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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

बारहवाँ बयान

 

''वे चारों घुड़सवार मुझे लेकर सीधे दलीपसिंह के महल में पहुंचे।'' अलफांसे ने आगे बताना शुरू किया- ''उस वक्त राजा दलीपसिंह अपने शयन-कक्ष में ही थे...। मैं अभी तक बेहोशी का नाटक कर रहा था...। मुझे शयनकक्ष के फर्श पर डाल दिया गया।

'क्या यही है इस जन्म का अलफांसे और पिछले जन्म का शेरसिंह?' दलीपसिंह ने घुड़सवारों से पूछा।

'जी हां...।' उनमें से एक ने जवाब दिया- 'इसे बेहोश करके हमें सौंपकर दारोगा सा'ब चमनगढ़ की ओर चले गए...। जाते-ज़ाते कह गए थे कि ये आदमी शेर तो शेर, गीदड़ भी नहीं निकला। कहते थे कि हकीकत में हमें कोई ऐसा काम सौंपा जाए जिसे कोई दूसरा न कर सके।'

दलीपसिंह मुहब्बत-भरे तरीके से मुस्कराया और बोला- 'हो सकता है कि कोई ऐसा इत्तफाक लग गया हो कि यह आराम से दारोगा के हाथ लग गया हो, वर्ना सुनते हैं कि इस जमाने में शेरसिंह जैसा कोई दूसरा ऐयार नहीं है।'

उनके बीच इसी तरह की बातें होती रहीं और मैं आराम से फर्श पर पड़ा सब कुछ सुनता रहा। अंत में दलीपसिंह ने उन्हें हुक्म दिया- 'इसे यहां होश में लाना सांप को दूध पिलाने के बराबर है। इसे तहखाने में ले जाओ और इसकी कोठरी के चारों ओर पहरा दो।'

'जो हुक्म।' कहने के साथ ही उन्होंने मुझे उठाया और चल दिए। मैं अभी तक चुप था। मैं अपने दुश्मनों के घर में आ चुका था। अब ज्यादा देर चुप रहना किसी भी तरह मेरे काम का न था। अब मुझे अपनी असलियत पर आना था, केवल उचित स्थान और मौके की तलाश थी। और वह मुझे तहखाने की उस सुरंग में मिला जो सीधी किसी कोठरी में जाती थी।

उनमें से एक घुड़सवार ने मुझे अपने कंधे पर डाल रखा था-मैंने धीरे-से हाथ बढ़ाकर सबसे पहले उसके ही गले पर उभरी दो नसों को दबा दिया। उसके गले से दर्दयुक्त कराह निकली और फिर वह बुरी तरह से चीखने लगा।

यही सोचकर यह सब करने के लिए मैंने यह जगह चुनी थी - क्योंकि मैं जानता था कि उस सुरंग में गूंजने वाली चीख ऊपर से नहीं सुनी जा सकती। उसके चीखते ही उसके बाकी तीन साथी चौंके। मगर उस वक्त तक मैं उसके कंधे से उछलकर उनके सामने आ खड़ा हुआ था। वे तीनों मुझे जिन्न की तरह अपने सामने देखकर घबरा गए। जिसके गले की मैंने नसें दबाई थीं, उसके गले से अब किसी तरह की आवाज न निकल रही थी, बल्कि वह एक कोने में बैठा रो रहा था। जैसे उसे मुझमें किसी परह की कोई दिलचस्पी न हो और चुप बैठकर रोना ही सबसे बड़ा काम हो।

मेरे सामने खड़े तीनों इन्सानों ने अपनी-अपनी म्यान से तलवारें खींच लीं।

मैं एकदम पीछे हटा और उन्हें किसी भी तरह का वार करने का मौका दिए बिना मैं कोने में बैठे उस रोते हुए आदमी की तरफ झपटा और मैंने उसकी तलवार अपने हाथ में ले ली। उसने मेरा विरोध करना चाहा - किंतु मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला।

अब - हम चारों में तलवारबाजी की जंग छिड़ गई। उस जंग को व्यर्थ ही ज्यादा लम्बी न करके मैं यही कह सकता हूं कि पांच मिनट बाद वे तीनों भी पहले घुड़सवार की भांति ही विभिन्न कोनों में बैठे हुए आराम से रो रहे था। उनमें से किसी के भी गले से कोई आवाज नहीं निकल रही थी। दरअसल मैंने उनके गले की ऐसी दो नसें एक खास ढंग से दबाकर बंद कर दी थीं, जिनसे बोला और रोया जाता है।

जब तक वे नसें साधारण अवस्था में नहीं आ जातीं, तब तक इन्सान बेकार है।

मैंने उनमें एक को ठीक किया और उससे पूछा- 'सुरेंद्रसिंह महल में इस वक्त कहां मिलेंगे?'

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