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स्वास्थ्य-चिकित्सा >> अष्टांगहृदय

अष्टांगहृदय

वाग्भट

प्रकाशक : खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :350
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15769

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आयुर्वेद के स्तम्भ ग्रंथ अष्टांगहृदय का पहला भाग


चतुर्दशोऽध्यायः

अथातो द्विविधोपक्रमणीयमध्यायं व्याख्यास्यामः।
इति ह स्माहुरात्रेयादयो महर्षयः॥

अब यहाँ से हम द्विविध उपक्रमणीय नामक अध्याय की व्याख्या करेंगे। जैसा कि आत्रेय आदि महर्षियों ने कहा था।

उपक्रम-दोषोपक्रमणीय अध्याय के बाद द्विविधोपक्रमणीय अध्याय का वर्णन करने में दोनों के बीच सामान्य तथा विशेष का सम्बन्ध है। पहले वाले अध्याय में सर्वसामान्य चिकित्सा का वर्णन किया गया था, अब इसमें दो प्रकार की चिकित्साओं का विशेष वर्णन किया जा रहा है।

संक्षिप्त सन्दर्भ-संकेत–च.सू.२१, २२, २३; सु.सू. १५, सु.चि. ११११ से १३; सु.उ. ३९ श्लोक १०२-१०५; अ.सं.सू. २४ में देखें।

उपक्रम्यस्य हि द्वित्वाद्विधैवोपक्रमो मतः।

चिकित्सा के दो भेद-उपक्रम्य (रोग) दो प्रकार का होता है—१. साम और २. निराम। अतएव इन दोनों की चिकित्सा भी विधिभेद से दो प्रकार की होती है।

एकः सन्तर्पणस्तत्र द्वितीयश्चापतर्पणः॥१॥
बृंहणो लङ्घनश्चेति तत्पर्यायावुदाहृतौ।
बृंहणं यद्गृहत्त्वाय लङ्घनं लाघवाय यत्॥२॥
देहस्य-

सन्तर्पण तथा अपतर्पण-उन दो चिकित्साओं का नाम है—१. सन्तर्पण और २. अपतर्पण। इन्हीं के पर्याय हैं- १. बृंहण और २. लंघन ( उपवास करना )। बृंहण-चिकित्सा उसे कहते हैं जिससे शरीर हृष्ट एवं पुष्ट हो जाय और लंघन उसे कहते हैं जिससे शरीर हलका हो जाय॥१-२।।

-भवतः प्रायो भौमापमितरच्च ते।

तत्त्वों की प्रधानता बृंहण-चिकित्सा में पृथिवी तत्त्व तथा जल तत्त्व की प्रधानता होती है और लंघन-चिकित्सा में शेष तीन तत्त्वों ( अग्नि, वायु एवं आकाश तत्त्व ) की प्रधानता होती है।

स्नेहनं रूक्षणं कर्म स्वेदनं स्तम्भनं च यत्॥३॥
भूतानां तदपि द्वैध्याद्वितयं नातिवर्तते।

स्नेहन आदि का वर्णन—स्नेहन, रूक्षण, स्वेदन तथा स्तम्भन ये चारों कर्म भी सन्तर्पण तथा अपतर्पण भेद से दो प्रकार के होते हैं। क्योंकि पृथिवी आदि पाँच महाभूत भी सन्तर्पण तथा अपतर्पण भेद से दो प्रकार के होते हैं।॥३॥

शोधनं शमनं चेति द्विधा तत्रापि लङ्घनम्॥४॥

प्रत्येक के दो भेद-सन्तर्पण का पर्याय बृंहण है और अपतर्पण का पर्याय लंघन है। यह लंघन भी शोधन एवं शमन भेद से दो प्रकार का कहा गया है।।४।।

यदीरयेद्बहिर्दोषान् पञ्चधा शोधनं च तत्।
निरूहो वमनं कायशिरोरेकोऽस्रविस्रुतिः॥५॥

शोधन कर्म एवं उसके भेद-शोधन-चिकित्सा वह है, जो शरीर स्थित दोषों (मलों) को बाहर निकाल देती है। यह शोधन-चिकित्सा पाँच प्रकार की होती है। जैसे—१. निरूहणबस्ति, २. वमन, ३. विरेचन, ४. शिरोविरेचन (नस्य ) तथा ५. रक्तस्रावण ।।५।।

