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देवकांता संतति भाग 7

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : तुलसी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2050

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

हालांकि दिल-ही-दिल में मेघराज भी डर गया था, परंतु खुद को संभालकर वह बोला- ''चिंता और घबराहट की कोई जरूरत नहीं है। हम सब संभाल लेंगे। सबसे पहले तुम हमें वह सारी बात मुख्तसर में बताओ, जो हमारे आने से पहले घटी है।''

जवाब में दलीपसिंह ने वह सारा हाल बयान कर दिया जो हमारे पाठक छठे भाग के पहले बयान में पढ़ आए हैं। पाठक समझ गए होंगे कि यहां हम उसी से आगे का हाल लिख रहे हैं। सहूलियत के लिए पाठक एक बार सरसरी तौर पर उस बयान को देख जाएं।

सारा किस्सा सुनने के बाद मेघराज बोला- ''आप अगर जरा भी दिमाग से काम लेते तो उसकी बातों में बिल्कुल भी न आते और आसानी से समझ जाते कि वह मैं नहीं कोई दूसरा ही है और आपको धोखा देना चाहता है।''

''वह कैसे?'' दलीपसिंह ने कहा- ''ऐसी तो उसने कोई गलती ही नहीं की।''

''गलती तो की थी लेकिन आपने गौर नहीं किया।'' मेघराज ने कहा- ''आपने कल रात जिस वक्त नजारासिंह को अपना पैगाम लेकर मेरे पास भेजा था तो उसे वह खत भी दिया था जो शेरसिंह पहली बार यहां छोड़कर गया था। नजारासिंह ने रात ही आपको बताया होगा कि वह खत मैंने पढ़ लिया।''

''हां, बताया तो था।''

''फिर भला यहां आकर मुझे दोबारा वह खत पढ़ने की क्या जरूरत थी?'' मेघराज बोला- ''आपने कहा है कि जब शेरसिंह मेरे (मेघराज के) भेस में आज यहां आया तो आपने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि वह मैं नहीं शेरसिंह होगा - ठीक है, उस वक्त आप सोच भी किस तरह सकते थे? मगर उस वक्त तो आपको शक हो जाना चाहिए था - जब उसने शेरसिंह का पत्र पढ़ा। आपको फौरन समझना चाहिए था कि जब मैंने वह खत रात को ही पढ़ लिया था तो यहां आकर दुबारा पढ़ने और उसके संबंध में बातें करने की क्या तुक है? उसी वक्त आपको समझ जाना चाहिए था कि वह मैं नहीं मेरे भेस में कोई दूसरा ही है।''

''वाकई, यह वात हमारे दिमाग में उस वक्त बिल्कुल नहीं आई।'' दलीपसिंह अफसोस के साथ बोले।     

''और शेरसिंह अपना काम करके निकल गया।'' मेघराज बोला - ''खैर... जो हो गया उस पर अफसोस करने से अब कोई नतीजा नहीं निकलेगा, अगले चौबीस घण्टों में वह फिर आएगा, इस बार हमें पहले से ज्यादा सतर्क रहना है। वह बचकर नहीं जाना चाहिए।''

''लेकिन तुम इतनी देर से क्योंकर पहुंचे और तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि यहां पहले ही एक मेघराज आ चुका है?'' दलीपसिंह ने सवाल किया।

'मैंने रात ही नजारासिंह के जरिए आपके पास खबर भिजवा दी थी कि उमादत्त के दरबार में हाजिरी देने के बाद यहां आऊंगा।'' मेघराज ने कहा- ''लेकिन अपना काम तो मैंने काफी देर पहले निपटा लिया था। मैं अब समझ रहा हूं कि मुझे देर करने में भी शेरसिंह का ही हाथ है।'' - ''क्या मतलब?'' दलीपसिंह चौंके--- ''क्या शेरसिंह से तुम्हारा भी आमना-सामना हो चुका है?''

''आपकी समझ में इस तरह कुछ भी नहीं आएगा।'' मेघराज बोला- ''मैं अपना हाल संक्षेप में बयान करता हूं। उसे सुनकर आप समझ जाएं कि मैं यहां देर से क्यों पहुंचा। उस वक्त तो नहीं, मगर अब मैं समझ रहा हूं कि मुझे देर करने में जरूर शेरसिंह का ही हाथ था।''

''सुनाओ!''

