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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'ओह! तो तुम्हारे गुरु भूतेश्वरनाथ हैं।'' अग्निदत्त बोला - ''तभी तो मैं कहूं कि तुम इतनी अच्छी ऐयारी कैसे जानते हो? अब मैं समझ गया कि चीता बने हुए ये तुम्हारे गुरु भूतेश्वरनाथ ही होंगे। किन्तु ये समझ में नहीं आया कि तुम्हारे उस्ताद को तुमसे ही यह ऐयारी दिखाने की क्या जरूरत थी? लेकिन मेरे लिए तो यह भी आश्चर्य की बात है कि कोई ऐयार चीता भी बन सकता है? वास्तव में भूतेश्वरनाथ सभी ऐयारों के उस्ताद हैं। लेकिन यह बात समझ में नहीं आई जो तुमने आखिर में कहीं, यानी यह ऐयारी भूतेश्वरनाथ अपने किसी खास शागिर्द को ही सिखाते हैं.. खास शार्गिद से क्या मतलब?''

''असल में बात यह है कि एक साल के अन्दर भूतेश्वरनाथ के जितने भी शिष्य होते हैं, उनमें से जो भी शागिर्द सबसे होनहार होता है.. वे केवल उसे ही यह ऐयारी सिखाते हैं। कहने का मतलब यह है कि एक साल में यह ऐयारी केवल एक ही आदमी को सिखाई जाती है।''

'ओह!'' अग्निदत्त समझकर बोला- ''लेकिन देखो.. चीता जिधर की तरफ गया है.. उधर खून के निशान बने हुए हैं। इस तरफ चल कर देखें कि क्या है? शायद खून के निशान हमें किसी मंजिल पर पह्रुँचा दें - मैं भी भूतेश्वरनाथ से मिल लूंगा।''

''ठहरो!'' शिकारी कुछ सोचता हुआ बोला- ''पहले हर बात पर अच्छी तरह विचार कर लो। तभी आगे बढ़ना उचित है। हमें किसी जाल में उलझाने के लिए यह किसी का धोखा भी हो सकता है। वयोंकि आज पूरे तीन साल हो गए मैं अपने उस्ताद भूतेश्वरनाथ से तो मिला नहीं हूं। खुद उस्ताद को ऐयारी करने की क्या जरूरत पड़ सकती है? निश्चय ही यह धोखा है और कोई हमें किसी जाल में उलझाना चाहता है।''

''लेकिन - हम लोगों को कोई जाल में उलझाकर लेगा क्या.. हम कोई राजा-महाराजा तो हैं ही नहीं?'' अग्निदत्त ने कहा। कुछ घड़ी उन दोनों के बीच इसी तरह की बातें होती रहीं। अन्त में यही निर्णय हुआ कि चलकर देखना चाहिए। हालांकि जो कुछ हुआ था - वह अभी तक ज्यादा रहस्यमय नहीं था, पर भाले पर लगे खून ने उन्हें विचित्र तरद्दुद में डाल दिया था। समझ में यह नहीं आ रहा था कि अगर उनके साथ किसी ने यह ऐयारी की भी है तो इसका मतलब क्या हो सकता है? उन दोनों के दिलों में यह जानने का कौतुहल जाग चुका था। इसलिए वे दोनों उन्हीं खून की बूंदों का पीछा करने लगे।

जिस जगह ये घटना हुई थी.. वह एक जंगली पहाड़ की चोटी थी। उस जगह चारों तरफ झरबेरी, मकोय इत्यादि इसी किस्म के अनेक जंगली पेड़ थे। खून की बूँदें उन्हें अधिक दूर तक न ले जाकर एक पगडन्डी तक ले गईं। वृक्षों एवं झाड़ियों की बहुतायत के कारण वे अधिक दूर तक नहीं देख सकते थे। मगर इतना तो वे देख ही रहे थे कि यह पगडण्डी उन्हें नीचे लिए जाना चाहती थी। सर्प की भांति बल खाती ये बटिया (पगडण्डी) पहाड़ी ढलान पर उतरती चली गई थीं और उसी पर खून की बूंदों के निशान बने हुए थे। पगडण्डी उतरते हुए वे नीचे पहुंचे.. सामने ही दूसरी पहाड़ी चमकने लगी और दूर दोनों पहाड़ियों के बीच की तलहटी में उन्हें एक छोटा-सा मकान चमका। उन्होंने ध्यान से देखा- खून की बूंदें उसी मकान की ओर चली गई थीं।

वे अभी उस तरफ बढ़े ही थे कि शंख बजने की आवाज ने उन्हें ठिठका दिया।

इस बार और भी ज्यादा तरद्दुद का शिकार होकर दोनों दोस्त उस सामने वाले मकान की ओर देखने लगे.. क्योंकि शंख बजने की आवाज उसी तरफ से आई थी। खैर, मुखत्सर ये है कि तरद्दुद में फंसे हमारे ये दोनों नौजवान मकान के पास पहुँच गए। यह मकान अधिक बड़ा नहीं था। चारों तरफ अजीब-सी काले पत्थरों की चारदीवारी खिंची हुई थी। उसी के अन्दर एकमंजिला मकान था, यहां से - जिसकी केवल छत चमक रही थी। उनके सामने-ही चारदीबारी में एक दरवाजा बना हुआ था जो इस समय भिड़ा हआ था। अग्निदत्त ने उसे धकेला तो वह घर्र.. र.. घर्र.. र.. की आवाज करके खुल गया।

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