न शोधयति यद्दोषान् समान्नोदीरयत्यपि।
समीकरोति विषमान् शमनं तच्च सप्तधा॥६॥
पाचनं दीपनं क्षुत्तृड्व्यायामातपमारुताः।

शमन के लक्षण एवं भेद-जो चिकित्सा बढ़े हुए वात आदि दोषों का शोधन न करे, समदोषों की वृद्धि भी न करे और विषम दोषों को सम करे, उसे 'शमन-चिकित्सा' कहते हैं। यह सात प्रकार की होती है। यथा—१. पाचन (आमदोषों को पचाने वाली ), २. दीपन (जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाली ), ३. क्षुत् (भूखा रहना, उपवास या लंघन करना), ४. तृट् (प्यासा रहना), ५. व्यायाम (किसी प्रकार का शारीरिक परिश्रम करना), ६. आतप (धूप में रहना या आग सेंकना) तथा ७. मारुत (शुद्ध वायु का सेवन करना)॥६॥

बृंहणं शमनं त्वेव वायोः पित्तानिलस्य च ॥७॥

बृहण के लक्षण–बृंहण नामक जो शोधन-प्रकार है, वह लंघन से अधिक उपयोगी होता है, क्योंकि बृंहण द्रव्यों को भी शोधन कहते हैं। अतः वे द्रव्य, जो स्वतन्त्र वातदोष तथा पित्तयुक्त वातदोष का शमन करते हैं, वे बृंहण कहे जाते हैं।।७।।

बृहयेव्याधिभैषज्यमद्यस्त्रीशोककर्शितान् ।
भाराध्वोरःक्षतक्षीणरूक्षदुर्बलवातलान् ॥८॥
गर्भिणीसूतिकाबालवृद्धान् ग्रीष्मेऽपरानपि।

सन्तर्पण योग्य रोग-रोगी-ज्वर आदि रोगों से, मद्यपान करने से, अधिक स्त्री-सहवास करने से अथवा शोक से जो कृश हो गये हों उनकी; अधिक भार ढोने से, रास्ता चलने से अथवा उर:क्षत से जो क्षीण हो गये हों उनकी; रूक्ष शरीर वालों की, दुर्बलों की, वातरोगियों की, गर्भवती की, प्रसूता बालकों तथा वृद्धों की एवं ग्रीष्म ऋतु में सभी की बृंहण (सन्तर्पण ) चिकित्सा करनी चाहिए।।८।।

मांसक्षीरसितासर्पिर्मधुरस्निग्धबस्तिभिः ॥९॥
स्वप्नशय्यासुखाभ्यङ्गस्नाननिर्वृतिहर्षणैः ।

सन्तर्पण-चिकित्सा के उपादान—मांस, दूध, मिश्री, घी, मधुररस-प्रधान पदार्थ ( मुनक्का, किशमिश, बादाम, काजू, चिरौंजी आदि), मधुर एवं स्निग्ध पदार्थों द्वारा निर्मित बस्तियों का प्रयोग, सुखद शय्या में सुखपूर्वक सोना, अभ्यंग ( उबटन ), स्नान, निश्चिन्तता तथा प्रसन्न रहना।।९।।

मेहामदोषातिस्निग्धज्वरोरुस्तम्भकुष्ठिनः ॥१०॥
विसर्पविद्रधिप्लीहशिरःकण्ठाक्षिरोगिणः।
स्थूलांश्च लङ्घयेन्नित्यं शिशिरे त्वपरानपि ॥११॥

अपतर्पण योग्य रोग-रोगी–प्रमेह, आमदोष ( आमज्वर, आमातिसार तथा आमवात आदि), अतिस्निग्ध, ज्वररोगी, ऊरुस्तम्भ, कुष्ठरोगी, विसर्प, विद्रधि, प्लीहरोगी, शिरोरोगी, गलरोगी, नेत्ररोगी (आमाभिष्यन्द ) तथा स्थूलता रोग से पीड़ितों की शिशिर ऋतु में और इस प्रकार के अन्य रोगियों की भी अपतर्पण चिकित्सा करनी चाहिए।।१०-११ ।।

