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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

चौंक कर आशा ने उधर देखा। वह बोला, 'जरा लाओ तो किताब देखूँ, कहाँ पढ़ रही हो? आशा को लगा जाँच होगी और उसमें पास होने की उम्मीद कम ही थी। आगे-आगे पाठ और पीछे सपाट, कुछ यही हाल था। एक हाथ से उसकी कमर को कस कर लपेट कर दूसरे हाथ से किताब पकड़ कर पूछा - 'आज कितना पढ़ गई- देखूँ तो।'

जितनी पंक्तियों पर वह सरसरी निगाह फेर गई थी, दिखा दिया। महेंद्र ने अचरज से कहा - 'ओह, इतना पढ़ गई! मैंने कितना पढ़ा, बताऊँ?'

और अपनी किताब के किसी अध्याय का शीर्षक-भर दिखा दिया। अचरज से आँखें बड़ी-बड़ी करके आशा ने पूछा - 'तो इतनी देर से कर क्या रहे थे?'

उसकी ठोढ़ी पकड़ कर महेंद्र ने कहा - 'मैं किसी के बारे में सोच रहा था; और जिसके बारे में सोच रहा था, वह दीमक का वर्णन पढ़ने में मशगूल थी!'

इस बे-वजह शिकायत का सटीक जवाब आशा दे सकती थी, लेकिन प्रेम की प्रतियोगिता में झूठी हार मान लेनी पड़ती है।

ऐसे ही एक रोज महेंद्र मौजूद नहीं था। मौका पा कर आशा पढ़ने बैठ गई कि अचानक कहीं से आ कर उसने आँखें मींच लीं और किताब छीन कर कहने लगा, 'बे-रहम, मैं नहीं होता हूँ तो तुम मेरे बारे में सोचती तक नहीं। किताबों में डूब जाती हो!'

आशा ने कहा - 'तुम मुझे गँवार बनाए रखोगे?'

महेंद्र ने कहा - 'तुम्हारी कृपा से अपनी ही विद्या कौन आगे बढ़ रही है!' बात आशा को लग गई। फौरन चल देने का उपक्रम करती बोली - 'मैंने तुम्हारी पढ़ाई में ऐसी कौन-सी रुकावट डाली है?'

उसका हाथ थाम कर महेंद्र ने कहा - 'यह तुम नहीं समझोगी। मुझे भूल कर तुम जितनी आसानी से पढ़-लिख लेती हो, तुम्हें भूल कर उतनी आसानी से मैं नहीं पढ़-लिख पाता।'

शिक्षक ही जब शिक्षा की सबसे बड़ी बाधा हो तो छात्रा की क्या मजाल कि विद्या के वन में राह बना कर चल सके। कभी-कभी मौसी की झिड़की याद आती और चित्त विचलित हो जाता। सास को देख कर शर्म से गड़ जाती लेकिन सास उसे किसी काम को न कहती। अपने मन से उनकी मदद करना चाहती तो वह पढ़ाई के हर्जे की बात कह कर वापस भेज देती।

आखिर अन्नपूर्णा ने आशा से कहा - 'तेरी जो पढ़ाई चल रही है, वह तो देख ही रही हूँ, महेंद्र को क्या डॉक्टरी का इम्तहान न देने दोगी?'

यह सुन कर आशा ने अपने जी को कड़ा किया। महेंद्र से कहा - 'तुम्हारे इम्तहान की तैयारी नहीं हो पा रही है। आज से मैं नीचे मौसी के कमरे में रहा करूँगी।'

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