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देवकांता संतति भाग 3

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2054

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

 

छठा बयान


सुबह का समय है ... इस समय हम अपने पाठकों को एक खुशनुमा बाग में लेकर चलते हैं। राजगढ़ के दक्षिण की ओर एक रियासत है, जिसका नाम चम्पानगर है। इस रियासत की रानी का नाम देवकीरानी है। आज से तीन वर्ष पहले यहां के राजा शम्भूदयाल थे, किन्तु उनके आकस्मिक देहान्त के बाद यहां की रानी उनकी धर्मपली देवकीरानी बनी - क्योंकि दुर्भाग्यवश शम्भूदयाल और देवकी के कोई पुत्र पैदा न हुआ। एक लड़की है जिसका नाम गंगादेई है - पुत्र न होने कारण चम्पानगर की राजगद्दी का भार देवकी पर ही आ गया और इस भार को वह बड़ी मेहनत, लगन एवं परिश्रम से सम्भाले हुए थी। चम्पानगर की प्रजा को कभी देवकी से किसी तरह की शिकायत नहीं थी। सुबह के समय वह हर रोज अपनी रियासत की प्रजा की शिकायतें सुना करती थी। यह समय वही था, किन्तु आज इस समय देवकी महल के उस खुशनुमा बाग में संगमरमर बेंच पर बैठी है। इस समय हम उसी रानी देवकी के पास बैठे हुए अग्निदत्त को देख रहे हैं। मुलाकाती लोग बाग के दूसरी तरफ इन दोनों की बातें खत्म होने के इन्तजारी हैं। बाग के चारों तरफ रियासत के सिपाहियों का कड़ा पहरा है। मुलाकातियों से कह दिया गया था कि इस समय महारानी साहिबा अपने खास ऐयार अग्निदत्त से गुप्त बातें कर रही हैं। आज वे उन बातों के बाद ही मुलाकातियों की फरियाद सुन सकेंगी। जिस स्थान पर अग्निदत्त और रानी देवकी बातें कर रहे हैं - वहां आस-पास अन्य कोई नजर नहीं आता। सभी सोच रहे हैं कि आखिर अग्निदत्त और देवकी में ऐसी क्या गुप्त बातें हो रही हैं जो इतना समय गुजरने के बाद भी खत्म नहीं होतीं। और लोग तो उनकी बातें सुन नहीं सकते - परन्तु आइए - हम लोग उनकी बातों को सुनते हैं।

''फिर क्या हुआ - उस कोठरी से तुम्हें कैसे छुटकारा मिला और उस झोले का क्या हुआ जिसमें रक्तकथा थी?'' रानी देवकी ने पूछा।

''जब हमने देखा कि उस कोठरी में हम जिस रास्ते से आए थे, उसमें अब वह रास्ता ही नहीं था, बल्कि हमारे सामने इस समय बिल्कुल सपाट दीवार थी। वहां तो वहां, कोठरी में हमें कहीं भी कोई दरवाजा नजर नहीं आता था। अलबत्ता वह जंगला उसी तरह था। विवश होकर हम फिर जंगले की ओर घूमे - इस बार जंगले के दूसरी तरफ के दृश्य में काफी परिवर्तन आ चुका था। हमने देखा कि इस समय वहां चीता नहीं था, बल्कि उसके स्थान पर वही हड्डियों का ढांचा यानी नरकंकाल था, जिसे हम एक बार इसी कोठरी में देख चुके थे जिसमें कि हम इस समय थे। बिना मांस, खून और खाल का यह अस्थिपंजर इस समय हमें पहले से भी ज्यादा भयानक लगा। कदाचित् इसका सबब यही था कि हमने उस कंकाल को पहले से अधिक ध्यान से देखा था। उसकी आखों के स्थान पर दो गड्ढे और मुंह भी जीभ रहित, केवल एक गड्ढा ही था। वह डरावना आदमी इस समय भी नन्नी को अपनी बगल में दबाए हुए था। नन्नी अभी तक चीख रही थी और वह हड्डियों का ढांचा अजीब तरह की खट-खट की आवाज करता हुआ धीरे-धीरे उस डरावने आदमी की तरफ बढ़ रहा था। उस कोठरी में कैद हम स्तब्ध-से उस भयानक दृश्य को जंगले में से देख रहे थे। अचानक कंकाल के कंठ से पुन: एक खूंखार आवाज निकली - वह आवाज बड़ी ही डरावनी थी। उस आवाज से भयभीत होकर उस डरावने आदमी ने नन्नी को छोड़ दिया, उसी समय कंकाल के मुंह से ढेर सारी आग निकली और लपलपाकर उस डरावने आदमी पर झपटी। वह आदमी डरकर नरकंकाल से विपरीत दिशा में भागा। हमारी दृष्टि उसी पर थी और हमारी आंखों से ओझल वह उसी समय हुआ, जब वह कूदकर चारदीवारी के पार हो गया। हमने उस तरफ देखा, जहां कुछ ही देर पहले कंकाल खड़ा था तो दंग रह. गए। उस स्थान पर - अब कंकाल का नामोनिशान भी नहीं था। हमने देखा कि नन्नी भागकर हमारे जंगले की तरफ आ रही है- 'क्या आप लोग मेरी मदद नहीं कर सकते थे?' नन्नी ने हमारे पास जंगले पर आकर कहा।

'तब हमने उसे बताया कि हमें इस कोठरी का दरवाजा कहीं भी नजर नहीं आता है।'' इतना सुनकर उसने कहा कि - 'घबराओ मत - दरवाजा मैं अभी खोल देती हूं।' इतना कहकर नन्नी जंगले से हटी और हमारी आंखों से ओझल हो गई। हम दोनों में से कोई भी नहीं देख सका कि बाहर से उसने क्या तरकीब की, मगर कुछ देर बाद ही कोठरी में उसी जगह पर दरवाजा बन गया। हम दोनों बाहर आ गए, बाहर दालान में नन्नी हमारा इन्तजार कर रही थी।''

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