तत्र संशोधनैः स्थौल्यबलपित्तकफाधिकान्।
आमदोषज्वरच्छर्दिरतीसारहृदामयैः॥१२॥
विबन्धगौरवोद्गारहृल्लासादिभिरातुरान् ।
मध्यस्थौल्यादिकान् प्रायः पूर्वं पाचनदीपनैः॥१३॥
एभिरेवामयैरार्तान् हीनस्थौल्यबलादिकान् ।
क्षुत्तृष्णानिग्रहैर्दोषैस्त्वार्तान् मध्यबलैर्दृढान् ॥१४॥
समीरणातपायासैः किमुताल्पबलैनरान्।

शोधन-शमन के योग्य रोग-रोगी—पहले पद्यों में शोधन तथा शमन भेद से दो प्रकार का लंघन ( हलका करने का उपाय ) कहा गया है। यहाँ शोधन का विवेचन किया जा रहा है—संशोधन-चिकित्सा विधि से अधिक स्थूलता ( मोटापा) से पीड़ित, अधिक बलवान्, अधिक पित्त तथा कफ वालों की चिकित्सा करनी चाहिए।

आमदोष, ज्वर, वमन, अतिसार, हृद्रोग, विबन्ध, भारीपन, उद्गार (डकार), जी मिचलाना आदि रोगों से पीड़ितों की तथा मध्यम कोटि की स्थूलता, मध्यमबल, मध्यम पित्त तथा कफ वाले रोगियों की पहले पाचन तथा दीपन नामक चिकित्साविधियों से चिकित्सा करें।

उक्त आमदोष आदि रोगों से पीड़ित किन्तु हीन कोटि की स्थूलता, बल आदि वालों की चिकित्सा भूख-प्यासनिग्रह नामक अपतर्पणों से करें।

मध्यम कोटि के बल वाले उपर्युक्त आमदोष आदि रोगों से पीड़ित किन्तु बलवान् रोगियों की चिकित्सा वातसेवन, आतप (धूप ) सेवन तथा व्यायाम आदि अपतर्पणों से करें।

अल्प बल वाले आमदोष आदि ऊपर कहे गये रोगों से पीड़ित अल्प बल वाले रोगियों की चिकित्सा वातसेवन, धूपसेवन तथा व्यायाम आदि अपतर्पणों से करें ।।१२-१४॥

वक्तव्य–यहाँ सन्तर्पण तथा अपतर्पण विधियों से चिकित्सा का निर्देश किया गया है। इस प्रसंग में ऊपर कहे गये रोगों एवं रोगियों में से कुछ रोग-रोगी वे हैं जिन्हें शोधन नामक अपतर्पण और कुछ को शमन नामक अपतर्पण का प्रयोग कराया जाता है। चिकित्सा काल में इस ओर भी ध्यान देना चाहिए।

न बृहयेल्लङ्घनीयान्-

सन्तर्पण का निषेध-लंघन (अपतर्पण) कराने के योग्य (प्रमेहरोगी, आमदोष युक्त आदि ) रोगियों को बृंहण ( सन्तर्पण) योगों का प्रयोग न करायें।

-बॅह्यांस्तु मृदु लङ्घयेत्॥१५॥
युक्त्या वा देशकालादिबलतस्तानुपाचरेत् ।

अपतर्पण-निर्देश—जो व्यक्ति सन्तर्पण के योग्य हैं, उनको अपतर्पण (लंघन) दिया जा सकता है। अथवा उनकी देश, काल आदि ( सात्म्य ) का विचार करके चिकित्सा की जा सकती है।। १५ ।।

वक्तव्य-कब कहाँ क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, इस सम्बन्ध में भगवान् पुनर्वसु के निर्देशों पर ध्यान दें—च.सि. २।२५-२७ अर्थात् जो शास्त्र में बतलाया गया है बुद्धिमान् चिकित्सक को वैसा ही करना है, किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं करना चाहिए। अपितु उसे चाहिए कि स्वयं भी तर्क-वितर्क करके अपने कर्तव्य का निश्चय करे, क्योंकि देश, काल तथा रोग बल एवं रोगी के बल के अनुसार कभी ऐसी भी अवस्था आ जाती है, जिसमें अकार्य भी करना पड़ता है और कार्यविधि को भी छोड़ना पड़ जाता है। जैसे—छर्दि, हृद्रोग तथा गुल्मरोगों में वमन कराना सामान्य रूप से निषिद्ध है, किन्तु जहाँ-जहाँ इनकी स्वतन्त्र चिकित्सा कही गयी है वहाँ परिस्थिति-विशेष में वमन कराने का विधान मिलता है। इसी प्रकार कुष्ठरोगी के लिए बस्तिकर्म निषिद्ध है, परन्तु अवस्था-विशेष में निरूहणबस्ति देने का विधान किया गया है।

