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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

लालटेन की रोशनी की सरहद में ठीक सामने मेघराज खड़ा था। उन्हें सामने देखते ही मेघराज ने एक झटके के साथ म्यान से तलवार खींच ली और गरजा---- ''तुम...तुम यहां तक कैसे पहुंच गए...?''

वख्तावरसिंह ने भी बड़ी तेजी से चंद्रप्रभा को कन्धे से उतारा और गुर्राया--- ''हां पापी, मैं---अपने वच्चों को छुड़ाने आया था।''

''और तुम्हें यकीन है कि तुम इस तिलिस्म से इन्हें निकालकर ले जाओगे?''

“बेशक!'' कहते हुए एक झटके के साथ बख्तावरसिंह बने पिशाचनाथ ने भी तलवार खींच ली।

'तुम्हारा तो बाप भी यहां से नहीं निकल सकता।'' मेघराज ने गुर्राकर बख्तावरसिंह पर तलवार का वार किया- ''मैं इस तिलिस्म का दारोगा हूं..। यहां मेरी हुकूमत चलती है।''

''तभी तो मैं यहां तेरी जानकारी में आ गया...।'' कहते हुए बख्तावरसिंह बने पिशाच ने उसका वार अपनी तलवार पर रोका।

इसके बाद--उनमें घातक तलवारबाजी छिड़ गई।

हम समझते हैं कि हमें यहां यह लिखने की कोई खास जरूरत नहीं है कि आठवे बयान में जो बख्तावरसिंह चल रहा है, बह असल में पिशाचनाथ है! हमारे ख्याल से यह साधारण-सी बात तो हमारे पाठक समझ ही रहे होंगे, क्योंकि इसी भाग के सातवें बयान में ही वह भेद अच्छी तरह से खोल दिया गया है। इस बयान में बख्तावरसिंह बने पिशाचनाथ ने अभी तक जो भी कार्यवाही की है--वह सातवें बयान में पहले ही पिशाचनाथ और मेघराज की बातों में हम बता चुके हैं। अत: यहां इतना ही लिखना काफी है कि इस युद्ध के बीच में ही बख्तावरसिंह (पिशाचनाथ) ने अपना हाथ बटुए में डाला और एक तरह की बुकनी गेघराज की ओर उछाल दी।

दो बार छींककर दारोगा जमीन पर गिरकर बेहोशी का नाटक करने लगा।

पाठक यह समझते ही होंगे कि असल में वह बुकनी बेहोशी की नहीं है-- बल्कि यह सारी कार्यवाही रामरतन और चंद्रप्रभा को धोखा देने के लिए की जा रही है। मेघराज के गिरते ही वख्तावरसिंह बोला- ''चलो।''

'नहीं पिताजी..!'' रामरतन बोला - ''उससे हमें अभी बदला लेना है...! इस दुष्ट को यही मार डालना ठीक है...।''

''बदला लिया जाएगा, लेकिन इसे यहां मारकर नहीं।'' बख्तावरसिंह बोला-- 'भरे दरबार में उमादत्त के सामने इसे बेइज्जत किया जाएगा। अब यह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता - वह कलमदान तुम्हारे पास है ही -- उसी के जरिए इसके पाप का भांडा सबके सामने फोड़ा जाएगा।''

धीरे से चौंककर रामरतन ने पूछा-- ''आपको कलमदान के बारें में कैसे पता?''

''बाहर निकलकर तुमसे मुख्तसर में सब हाल कहेंगे।'' बख्तावरसिंह ने उनसे कहा- ''फिलहाल यहां से बाहर निकलना है।''

''लेकिन इसे गठरी बनाकर अपने साथ तो ले ही चलें।'' रामरतन ने कहा।

'कोई फायदा नहीं रामरतन?'' बख्तावरसिंह बोला- ''अभी तुम्हें बाहर का कुछ भी हाल पता नहीं हैं। जिन दिनों तुम कैद में रहे हो, उन दिनों बाहर बहुत कुछ हुआ है। यह तो इस वक्त वैसे भी हमारी मुट्ठी में है - चलो!''

और इस तरह से वह उन दोनों को साथ लेकर तिलिस्म से बाहर गया।

बाहर आकर उसने बहुत जोर से जाफिल बजाई। एक तरफ के अन्धकारमय भाग से दो घोड़े दौड़ते हुए उनके पास आ गए। एक घोड़े पर रामरतन और दूसरे पर बख्तावरसिंह के साथ चंद्रप्रभा बैठी---- और वे दोनों घोड़े जंगल की ओर रवाना हो गए।

जंगल में काफी दूर निकल जाने के बाद रामरतन ने बख्तावरसिंह से सवाल किया- ''आपको तो राजा उमादत्त ने कैद में डाल दिया था, फिर आप वहां से कैसे निकले? किसी की मदद से या खुद अपने उद्योग से?

''अपने ही उद्योग से निकला।'' बख्तावरसिंह बने हुए पिशाचनाथ ने कहा और इससे आगे उसने बख्तावरसिंह का उमादत्त की कैद से भागने का वह किस्सा जो हम पहले भाग के नौवें बयान में ही लिख आए हैं - कह सुनाया...।

पाठक समझते ही होंगे - कि यह किस्सा उसे मेघराज ने बताया है। खुद को पूरी तरह बख्तावरसिंह साबित करने के लिए पिशाचनाथ ने बख्तावारसिंह के वे सारे कारनामे, जो उसने कैद से निकलते वक्त किए थे, यानी रूपलाल की दुर्गति, धुएं के जरिए बहुत से ऐयारों को बेहोश करना, विक्रमसिंह की लड़की कुन्ती और बीवी चंदारानी को गिरफ्तार करना तक सुना दिया। इतना सबकुछ सही-सही सुनाने के बाद वह बोला- ''यह तो तुम भी समझ ही गए हो कि असल मुजरिम मेघराज ही है। विक्रमसिंह ऐयार भी राजा उमादत्त के खिलाफ मेघराज से मिला हुआ है। इसी सबब से मैंने उसकी लड़की और बीवी को कैद कर रखा है। अब बस उस कलमदान के जरिए इन दुष्टों का नाश ही कर दिया जाए।''

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