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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

पांचवाँ बयान


''वो - वो देखो-उधर, वहां छुपा है कमबख्त।''

''कहां?''

''वहां - उन झाड़ियों में - देखो - वे झाड़ियां हिल रही हैं!'' - ''मैं आया - अभी देखता हूं।'' कहता हुआ एक आदमी अपने हाथ का भाला सम्हालकर दूसरे के करीब आया। वे दो आदमी थे - और दोनों की ही नजर उन लम्बी-लम्बी झाड़ियों में स्थिर थी। उन्हीं झाड़ियों में एक खतरनाक जंगली चीता अभी-अभी भागकर छिप गया था - झाड़ियां अभी तक हिल रही थीं।

वे दोनों नौजवान काफी देर से इस चीते का पीछा कर रहे थे। यह चीता धोखा देता हुआ आखिर इन झाड़ियों में घुस गया - मगर हमारे ये नौजवान भी कोई छोटे-मोटे शिकारी नहीं थे। अन्त में उनमें से एक ने चीते को झाड़ियों में घुसते हुए देख ही लिया। इस समय वह नौजवान, जिसके हाथ में भाला था - भाले से चीते पर वार करने की तैयारी कर ही रहा था कि चीते ने बचाव की कोई सूरत न देखकर फुर्ती से उस पर जम्प लगा दी - किन्तु हमारा ये नौजवान भी कोई कम शातिर नहीं था। उसने फुर्ती के साथ झट से पैंतरा बदला और चीते पर भाले का वार किया। भाला चीते की बगल में घुस गया और एक गुर्राहट के साथ वह वहीं गिर गया। एक सायत दोनों नौजवान उत्तेजनात्मक स्थिति में धरती पर पड़े हुए उस चीते को देखते रह गए - कदाचित् उन्हें इस बात की प्रतीक्षा थी कि शायद वह चीता पुन: उठकर उन पर झपटे - मगर ऐसा नहीं हुआ - अभी भाले वाला नौजवान चीते की ओर बढ़ना ही चाहता था कि-

''बचाओ-बचाओ - मार दिया - बचाओ!'' जंगल में किसी असहाय अबला की आवाज गूंज उठी।

दोनों नौजवानों की नजरें एकदम मिलीं और वे उस दिशा में दौड़ लिए, जिस तरफ से यह आवाज आई थी। जंगल में अभी तक उस औरत की आवाज गूंज रही थी। वे दोनों अपनी पूरी शक्ति से भाग रहे थे। किन्तु वे भागते रहे - पर मंजिल नहीं मिली। उन्हें कहीं कोई लड़की नजर नहीं आई। कुछ देर तक तो जंगल को चीरकर उस लड़की की आवाज उनके कानों तक आती रही - मगर कुछ देर बाद वह भी बन्द हो गई और उस खतरनाक जंगल में पहले जैसा सन्नाटा छा गया। कई घड़ी तक वे जंगल में इधर-उधर घूमकर तलाश करते रहे - किन्तु काफी कोशिश के बाद भी उनके हाथ कुछ न लगा।

''अगर हम उन दोनों की वेशभूषा का थोड़ा-सा वर्णन यहां कर दें तो कोई हर्ज नहीं है। उनमें से एक - जिसने कि चीते को झाड़ियों में घुसते हुए देखा था - पूरी तरह ऐयारी के समान से सजा था। कमर में कमंद बांधे और कई तरह के शस्त्र ये गवाही देते थे कि बेशक वह कोई ऐयार है। आदमी लिबास से पूरा शिकारी लग रहा था। उसके हाथ में चीते के खून से रंगा भाला अभी तक था। लिबास से वह कोई बहादुर क्षत्रिय लगता था।

यह क्या मामला है अग्निदत्त?'' शिकारी नजर आने वाला युवक बोला।

''कुछ समझ में नहीं आता।'' वह ऐयार, जिसका नाम अग्निदत्त था, बोला- ''कहीं ऐसा तो नहीं कि यह किसी ऐयार की हरकत हो?''

''तुम तो ऐयार हो ना?'' शिकारी व्यंग्य से मुस्कराकर बोला- ''तुम्हें हर बात में ऐयारी ही नजर आती है। भले आदमी, जरा ये तो सोचो कि इस समय हम यहां शिकार खेलने आए हैं - भला हमसे यहां कौन और क्यों ऐयारी करेगा? न तो हम किसी रियासत के राजा हैं और न ही राजकुमार - हम तो गरीब-से आदमी हैं, एक झोपड़ी में रहते हैं। फिर भला हमसे कोई क्यों ऐयारी करेगा और फिर उसे हमसे ऐयारी करके लाभ ही क्या मिलेगा?''

''ऐयार तो तुम भी हो दोस्त!'' जवाब में अग्निदत्त भी मुस्कराया- ''और इसमें भी कोई शक नहीं कि मुझसे भी अच्छे ही नहीं, बल्कि अगर ऐयारी पर उतरो तो तुम्हारी जोड़ का कोई ऐयार मिले भी नर्ही। तुम्हारा अवगुण तो ये है कि तुम अपनी ऐयारी को काम में नहीं लाते हो। अगर तुम अपने फन को काम में लाने लगो तो मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि दुनिया-भर के सारे ऐयार तुम्हारे शागिर्द बन जाएं। इस युग का बड़ा ऐयार शेरसिंह कहलाता है। शेरसिंह के कारण ही अग्निदत्त इस जमाने का सबसे बड़ा ऐयार कहलाता है - मगर मेरा दावा है कि अगर तुम अपने फन के साथ ऐयारी के मैदान में जाओ तो शेरसिंह भी तुम्हारे सामने पानी भरता नजर आए। और फिर कोई भी राजा तुम्हें पूरा खजाना देकर अपने यहां नौकर रख ले।''

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