बृंहिते स्याद्बलं पुष्टिस्तत्साध्यामयसङ्घयः॥१६॥

सन्तर्पण के लाभ-भलीभाँति सन्तर्पण-विधि के हो जाने पर शरीर बलवान् एवं पुष्ट हो जाता है और सन्तर्पण-विधि द्वारा साध्य रोगों का क्षय भी हो जाता है।।१६।।

विमलेन्द्रियता सर्गो मलानां लाघवं रुचिः।
क्षुत्तृट्सहोदयः शुद्धहृदयोद्गारकण्ठता ॥ १७ ॥
व्याधिमार्दवमुत्साहस्तन्द्रानाशश्च लङ्घिते।

अपतर्पण के लाभ-भलीभाँति अपतर्पण के हो जाने पर इन्द्रियों में निर्मलता, मल-मूत्र आदि का सुख से निकलना, शरीर में हलकापन, भोजन के प्रति रुचि का होना, भूख तथा प्यास का साथ-साथ लगना, हृदय, उद्गार ( डकार ) तथा कण्ठप्रदेश का शुद्ध होना, रोगों का घट जाना, उत्साह की वृद्धि एवं तन्द्रा का नाश—ये लक्षण होते हैं।।१७॥

अनपेक्षितमात्रादिसेविते कुरुतस्तु ते॥१८॥
अतिस्थौल्यातिकाादीन्, वक्ष्यन्ते तेच सौषधाः।

योग, अतियोग, हीनयोग—अनपेक्षित ( जितनी आवश्यकता नहीं है उतने) सन्तर्पणकारक द्रव्यों का सेवन करने से अतिस्थूलता (मोटापा) आदि रोग हो जाते हैं तथा अधिक अपतर्पणकारक द्रव्यों या विधियों का सेवन करने से अत्यन्त कृशता आदि रोग हो जाते हैं। आगे इन रोगों का चिकित्सा सहित वर्णन किया जायेगा।।१८॥

रूपं तैरेव च ज्ञेयमतिबृंहितलचिते॥१९॥

उनके लक्षण—उक्त अतिस्थूलता तथा अतिकृशता आदि लक्षणों द्वारा क्रमशः यह जान लेना चाहिए कि अतिस्थूल में अतिसन्तर्पण तथा अतिकृश में अतिअपतर्पण हो गया है।। १९ ।।

अतिस्थौल्यापचीमेहज्वरोदरभगन्दरान्।
काससन्न्यासकृच्छ्रामकुष्ठादीनतिदारुणान् ॥२०॥

अतिस्थूलता आदि रोग—अतिसन्तर्पण (बृंहण ) के कारण होने वाले रोगों के नाम—अतिस्थूलता (मोटापा), अपची, प्रमेह, ज्वर, उदररोग, भगन्दर, कास, संन्यास, मूत्रकृच्छ्र, आमवात, कुष्ठ आदि अत्यन्त कष्टदायक रोग हो जाते हैं।। २० ॥

तत्र मेदोऽनिलश्लेष्मनाशनं सर्वमिष्यते।

चिकित्सा-सूत्र-उक्त स्थूलता आदि रोगों में मेदोधातु, वातदोष तथा कफदोष को नष्ट करने वाले आहार-विहारों तथा औषधों का प्रयोग करना चाहिए।

कुलत्थजूर्णश्यामाकयवमुद्गमधूदकम् ॥२१॥
मस्तुदण्डाहतारिष्टचिन्ताशोधनजागरम्।
मधुना त्रिफलां लिह्याद्गुडूचीमभयां घनम्॥२२॥
रसाञ्जनस्य महतः पञ्चमूलस्य गुग्गुलोः।
शिलाजतुप्रयोगश्च साग्निमन्थरसो हितः॥२३॥
विडङ्गं नागरं क्षारः काललोहरजो मधु।
यवामलकचूर्णं च योगोऽतिस्थौल्यदोषजित् ॥२४॥