''रात तीसरे पहर नजारासिंह आपका पैगाम लेकर हमारे पास पहुंचा।'' मेघराज ने बताना शुरू किया। (यह हाल आप छठे भाग के चौथे बयान में पढ़ आए हैं), मेघराज आगे कह रहा था- ''उसे विदा करने के बाद मैंने काफी चाहा कि मुझे नींद आ जाए। मगर मैं सो न सका और शेरसिंह के बारे में सोचता रहा। इसी तरह सुबह हो गई और मैं नित्यकार्यों से फारिग होकर दिन का पहला पहर खत्म होते-होते उमादत्त के दरबार में पहुंच गया। दरबार में आज कोई खास बात नहीं थी, बस हाजिरी ही देनी थी। मेरे दिमाग में क्योंकि जल्दी-से-जल्दी यहां पहुंचने की बात थी, इसी सबब से मैं जल्दी ही रवाना हुआ और घर पहुंचा। घर से यहां की तैयारी करके मैं घोड़े पर सवार होकर चल दिया। अभी चमनगढ़ की सीमा पार करके मैं जंगल में पहुंचा ही था कि न जाने किस दिशा से एक तीर आकर मेरे घोड़े की आंख में धंस गया। घोड़ा जोर से हिनहिनाकर तड़पा और इस बुरी तरह से उछला कि मैं खुद को संभाल नहीं सका और जमीन पर गिर पड़ा। तीर लगने के सबब से उसकी आंख फूट गई थी और वह बुरी तरह से तड़पता हिनहिनाता एक तरफ को भागता चला गया। मैं समझ गया कि कोई दुश्मन मुझ पर हमला करना चाहता है। अतः जल्दी से उठकर मैंने अपनी तलवार खींच ली।

गौर से अपने चारों तरफ के जंगल को घूरा।

मगर वहां किसी आदमी का आभास न मिला। अपने चारों तरफ सन्नाटा पाकर मैं चीखा - 'कौन है - हमारे सामने आए?''

जवाब में मुझे किसी तरह की कोई आवाज स्रुनाई नहीं दी।

मैंने कई बार अनजान तीरंदाज को ललकारा - लेकिन किसी ने मेरी ललकार का जवाब नहीं दिया। मैं कुछ समझ नहीं पाया और मजबूर होकर पैदल ही अपने रास्ते पर बढ़ गया। अभी मैं मुश्किल से दो या चार कदम ही चल पाया था कि एक सन्नाता हुआ तीर ठीक मेरे सामने आकर गिरा। वह मेरे पैरों के पास जंगल की कच्ची जमीन में धंस गया। एक सायत के लिए वह झनझनाता रहा और फिर स्थिर हो गया था।

अभी मैं पुन: तीरंदाज को ललकारने ही वाला था कि मेरी नजर उस कागज पर पड़ी जो तीर की नोक में धंसा हुआ था।

मैंने वह कागज निकाला और पढा, उसे पढ़कर मैं बुरी तरह से चकरा गया।

'ऐसा क्या लिखा था उसमें?'' दलीपसिंह ने पूछा।

'आप खुद ही पढ़ लीजिए।'' मेघराज ने एक कागज बटुए से निकाला और दलीपसिंह की तरफ बढ़ाकर बोला- ''इसे पढ़कर निश्चय ही आप भी बुरी तरह चकरा जाएंगे। इसमें बात ही ऐसी लिखी है कि मेरा दिमाग घूम गया।''

''ऐसा क्या लिखा है इसमें?'' कहते हुए दलीपसिंह ने कागज खोल लिया और पढ़ने लगे, लिखा था-     

''प्यारे मेघराज,

तुम्हें आज से तीन बरस पहले हुई अपनी बहन कंचन की हत्या की याद अच्छी तरह होगी। तुम उसी समय से अपनी बहन के हत्यारे को खोजने के लिए पूरी कोशिश कर रहे हो - लेकिन आज तक तुम्हें मिला नहीं है। आज - मैं तुम्हे बताए देता हूं कि तुम्हारी बहन कंचन का हत्यारा मैं हूं। मुझे तुम्हारे खानदान से दुश्मनी है। तीन बरस पहले तुम्हारी बहन कंचन की हत्या मैंने ही की थी लेकिन तुम आज तक मुझे नहीं पकड़ सके, इस बार तुम्हारा नम्बर है। जल्दी ही मैं तुम्हारे खून से अपने हाथ रंगूंगा - कल तक मैं निश्चय ही तुम्हारी हत्या कर दूंगा।

- गुप्त हत्यारा।''

 

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