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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

पांचवाँ बयान

 

अब हम थोड़ा सा हाल हुचांग का भी बयान करना मुनासिब समझते हैं, क्योंकि वह भी एक नई मुसीबत में फंस गया है। वह मुसीबत जो हम इस नये बयान में लिखने जा रहे हैं, न केवल हुचांग के लिए ही है - बल्कि हमारे पाठकों के दिमाग को एक चुनौती है।

उस चुनौती के बारे में आप आगे चलकर खुद ही समझ जाएंगे। टुम्बकटू के पास से जुदा होकर - हुचांग उस दूसरे रास्ते पर बढ़ गया। विभिन्न दालानों - कोठरियों और बरामदों में चकराता हुचांग एक ऐसे कमरे में पहुंच गया, जो आकार से एक हॉल-सा लगा था। उस हॉल का फर्श लाल संगमरमर का चिकना फर्श था। कमाल की बात ये थी कि हॉल का केवल एक ही रास्ता था, जिसके जरिए वह यहां आया था। मुसीबत ये थी कि उसके अंदर दाखिल होते ही - वह रास्ता भी बंद हो गया था। उस हॉल की छत काफी ऊपर थी। दीवारें खाली और सपाट थीं। वहां सामान के नाम पर कहीं कोई एक सुई तक नजर नहीं आती थी। हां, हॉल के ठीक बीच में - जमीन में एक दरवाजा - सा जरूर था। यह दरवाजा हॉल के फर्श में था और उसमें किसी तरह का कोई किवाड़ नहीं था। चारों ओर नजर घुमाने के बाद भी हुचांग को हॉल में उसके अतिरिक्त कोई ऐसी चीज नजर नहीं आई जिसकी ओर वह मुखातिब हो सकता। अत: मजबूर होकर उसे फर्श में बने उस दरवाजे की ओर बढ़ना पड़ा।

जब से हुचांग हॉल में दाखिल हुआ और हॉल का एकमात्र दरवाजा बंद हुआ - तभी से हुचांग के मन में अजीब भय छाने लगा था। उसके दिमाग में अजीब-अजीब शंकाए उठ रही थीं...। वह सोच रहा था कि कहीं वह फिर उस कोठरी की तरह किसी अनोखी जगह न फंस जाए। दिल-ही-दिल में वह यह मान चुका था कि वह लोग किसी तिलिस्म में फंस चुके हैं...।

ऐसे अजीब चक्कर तिलिस्म के अलावा किसी दूसरी जगह नहीं हो सकते।

उसे इस बात का भी डर लगने लगा था - कि कहीं इस तिलिस्म में भटकते-भटकते ही उसकी यह जिंदगी खत्म न हो जाए...।

इसी तरह की शंकाओं में डूबा हुआ वह उस दरवाजे के पास पहुंच गया। उसने देखा कि दरवाजे की जड़ से संगमरमर की सफेद सीढ़ियां नीचे की ओर चली गई हैं। चार-पांच सीढ़ियों से ज्यादा सीढ़ियां उसे नजर नहीं आई, क्योंकि बाकी की नीचे के अंधकार में लोप हो गई थी। एक बार को तो हुचांग ने सोचा - इन सीढ़ियों पर उतरना चाहिए। किन्तु----- एकाएक उसके दिमाग में विचार आया कि अगर उसके नीचे पहुंचते ही यह रास्ता बंद हो गया और वह फिर - किसी अनोखी आफत में फंस गया तो क्या होगा? एक आफत से तो वह बड़ी मुश्किल से बचकर आया था और अब उसमें किसी और गहरे चक्कर में उलझने का मनोबल शेष न रह गया था...। अत: उसने फिर उन सीढ़ियों पर उतरने का विचार टाल दिया...।

मगर अब वह क्या करे?

इस वक्त यह सवाल उसके लिए सबसे बड़ा था। हॉल में और कुछ करने के लिए उसके पास था नहीं और फिर ऐसी स्थिति में कोई खाली बैठ नहीं सकता। हां, उसके पास एक काम था। वह यह कि किसी ढंग से वह इस हॉल से निकलने के बारे में कुछ उद्योग करे।

सम्भव है - किसी गुप्त ढंग से हॉल के अंदर से उस द्वार को खोला जा सके – जो कि उसके अंदर आते ही बंद हो गया था...।

अत: उसने यही करने की ठानी और पूरे हॉल में घूम-घूमकर दीवारों का अच्छी तरह से निरीक्षण किया। बंद दरवाजे के लोहे के किवाड़ों को भी उसने बहुत बारीकी से देखा, किन्तु कोई फायदा न निकला। सारे उद्योग करने के बाद भी वह हाल के उस बंद दरवाजे को खोलने में असमर्थ रहा, अब उसका यह काम भी पूरा हो चुका था।

एक बार पुन: वही सवाल उसके सामने मुंह बाए खड़ा था - अब वह इस हॉल में क्या करे?

उसके दिमाग में आया - कदाचित इन सीढ़ियों से उतरकर ही इस हॉल से बाहर निकलने का कोई रास्ता मिले...। मगर यह विचार भी बराबर उसके मस्तिष्क में खटक रहा था कि अगर मेरे नीचे उतरते ही वह रास्ता भी बंद हो गया तो..?

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