विशेष चिकित्सा–खान-पान—कुलथी (गहत या धौत ), ज्वार, सावाँ, जौ, मूंग, मधु मिला हुआ जल, दही का पानी, मठा, आसव, अरिष्ट, चिन्ता करना, शोधन (वमन-विरेचन ) और रात्रि में जागना—इनका सेवन करना चाहिए।

औषध-प्रयोग–त्रिफलाचूर्ण को, गुरुच का स्वरस, केवल हरीतकी के चूर्ण को अथवा नागरमोथा के चूर्ण को मधु के साथ मिलाकर चाटना चाहिए।

रसाञ्जन (रसवत ) का, बिल्वादि महापञ्चमूल (बेल, अरणी, सोनापाठा, गम्भार, पाढ़ल) का, शुद्ध गुग्गुल का अथवा शुद्ध शिलाजीत का सेवन अरणी की छाल के क्वाथ ( काढ़ा) के साथ बहुत समय तक करना चाहिए।

विडंगादि योग–वायविडंग, सोंठ, जौखार अथवा कोई भी क्षार, कालायस भस्म, जौ का चूर्ण और आँवला का चूर्ण-इन सबको मधु के साथ मिलाकर सेवन करने से अतिस्थूलता का विनाश होता है।। २१-२४॥

व्योषकट्वीवराशिग्रुविडङ्गातिविषास्थिराः।
हिङ्गुसौवर्चलाजाजीयवानीधान्यचित्रकाः॥२५॥
निशे बृहत्यौ हपुषा पाठा मूलं च केम्बुकात्।
एषां चूर्णं मधु घृतं तैलं च सदृशांशकम् ॥
सक्तुभिः षोडशगुणैर्युक्तं पीतं निहन्ति तत् ।
अतिस्थौल्यादिकान् सर्वान् रोगानन्यांश्च तद्विधान् ।।
हृद्रोगकामलाश्वित्रश्वासकासगलग्रहान्।
बुद्धिमेधास्मृतिकरं सन्नस्याग्नेश्च दीपनम् ॥२८॥

व्योषादि योग-फलश्रुति—व्योष ( सोंठ, मरिच, पीपल), कट्वी ( कुटकी), वरा ( हरड़, बहेड़ा, आँवला), सहजन के बीज, वायविडंग, अतीस, शालपर्णी, हींग, सोंचरनमक, जीरा, अजवाइन, धनियाँ, चीता, हल्दी, दारुहल्दी की छाल, कण्टकारी, वनभण्टा, हपुषा, पाठा और करेमू की जड़-इन सब द्रव्यों का कपड़छन किया हुआ समानभाग चूर्ण १ तोला; मधु, घृत तथा तिलतैल १-१ तोला और जौ का सत्तू १६ तोला लेकर भलीभाँति मिलाकर जल में घोलकर प्रतिदिन पीना चाहिए। इसका सेवन अतिस्थूलता आदि रोगों तथा सन्तर्पण सेवन के कारण उत्पन्न होने वाले और इस प्रकार के अन्य रोगों को नष्ट करता है। हृद्रोग, कामला, श्वित्र, श्वास, कास तथा गलग्रह (देखें—च.सू. १८।२२ ) रोगों को नष्ट करता है। बुद्धि, मेधा तथा स्मृतिवर्धक एवं मन्द अग्नि को प्रदीप्त करता है॥२५-२८॥

अतिकाय भ्रमः कासस्तृष्णाधिक्यमरोचकः।
स्नेहाग्निनिद्रादृक्श्रोत्रशुक्रौजःक्षुत्स्वरक्षयः॥
बस्तिहृन्मूर्धजङ्घोरुत्रिकपार्श्वरुजा ज्वरः।
प्रलापो निलग्लानिच्छर्दिपर्वास्थिभेदनम्॥
वर्थोमूत्रग्रहाद्याश्च जायन्तेऽतिविलङ्घनात्।

