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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

आठवाँ बयान

 

''पानी...ऽ... ऽ... ऽ...!'' चंद्रप्रभा के होठों से एक कराह निकल पड़ी।

उसकी यह तड़पती हुई आवाज सुनकर रामरतन तुरन्त खड़ा हो गया। हालांकि रामरतन का जिस्म भी हड्डियों का ढांचा बनकर रह गया था! उसमें इतनी भी ताकत बाकी न बची थी कि वह ज्यादा घूम-फिर भी सकता -- लेकिन अपनी पत्नी की यह पुकार सुनकर उसके जिस्म में न जाने कहां से ताकत आ गई कि वह एकदम खड़ा हो गया। उसके चेहरे की अनेक हड्डियां चमक रही थीं। आंखें वीरान-सी और नाउम्मीद-सी लग रही थीं। दाढ़ी घास की तरह बढ़ गई थी। फौरन खड़े होकर उसने चंद्रप्रभा की ओर देखा।

अपनी पत्नी की यह हालत देखकर उसके जिगर में एक हूक-सी उठी। उसकी सुन्दर पत्नी चंद्रप्रभा का वह मुखड़ा जो हमेशा चमकता रहता था, इस वक्त बुझा-बुझा-सा था। रसीले होंठों का रस इस कैदखाने की चारदीवारी लूटकर ले गई थी। दोनों आंखों के नीचे काले धब्बे पड़े हुए थे। गदराए हुए जिस्म का गोश्त न जाने कहां गायब हो गया था।

कहने का मतलब सिर्फ इतना ही है कि इस कैदखाने ने दोनों की हालत दयनीय कर दी थी। जब से वे इस कैदखाने में लाए गए हैं, तब से आज तक उन्होंने जालिम दारोगा मेघराज के अलावा किसी दूसरे आदमी की सूरत नहीं देखी थी। पहले-पहल जब मेघराज ने उन्हें पकड़कर इस कैदखाने में डाला, उस वक्त इन दोनों को अपने सगे-सबन्धियों, साथियों और दोस्तों से यह उम्मीद थी कि उनमें से कोई जल्दी ही उन्हें इस कैदखाने से छुटकारा दिला देगा। मगर अब काफी वक्त गुजर जाने के बाद भी जब उन्हें अपने हमदर्द की शक्ल देखने को नहीं मिली तो वो नाउम्मीद हो गए और अब उन्हें महसूस होने लगा कि यह कैदखाना ही उनकी कब्र साबित होगा।

यह कैदखाना भी ऐसा था कि वे बाहर का कुछ भी हाल नहीं देख सकते थे। चारों ओर कोई दरवाजा ही न था। हां, एक दीवार में काफी ऊंचाई पर रोशनदान था जिसमें से दिन के किसी वक्त सूरत की रोशनी चमकती थी। दाहिनी तरफ की दीवार जो देखने में केवल दीवार-सी लगती थी, किन्तु चंद्रप्रभा और रामरतन जानते थे कि वहां एक दरवाजा है। उस जगह का थोड़ा-सा भाग हट जाता है, वहां ऊपर को जाने वाली कुछ सीढ़ियां नजर आती हैं। इस रास्ते के बारे में इसलिए मालूम था, क्योंकि मेघराज हमेशा उसी रास्ते से यहां आता था। उस दरवाजे को खोलने का कोई उपाय इस कैदखाने के अंदर से ही मिल जाए, इस बात की भरपूर कोशिश कई बार चंद्रप्रभा और रामरतन ने भी की थी, मगर उसमें नाकामयाब होकर रह गए थे। अंत में वे इस नतीजे पर पहुंचे थे कि रास्ते को केवल बाहर से ही खोला और बंद किया जा सकता है अंदर से नहीं। कोठरी में एक तरफ पानी से भरा हुआ एक घड़ा रखा रहता था।

रामरतन उसी की तरफ बढ़ा और घड़े में से उसके पास ही रखे एक गिलास में पानी लेकर चंद्रप्रभा के पास आया। चंद्रप्रभा अभी तक पानी-पानी कराह रही थी। पिछले कई दिनों से वह तेज बुखार में तप रही थी और बेसुध-सी होकर रह गई थी।

रामरतन ने उसे पानी पिलाया तो वह कुछ होश में आई थी।

धीरे-धीरे उसने आखें खोल दीं। उस वक्त तक रामरतन ने उसके सिरहाने बैठकर उसका सिर अपनी गोद में ले लिया था। कुछ ही देर बाद वह होश में आ गई, अभी वह कुछ बोलने के लिए अपने रसहीन होंठ खोलना ही चाहती थी कि रामरतन बोल पड़ा-

''घबरा मत, प्रभा.. तू घबरा मत.. सब ठीक हो जाएगा।''

''कुछ ठीक नहीं होगा-'' कुछ देर में खुद को सम्भालने के बाद चंद्रप्रभा वोली- ''हम दोनों के प्राण यहीं निकल जाएंगे, हमारा कोई भी मददगार यहां तक नहीं पहुंच सकेगा। वह कलमदान भी रखा ही रह जाएगा और ये दुष्ट दारोगा उमादत्त की जगह राजा बन जाएगा।''

''नहीं प्रभा, ऐसा नहीं हो सकता। हमारे साथी ऐसा नहीं होने देगे। वे लोग हमें आजाद कराने के चक्कर में जरूर होंगे। यहां वे आसानी से इसलिए नहीं पहुंच पा रहे होंगे, क्योंकि यह तिलिस्म है। लेकिन देर-सबेर उनमें से कोई किसी तरह यहां पहुंच जाएगा, हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए।'' चंद्रप्रभा की हिम्मत बढ़ाने के लिए रामरतन ने कह तो दिया, मगर हकीकत ये थी कि अपनी तरफ से वह खुद ही नाउम्मीद हो चुका था।

''नहीं, अब कोई हमें बचाने यहां नहीं आ सकेगा।'' चंद्रप्रभा ने टूटे लहजे में कहा।

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