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देवकांता संतति भाग 5

वेद प्रकाश शर्मा

प्रकाशक : राजा पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :348
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2056

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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...

'हमारी समझ में नहीं आ रहा है शेरसिंह, कि तुम क्या कह रहे हो?' सुरेद्रसिंह भयभीत हो उठे थे।

'मेरे कहने का मतलब - अभी तेरी समझ में नहीं आएगा।' मैंने कहा- 'दो-एक दिन में सबकुछ समझ में आने लगेगा। इस वक्त तू केवल इतना ही समझ ले कि मैं तुझे मारूंगा नहीं, बल्कि जब तक तू खुद नहीं मर जाएगा, तब तक मारता ही रहूंगा और तुझसे बदला लेता रहूंगा...।' यह कहते हुए मैंने सुरेंद्रसिंह के सिरहाने रखी कटार उठाई और सुरेंद्रसिंह की ओर बढ़ा।

'नहीं...नहीं....!' सुरेंद्रसिंह सहमकर पीछे हटता हुआ बोला- 'मुझे मत मारो - मैं तुम्हारे पिता के समान हूं..!'

उसकी यह मरियल आवाज सुनकर खुद-ब-खुद ही मेरे होंठ मुस्करा उठे। उसकी तरफ बढ़ता हुआ मैं बोला-- 'चिंता मत कर - तुझे मैं जान से नहीं मारूंगा। मेरे इस कमरे से बाहर जाने के बाद भी तू जिंदा ही होगा। आज तू मरेगा बिल्कुल नहीं - बल्कि आज से तेरी मौत की शुरुआत होगी...! सारी दुनियां - शेरसिंह के इस भयानक प्रतिशोध को देखेगी। फिर कोई जालिम राजा अपने शेरसिंह जैसे ऐयार भाई और उसकी पत्नी की हत्या नहीं करेगा।'

'लेकिन तुम...।'

'बाकी बातों का जवाब कल आने पर दूंगा।' उसकी बात बीच में ही काटकर मैंने कहा और अपने हाथ में दबी कटार उसकी नाक की जड़ पर रखकर जोर से खींच दी। उसके मुंह से एक चीख निकली और नाक उसके चेहरे से अलग होकर फर्श पर गिर गई...।

थोड़ी देर तक फर्श पर नाक फुदकती रही - इसके बाद शांत हो गई।

सुरेंद्रसिंह का चेहरा खून से लथपथ हो चुका था..। वह असहनीय दर्द से तड़प रहा था। उसकी हर चीख मेरे दिल को अजीब-सी शांति पहुंचा रही थी। उसकी नाक को उठाकर मैंने अपनी जेब में डाल लिया। इससे पहले कि उसकी चीखें किसी और को जगा सकें - मैंने उसके मुंह में बहुत से कपड़े ठूंस दिए। फिर वहां बैठकर आराम से खत लिखा और खत को वहीं छोड़कर...।' अलफांसे का बयान बीच में ही कट गया। - ''लेकिन जब आपके पास कलम-दवात नहीं थी तो आपने खत...?''

''सुरेंद्रसिंह के कमरे में उसकी ही कलम-दवात और कागज का प्रयोग किया था...।'' अलफांसे ने गुरुवचनसिंह की बात काटकर कहा- ''खत को वहीं छोड़ा, कमरे से बाहर आया -- आती बार सुरेंद्रसिंह की वह कटी हुई नाक मैं राजा दलीपसिंह के कमरे में डाल आया। हालांकि मेरे पास इतना वक्त था कि मैं वहाँ बहुत बखेड़ा खड़ा कर सकता था -- किंतु कुछ न करके मैं सीधा यहां के लिए रवाना हो गया। दलीप नगर से यहां तक क्योंकि मुझे पैदल आना पड़ा इसी सबब से यहां पहुंचते-पहुंचते देर हो गई।''

'उस खत में आप क्या लिखकर आए हैं?'' गुरुवचनसिंह ने पूछा।

अभी अलफांसे ने बताने के लिए अपना मुंह खोला ही था कि गौरवसिंह बोल पड़ा था-- ''लो.. गणेशदत्त चले आ रहे हैं...।''

सबने उस तरफ देखा - वाकई ऐयार गणेशदत्त बहुत तेज-तेज कदमों से उनकी तरफ आ रहा था...। पाठक इस ऐयार से आप पहले भी मिल चुके हैं, इसलिए यहां इसका ज्यादा परिचय देने की जरूरत नहीं है। उसके आने के ढंग से ही पता लग रहा है कि वह कोई बहुत ही जरूरी खबर ला रहा है। पास आकर उसने सबको सलाम बजाया और बोला- ''एक बहुत ही खास खबर लाया हूं..!''

''क्या खबर है?'' गुरुवचनसिंह ने पूछा।

'अभी-अभी उमादत्त के कुछ ऐयार राजनगर से लौटे हैं। उनके साथ कुछ कैदी भी हैं।'' गणेशदत्त ने कहा- ''उनमें से एक कैदी का नाम विकास है और कैदियों में एक बंदर भी है। वंदना को भी उन्होंने कैद कर रखा है।''

''विकास।'' अलफांसे चिहुंक उठा- ''क्या वह भी यहां आ चुका है?''

''तुम्हें यह खबर कहां से मिली...?'' गौरवसिंह ने कहा- ''जल्दी से सारा हाल मुख्तसर में कहो।''

।।समाप्त।।

 

... आगे जानने के लिए देवकांता संतति भाग-6 पढ़ें।


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