कृशता आदि रोग—अधिक लंघन अथवा अधिक अपतर्पण करने से अधिक कृशता, भ्रम (चक्करों) का आना, कास, प्यास का अधिक लगना तथा भोजन के प्रति अरुचि का होना—ये लक्षण होते हैं। स्नेह, जठराग्नि, निद्रा, दृष्टि, श्रोत्र, शुक्र, ओजस्, भूख तथा स्वर का क्षय हो जाता है। बस्ति (मूत्राशय), हृदय, मूर्धा, जंघा, ऊरु, त्रिक् (स्फिक्सक्थ्नोः पृष्ठवंशास्थ्नोर्यः सन्धिस्तत् त्रिकं मतम्।) तथा पसलियों में पीड़ा, ज्वर, प्रलाप, ऊपर की ओर को वातदोष का प्रकोप होना, ग्लानि ( हर्षक्षय), वमन, पर्वो ( पोरों) तथा अस्थियों में फटने की-सी पीड़ा का होना, मल एवं मूत्र की प्रवृत्ति में रुकावट आदि विकार अधिक लंघन करने से हो जाते हैं।।२९-३०॥

कार्यमेव वरं स्थौल्यात् न हि स्थूलस्य भेषजम्॥३१॥
बृंहणं लङ्घनं वाऽलमतिमेदोऽग्निवातजित्।

स्थूलता से कृशता श्रेष्ठ स्थूल होने से कृश होना अच्छा है, क्योंकि स्थूलता की कोई सरल चिकित्सा नहीं है। क्योंकि स्थूलता रोग में मेदोधातु, जठराग्नि एवं वातदोष अधिक बढ़ जाते हैं, इनको घटाने ( कम करने ) के लिए न बृंहण-चिकित्सा ही समर्थ है और न लंघन ही समर्थ हैं।। ३१ ।।

वक्तव्य-चरक ने स्थौल्य के सम्बन्ध में विचार करते हुए कहा है—'स्थौल्यकार्ये वरं कार्यं समोप- करणौ हितौ' । (च.सू. २१।१७) अर्थात् स्थूल पुरुष की सद्यःफलदायक कोई चिकित्सा नहीं है। देखें—यदि जठराग्नि और बढ़े हुए वातदोष की शान्ति के लिए हम सन्तर्पण द्रव्यों का प्रयोग करते हैं, तो इससे मेदोधातु अधिक बढ़ जायेगा। यदि हम अपतर्पण-चिकित्सा करते हैं तो यह मेदस्वी पुरुष उसे सहन नहीं कर सकता, अतएव कहा गया है—'स्थूल होने की अपेक्षा कृश होना ही अच्छा हैं'। कृश रोगी को यथास्थिति में लाना सरल है, स्थूल को अपेक्षाकृत कृश करना कठिन होता है। यह अपने लिए तथा दूसरों के लिए बोझ होने के साथ-ही-साथ भूभार भी होता है। इसलिए चरक ने इसकी गणना 'अष्टौ निन्दितीयाध्याय' में की है। तथापि इनकी चिकित्सा का वर्णन इसी के आगे किया जा रहा है।

मधुरस्निग्धसौहित्यैर्यत्सौख्येन च नश्यति॥३२॥
क्रशिमा स्थविमाऽत्यन्तविपरीतनिषेवणैः।

कृशता-चिकित्सा–मधुर तथा घी-तेल से बने हुए आहारों को सदा भरपेट खाते रहने से तथा सुखमय जीवन बिताने से कृशता दूर हो जाती है।

स्थूलता-चिकित्सा स्थूलता जिन कारणों से उत्पन्न हुई है, उनके सर्वथा विपरीत आहार-विहारों का चिरकाल तक सेवन करने से दूर की जा सकती है। इसी को आयुर्वेदशास्त्र ने 'निदान-परिवर्जन' चिकित्सा भी कहा है।। ३२॥

योजयेद्धंहणं तत्र सर्वं पानान्नभेषजम् ॥ ३३॥

कृशता-चिकित्सा—इसमें पान (पेय—दूध आदि), अन्न (आहार-स्निग्ध पदार्थ, खीर अथवा मांस आदि ) तथा भेषज (असगन्ध आदि ) बृंहण पदार्थों का नियमित सेवन करे ॥३३॥

