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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

इस तरह से -- क्योंकि हम दोनों भाइयों के दिल में उठने वाले विचार एक ही थे - इसलिए हमें किसी तरह की परेशानी नहीं हुई। हमने आपस में विचार करके यह निर्णय किया कि हम दिखावे के लिए दलीपसिंह के ऐयार बनकर ही काम करते रहें और अंदर-ही-अंदर तिलिस्म तोड़ने की कोशिश करें। रक्तकथा के चक्कर में वहां की रियासतों के राजा आपस में लड़ते रहेंगे। हमारी तरफ किसी का ख्याल तक नहीं जाएगा। यह तय करके हमने उसी के मुताबिक काम करने की ठानी। मैं दलीपसिंह के बुलावे पर महल चला गया। उस दिन उसने मुझे खास तौर से गौरवसिंह इत्यादि का पता लगाने का हुक्म दिया। उस सारे दिन मैं जंगल में दलीपसिंह के दूसरे ऐयारों के साथ बालादवी करता रहा। जिस वक्त मैं रात को घर पहुंचा, तब रात का दूसरा पहर शुरू हो चुका था। मैं घर में पहुंचा तो वहां अंधेरा था। अपने बटुए से मोमबत्ती निकलकर मैंने चकमक से जलाई और अंदर दाखिल हो गया। प्रेतनाथ को भैया-भैया कहकर कई बार आवाज दी, लेकिन सन्नाटे के अलावा कहीं से किसी ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया। इसी तरह आवाज देता, मैं तरद्दुद में फंसा उस कमरे में पहुंच गया, जिसमें प्रेतनाथ सोता था। मैंने मोमबत्ती की रोशनी में देखा - प्रेतनाथ अपनी खाट पर पड़ा था। लेकिन वह प्रेतनाध कहां था। वह तो लाश थी - प्रेतनाथ की लाश!

अपने बड़े भाई की लाश देखकर मेरा बुरा हाल हो गया -- किंतु फिर भी मैंने खुद को संभाला और आगे बढ़ा। मेरे भाई के सीने में एक लम्बी कटार जब्त थी। कटार का पूरा-का-पूरा फल उसके दिल में धंसा हुआ था। मैंने नब्ज टटोली तो वह शांत पड़ी थी।

प्रेतनाथ मर चुका था।

उसी कटार की मूठ में एक कागज लिपटा हुआ था। मैंने वह कागज पढ़ा, लिखा था-

पिशाचनाथ, तुम अपनी आंखों से अपने बड़े भाई की लाश देख रहे हो। यह इस बात का नतीजा है कि तुम दोनों भाइयों के दिल में बेईमानी आई। रक्तकथा पर खुद ही कब्जा कर तुम तिलिस्म के मालिक बनने के ख्वाब देखने लगे। तुम ये भूल गये कि राजा, राजा ही होता है और ऐयार, ऐयार ही। ऐयार अगर राजा बनने की कोशिश करे तो वह कभी नहीं बन सकता। हम बहुत पहले से ही जानते थे कि रक्तकथा तुम्हारे पास है, हमने उस वक्त तक तुम्हें नहीं छेड़ा, जब तक हमें लगा कि तुम्हारे मन में खोट नहीं है...। किंतु आज जो बातें तुम दोनों में हुई, उससे साफ हो चुका है कि तुम्हारे मन में बेईमानी आ चुकी है। उसी का नतीजा है कि तुम अपने बड़े भाई प्रेतनाथ की लाश देख रहे हो। तुम्हारी जानकारी के लिए हम तुम्हें ये भी बता दें कि रक्तकथा भी हम यहां से ले जा रहे हैं। अगर तुमने यह घटना किसी को बताने की कोशिश की तो तुम्हारा अंजाम भी प्रेतनाथ का-सा ही होगा। सावधान! हम हमेशा तुम्हारे आस-पास रहेंगे। खुद को नेकनीयत करो, वर्ना....।

''बस--उस कागज पर इतना ही लिखा था।'' पिशाचनाथ ने अर्जुनसिंह को बताया।

''क्या वाकई प्रेतनाथ का हत्यारा रक्तकथा भी ले गया?'' अर्जुनसिंह ने सवाल किया।

'हां...!'' पिशाचनाथ ने जवाब दिया- ''जिस वक्त मैं वहां पहुंचा, जहां हमने रक्तकथा हिफाजत से रखी थी, वहां से वह गायब थी।''

 

० ० ०

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