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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

दोनों ने झुककर उस तस्वीर को देखा और चौंक पड़े। देवसिंह बोला- ''हां.. हम पहचानते हैं इसे। यह राजगढ़ और रायगढ़ी की सरहद के बीच बना एक खण्डहर है और इसे लोग राक्षसनाथ का तिलिस्म कहकर पुकारते हैं। यह तिलिस्म राजगढ़ और रायगढ़ी की सरहदों के बीच में ऐसे स्थान पर स्थित है.. कि इसका आधा भाग राजा चन्द्रदत्त के राज्य में है और आधा सूर्यजीत के। इसी के कारण दोनों में दुश्मनी भी है।''

''बिल्कुल ठीक पहचाना।'' महात्माजी ने कहा- ''यह राक्षसनाथ का तिलिस्म ही है, सबको यह सन्देह है कि इस तिलिस्म के अन्दर कोई भारी खजाना है, किन्तु उस खजाने की कीमत का कोई स्वप्न में भी अनुमान नहीं लगा सकता। आज हम तुम्हें बताते हैं कि राक्षसनाथ के इस तिलिस्म में बीस लाख का खजाना है। यह खजाना केवल उसी के हाथ लगेगा, जिसके नाम से तिलिस्म को बांधा गया है।''

''बीस लाख!'' देवसिंह और अग्निदत्त के मुंह से आश्चर्य में डूबा स्वर निकल पड़ा।

''हां.. इस राक्षसनाथ के तिलिस्म में पूरे बीस लाख का खजाना है। हालांकि यह बात अभी तक किसी को पता नहीं है। सभी को यह शक जरूर है कि इसमें कोई खजाना है। यही सबब है कि चन्द्रदत्त और सूर्यजीत के बीच हमेशा दुश्मनी होती रही है। परन्तु असल पूछो तो यह तिलिस्मी खजाना उनमें से किसी को भी प्राप्त नहीं होगा। बल्कि यूं कहना चाहिए कि दुनिया में केवल एक ही आदमी ऐसा है, जिसे यह खजाना प्राप्त होगा।''

''वो आदमी कौन है, महात्माजी?''

''तुम!'' महात्मा ने देवसिंह से कहा- ''हां.. चाहे कोई कितने मनोरथ कर ले, मगर ये खजाना हर हालत में तुम्हें ही प्राप्त होगा। इसका सबसे बड़ा सबब ये है कि राक्षसनाथ ने यह तिलिस्म तम्हारे ही नाम से बांधा है। केवल तुम ही उस खजाने के अधिकारी हो।'' - ''क्या मतलब?'' देवसिंह चौंका- ''आप ये क्या कह रहे हैं? तिलिस्म तो राजकुमारों के बांधें जाते हैं। मैं तो गरीब अन्धे माता-पिता का लड़का हूं। भला मेरा किसी तिलिस्म से क्या मतलब? आपको शायद कोई गलतफहमी हो रही है। ऐसे काम भला मैं...।''

''गलतफहमी मुझे नहीं, तुम्हें है देवसिंह।'' महात्माजी बोले- ''तभी तो हमने कहा था आज हम तुमसे बड़ी गुप्त बातें करने वाले हैं। कुछ बातें ऐसी हैं जो हम तुम्हारे दोस्त अग्निदत्त के सामने भी नहीं कर सकते। अगर बुरा न मानो तो कान में मेरी बात सुनो।'' एक बार देवसिंह ने अग्निदत्त की ओर देखा तथा फिर अपना कान महात्माजी के मुंह के समीप कर दिया। हम नहीं कह सकते कि महात्माजी ने देवसिंह की ओर झुककर उसके कान में क्या कहा? परन्तु इतना अवश्य जानते हैं कि-

''क्या?'' उनकी बात सुनकर देवसिंह आश्चर्य से उछल पड़ा- ''ये आप क्या कह रहे हैं.. यह भला कैसे सम्भव है?'' हैरत के कारण देवसिंह का इतना बुरा हाल था कि उसकी आखें फट गई थीं। - ''ये सच है देवसिंह।'' महात्माजी भेद-भरी हंसी के साथ बोले- ''अगर यकीन न हो तो तुम हमारे कथन की जांच करके देख सकते हो।''

''ये तो पक्की बात है'' देवसिंह उसी हैरत के साथ बोला- ''कि मैं बिना जांच किए तो आपकी बात पर विश्वास करूंगा ही नहीं। और मेरे लिए इस बात की जांच कर लेना भी कठिन नहीं है, मगर आपका कहा अगर सच है तो इसका सबब क्या है? क्यों वे सारी दुनिया को धोखा दे रहे हैं?''

''केवल धोखा देने के लिए वे सारी दुनिया को धोखा दे रहे हैं।'' महात्माजी ने बताया।

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