अचिन्तया हर्षणेन ध्रुवं सन्तर्पणेन च।
स्वप्नप्रसङ्गाच्च कृशो वराह इव पुष्यति ॥३४॥

चिन्ता (सोच-फिकर ) न करने से, प्रसन्न रहने से, सन्तर्पण पदार्थों का निरन्तर सेवन करते रहने से और अधिक सोने से कृश मनुष्य सूअर की भाँति मोटा हो जाता है।। ३४ ।।

न हि मांससमं किञ्चिदन्यद्देहबृहत्त्वकृत्।
मांसादमांसं मांसेन सम्भृतत्वाद्विशेषतः॥३५॥

मांस की महत्ता—बृंहण ( सन्तर्पण) कारक द्रव्यों में मांस के समान ऐसा कोई द्रव्य नहीं है, जो शरीर को शीघ्र मोटा कर सके। उसमें भी कच्चा मांस को खाने वाले प्राणियों का अपना मांस भी मांस को खाने के कारण ही मोटा होता है, अतः इस प्रकार के प्राणियों का मांस और भी अधिक मांसवर्धक होता है।। ३५॥

गुरु चातर्पणं स्थूले विपरीतं हितं कृशे।
यवगोधूममुभयोस्तद्योग्याहितकल्पनम् ॥३६॥

स्थूलता एवं कृशता की चिकित्सा स्थूलता में गुरु ( देर में पचने वाले ) पदार्थों का आधा पेट भोजन करना हितकारक होता है और कृशता में लघु पदार्थों का सन्तर्पण (भरपेट खाना) लाभकर होता है। जौ तथा गेहूँ के विविध पदार्थों की स्थूल एवं कृश के योग्य कल्पना करके दिये गये आहार दोनों के लिए लाभदायक होते हैं।। ३६ ।।

वक्तव्य-यद्यपि चाणक्य ने कहा है कि—'मांसान्मांसं प्रवर्धते'। यह सत्य है, परन्तु निरामिषभोजी समाज भी स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट देखा जाता है और निरामिषभोजी आमिषभोजियों की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि से अधिक सुखी जीवन बिताते हैं।

भगवान् पुनर्वसु ने जो लंघन तथा बृहण की परिभाषा दी है, वह अत्यन्त निर्धान्त है। देखें—'यत् किञ्चिल्लाघवकरं देहे तल्लङ्घनं स्मृतम्। बृहत्वं यच्छरीरस्य जनयेत् तच्च लङ्घनम्'। (च.सू. २२।९) अर्थात् जो आहार-विहार तथा औषधोपचार शरीर में हलकापन उत्पन्न करता है, उसे लंघन कहते हैं और जो गुरुता (भारीपन ) पैदा करता है, उसे 'बृंहण' कहते हैं।

दोषगत्याऽतिरिच्यन्ते ग्राहिभेद्यादिभेदतः।
उपक्रमा न ते द्वित्वाद्भिन्ना अपि गदा इव ॥३७॥

इति श्रीवैद्यपतिसिंहगुप्तसूनुश्रीमद्वाग्भटविरचितायामष्टाङ्गहृदयसंहितायां
प्रथमे सूत्रस्थाने द्विविधोपक्रमणीयो नाम चतुर्दशोऽध्यायः॥१४॥

यद्यपि दोषों की गतिभेद के अनुसार ग्राही एवं भेदी आदि भेदों से चिकित्सा के भी अनेक भेद होते हैं और तदनुसार उनकी व्यवस्था भी की जाती है; फिर भी वे सभी चिकित्सा सम्बन्धी भेद सन्तर्पण एवं अपतर्पण के भीतर उसी प्रकार आ जाते हैं जैसे रोगों के अनेक भेद होने पर भी वे साम तथा निराम भेद से दो प्रकार के ही होते हैं।। ३७।।

इस प्रकार वैद्यरत्न पण्डित तारादत्त त्रिपाठी के पुत्र डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी द्वारा विरचित निर्मला हिन्दी व्याख्या, विशेष वक्तव्य आदि से विभूषित अष्टाङ्गहृदय-सूत्रस्थान में द्विविधोपक्रमणीय नामक चौदहवाँ अध्याय समाप्त ।।१४।।

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