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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

''घाटी के बाहर से आपसे जुदा होकर मैं सीधा वंसीलाल के घर पर जा पहुंचा था।'' मेघराज ने बताना शुरू किया- ''मगर पूरा घर खाली पड़ा था। उसमें कोई भी नहीं था। उसका बेटा और बहू तो कहीं बाहर गए हैं और खुद न जाने वह कहां था। वहां से मायूस होकर मैं यहां आया, यहां आते ही अपने प्यादे के जरिए अपने पक्ष के ऐयार विक्रमसिंह को तलब किया। उसे हुक्म दिया कि अभी तक चमनगढ़ में हमारे पक्ष के जितने भी लोग हैं, सबको यह हिदायत दे दो कि जिस किसी को भी बंसीलाल चमके, फौरन गिरफ्तार करके उसे हमारे पास लाया जाए। उमादत्त के चारों तरफ रात से ही हमारे आदमी तैनात हैं, लाख सिर पटकने के बावजूद भी बंसीलाल उन तक नहीं पहुंच सकता, खुद विक्रमसिंह को भी बंसीलाल की तलाश में लगा दिया। पिछली सारी रात मैं परेशानी और तरद्दुद के सबब से एक सायत के लिए भी नहीं लेट पाया हूं। सुबह तड़के ही उमादत्त ने मुझे तलब किया। महल में पहुंचा तो भगदड़ मची हुई थी। पता लगा कि कंचन और कमला के गायब होने का भेद खुल चुका है और वह सबकुछ उसी सबब से है। जिस वक्त मैं उमादत्त के सामने पहुंचा तो उस वक्त उनके चेहरे से बहुत ही दुःख और रंज टपक रहा था। मैंने भी अपने चेहरे पर मातमी भाव पैदा किए और उनसे बातें करने लगा। उन्होंने बताया कि कुछ पहरेदारों का बयान है कि रात को कंचन के कमरे में कमला आई थी और उसे निकलते किसी ने नहीं देखा। सुबह को कमरा खोलकर देखा तो कमरे का गुप्त रास्ता खुला पड़ा था। इसी तरह की दुःख और रंज की बातें वे करते रहे। मैं भी उनका साथ दे रहा था। अंत में कंचन और कमला की तलाश का काम उन्होंने मेरी जिम्मेदारी पर छोड़ दिया। मैं वहां से चला आया। यहां आकर मैंने विक्रमसिंह के जरिए सारे चमनगढ़ में यह खबर फैला दी कि मैं कुछ सिपाहियों को लेकर जंगल में कंचन और कमला की तलाश में गया हूं। इस बात को कुछ चुने हुए यकीनी आदमी ही जानते हैं कि मैं यहां हूं। अब हालात ये हैं कि उमादत्त के पक्ष के ज्यादातर सिपाही और ऐयार कंचन और कमला को तलाश कर रहे हैं। और मेरे पक्ष के लोग बंसीलाल की तलाश, में राजमहल के चारों तरफ, बंसीलाल के घर पर तैनात हैं। मगर अभी तक बंसीलाल की खबर कहीं से नहीं मिली है।''

''क्या तुमने विक्रमसिंह या किसी और को यह पता दिया है कि तुम बंसीलाल की तलाश इतने जोर-शोर से क्यों करवा रहे हो?''

''नहीं - यह भेद मैंने किसी को नहीं दिया है।'' मेघराज ने जवाब दिया- ''विक्रमसिंह ने पूछने की कोशिश की थी, मगर मैंने उसे केवल यह कहकर टाल दिया कि बंसीलाल हमसे गद्दारी कर गया है। उसने क्या गद्दारी की है - यह मैंने नहीं बताया।''

''ठीक है - किसी को बताना भी नहीं।'' दलीपसिंह ने कहा- ''लेकिन ये बात समझ में नहीं आई कि बंसीलाल कहां गायब हो गया?''

''उसका इस तरह गायब होना तो और भी ज्यादा खतरे की ही तरफ इशारा करता है।'' मेघराज ने कहा- ''उसके गायब होने से पता लगता है कि उसे मालूम हो गया है कि हमने उसकी बदमाशी पकड़ ली है और अब हम उसकी जान के ग्राहक हैं - बिना इस जानकारी के वह भला इस तरह क्योंकर गायब होता?''

''यह तो ठीक ही है!'' दलीपसिंह ने समर्थन किया- 'लेकिन सवाल ये उठता है कि उसे यह मालूम कैसे हुआ होगा?''

''उसे यह पता लगना तो बेहद आसान है महाराज!'' मेघराज ने कहा- ''हम दोनों के वे सब खत तो उसके पास हैं ही, जिनमें हमने यह योजना बनाई थी कि कंचन और कमला को घाटी में ले जाकर मारेंगे। कहने का मतलब ये है कि उसे हमारी सारी योजना की जानकारी होगी ही, हो सकता है कि वह कल रात उस वक्त भी घाटी में ही रहा हो - जब हम अपनी कार्यवाही कर रहे थे। उसने हमारी सारी बातें सुन ली हों और जान गया हो कि हम उसका भेद जान गए हैं - और अब उसकी ही जान के ग्राहक हैं। इसीलिए वह गायब हो गया हो। कल रात उसके घर के हालात बता रहे थे कि वह शाम से घर पर नहीं था।''

''जरूर ऐसी ही बात है।'' दलीपसिंह बुदबुदाए- ''और हमारे ख्याल से वह भी वहीं होगा।''

''कौन?'' मेघराज बोला- ''क्या बंसीलाल से आपका सामना हुआ है?''

''हां, ऐसा ही लगता है।'' दलीपसिंह ने कहा- ''मैंने तुमसे यहां आते ही कहा था कि खतरा बढ़ गया है - इसी सबब से मुझे यहां आना पड़ा। बात ये है कि हमारा वह खानदानी कलमदान, जिसमें तुम्हारी तस्वीरें हैं - कल रात हमें धोखा देकर कोई छीनकर ले गया।''

''क्या?'' मेघराज इस तरह उठा - मानो अचानक बिच्छू ने डंक मारा हो। वह चौंककर अनजाने में ही बिस्तर से उठ खड़ा हुआ और अपने कांपते-से जिस्म को लिये दलीपसिंह को देखता रह गया। उसका चेहरा पीला पड़ गया था। बोला- ''ये आप क्या कह रहे हैं?''

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