ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 7 देवकांता संतति भाग 7वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
''वो रहा-पकड़ो! '' उसी वक्त मेरे कानों में किसी की आवाज पड़ी।
छत पर पहुंचते ही मैंने फिर अपनी म्यान से तलवार खींच ली। हाथ में नंगी तलवार लिये छत पर भागता हुआ एक सिपाही मेरी तरफ आ रहा था। मैं जानता था कि अगर मैं यहां लड़ने के चक्कर में रहा तो कभी इनके पंजे से नहीं निकल सकूंगा। इसलिए उस सिपाही से लड़ने का ख्याल छोड़कर मैं झट से नीचे कूद पड़ा। चार-पांच सिपाही नीचे भी मेरी तरफ भागे चले आ रहे थे।
''वो रहा-वो रहा।'' इसी तरह की आवाजों का शोर बढ़ता ही चला गया।
उसी वक्त मैं हल्ला सुन घबरा-सा गया था। मैं सोच रहा था अब यहां से बचकर नहीं निकल सकूंगा। उसी वक्त मेरे दिमाग में ख्याल आया कि मेरे पास कलमदान है। अगर मैं इन लोगों की गिरफ्त में आ गया तो कलमदान भी इन लोगों के हाथ लग जाएगा। उसके बाद दारोगा को कोई राजा बनने से नहीं रोक सकेगा, उमादत्त को कोई नहीं बचा सकेगा। नहीं, मैं किसी भी कीमत पर कलमदान इन बदकारों के हाथ नहीं लगने दूंगा। इस ख्याल ने मेरा हौसला बुलंद कर दिया और मैंने ध्यान से अपने चारों ओर के हालातों का जायजा लिया। मेरे सामने से दो-दाएं से एक और बाएं से चार सिपाही मेरी तरफ दौड़े चले आ रहे थे। पीछे दीवार थी। उसी वक्त मेरी नजर ऊपर पड़ी-ऊपर से छत वाले सिपाही ने मेरे ऊपर कूदने के लिए अभी-अभी छत छोड़कर हवा में छलांग लगाई थी। मैंने फौरन अपनी तलवार की नोक हवा में कर दी-तलवार उसके पेट में धंस गई।
उसकी चीख की कोई परवाह न करके एक झटके के साथ तलवार बाहर निकाली और खून से रंगी तलवार अपने हाथ में लिये मैं दायीं तरफ भागा। उधर से केवल एक सिपाही हाथ में तलवार लिये भागा चला आ रहा था। मैंने तलवार के एक ही वार में उसका सिर धड़ से जुदा कर दिया और अपनी पूरी ताकत से भागा।
मेरे पीछे कई सैनिक भागे चले आ रहे थे। दारोगा के मकान के इर्द-गिर्द का ये इलाका मशालों की रोशनी से जगमग था, इसी सबव से वहां एक-दूसरे को देखने में किसी को किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हो रही थी। मैं इस उजाले से दूर अंधेरे में भाग जाने की कोशिश में था।
अब मैं इस छोटी-सी जंग का ज्यादा मुख्तसर हाल क्या लिखूं? जंग छोटी जरूर थी, लेकिन मेरे लिए तो दुनिया में आज तक होने वाली सारी जंगों में बड़ी थी-क्योंकि मैं अकेला अनगिनत दुश्मनों से लड़ा था और घिरा था, केवल अंधेरा मेरा साथी था। अगर उस जंग का मैं ज्यादा हाल बयान करने की कोशिश करूंगा तो आप ये समझेंगे मैं खुद को बहादुर साबित करने की कोशिश कर रहा हूं। केवल इतना ही समझ लीजिए. कि मुझे इस दिल के जज्बात ने कि मैं कलमदान दुश्मनों के हाथ न लगने दूंगा, मुझे असीमित ताकत दी और मैं बिना एक भी घाव खाए अंधेरे का फायदा उठाकर यहां लखन पर आ गया ओर इस वक्त बैठा हुआ ये कागज लिख रहा हूं। बाहर जंगल और चमनगढ़ में मेरी तलाश में दारोगा के अनगिनत कुत्ते घूम रहे हैं। वे मुझे देखते ही जरूर फाड़ डालेंगे।
इन हालात मैं मैंने कुछ निर्णय किया है: वह इस तरह से है- मेरे ख्याल से यह बात तो अब पक्की हो गई है कि दारोगा अब अपना नापाक कदम उस वक्त तक उठाने की हिम्मत नहीं कर सकेगा जब तक कि कलमदान उससे दूर है। कलमदान हासिल होने के हालात में ही वह अब कुछ करने की हिम्मत न कर सकेगा। साफ जाहिर है अब उसका सबसे पहला काम मुझसे कलमदान हासिल करना होगा। मेरा लक्ष्य है वह राजा उमादत्त का कोई अहित न कर सके और कभी चमनगढ़ का राजा न बन सके। इस वक्त मैं अपने उद्देश्य में कामयाब हूं। यह सब मैंने इसलिए किया है, क्योंकि मैं खुद को बचाकर अपने इस उद्देश्य में सफल होना चाहता हूं। दूसरा रास्ता ये भी था कि कलमदान का भेद सीधे उमादत्त के पास जाकर खोल देता, इससे दारोगा का चमनगढ़ से हमेशा के लिए पत्ता ही साफ हो जाता, लेकिन साथ ही मैं भी जिंदा नहीं बचता, लेकिन इस वक्त मैंने ऐसी चाल चली है कि अपना काम भी निकाल लिया और मेरा भेद खुलने का भी फिलहाल कोई डर नहीं है। लेकिन इस वक्त मेरे दिमाग में एक दूसरी बात ये भी है कि मैं इस तरह कब तक दारोगा के पंजे से बचा रह सकूंगा? अगर उसने किसी दिन कलमदान हासिल कर लिया तो क्या होगा?
मेरा उसके पंजे में फंसना इतना खतरनाक नहीं है-जितना उसके हाथ कलमदान लगना।
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