ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 4 देवकांता संतति भाग 4वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
''नहीं।'' गोवर्धनसिंह ने उसी तरह धीरे से जवाब दिया- ''इस तरह कुछ फायदा न निकलेगा। हमें थोड़ा सब्र से काम लेना चाहिये, मुनासिब मौका लगते ही इस बार हम ऐसी चाल चलेंगे कि इस बार हमारी ही जीत हो। इस समय तो हमें इन लोगों का पीछा ही करना चाहिये।''
''लेकिन गोवर्धनसिंह तुम चाल क्या चलोगे?'' गोमती ने पूछा।
''सब्र से काम लो।'' गोवर्धनसिंह बोला- ''इस तरह कोई फायदा नहीं होगा। इस तरह तो विजय को कभी हम ले जायेंगे और कभी वे... इस बार हमें कुछ ऐसी तरकीब लड़ानी है कि उन्हें मालूम भी न चल सके और हम उन सबको ही एक साथ अपने कब्जे में कर सकें।''
''यह भला कैसे हो सकता है?'' रोशनसिंह ने पूछा।
''तुम चुप रहो।'' गोवर्धनसिंह आदेशात्मक स्वर में बोला- ''उमादत्त ने इस मंडली का मुखिया बनाकर मुझे यहां भेजा है। तुम सबको मेरे आदेशों का पालन करना है। बस... जैसा मैं कहता जाऊं, वैसा करते जाओ। देखो.. वो सब चल दिये हैं... आओ उनका पीछा करें।''
इस तरह से ये लोग विकास, गौरवसिंह, वंदना, रघुनाथ, रैना, ब्लैक-ब्वाय और ठाकुर निर्भयसिंह के पीछे लग गये। इस बात का उन्हें ख्याल भी नहीं था कि दुश्मन मौके की तलाश में घात लगाये हुए उनके पीछे लगे हैं। भूत-प्रेत विशेषज्ञ के यहां होने वाली घटना भी इन्होंने उसी शांति के साथ देखी और सुनी। (पाठक याद के लिए पहले भाग का आखिरी बयान पढ़ें)।
इसके बाद उनके पीछे-पीछे गोवर्धन इत्यादि भी राजनगर पहुंचे। अब वे लोग उनका इतनी देर तक पीछा कर चुके थे कि वे भली प्रकार जान गये थे कि उन सब लोगों का आपस में क्या सम्बन्ध है? जिस समय वे सब राजनगर में पहुंचकर रघुनाथ की कोठी के अन्दर चले गये तो गोवर्धन बोला-
''हम सब तो अन्दर जा नहीं सकते और अपना मौका हासिल करने के लिए हमें उनकी बातें सुनना और उनके इरादे जानना जरूरी है।' तुम उस सामने वाली दुकान में बैठकर कुछ खाते रहो, में अन्दर जाकर उनकी बातें सुनने की कोशिश करता हूं।'' इतना कहकर गोवर्धनसिंह दबे-पांव खुद को छुपाता हुआ कोठी में दाखिल हो गया। मुख्तसर यह कि उसने सबकुछ सुना ... उसके सामने ही ब्लैक-ब्वाय को स्टीमर का प्रबंध करने के लिए भेजा गया और ठाकुर साहब अपनी और रघुनाथ की छुट्टियां मंजूर कराने के लिए कमरे से बाहर निकले। उनके लिकलते ही गोवर्धनसिंह उस जगह से अलग हो गया, जहां पर छुपा हुआ वह सबकुछ, सुन रहा था। ठाकुर साहब के पीछे-ही-पीछे वह बाहर आया... ठाकुर साहब कोठी से बाहर निकले और पैदल ही एक तरफ को चल दिये। सामने के होटल, जिसे गोवर्धनसिंह ने दुकान कहा था, में रोशनसिंह, गोमती और उनके तीनों साथी बैठे थे। गोवर्धनसिंह ने उन्हें इशारे से ब्रुलाया। ठाकुर साहब इन सब बातों से बेखबर टैक्सी स्टैंड की ओर बढ़े चले जा रहे थे। वे तो स्वप्न में भी नहीं सोच सकते थे कि उनके पीछे कितने खतरनाक दुश्मन लगे हुए हैं। काश, ठाकुर साहब जान जाते कि इस बार उनका मुकाबला दिमाग के जोर पर जीने वाले लोगों से है।
गोवर्धनसिंह का इशारा पाते ही रोशनसिंह, गोमती और उनके तीनों साथी होटल से बाहर आ गये।
''ये जो आदमी सामने जा रहा है... इससे पहले जो आदमी बाहर निकला था, वह किधर गया है?'' उनके पास पहुंचते ही गोवर्धनसिंह ने पूछा।
''वह भी इधर ही गया था।'' जवाब रोशनसिंह ने दिया।
''तुम जानते हो कि उसका नाम क्या था?'' गोवर्धनसिंह ने अगला सवाल किया।
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