुरस ( ईख ) तथा पीलु—यह गण गुल्मरोग, विषज विकार, भोजन के प्रति अरुचि, कफज विकार, हृद्रोग तथा मूत्रकृच्छ्ररोग को नष्ट करता है।।४५।।
त्रयस्त्रिंशदिति प्रोक्ता वर्गास्तेषु त्वलाभतः।
युद्ध्यात्तद्विधमन्यच्च द्रव्यं जह्यादयौगिकम् ॥ ४६॥
द्रव्यग्रहण-निर्देश—यहाँ तक तैंतीस द्रव्यवर्ग अर्थात् द्रव्यगण कहे गये हैं। इन गणों में परिगणित यदि कोई द्रव्य किसी कारण न मिल सके, तो वहाँ उसके समान गुण-धर्मों वाला दूसरा द्रव्य ले लेना चाहिए और यदि उस गण में कोई ऐसा द्रव्य हो जो रोग की दृष्टि से अयोग्य हो तो उसे निकाल देना चाहिए॥ ४६॥
वक्तव्य-प्राचीन संहिताकारों ने इस प्रकार गणों का वर्णन कर मात्रा एवं दिशा निर्देश किया है। जो द्रव्य नहीं मिलता उसके स्थान पर प्रायः उसके समान गुण वाला द्रव्य लें। जो अनुपयोगी द्रव्य हो उसे हटा दें अथवा दूसरा कोई द्रव्य उपयोगी प्रतीत हो रहा हो तो उसे जोड़ दें। यह सब ‘वृद्धवैद्योपदेशतः' अर्थात् उस-उस विषय में विशेष अनुभवी वैद्य को ही यहाँ 'वृद्ध' कहा है, न केवल आयु से बड़े को। इसकी चर्चा अन्यत्र भी की गयी है, जैसे—च्यवनप्राश के निर्माण अष्टवर्ग में वैकल्पिक द्रव्यों का निर्देश मिलता है। इस मत का समर्थन भगवान् पुनर्वसु ने च.वि. ८।१४९ में किया है, इसका अवलोकन करें।
एते वर्गा दोषदृष्याद्यपेक्ष्य कल्कक्वाथस्नेहलेहादियुक्ताः।
पाने नस्येऽन्वासनेऽन्तर्बहिर्वा लेपाभ्यङ्गैज़न्ति रोगान् सुकृच्छ्रान् ॥४७॥
इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने शोधनादिगणसङ्ग्रहो नाम पञ्चदशोऽध्यायः॥ १५ ॥
प्रयोग-विधियाँ—इस अध्याय में कहे गये वर्गों ( गणों) का वात आदि दोषों, रस-रक्त आदि दूष्यों तथा मल-मूत्र आदि मलों के अनुरूप विचार करके इन्हें कल्क ( चटनी), क्वाथ ( काढ़ा), स्नेहपाक, लेह ( अवलेह ) आदि के रूप में तैयार करके पीने, सूंघने, अनुवासन तथा निरूहण बस्ति के रूप में भीतरी प्रयोग अथवा लेप, अभ्यंग आदि बाहरी प्रयोगों द्वारा कष्टसाध्य रोगों को भी नष्ट किया जा सकता है।। ४७ ।।
वक्तव्य—महर्षि वाग्भट ने उक्त गणों का संग्रह सु.सू. ३८ एवं ३९ से किया है। द्रव्यों के संग्रह में इन्होंने कहीं कुछ द्रव्य छोड़ दिये हैं और कहीं कुछ बढ़ा दिये हैं, यह अधिकार संग्रहकर्ता को प्राप्त है। अच्छा होता यदि वे औषध-द्रव्यों के रख-रखाव की विधि का भी उल्लेख कर देते, किन्तु वह नहीं किया है, अतः आप स्वयं देख लें—सु.सू. ३८/८१ । सुश्रुत ने जो भेषजागार की विधि बतलायी है, उसे भी देखें—सु.सू. ३६।१७ और इसके अनुसार आप भी अपना भेषजागार बनायें। इसमें औषधद्रव्यों का संग्रह करके रखें।
इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में शोधनादिगणसंग्रह नामक पन्द्रहवाँ अध्याय समाप्त ॥१५।।
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