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उपन्यास >> आंख की किरकिरी

आंख की किरकिरी

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :55
मुखपृष्ठ : ebook
पुस्तक क्रमांक : 3984

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नोबेल पुरस्कार प्राप्त रचनाकार की कलम का कमाल-एक अनूठी रचना.....

'...बैरे से कह दिया था! खुद कर लेतीं तो कौन-सा गुनाह हो जाता! कभी जो तुमसे कोई काम हो!'

आशा पर मानो गाज गिरी। ऐसी झिड़की उसे कभी नहीं सुननी पड़ी। उसकी जबान पर या मन में यह जवाब न आया कि मेरी इस जहालत के तुम्हीं तो जिम्मेदार हो। उसे तो मालूम ही न था गृह-कार्य की कुशलता अभ्यास के अनुभव से आती है। वह सोचा करती थी कि अपनी अयोग्यता और निर्बुद्धिता के कारण ही मैं कोई भी काम ठीक से नहीं कर पाती। जब-जब महेंद्र ने विनोदिनी की उपमा दे कर आशा को धिक्कारा है, उसने उसे विनम्रता से स्वीकारा है।

कभी-कभी आशा बीमार सास के आस-पास चक्कर काटती, कभी-कभी शरमायी-सी दरवाजे के पास खड़ी हो जाती। उसकी इच्छा होती कि अपने आपको वह गृहस्थी के उपयुक्त बनाए, कुछ काम करके दिखाए, परंतु उससे कोई भी कैसी मनोवेदना उसमें भीतर-ही-भीतर बढ़ रही थी, लेकिन अपनी अस्पष्ट व्यथा और अजानी आशंका को वह साफ समझ नहीं पाती। वह खूब महसूस कर रही थी कि उसे चतुर्दिक का सब कुछ बर्बाद हो रहा है। लेकिन यह सब कैसे बना था और नष्ट ही कैसे हो रहा है और कैसे इसका प्रतिकार हो - वह नहीं जानती। रह-रह कर यही कहने को जी चाहता कि मैं अयोग्य हूँ, - मेरी मूढ़ता की तुलना नहीं हो सकती।

अब तक तो पति-पत्नी दोनों घर के एक कोने में दुबके कभी बोल-बतिया कर कभी यों ही चुपचाप मजे में दिन बिताते रहे। मगर जब विनोदिनी न होती तो आशा के साथ अकेले बैठ कर महेंद्र बात ही न कर पाता।

महेंद्र ने बैरे से पूछा - 'किसकी चिट्ठी है?'

'बिहारी बाबू की।'

'किसने दी है?'

'बहूजी (विनोदिनी) ने।'

'देखूँ जरा।' चिट्ठी ले ली। जी में आया, फाड़ कर उसे पढ़े। उलट-पलट कर देखा, फिर बैरे की तरफ फेंक दिया।

बरामदे में कुछ देर चहलकदमी करके कमरे में आ कर महेंद्र ने देखा, कमरे की दीवार पर टँगी एक तस्वीर की डोरी टूटने वाली है और इसकी वजह से तस्वीर टेढ़ी हो गई है। आशा को डाँटते हुए महेंद्र ने कहा - 'तुम कुछ भी नहीं देखतीं। इस तरह सारी चीजें बर्बाद हो रही हैं।'

दमदम के फूलों का जो गुच्छा बना कर विनोदिनी ने पीतल की फूलदानी में सजाया था, वह आज भी वहीं सूखा पड़ा है। महेंद्र कभी इन बातों पर गौर नहीं करता था, आज उसकी निगाह उस पर पड़ी। बोला - 'जब तक विनोदिनी आ कर फेंक न दे, यह पड़ा ही रहेगा।'

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