उपन्यास >> आंख की किरकिरी आंख की किरकिरीरबीन्द्रनाथ टैगोर
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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....
बहुत थोड़े में ही महेंद्र की आँखें भर आतीं। चाची को देख कर उसकी आँखें छलछला उठीं। करीब जा कर स्निग्ध स्वर से बोला - 'चाची!'
अन्नपूर्णा ने हँसने की कोशिश की। कहा, 'आ बेटे, बैठ!'
महेंद्र का मन भीगा हुआ था। चाची को दिलासा देने के विचार से वह अचानक बोल उठा, 'अच्छा चाची, तुमने अपनी भानजी की बात बताई थी, एक बार दिखा सकती हो?' कह कर महेंद्र डर गया।
अन्नपूर्णा हँस कर बोलीं - 'क्यों? शादी के लड्डू फूट रहे हैं बेटा!'
महेंद्र झट-पट बोल उठा - 'नही-नहीं, अपने लिए नहीं, मैंने बिहारी को राजी किया है। लड़की देखने का कोई दिन तय कर दो!'
अन्नपूर्णा बोलीं - 'अहा, उस बेचारी का ऐसा भाग्य कहाँ? भला उसे बिहारी-जैसा लड़का नसीब हो सकता है!'
महेंद्र चाची के कमरे से निकला कि दरवाज़े पर माँ से मुलाकात हो गई। राजलक्ष्मी ने पूछा, 'क्यों रे, क्या राय-मशविरा कर रहा था?'
महेंद्र बोला - 'राय-मशविरा नहीं, पान लेने गया थ।?'
माँ ने कहा - 'तेरा पान तो मेरे कमरे में रखा है।'
महेंद्र ने कुछ नहीं कहा। चला गया।
राजलक्ष्मी अंदर गई और अन्नपूर्णा की रुलाई से सूजी आँखें देख कर लमहे-भर में बहुत सोच लिया। छूटते ही फुँफकार छोड़ी - 'क्यों मँझली बहू, महेंद्र के कान भर रही थी, है न?'
और बिना कुछ सुने तत्काल तेजी से निकल गईं।
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