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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

बिहारी चला गया। अन्नपूर्णा की आँखें छलछला गईं। महेंद्र का अमंगल न हो, इस आशंका से उन्होंने आँखें पोंछ लीं। बार-बार दिल को दिलासा दिया- 'जो हुआ, अच्छा ही हुआ।'

और इस तरह राजलक्ष्मी-अन्नपूर्णा-महेंद्र में किल-किल चलते-चलते आखिर विवाह का दिन आया। रोशनी हँसती हुई जली, शहनाई उतनी ही मधुर बजी जितनी वह बजा करती है। यानी उसके दिल के साथ कोई न था।

सज-सँवर कर लज्जित और मुग्ध-मन आशा अपनी नई दुनिया में पहली बार आई। उसके कंपित कोमल हृदय को पता ही न चला कि उसके इस बसेरे में कहीं काँटा है। बल्कि यह सोच कर भरोसे और आनंद से उसके सारे ही संदेह जाते रहे कि इस दुनिया में एकमात्र माँ-जैसी अपनी मौसी के पास जा रही है।

विवाह के बाद राजलक्ष्मी ने कहा - 'मैं कहती हूँ, अभी कुछ दिन बहू अपने बड़े चाचा के घर ही रहे।'

महेंद्र ने पूछा - 'ऐसा क्यों, माँ?'

माँ ने कहा - 'तुम्हारा इम्तहान है। पढ़ाई-लिखाई में रुकावट पड़ सकती है।'

महेंद्र बोला - 'आखिर मैं कोई नन्हा-नादान हूँ! अपने भले-बुरे की समझ नहीं मुझे?'

राजलक्ष्मी- 'जो हो, साल-भर की ही तो बात है।'

महेंद्र ने कहा - 'इसके माँ-बाप रहे होते, तो मुझे कोई एतराज न होता लेकिन चाचा के यहाँ इसे मैं नहीं छोड़ सकता।'

राजलक्ष्मी (अपने आप)- 'बाप रे आप ही मालिक, सास कोई नहीं! कल शादी और आज ही इतनी हमदर्दी! आखिर हमारी भी तो शादी हुई थी। मगर तब ऐसी बेहयाई न थी।'

महेंद्र ने दृढ़ता से कहा - 'तुम बिलकुल मत सोचो, माँ! इम्तहान में कोई फर्क नहीं पड़ेगा।'

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