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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

आशा ने गौर किया, महेंद्र पहले से कुछ दुबला ही हो गया है। चेहरा पीला पड़ गया है, आँखों में कैसी एक तेज चमक है। कोई भीतरी भूख मानो आग की जीभ से उसे चाटे जा रही हो। आशा पीड़ित हो कर सोचने लगी - 'स्वामी अपने दुरुस्त नहीं रहे यहाँ, मैं क्यों काशी चली गई। पति दुबले हो गए और खुद वह तगड़ी हो गई' - इसके लिए उसने अपनी सेहत को धिक्कारा।

महेंद्र देर तक सोचता रहा कि अब कौन-सी बात की जाए। बोला - 'चाची मजे में हैं?'

उत्तर में कुशल-क्षेम पा कर पूछने को दूसरी बात मन में लाना उसके लिए मुहाल हो गया। पास ही एक फटा-पुराना अखबार पड़ा था, उसे उठा कर वह अनमना-सा पढ़ने लगा। आशा सिर झुकाए सोचने लगी, 'इतने दिनों के बाद भेंट हुई, लेकिन उन्होंने मुझसे ठीक से बात क्यों नहीं की? बल्कि लगा, मेरी ओर उनसे ताकते भी न बना।'

महेंद्र कॉलेज से लौटा। जल-पान करते समय राजलक्ष्मी थीं। आशा भी घूँघट निकाले पास ही दरवाज़ा पकड़े खड़ी थी - लेकिन और कोई न था।

राजलक्ष्मी ने परेशान-सी हो कर पूछा - 'आज तेरी तबीयत कुछ खराब है क्या, महेंद्र?'

जैसे ऊब गया हो, महेंद्र बोला - 'नहीं, ठीक है।'

राजलक्ष्मी - 'फिर तू कुछ खा क्यों नहीं रहा है?'

महेंद्र फिर खीझे हुए स्वर में बोला - 'खा तो रहा हूँ - और कैसे खाते हैं?'

गर्मी की साँझ। बदन पर एक हल्की चादर डाल महेंद्र छत पर इधर-उधर घूमने लगा। बड़ी उम्मीद थी कि इधर जो पढ़ाई नियम से चल रही थी, वह वैसी ही चलेगी। 'आनंदमठ' लगभग खत्म हो चला है। गिने-चुने कुछ अध्याय रह गए थे। यों जितनी भी निर्दयी हो विनोदिनी, ये बाकी अध्याय वह जरूर पढ़ कर सुनाएगी। लेकिन शाम हो गई और महेंद्र को कुछ हासिल न हुआ तो वह सोने चला गया।

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